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विमर्श

हिंदी जाति की समस्याएँ

अमरनाथ

अनुक्रम 11. हिंदी जाति का संगीत और सिनेमा पीछे     आगे

सिनेमा और संगीत का संबंध आम जनता से होता है। अमीर और गरीब सभी इसका आनंद समान रूप से ले सकते हैं। प्रकृति ने आंख, कान और जिह्वा सबको समान रूप से प्रदान दिया है। अमीरों की आंख में ज्यादा ज्योति हो, उनकी कानों में आवाज अधिक सुनाई देती हो या उनकी जिह्वा ज्यादा स्पष्टता से बोलने में मदद करती हो - ऐसा नहीं है। मनुष्य सिनेमा आँखों से देखता है, कानों से सुनता है और संगीत गुनगुनाने में जिह्वा मदद करती है। मनुष्य, प्रकृति की इस देन को अभी तक अमीरों और गरीबों के बीच स्तर भेद के अनुसार बाँट पाने में सक्षम नहीं हो सका है। सिनेमा और संगीत का व्यापार करने वालों के सामने भी आम जनता रहती है क्योंकि इसका संबंध आम जनता के मनोरंजन से होता है। इसीलिए सिनेमा और संगीत का स्तर भेद के अनुसार बँटवारा अभी तक ज्यादा नहीं हो पाया है। इतना ही नहीं, हमारे राजनेताओं की तमाम साजिशों और कोशिशों के बावजूद हिंदी सिनेमा और संगीत को अभी तक मजहब के अनुसार बाँटा नहीं जा सका है। हम कहते तो हैं - 'हिंदी सिनेमा' किंतु उसकी आधी से अधिक पांडुलिपिया उर्दू लिपि में रहती हैं। हिंदी फिल्मों में गाए जाने वाले गीतों में से लगभग तीन चौथाई गीत मुसलमान और तथाकथित उर्दू कवियों द्वारा रचे गए होते हैं। गुलशन बावरा, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी, कमाल अमरोही, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, गुलजार, जावेद अख्तर और निदा फाजली तक अधिंकांश बड़े गीतकार उर्दू के हैं किंतु न तो उनके गीतों को 'उर्दू गीत' कहा जाता है और न तो उनकी फिल्मों को हम 'उर्दू फिल्में' कहते हैं।

भारत दुनिया का सबसे अधिक फिल्में बनाने वाला देश है। यहाँ प्रतिवर्ष लगभग 1200 फीचर फिल्में बनती है जिनमें हिंदी फिल्मों की तादात लगभग 200 है। बहुभाषी होने के कारण यहाँ सिनेमा का विकास क्षेत्रीय आधार पर हुआ है। बंगला, मलयालम, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, उड़िया, मराठी, असमिया, मणिपुरी आदि विभिन्न भाषाओं में फिल्मों का विकास काफी हद तक क्षेत्रीय विशिष्टताओं के साथ हुआ है। लेकिन ठीक यही बात हिंदी के बारे में उतने ही विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती। दरअसल जिसे हिंदी सिनेमा कहा जाता है वह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा की तरह सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदी क्षेत्र की नुमाइंदगी नहीं करता.

फिल्म निर्माण के प्रांरभिक चरण में बंबई, कलकत्ता तथा मद्रास के अलावा लाहौर भी एक फिल्म निर्माण के केंद्र के रूप में विकसित हुआ था। लाहौर एक प्रकार से हिंदी क्षेत्र में पड़ता है। लाहौर का बँटवारे में पाकिस्तान का हिस्सा बन जाने के बाद कही भी हिंदी क्षेत्र में कोई भी फिल्म निर्माण का केंद्र नहीं विकसित हो सका। जहाँ बंगला, तमिल, तेलुगु में कला सिनेमा की एक मजबूत धारा बन चुकी है वहाँ हिंदी में ऐसा नहीं हो सका। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि हिंदी सिनेमा में हिंदी क्षेत्र से गंभीर कलाकार या निर्माता निर्देशक बहुत ही कम जुड़ पाए।

