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कविता

बदला लो जमाना

अमरसिंह रमण

अनुक्रम वर्णाश्रमी असभ्यता पीछे     आगे

सभ्यता दुनिया की हर भाषा में , मनुष्य को सभ्य बनाने की अनवरत चलने वाली प्रक्रिया और उससे हासिल होने वाले नतीजों के लिये प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं .यह सभ्य होना क्या है? क्या कोई ऐसी प्रविधि है जिससे एक काल , धर्म, नस्ल, लिंग , भूगोल निरपेक्ष परिभाषा गढी ज़ा सकती है ? कुछ ऐसे गुण हो सकतें हैं क्या, जिन्हें धारण करने वाला मनुष्य चाहे वह जिस देश काल का हो सभ्य कहला सकता है ? सभ्यता की यह यात्रा बडी लम्बी होती है .एक दो वर्षों में नहीं बल्कि सैकडों वर्षों में धरती के किसी खास भू भाग में रहने वाले लोग ऐसी जीवन पद्धति विकसित कर पातें हैं जिनमें कुछ कुछ मात्रा में वे सब गुण होतें हैं जो उन्हें सभ्य बनातें हैं .

मनुष्य को सभ्य बनाने वाले मूल्यों में कुछ काल सापेक्ष होतें हैं .इतिहास के एक कालखण्ड में कोई विचार बडा क्रान्तिकारी लगता है पर समय के साथ उसकी धार कुंद हो जाती है और वह अपर्याप्त लगने लगता है .मोहम्मद साहब ने कहा कि गुलामों के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए .अपने समय में यह बडी सीख थी .पर आज अगर मोहम्मद होते तो इसकी जगह यह कहते कि गुलामी अमानवीय प्रथा है, इसे बने रहने का कोई हक नहीं है .इस उदाहरण से अब्राहम लिंकन मोहम्मद से बडे नहीं हो जाते . जिस समय अबा्रहम लिंकन ने गुलामी उन्मूलन का संघर्ष छेडा था तब तक मनुष्यता अपने विकास के क्रम में उस बिन्दु तक पहुंच चुकी थी जहां गुलामी के पक्ष में कोई विचार चाहे वह किसी भी दर्शन ,धर्म या अर्थतंत्र से खाद हासिल करता हो, वैध नहीं हो सकता था. मोहम्मद का विचार अपने समय से आगे था और लिंकन का अपने समय की जरूरतों के अनुकूल. यह उदाहरण सिर्फ इसलिये दे रहां हूं कि मैं यह बात थोडा बेहतर ढंग से कह सकूं कि ज्यादातर मूल्य और संस्थायें समय सापेक्ष होतीं हैं .इसी के साथ साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि कुछ मूल्य काल को अतिक्रमित कर जातें हैं .ये बुनियादी मूल्य हैं जो मनुष्य को सभ्य बनातें हैं .यही वे मूल्य हैं जिनके बल पर सभ्यतायें निर्मित होतीं हैं .प्रेम ,दया, भाई चारा और एक दूसरे को मदद करने की भावना कुछ ऐसे मूल्य हैं जो हर काल, हर धर्म, हर नस्ल में प्रासंगिक बने रहे .

इन्हीं सारे मूल्यों से मिलकर एक ऐसा मूल्य बनता है जो मेरे विचार से किसी सभ्यता को सही अर्थों में सभ्य बनाता है. यह मूल्य है अपने बीच में अपने कमजोर सदस्यों के लिये स्थान छोडना .अंग्रेजी में जिसे स्पेस कहेंगे वह प्रदान करना.कमजोरी शारीरिक ,आर्थिक, सांस्कृतिक या लैंगिक किसी भी रूप की हो सकती है .यह स्पेस देने की स्थिति किसी भी जीवन पद्धति में एक लम्बे अभ्यास के बाद आती है और काफी हद तक सांस्कृतिक, धार्मिक ,भौगोलिक और सामाजिक परम्पराओं की उपज होती है.यह समुदाय की भाषा और विभिन्न सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों में एक स्वतःस्फूर्त और अदृश्य संचालक की तरह मौजूद रहती है.

