सुदूर अनजान भूभागों की यात्रायें मुझे हमेशा आकर्षित करतीं रही हैं .नई जगहों को देखना, नये-नये लोगों से खान-पान, रहन-सहन और जीवन चर्या के पूरे वैविध्य के साथ मिलना और अनदेखे अपरिचित द्वीपों में नये मित्र बनाना मुझे सदा से प्रिय रहा है.इसलिये हर यात्रा मेरे लिये विशिष्ट अर्थ रखती है पर योरोप की पहली यात्रा कई तरह से यादगार बन गयी . हांलाकि यात्रा काफी छोटी थी,पन्द्रह बीस दिनों मेंआप किसी जीवन पद्धति को समझने का भ्रम नहीं पाल सकते,पर एक खुले समाज को समझने के लिये, अगर आपकी आंखों पर पूर्वाग्रह की बहुत मोटी पट्टी न बंधी हो ,इतना समय कम भी नहीं था .मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि योरोपीय समाज को लेकर मेरे मन में बहुत से पूर्वाग्रह थे .औसत भारतीय की तरह मैं मानता था कि योरोपीय समाज पूरी तरह से यांत्रिक और सुखवादी है. परिवार जैसी संस्था का कोई मतलब नहीं है .लोग अपने में मस्त हैं और अपने लिये जीतें हैं. उनके बरक्स भारतीय संस्कृति परमार्थ और अध्यात्म वादी है.परिवार हमारी बहुत पवित्र संस्था है . और हम तो जीते ही दूसरों के लिये हैं .बहुत सी बातें थीं जो इस यात्रा की शुरूआत में मेरे मन में गहरे पैठी थीं .मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई हिचक नहीं है कि मुझे अपनी बहुत सी धारणाओं में संशोधन करना पडा.इन सबके बारे मे कभी विस्तार से लिखूंगा.
यहां इस लेख में मैं सिर्फ एक छोटी सी मुठभेड क़ा जिक्र करना चाहता हूं जो हिन्दू कठमुल्लों से बरमिंघम में हुयी थी.
बरमिंघम में बहुत दिलचस्प अनुभव हुआ.वहां प्रवासी भारतीयों की एक संस्था है गीतांजली बहुभाषी समाज.बहराइच के मूल निवासी कृष्ण कुमार जी ने वर्षों पहले इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इन्डिया में कैंसर से जूझ रही किशोरी की कविताएँ पढक़र उसके नाम से गीतांजली बहुभाषी समाज की स्थापना की थी और धीरे धीरे पिछले एक दशक में यह बरमिंघम में रहने वाले , अलग अलग भाषायें बोलने वाले भारतीयों की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों की प्रतिनिधि संस्था बन गयी है. गीतांजली बहुभाषी समाज ने हमें निमंत्रित किया था .दोपहर बाद हमारा कार्यक्रम था और देर रात तक हमें लन्दन वापस लौटना था. भारत के काउंसलेट जनरल में कार्यक्रम था .एक बडे से हाल में 300 से कुछ अधिक स्त्री पुरूष इकट्ठे थे . भारत की सभी बडी भाषाओं का प्रतिनीधित्व था. उपस्थित लोगों में ज्यादातर डाक्टर , वकील या चार्टड एकाउण्टेंट जैसे पेशों के लोग थे ,पहली या दूसरी पीढी क़े प्रवासी भारतीय थे जिन्होंने अपने हाड तोड पहली परिश्रम और लगन से ब्रितानी समाज में अपनी एक हैसियत बनायी थी.
ब्रिटेन की स्वास्थ्य या शिक्षा जैसी सेवायें भारतीयों के बल पर टिकी हुयीं हैं -यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी .मौजूदा लोगों में ज्यादातर ने ब्रितानी नागरिकता ले ली थी, कुछ तो पैदायशी अँग्रेज थे.