इसकी परिणति इस रूप में हुई कि न सिर्फ व्यावसायिक बल्कि कला फिल्में बनाने वाले भी हिंदी में फिल्में बनाने के लिए क्लासिक्स और लोक संस्कृति का अध्ययन करना जरूरी नहीं समझते। हिंदी में एक अनुवादक के सहारे ही वे अपना कार्य संपन्न कर लेते हैं। हिंदी सिनेमा के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर जावेद अख्तर की स्वीकारोक्ति है कि वे कभी गाँव में नहीं रहे, कभी हिंदी नहीं पढ़ी और हिंदी लिख भी नहीं सकते (आई हैव नेवर लीव्ड इन ए विलेज एण्ड इन फैक्ट आई हैव नेवर स्टडीड हिंदी. आई कैन नाट राइट इट)। इंदुमिरानी, जावेद ए साफ्ट टच, द पायनियर दैनिक में प्रकाशित लेख, दिनांक 13 दिसंबर, 1997. पृष्ठ-16)

अनुपम ओझा लिखते हैं - "मैंने कई कला फिल्मों की पटकथाएँ देखी। वे भी कामर्शियल फिल्मों की तरह ही रोमन में लिखी गई थी। हिंदी दोनो के लिए मुख्यतः बाजार की भाषा है। मुश्किल यह है कि उत्तर भारत में आज तक रंगमंच या सिनेमा के लिए सहायक माहौल नहीं बन सका।" ( भारतीय सिने सिद्धांत, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2002, पृष्ठ-83)

हिंदी भाषी क्षेत्रों में यदि आप सिनेमा को गंभीरता से लेते हैं और उसे अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना चाहते हैं तो आपको कोई माहौल नहीं मिलेगा। प्रकाश झा जैसे एकाध अपवाद जरूर हैं। अभी तक हिंदी सिनेमा के नाम पर जो फिल्में बनी हैं उनमें हिंदी का परिवेश बहुत कम हैं। श्याम बेनेगल की फिल्मों में चित्रित परिवेश आमतौर से गुजरात, महाराष्ट्र या आंध्र प्रदेश का है। मृणाल सेन की फिल्मों में भी अधिकांशत: बंगाल का परिवेश मिलेगा। इन फिल्मकारों ने बड़ा दर्शक वर्ग प्राप्त करने के लिए ही हिंदी का सहारा लिया है, इन्होंने परिवेश हिंदी का नहीं लिया। ये हिंदी क्षेत्र के यथार्थ से परिचित नहीं हैं। यही कारण है कि इनके द्वारा निर्मित हिंदी फिल्में सही अर्थों में हिंदी क्षेत्र की नुमाइंदगी नहीं करती।

जिसे हम हिंदी सिनेमा कहते हैं, भाषा की दृष्टि से उसने जो परंपरा अपनायी उसकी नींव पारसी थियेटर ने रखी थी और जिसके बारे में पारसी रंगमंच के नाटककार और आरंभिक फिल्मों के पटकथा लेखक नारायण प्रसाद 'बेताब' ने कहा था-

"न ठेठ हिंदी न खालिस उर्दू, जबान गोया मिली जुली हो।
अलग रहे न दूध से मिश्री, डली-डली दूध में मिली हो।"

दरअसल बेताब जी ने जिस मिली-जुली भाषा का जिक्र किया है वही हिंदी भाषी क्षेत्र की आम जनता की जबान थी जिसे सबसे पहले रंगमंच की हस्तियों ने पहचाना। यही कारण है कि हिंदी सिनेमा की पटकथा लिखने के लिए हिंदी और उर्दू दोनों शैलियों के लेखकों का सहयोग मिलता रहा है। यह अकारण नहीं है कि मशहूर फिल्म 'मुगले आजम' के निर्माता निर्देशक ने सेंसर बोर्ड से अपनी फिल्म के लिए हिंदी नाम का सर्टिफिकेट हासिल करना उचित समझा। उल्लेखनीय है कि अमीर खुशरो से लेकर मीर और गालिब तक सबने अपनी भाषा को हिंदी ही कहा है। हिंदी उर्दू का भेद बीसवीं सदी के दूसरे तीसरे दशकों में, पढ़े लिखे हिंदुस्तानियों ने सचेत रूप से पैदा किया और अँग्रेजों की भी इसमें खास भूमिका थी। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, आम जनता इस भेद को आज भी नहीं मानती। 'एनसाइक्लोपीडिया आफ इंडियन सिनेमा' के अनुसार में 1994 तक सिर्फ 5 फिल्में उर्दू की कोटि में आ सकी थी। (एनसाइक्लोपीडिया आफ इंडियन सिनेमा, बी.एफ.आई, लंदन 1994 )