इस पूरे फार्मूलेशन को समझने के लिये हमें वर्णाश्रम धर्म पर आधारित ब्राह्यण जीवन पद्धति को देखना होगा. वर्णव्यवस्था दुनिया की सबसे विशिष्ट और सबसे घृणित व्यवस्था है जिसने कई हजार वर्षों तक एक बडे समाज को संचालित किया है .विशिष्ट इस अर्थ में कि इसमें मुक्ति के रास्ते निहित नहीं हैं .इसके अतिरिक्त मानव जाति के इतिहास में जो मनुष्य विरोधी संस्थायें निर्मित हुयीं उनमे हमेशा मुक्ति की गुंजायश रही .दास प्रथा, नस्ल और रंग भेद अथवा लैंगिक असमानता जैसी स्थितियों में पीडित के पास हमेशा अपनी स्थिति सुधारने का एक विकल्प रहता था पर वर्ण व्यवस्था इतनी ठस और अपरिवर्तनीय है कि उससे छुटकारा पाना लगभग असंभव है .अमानवीयता में इसकी तुलना गुलामी प्रथा से कर सकतें हैं .दोनो संस्थायें हृदयहीन और क्रूर हैं .दोनो समाज के अनगिनत जुल्मों ज्यादती की तकलीफदेह गाथा हैं.फर्क सिर्फ इतना है कि गुलाम अपनी बेडियां तोड सकता था.पूरा मध्यकाल ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है जिनमें गुलाम अपने स्वामी राजा को खुश कर उसका उत्तराधिकारी बन बैठा . वर्ण व्यवस्था में यह संभव नहीं था कि शूद्र ब्राह्यण की बेटी से शादी करके ब्राह्यण हो जाय या किसी युद्ध में शौर्य का प्रदर्शन करके क्षत्रिय बन सके .वर्णव्यवस्था के प्रशंसक किसी ऐसे काल्पनिक युग का जिक्र करतें हैं जिसमें कर्मणा जातियों का निर्धारण होता था .ऐसे किसी समय के ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं जिसमें कर्म के आधार पर किसी को जाति मिलती थी . यदि कर्म के आधार पर जातियां बंटतीं तो वर्णव्यवस्था की जरूरत ही नहीं रह जाती . एक मजेदार उदाहरण बाल्मीकि का दिया जाता है .यदि इन लोगों का तर्क सही माना जाय तो बाल्मीकि जाति के आधुनिक संस्करणों मे मेहतर थे और अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर ब्राह्यण कर्म करने लगे. यह हास्यास्पद उल्लेख इस तथ्य को भूल जाता है कि बाल्मीकि रचित रामायण शूद्र विरोधी उद्धरणों और व्यवस्थाओं से भरी हुयी है .क्या यह तर्क संगत और मानने योग्य है कि एक शूद्र ने अपने ही वर्णों को नीचा दिखाने वाला ग्रन्थ रचा हो?