पिछले कुछ दिनों में प्रवासी भारतीयों से जो बात चीत हुयी थी उससे एक बात पूरी तरह समझ में आ गयी थी .देश छोडने या कई बार पहला मौका मिलते ही भारतीय नागरिकता छोडने वाले कहीं बहुत गहरे भारतीय बने रहने की छटपटाहट से ग्रस्त थे. यह एक ऐसी भावना थी जिसे भाषा में वर्णन करना थोडा मुश्किल है पर यह थी बडी ज़बरदस्त .लोग 'देश' में व्याप्त भ््राष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण से चिंतित थे और विकास की धीमी गति उनके मन में आक्रोश पैदा कर रही थी. वे भारत को दुनियां का सबसे शक्तिशाली देश देखना चाहते थे.इन सबके बीच एक दिलचस्प बात यह थी कि वे मुख्य भूमि से दूर पहुँच कर ज्यादा हिन्दू हो गये थे.यह अनुभव मुझे कुछ वर्ष पहले उषा प्रियम्वदा से बात करके भी हुआ था. वे दिल्ली आयी हुयीं थीं और निर्मला जैन के यहाँ एक डिनर में उनकी बातें सुनकर मुझे और मेरे जैसे कई लोगों को लगा था कि वे विश्व हिन्दू परिषद के किसी कार्यकर्ता की तरह बातें कर रहीं थीं .बरमिंघम पहुँचने के पहले लंदन में बहुत से प्रवासी भारतीयों से बातें करके ऐसा ही लगा .
उस दोपहर को हमें सुनने के लिये भारतीय वाणिज्य दूतावास में जो लोग आये उनके साहित्य से वैसे ही सरोकार थे जैसे भारत में उनके जैसे पेशेवर वर्गों के लोगों की होते हैं .कार्यक्रम शुरू होने के पहले हमारी वहाँ के लोगों से जो बातचीत हुयी उससे समझ में आ गया कि अपनी भाषा के समकालीन लेखन से उनमे से अधिकांश का कोई परिचय नहीं था. लंदन की ही तरह वहां के ज्यादातर लोग नरेन्द्र कोहली को हिन्दी के सबसे बडे उपन्यासकार और केसरीनाथ त्रिपाठी को हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण कवि के रूप में जानते थे . वाणिज्य दूतावास के उस बडे से हाल की आलमारियों में वैद्य गुरूदत्त, गुलशन नन्दा और नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों की भरमार थी. छह वर्षों के भाजपा शासन के दौरान जब अटल बिहारी वाजपेयी एक बडे क़वि के रूप में स्थापित हो रहे थे ,इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि देश से भाँति - भाँति के कीर्तनिये ,कथावाचक और हस्तरेखा विशेषज्ञ हिन्दी के साहित्यकार के रूप में लन्दन तथा बरमिंघम जैसे शहरों में थोक की मात्रा में आ जा रहे थे .यही लोग प्रवासी भारतीयों के लिये हिन्दी की मुख्य धारा के लेखक थे .
कार्यक्रम शुरू होने के पहले ही मैने कालिया जी से तय कर लिया कि हम लोग इस कार्यक्रम में बहुत गहरे नहीं फंसेंगे. इस तरह के कार्यक्रमों की जो औपचारिकतायें हैं उन्हें पूरा कर निकल भागेंगे.शुरूआत तो ठीक ठाक हुयी पर बाद में चलकर हम फंस गये .
उन्नींसवीं शताब्दी की शुरूआत में अँग््रोजी के एक लेखक ने व्हाइटमैन्स बर्डन की बात कही थी .उसके अनुसार एक औसत गोरा अपने सर पर एक बोझ लिये फिरता है .यह बोझ है कालों को 'सभ्य' बनाना . अँग्रेज सिर्फ हिन्दुस्तान में लूटपाट के इरादे से नहीं आये थे बल्कि वे भारत को 'सभ्य' भी बना रहे थे .कुछ कुछ ऐसा ही बोझ बहुत से प्रवासी भारतीयों के सर पर भी लदा मिला.वे भारतीय संस्कृति और भारत की छवि के बारे में चिंतित रहतें हैं .कई तो अपने को भारत का गैर सरकारी राजदूत मानतें हैं.सरसरी तौर पर देखें तो यह स्थिति अच्छी है पर थोडा गहरे जाने पर इसमे बडे झोल नजर आने लगतें हैं.