डॉ. कुंवरपाल सिंह ने राही मासूम रजा द्वारा प्रख्यात धारावाहिक महाभारत की पटकथा लिखने की घटना का रोचक तथ्य प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है - " राही से बी.आर.चोपड़ा ने महाभारत लिखने का प्रस्ताव किया तो उन्होंने व्यस्तता के कारण इसे स्वीकार नहीं किया। लेकिन गजब के पारखी हैं बी.आर.चोपड़ा भी। उन्होंने पटकथा और संवाद के लिए राही का नाम प्रेस काँफ्रेंस में ले लिया और यह बात समाचार पत्रों में छप गई। भारतीय संस्कृति के तथाकथित रक्षकों ने बी.आर.चोपड़ा को विरोध पत्र लिखे जिनका मूल स्वर था कि सारे हिंदू मर गए हैं जो एक मुसलमान से महाभारत लिखवा रहे हैं? चोपड़ा ने ये पत्र राही साहब के पास भेज दिए। राही की यह एक कमजोर नस थी। वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति के बहुत बड़े अध्येता थे और अपनी जड़े भी पहचानते थे। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के शोध कार्य में उन्होंने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा लगाया था और उर्दू में इस विषय पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक भी लिखी है। अगले दिन उन्होंने चोपड़ा साहब को फोन किया - "चोपड़ा साहब, महाभारत अब मैं लिखूँगा। मैं गंगा का बेटा हूँ। मुझसे ज्यादा हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कौन जानता है। इस तरह राही महाभारत लेखन के मिशन में जुड़ गए।" (सिनेमा और संस्कृति, राही मासूम रजा, संपादक, कुंवरपाल सिंह, भूमिका भाग)

सिनेमा के अध्येता प्रह्लाद अग्रवाल के शब्दों में - " सिनेमा नजर से नजर का खेल है। यह जिसे हम हिंदी सिनेमा कहते हैं, वस्तुत: हिंदुस्तानी सिनेमा है जो समूचे हिंदुस्तान में और जहाँ-जहाँ भी हिंदुस्तानी मूल के लोग निवास करते हैं, उनको भावनात्मक रूप से एक सूत्र में जोड़ने का काम करता है। हिंदी भाषा जितनी सुगमता से फिल्मों के गानों के माध्यम से विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच पहचानी गई, उतनी अन्य किसी माध्यम से नहीं। इसकी निर्मिति में भी हिंदी-भाषी लोगों की जगह पंजाबी, मुस्लिम, बंगाली, गुजराती, मराठी और यहाँ तक कि दक्षिण भारतीय भाषा-भाषी लोगों का कही ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान है। इसी तरह इसकी भाषा और सांस्कृतिक संरचना भी पंचमेल है। इसमें हिंदुस्तान भर में बोले जाने वाले शब्द और तमाम जातीय प्रजातीय शब्द और आचार व्यवहारों का समन्वय भी देखने को मिलता है।

यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा ने भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र अनेकता में एकता को सही अर्थों में प्रस्तुत किया है।" (हिंदी सिनेमा : बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक.(सं.) प्रह्लाद अग्रवाल, संपादकीय, पृष्ठ-23)

हिंदी फिल्मों का इतिहास लगभग एक सौ वर्ष पुराना है। सन 1895 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में सिनेमा का जन्म हुआ। 28 दिसंबर 1895 को पेरिस के एक रेस्तरां 'ग्रैंड कैफे' में सर्व प्रथम फिल्म प्रदर्शित हुई। दुनिया की इस पहली फिल्म को देखने के लिए सिर्फ 30 व्यक्ति ही आए। दृश्यों का आपस में कोई ताल-मेल न था। कहानी, गीत-संगीत, संवाद आदि कुछ भी नहीं था। इस फिल्म में एक शरारती बालक द्वारा पाइप का मुँह दबाकर पाइप द्वारा बाग में माली पर फव्वारा छोड़ना, प्लेटफार्म की भीड़ में ट्रेन का आगमन आदि के दृष्य थे। इस फिल्म को बनाने बाले दो व्यक्ति आगस्ट और लुई लुमियर सगे भाई थे जो फोटो ग्राफी का सामान बेचते थे। 1901 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से गणित की परीक्षा में सर्वाधिक अंक पाने-वाले भारतीय छात्र आर.पी.परांजपे भारत लौटे तो उनके स्वदेश आगमन के दृश्य को फिल्माया गया जिसे भारत की पहली डाक्युमेंट्री फिल्म माना जाता है।