यह वर्ण व्यवस्था हमें किस तरह से एक सभ्य समाज बनने से रोकती है इसे समझना जरूरी है.इस व्यवस्था के तहत जो संस्थायें बनी उन्होंने कई तरह हमें प्रभावित किया .इसने सबसे पहले तो इसने हमें अपने बीच के अधिसंख्य लोगों को पशुओं से भी बदतर मानने के लिये प्रेरित किया.समाज का बहुलांश शूद्र है. जो शूद्र नहीं है उनकी भी आधी संख्या स््रत्रियों की है .वर्णव्यवस्था इन सभी को मनुष्य के नीचे की योनि का मानती है .इस का सबसे तकलीफदेह पहलू यह है कि इस पूरी घृणित स्थिति को एक दैवीय दार्शनिक वैधता हासिल है .वेद , पुराण ,महाभारत और रामायण जैसी धार्मिक पुस्तकें और उनमें निहित पुनर्जन्म तथा भाग्यवाद जैसे दर्शन इस व्यवस्था को ठस और अपरिवर्तनीय बनाता है.इसी की वजह से शूद्र के पास ब्राह्यण होने का कोई विकल्प नहीं है.वर्णव्यवस्था की दूसरी दिक्कत है कि यह शारीरिक श्रम को हेय मानती है .पूरी दुनियां में शायद ब्राह्यण परम्परा ही एक अकेली परम्परा है जो भीख मांगने को महिमा मण्डित करती है .आर्थिक और पारम्परिक रूप से पिछडे समाजों में भीख मांगने को कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया. वर्ण व्थवस्था नें शारीरिक श्रम को तुच्छ बताया और दास शूद्रों की विशाल फौज ने यह सम्भव किया कि वे बैठकर खाने वालों के स्वामित्व वाले खेतों में अनाज पैदा करें और उन्हें खिलाते रहें .ऊंची जातियों के लिये हल का मूठ छूना भी पाप का भागी बनना था. ब्राह्यणों ने तो और भी रोचक तरीके से अपने पेट पालने की व्यवस्था की .वह न सिर्फ भीख मांगने में लज्जित नहीं होते थे बल्कि भीख लेकर देने वाले पर एहसान भी करते थे -उसका लोक परलोक सुधारते थे .

वर्ण व्यवस्था की तीसरी समस्या इसमें अन्तर्निहित शिक्षा विरोध है .हम शायद विश्व के सबसे बडे शिक्षा विरोधी समाज रहें हैं. मोहम्मद ने अपने अनुयायियों से कहा था कि शिक्षा हासिल करने के लिये जरूरत पडे तो चीन भी जाओ. उस दौर में अरब से चीन जाना कितना दुष्कर था इसका उल्लेख करना जरूरी नहीं है. वर्णाश्रमी परम्परा अपने बीच के अधिसंख्य लोगों को बलपूर्वक शिक्षा से वंचित करती है.गौतम बुद्ध के प्रभाव ने जरूर एक काल विशेष में शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का प्रयास किया पर जैसे ही ब्राह्यणों का वर्चस्व पुर्नस्थापित हुआ उन्होने वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करने वाले सबसे बडे लौकिक शिक्षा केन्द्रों - तक्षशिला और नालंदा को बर्बरता से नष्ट कर दिया और इन विश्वविद्यालयों के विशाल पुस्तकालयों को आग के हवाले कर दिया.इसलिये कोई आश्चर्य नहीं है कि अपने ही बीच के मनुष्यों को पशुवत् मानने वाला, शारीरिक श्रम में अनास्था रखने वाला और शिक्षा विरोधी समाज दुनिया को कोई बडा विचार नहीं दे पाया.

मैंने ऊपर निवेदन किया है कि कोई समाज सभ्य है या नहीं इसे जांचने के लिये हमें यह देखना चाहिये कि वह अपने बीच के कमजोर लोगों के लिये कितना स्पेस छोडता है .वर्ण व्यवस्था का जिक्र मैंने इसलिये किया है कि यह हमारी पूरी जीवन पद्धति को संचालित करती है .समुदाय के एक सदस्य का दूसरे से कैसा रिश्ता हो ,खान पान और कपडे क़ैसे हों ,उठने बैठने , विवाह , उत्तराधिकार , रोजगार - गरज यह कि जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसका संचालन वर्णव्यवस्था द्वारा बनाये गये नियम न करतें हों . इसलिये अगर यह तय करना है कि सनातनी हिन्दू जीवन दृष्टि सभ्य समाज का निर्माण करती है या नहीं तो हमें यह जांचना होगा कि इसे संचालित करने वाली संस्था वर्ण व्यवस्था हाशिये पर पहुंचे लोगों के साथ कैसा व्यवहर करती है ? इस कसौटी पर कसने पर सनातनी हिन्दू समाज का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक दिखायी देता है.दुर्बल के प्रति यह बहुत क्रूर है . दुर्बलता किसी भी तरह की हो सकती है - जाति की दुर्बलता तो सबसे भयानक है .शूद्र के घर पैदा हुआ तो मनुष्य भी नहीं है, इससे इतर भी अगर कोई शारीरिक रूप से विकलांग है , आर्थिक रूप से दरिद्र है या फिर स्त्री -सबके लिये इस समाज में भयानक घृणा है .यह घृणा पूरे व्यवहार में परिलक्षित होती है .भाषा -जो हमारे दबे हुये मनोभावों को भी बखूबी अभिव्यक्त करती है , इन सबसे हर कदम पर नफरत करती दिखती है.