पिछले कुछ वर्षों में उच्च वर्ण के मध्यवर्गीय हिन्दू के मन में साम्प्रदायिकता का जहर बहुत तेजी से फैला है .80 और 90 के दशकों में विश्व हिन्दू परिषद ने बहुत योजनाबद्ध और आक्रामक तरीके से रामजन्मभूमि आंदोलन चलाया था . इस आंदोलन ने हिन्दू मानस को कहीं बहुत गहरे छुआ है.इसका असर डाक्टर, वकील , अध्यापक , किरानी जैसे वर्गों पर पडा और स्वतंत्रता संग््रााम में हरावल दस्तों में रहने वाले पेशेवर वर्ग भी बुरी तरह से साम्प्रदायिकता के शिकार हुये. विदेशों मे जाने वाले भारतीयों का अगर वर्गीय विश्लेषण किया जाय तो यह बहुत साफ दिखायी देता है कि मध्यपूर्व को छोड क़र नौकरी की तलाश में जाने वालों में अधिकतर डाक्टर, इन्जीनियर,चार्टड अकाउन्टेन्ट जैसे पेशों से जुडे लोग थे.दलित जातियों में शिक्षा की कमी के कारण स्वाभाविक था कि ऊंची जातियों के लोग ही इस रूप में बाहर गये. व्यापार के सिलसिले में जो गुजराती ,मारवाडी वगैरह गये वो भी इन्हीं मे से थे.दूसरी तीसरी पीढी क़े इन भूतपूर्व हिन्दुस्तानियों में अभी भी वर्णचेतना लुप्त नहीं हुयी है और इतिहास खास तौर से भारत के मध्यकाल को लेकर उनके मन में कमोबेश वही पूर्वाग्रह है जो उनके वर्ग और वर्ण के औसत हिन्दुओं में भारत में है.रामजन्मभूमि आंदोलन ने ,भौगोलिक दूरी के बावजूद, उन्हें भी गहरे अर्थो मे प्रभावित किया है.
इस बीच एक और गंभीर बात हुयी है.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने आनुषंागिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से समुद्रपार अपनी जडें ग़हरी की है .ब्रिटेन ,कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका संभवत: उनके प्रभावमंडल के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं .इन राष्ट्रों में उपस्थिति के कई अर्थ हैं. ओपीनियन मेकिंग के साथ साथ चन्दा उगाही के ये सबसे बडे स्रोत हैं. यदि कभी रामजन्म भूमि मंदिर के नाम पर एकत्र चंदे का सार्वजनिक आडिट संभव हो सका तो हमें इस सूचना के लिये तैयार रहना चाहिये कि इस धनराशि का बहुत बडा हिस्सा इन तीन देशों में रहने वाले प्रवासी भारतियों से इकट्ठा हुआ है.ये प्रवासी भारतीय जिस भारतीय छवि की रक्षा के लिये आकुल दिखायी देतें हैं वह काफी हद तक भारतीय संस्कृति जैसी अबूझ एब्स्ट्रेक्ट किस्म की चीज है.उच्च वर्णो की श्रेष्ठता पर आधारित यह एक ऐसी स्थिति है जहां उदारता,सहिष्णुता ,सद्भाव और समानता जैसे भाव सर्वत्र उपस्थित हैं.संघ परिवार की भाषा में इसे सामाजिक समरसता कहतें हैं .जैसे ही दलित,पिछडे,या स्त्रियां अपने लिये स्पेस की मांग करने लगतें हैं या वर्णाश्रमी पाखंड की चमडी हल्की सी छील देतें हैं और उसके नीचे अन्याय अमानुषिकता और अतार्किकता के बजबजाते पंक जल को हिलोरने की कोशिश करतें हैं संघ परिवार के व्याख्याकारों को सोशल इन्जीनियरिंग और सामाजिक समरसता की याद आने लगती है.ब्राह्यण संस्कृति के आधार कर्मकांड ,पुनर्जन्म, भाग्यवाद या वर्णाश्रम की कोई भी विवेक सम्मत व्याख्या उन्हें भारतीय संस्कृति के लिये खतरा लगती है .कुछ कुछ ऐसी ही भावना प्रवासी भारतियों के मन में भारत की छवि को लेकर है.दुनियां में और कोई न माने लेकिन भारतीय संस्कृति को ब्राह्यण व्याख्याकारों की तरह वे मानतें हैं कि भारत एक महान सभ्यता है और उसकी महानता का उत्स उदारता में है .वे प्रयत्न पूर्वक अपने पश्चिमी सहयात्रियों के बीच इस छवि को सजाने संवारने में लगे रहतें हैं.इसलिये अगर कोई ,खास तौर से भारत से आया हुआ व्यक्ति,ऐसी बात कहे जिससे यह महान छवि खंडित हो तो उन्हें बुरा लगता है और उनमें से कई को बल पूर्वक ऐसे वक्ता को चुप कराने में भी संकोच नहीं होगा . मेरे साथ भी बर्मिघंम की उस शाम ऐसा ही कुछ हुआ.