1902 में कलकत्ता के क्लासिकल थियेटर में के.शशि ने ग्रामोफोन डिस्क पर गीत रिकार्ड कराया। 1905 में जे.एफ. मदन ने फिल्म निर्देशन का काम शुरू किया। उन्होंने 1907 में कलकत्ता में देश का पहला सिनेमा हाल 'एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस' बनवाया और 1913 में अपने देश की पहली भारतीय फिल्म का निर्माण प्रारंभ हुआ जिसके जनक थे मराठी भाषी घुंडीराव गोविंद फाल्के (दादा साहब फाल्के) और फिल्म थी 'राजा हरिश्चंद्र'। यह एक गूंगी फिल्म थी जिसका प्रदर्शन 3 मई 1913 को बंबई के 'कोरेनेशन थियेटर' में हुआ। विदेश (लंदन) में सन 1914 में प्ररदर्शित होने वाली प्रथम भारतीय फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' ही थी।

उक्त फिल्म में दादा साहब फाल्के ने सब टाईटल्स अँग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में रखे थे तथा जब उन्होंने पहली बार फिल्म में आवाज भी शामिल किया तो हिंदी का ही प्रयोग किया। इतना ही नहीं, मूक फिल्मों में पर्दे के पीछे बैठ कर संगीत देने की शुरुआत एक गुजराती भाषी द्वारकादास संपत ने की थी। इतना ही नहीं, फिल्मों की अपार व्यावसायिक संभावनाओं को देखते हुए हिंदी के विशाल दर्शक समुदाय तक पहुँचने के लिए पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' ( 1931) के लिए भी हिंदी-उर्दू मिश्रित हिंदुस्तानी का प्रयोग किया गया। एक पारसी ने पहली सवाक फिल्म के लिए हिंदी को माध्यम चुना तथा सवाक फिल्मों में पार्श्वगायन देने की शुरुआत बांगला भाषी नितिन बोस ने की तथा प्रथम पार्श्वगायक बने के.सी.डे. यही हिंदुस्तान की आम बोलचाल की भाषा है जिसे प्रारंभ से ही फिल्मकारों ने पहचान लिया था।

इसी संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि 1931 में बनी कुल 27 फिल्मों में से 22 फिल्में हिंदी में बनी थी जबकि फिल्म निर्माण के तत्कालीन केंद्र तब भी अहिंदी भाषी क्षेत्र में थे तथा इससे जुड़े अधिकांश व्यक्ति भी गैर हिंदी भाषी ही थे। ह्वी. शांताराम, पी.सी.बरुआ, बिमल राय, सत्यजित रे, श्याम बेनेगल, भूपेन हजारिका जैसे सिनेमा जगत की आधिकांश दिग्गज अहिंदी क्षेत्र के थे।

हिंदी सिनेमा और संगीत का रिश्ता 'आलम आरा' से जुड़ा. 'आलम आरा' 14 मार्च 1931 को बंबई के 'मैजेस्टिक' सिनेमा में प्रदर्शित हुई थी। यह संगीत प्रधान फिल्म थी। इसे अर्देशिर ईरानी नामक एक पारसी ने बनाया था। हिंदी सिनेमा के प्रथम संगीतकार फिरोज शाह मिस्त्री और ईरानी माने जाते हैं। पहला गायक डब्ल्यु.एम.खाँ थे। उन्होंने 'आलम आरा' में गीत गाया था। 'आलम आरा' के गीतों से ही फिल्मकारों को समझ में आ गया कि संगीत, दर्शको को अमांत्रित करता है। इसके बाद बनी 'इंद्र सभा' में 71 गाने थे। वह पूरी फिल्म पद्य में थी। 'आलम आरा' की नायिका जबैदा से भारतीय फिल्मों में नायिका-अभिनेत्री का दौर शुरू हुआ। इसकी आखिरी कड़ी थी सुरैया। संवादों के साथ-साथ पार्श्व संगीत देने की शुरुआत 'अमृत मंथन' ( 1934) से हुई। प्रभात फिल्म्स के बैनर तले निर्मित इस फिल्म के निर्देशक शांताराम और संगीत निर्देशक के. भोसल थे।