देश के जिन भागों पर वर्ण व्यवस्था की जकडन जितनी मजबूत थी उनकी भाषा उतनी ही अधिक क्रूर और दुर्बल विरोधी है.हिब्दी का उदाहरण लें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी .दलितों और स्त्री को लेकर तमाम गालियां हैं .चमार स्वाभाविक रूप से चोर है इसलिये चोरी चमारी है .भाषा के बडे क़वि तुलसी दास कह ही गयें हैं कि 'ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , सकल ताडना के अधिकारी.' भाषा सामाजिक संरचना की तरह ही बहुस्तरीय है .जिस तरह समाज में जातियों के बैठने का आसन उनके वर्ण के अनुसार निर्धारित है उसी तरह आसन ग्रहण करने के लिये बैठ , बैठो या बैठिये शब्द भाषा में हैं जो व्यक्ति की सामाजिक या आर्थिक हैसियत के मुताबिक इस्तेमाल किये जातें हैं .मुझे नहीं लगता कि दुनियां की किसी भी भाषा में त्रिस्तरीय सम्बोधन उपलब्ध हैं .आप, तुम और तू सिर्फ सम्बोधन नहीं है बल्कि सम्बोधित को उसकी औकात का अहसास कराने वाले दंश भी हैं.

भाषा में निहित यह तिरस्कार सिर्फ वर्ण या लिंग पर आधारित कमजोर के लिये ही नहीं है .शारीरिक अथवा मानसिक रूप से विकलांग बार-बार इस भाषिक कोडे से पीटे जातें रहें हैं . अंधे, काने , लूले, लंगडे , क़ोढी या कूुबडे क़े लिये हमारी भाषा में भयानक घृणा भरी है. भाषा की घृणा समाज के अंदर मौजूद घृणा का प्रतिबिम्ब है .हमारा समाज इन अक्षम लोगों से कैसा व्यवहार करता है यह उसमें प्रचलित लोकाोक्तियों और समाज के सक्षम सदस्यों द्वारा उनके साथ किये जाने वाले व्यवहार से स्पष्ट है .शारीरिक विकलांगता सहानुभूति का विषय न होकर मजाक उडाने या तिरस्कृत करने का माध्यम है.मांगलिक कार्यक्रमों में इनकी उपस्थिति अशुभ मानी जाती है. यह दृश्य बहुत आम है जब आप किसी विवाह के अवसर पर काने या कोढी क़ो दुरदुराकर भगाये जाते देख सकतें हैं.बच्चों के परीक्षा देने के लिये घर से निकलने पर अगर कोई शारीरिक विकलांग सामने पड ज़ाय तो बच्चे को वापस बुला कर अशुभ टाला जाता है. इसी तरह किसी पागल पर पत्थर बरसाते बच्चे दिखायी दें या उसे घेर कर उसका मजाक उडाते हुये लोग दिखें तो हमें बहुत आश्चर्य नहीं करना चाहिये क्यों कि वर्णाश्रम धर्म पर आधारित जीवन मूल्य हमें सिर्फ कमजोर से घृणा करना ही सिखा सकतें हैं उनसे सहानुभूति करने या उनकी सेवा करने का जज्बा नहीं पैदा कर सकते .