कार्यक्रम औपचारिक तरीके से शुरू हुआ.मेरा उपन्यास 'तबादला' इन्दू शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित हुआ था और यह कार्यक्रम उसी सम्मान की श्रृंखला में था अत: स्वाभाविक था कि मेरे और उपन्यास के बारे में फर्ज अदायगी के तौर पर आयोजकों ने कुछ अच्छी बातें कहीं .कुछ बातें संस्था के बारे में कहीं गयीं .मुझे पता था कि वहां उपस्थित लोगों मे से आठ दस लोगों ने ही 'तबादला' पढा है और उनसे भी कम ने मेरी कोई दूसरी रचना पढी है.रवीन्द्र कालिया के 'गालिब छुटी शराब' के अलबत्ता कुछ ज्यादा प्रशंसक थे पर उनकी संख्या भी दहाई में मुश्किल से पहुंचती थी.जाहिर था इस उपस्थिति के सामने बोलने में कोई बहुत उत्साह नहीं हो सकता था.कालिया जी ने थोडा बहुत बोलकर अपना पिण्ड छुडाया और फिर मुझे माइक थमा दिया .
मैंने अपनी रचना प्रक्रिया और उपन्यास के बारे में कुछ कहा और चार छह सवालों के जवाब दिये.एक प्रश्न ऐसा था जिसके उत्तर से देश की छवि सुरक्षित रखने वालों के लिये संकट पैदा हो गया .सवाल गुजरात को लेकर था.गुजरात कुछ ही दिनों पूर्व होकर चुका था. केन्द्र की सत्ता पार्टी ,जो गुजरात के दंगों में राज्य सरकार को राजधर्म निभाने का उपदेश जरूर दे रही थी पर उसकी ओर से कभी ऐसी इच्छा शक्ति का प्रर्दशन नहीं हुआ जो विश्वास पैदा कर सके, हालिया चुनावों में सत्ताच्युत हुयी थी .इस परिप्रेक्ष्य में गुजरात पर कोई भी प्रश्न या उसका उत्तर बेचैनी पैदा करने वाला हो सकता था.मेरे सामने एक विकल्प यह था कि मैं चतुराई के साथ अपने को बचा लूं और गोल मोल जवाब देकर अपना पिण्ड छुडा लूं.लेकिन यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं थी .देश के बहुत से दूसरे लोगों की तरह गुजरात मेरा भी दु:स्वप्न था.
गुजरात की घटनाओं पर मेरा दुख दो तरह का है .एक तो हिन्दू के रूप मे मैं इस बात से शर्मिन्दा हूं कि हिन्दुओं ने अपने पडाेसी मुसलमानों को नृशंसतम तरीकों से मारा था. दूसरी तकलीफ एक पुलिस अधिकारी की है.पुलिस ने एक क्रूर और पक्षपाती राज्य की हरकतों में बिना किसी प्रतिरोध के सहयोग किया.संविधान तथा कानून की पुलिस से जो अपेक्षा है उसके एकदम खिलाफ गुजरात पुलिस ने अल्पसंख्यकों की सम्पत्ति एवं जीवन के विनाश पर उतारू उन्मादी हिन्दुओं की भीड क़ो रोकने की जगह उनकी मदद की .यही दोनो बातें मैने उस सभा में कही. मेरा मानना था कि गुजरात आजादी के बाद सांप्रदायिक हिंसा का सबसे बुरा उदाहरण है क्योंकि इसके पहले कभी भी राज्य इतनी बेशर्मी से अपने नागरिकों के एक वर्ग के संहार में लिप्त नहीं हुआ था.