अपने बीच के कमजोरों के प्रति हम कैसा व्यवहार करतें हैं इसका सबसे बडा उदाहरण सडक़ों पर चलने वाला ट्रैफिक है. जो जितना ताकतवर है सडक़ पर उसका उतना ही ज्यादा अधिकार है. ट्रक वाला सबको रगेदता हुआ जा सकता है , कार वाला उससे तो डरता है पर दो पहिया वाहन या पैदल चलने वालों के लिये उसके मन में कोई दया नहीं है .पश्चिमी समाज को हम हमेशा यांत्रिक और मानवीय मूल्यों से (अपने मुकाबले )वंचित समाज मानतें हैं .पर वहां एक ऐसा दृश्य दिखायी देता है जो हमारी सडक़ों पर कभी नहीं दिखेगा. चौराहों पर यातायात के सिग्नल वाले खंभों पर बटन लगे हैं जिनका इस्तेमाल पैदल चलने वाले करतें हैं .अगर आप को सडक़ पार करनी है तो आप बटन दबा दें और चारों तरफ से आने वाली गाडियां रूक जायेंगीं , आप सडक़ पार कर लें और फिर यातायात चालू हो जायेगा. हम जैसे हिन्दुस्तानियों से यह गलती हो सकती है कि हम ट्रैफिक लाइट को नजरअंदाज कर खतरनाक तरीके से सडक़ पार करने की कोशिश करें पर वाहन चालक हमें सडक़ पर उतरते देखकर फौरन अपना वाहन रोक देंगे और हमें पहले सडक़ पार करने का इशारा करेंगे .मैं कई बार ऐसे अनुभवों से गुजरा हूं जब भारत में या तो कोई वाहन वाला मुझे कुचल डालता या फिर अंधा या उल्लू जैसे सम्बोधनों से नवाजता.इसी तरह एक और दृश्य मुझे यात्राओं में चकित करता रहा है .ट्रेनों या बसों में किसी अंधे , बूढे या महिला के प्रवेश करते ही लोग आदतन खडे हो जातें हैं और उसके लिये जगह खाली कर देतें हैं .हमारे इस महान जगद्गुरू देश में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती .

मैं कई बार सोचता हूं कि पश्चिम, जिसने लोगों को गुलाम बनाया, अपने उपनिवेशों में जमकर लूट पाट की और आज भी दुनियां में नवउपनिवेशवादी अधिनायकवाद का परचम लहरा रहा है ; वियतनाम, लैटिन अमेरिका या इराक जिसकी ज्यादतियों के शिकाार रहें हैं , वह कैसे अपने समाज में कमजोरों के लिये इतना स्पेस छोडता है ? वाह्य सम्बन्धों में निहायत ही खुदगर्ज और क्रूर समाज क्या अपने आंतरिक व्यवहार में इस कदर उदार हो सकता है ? पर यह है . यह उदारता डंडे के बल पर नहीं आती. इसके लिये एक लंबे अनुशासन की जरूरत होती है .सैकडों वर्षों के जीवन अनुभव इसके पीछे होतें हैं.

कोई भी समाज कई चरणों में आंतरिक सभ्यता हासिल करता है .इनमें सबसे बडी भूमिका किताबों की होती है .इनसे प्रभावित होने वाले लोग इनमें से कुछ को आसमानी मानतें हैं. अर्थात् ये दैवीय हैं और इसलिये अपरिवर्तनीय. आंतरिक सभ्यता के सोपान वही समाज तेजी से चढता है जो इन आसमानी किताबों की दुनियावी जानकारियों और जरूरतों के मुताबिक नये भाष्य करता रहता है .पश्चिम का ईसाई समाज इस मामले में दूसरों से आगे रहा है . क्रुसेड और चर्च के आधिपात्य वाले मध्ययुग में ही इसने बहुत सी स्वीकृत स्थापनाओं को चुनौतियां देनी शुरू कर दीं थीं. चर्च के कमजोर पडते जाने और पश्चिम के विशाल ईसाई समाज की आंतरिक उदारता की यात्रा साथ साथ चली है और यह कहना ज्यादा उचित होगा कि दोनो ने एक दूसरे की मदद ही की है.गुलामी और रंगभेद जैसी दो घृणित संस्थाओं से इस समाज ने आंतरिक उदारता की इसी जध्दोजहद के चलते छुटकारा पाया है.