मेरे संक्षिप्त से वक्तव्य से सुनने वालों मे से कुछ आहत लगे.यह बाद में समझ आया कि ये लोग वे थे जो था तो विश्व हिन्दू परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता थे या पिछले कुछ वर्षों में विहिप के योजनाबद्ध प्रचार के शिकार बने थे .यही वे लोग थे जो भारत की छवि बचाये रखने का बोझ अपने कांधों पर लिये घूमते हैं .इस छवि को पश्चिमी समाज मे चमकाने के लिये आवश्यक है कि भारतीय खास तौर से हिन्दू जीवन पद्धति को उदार तथा सहिष्णु जीवन पद्धति के रूप में पेश किया जाय.गुजरात जैसी घटनाओं का जिक्र आने से यह मिथ टूट सकता है, इसलिये इन लोगों का पूरा प्रयास रहता है कि ऐसी चीजों का उल्लेख ही न हो और अगर हो तो इस तरह से कि क्रूरता को वैध ठहराया जा सके .मसलन गुजरात में मुसलमानो का नरसंहार गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया था या फिर ऐसा ही कुछ और.
श्रोताओं के इस वर्ग को लगा कि मुझ जैसे दुष्ट की वजह से उनके द्वारा बडे ज़तन से तराशी गयी छवि खण्डित होने को है.हाल में एक तरह से तूफान बरपा हो गया.अलग अलग कोनों और कतारों में बैठे लोग एक साथ खडे होकर चिल्लाने लगे.प्रश्न सत्र भाषण सत्र में तब्दील हो गया .हर प्रश्न पूछने वाला उत्तर भी स्वयं दे रहा था .पूरे विस्फोट का लुब्बोलुवाब यह था कि इतिहास की मुझे कोई समझ नहीं है .हिन्दू लगातार पिटता रहा है और अगर पहली बार गुजरात में उसने पिटाई की है तो हम इस पर शर्मिन्दा नहीं होना चाहिये .मुसलमान ,जो स्वभाव से ही क्रूर और धोखेबाज होता है , हमेशा से हिन्दू पूजा स्थलों को तोडता रहा है, ने हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लूटी है और पूरा भारतीय इतिहास उसकी ज्यादतियों से भरा है.भारत के एक औसत हिन्दुत्व कार्यकर्ता की तरह इतिहास उनके लिये तर्क या विवेक से परे मिथ,आस्था और भावुकता का घालमेल था.उनमें से कुछ ने तो यहां तक कहा कि वे मोदी पर गर्व करतें हैं जिसने हिन्दुओं को तन कर चलना सिखाया है.दर्शकों के इस वर्ग ने वाचिक प्रतिरोध को शारीरिक अभिव्यक्ति देने की भी कोशिश की .आयोजकों ने बीच बचाव कर उन्हें रोका.
मैंने विरोधी श्रोताओं को सम्बोधित करते हुये एक निवेदन किया .मैने कहा कि एक भारतवासी के तौर पर मैं कृतज्ञ हूं कि वे देश की छवि को लेकर इतने चिंतित रहतें हैं .मैने इस बात के लिये भी उन्हें धन्यवाद दिया कि उनमें से बहुत से लोग देश में अपने मूल निवास को गांवों शहरों में शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ निवेश भी करतें हैं . ये सारे उपकार एक तरफ और भयंकर क्षति दूसरी तरफ. वे एक ऐसी संस्था के आर्थिक सम्बल बने हुये हैं जो पिछले कई वर्षों से हमारे देश में दंगा फसाद की जड बनी हुयी है.मैने उनसे अनुरोध किया कि वे रामजन्मभूमि आंदोलन को चंदा देना बंद कर दें .इस आंदोलन के चलते हजारों लोग मारे जा चुकें हैं और अरबों रूपयों की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है .जैसे लोक कथा के राक्षस की जान तोते में बसती थी उसी उसी तरह विहिप की जीवन रेखा चंदे से गतिशील रहती है.वे चंदा देना बंद कर दें तो विहिप की राष्ट्र विरोधी गतिविधियां मंद पड ज़ायेंगी और देश को हिंसा और घृणा की राजनीति से काफी हद तक मुक्ति मिल जायेगी . जाहिर था कि मेरा यह निवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता था और न ही मेरे पास यह जानने का कोई जरिया है कि वहां उपस्थित श्रोताओं में से अगली बार विहिप को चंदा देने से पहले किसी के मन में कोई उलझन पैदा हुयी या नहीं.
बर्मिंघम के उस कार्यक्रम से मैं सही सलामत निकल तो आया पर मन में एक अवसाद बना रहेगा .यह बहुत स्पष्ट समझ में आ गया कि धार्मिक उन्माद का खतरा हमारी मुख्य भूमि से निकलकर प्रवासी भारतीयों तक पहुंच गया है.