भारतीय समाज को आंतरिक सभ्यता हासिल करने के लिये वर्णव्यवस्था से छुटकारा पाना बेहद जरूरी है .यह भी एक दिलचस्प अध्ययन का विषय हो सकता है कि हम इस गन्दी संस्था से निजात क्यों नहीं हासिल कर सके ? हमारे लिये तो यह दूसरे धर्मावलम्बी समाजों के मुकाबले ज्यादा आसान होना चाहिये था.हमारी कोई किताब उस अर्थ में दैवीय नहीं है जिस अर्थ में दूसरे धर्मों की किताबें हैं.वेदों को भी बहुत बाद में अपौरूषेय कहा गया .कम से कम वर्ण व्यवस्था को एक विधान के रूप में स्थापित करने वाली मनुस्मृति या लोक में स्वीकृत कराने वाली रामचरित मानस जैसी पुस्तकों को तो कोई भी दैवीय नहीं कहता .यदि कोई पुस्तक आसमान से नहीं उतरी है तो वह अपरिवर्तनीय भी नहीं होगी .काल की आवश्यकताओं के अनुसार उसमें संशोधन या उसके भाष्य हो सकतें हैं .फिर क्यों नहीं हमारे अन्दर स्वयं ऐसी इच्छा शक्ति पैदा हुयी कि हम इसी गंदी व्यवस्था को खुद ही उखाड फ़ेंकते ? हमने हमेशा इसके खिलाफ जाने वाले विचार को कुचलने का प्रयास किया. गौतम बुद्ध ने मनुष्यों के समानता की बात की पर ब्राह्यण हृन्हें लील गये .इस्लाम ने समानता पर आधारित जाति विहीन समाज का दर्शन सामने रखा.आपसी मारकाट में फंसे भारतीय समाज के लिये यह तो संभव नहीं हुआ कि वह उन्हें हजम कर ले पर ब्राह्यणों ने उनसे तर्क करने से ही इन्कार कर दिया . कमजोर दार्शनिक भावभूमि पर खडे वर्णाश्रम समर्थकों को उनसे वैचारिक मुठभेड क़रने से आसान यह लगा कि उन्हें म्लेच्छ घोषित कर उनसे किसी तरह का संवाद से ही बचा जाय. फ्रांसीसी , पुर्तगालियों या अंग्रेज शासकों के आते आते यह स्थिति हो गयी कि संवाद से बचा नहीं जा सकता था और एक बार जब विरोधी दर्शन से मुठभेड शुरू हुयी तब यह कोई आश्चर्य नहीं था कि जन्माधारित श्रेष्ठता का मूर्खतापूर्ण दर्शन कुछ ही दशकों में भहराकर ढह गया.एक बार शिक्षा को सार्वजनीन किया गया तो संस्कृति की शूद्र व्याख्या हमारे सामने आयी और उसने ब्राह्यण वर्चस्ववादिता को चुनौती देना शुरू कर दिया.

आज स्थिति यह है कि शूद्र व्याख्या ने ब्राह्यण वर्चस्व को कमजोर तो किया है पर पूरी तरह से समाप्त नहीं कर पायी है. कई हजार वर्षों की जीने की आदत इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होगी .ब्राह्यण विकृतियां इतनी गहरे पैठीं हुयीं हैं कि वह शासक शूद्रों के मन में ब्राह्यण बनने की ललक पैदा कर देती है.वह भी उन्हीं कर्मकाण्डों में लिप्त हो जाता है जिनमें ब्राह्यण लिप्त रहा है .साफ है कि अगर हम एक सभ्य समाज बनना चाहतें हैं तो हमें वर्णाश्रम धर्म को नष्ट करना पडेग़ा .बिना जातियों पर आधारित श्रेष्ठता के सिद्धान्त को नष्ट किये हम सभ्य नहीं हो सकते .


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