साहित्य और सिनेमा के संबंध का जिक्र करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है - "उनका (सिनेमा) उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना है। सुरुचि या सुंदरता से उनका कोई प्रयोजन नहीं। वह तो जनता को वही चीज देंगे जो वह माँगती है। व्यापार-व्यापार है। वहाँ अपने नफे के सिवा और किसी बात का ध्यान करना ही वर्जित है।... जिस शौक से लोग शराब और ताड़ी पीते हैं उसके आधे शौक से दूध नहीं पीते। साहित्य दूध होने का दावेदार है। सिनेमा ताड़ी या शराब की भूख को शांत करता है। जब तक साहित्य अपने स्थान से उतर कर और अपना चोला बदलकर शराब न बन जाएँ, उसका वहाँ निर्वाह नहीं। साहित्य के सामने आदर्श है, संयम है, मर्यादा है। सिनेमा के लिए इनमें से किसी वस्तु की जरूरत नहीं। सेंसर बोर्ड के नियंत्रण के सिवा उस पर कोई नियंत्रण नहीं।" ( उद्धृत, सिनेमा और जीवन, हिंदी सिनेमा का सच, समकालीन सृजन, (सं.) मृत्युंजय, पृ. 12)

हिंदी सिनेमा को लेकर प्रेमचंद की उक्त अवधारणा उनके अपने अनुभवों का परिणाम थी। मेरा अपना अनुभव है कि बांग्ला फिल्मों के बारे में प्रेमचंद ठीक यही बातें नहीं कह सकते थे। बंगला के प्रभाव से ही सही, हिंदी क्षेत्र में भी नवजागरण हुआ था जिसके अग्रदूत भारतेंदु थे। इतना ही नहीं, हिंदी क्षेत्र में भक्ति आंदोलन जैसा बड़ा सुधारवादी आंदोलन हो चुका था जिसका व्यापक असर रवींद्रनाथ जैसे विश्वकवि पर भी पड़ा था (उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ ने कबीर के एक सौ पदों का अँग्रेजी में अनुवाद किया था। उन्होंने सूर और तुलसी पर कविताएँ लिखी थी) रामविलास शर्मा ने इस भक्ति आंदोलन को लोक जागरण का काव्य कहा है। किंतु अपनी इस विरासत से हिंदी सिनेमा ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया। इसका मुख्य कारण यही है कि हिंदी फिल्मों के निर्माता, हिंदी की जातीय संस्कृति से गहराई से परिचित नहीं हैं।

इतना ही नहीं, वे परिचित होने की कोशिश भी नहीं करते हैं। प्रकाश झा को छोड़ दें तो हिंदी सिनेमा का एक भी बड़ा निर्माता हिंदी क्षेत्र का नहीं दिखाई देता। हिंदी के जायादातर दर्शक भी सुसंस्कृत नहीं हैं। हिंदी की आर्ट फिल्में आमतौर पर असफल साबित होती रही हैं। हिंदी फिल्मों का अधिकांश दर्शक या तो मारधाड़ और सेक्स देखने सिनेमा हालों में जाता है या हँसने के लिए। किसी तरह का संदेश देने वाली कलात्मक और गंभीर फिल्में हिंदी दर्शकों को बोर करती है। इस तरह के संस्कार उनमें विकसित नहीं हो सके हैं। इसीलिए हिंदी कला फिल्मों के निर्माण के बारे में निर्माता हजार बार सोचता है। बंगला में स्थिति इससे बिलकुल अलग है। वहाँ कला फिल्में इस तरह फ्लाप नहीं होती। वहाँ कला और व्यावसायिक फिल्मों के अनुपात के आधार पर अंतर आसानी से समझा जा सकता है। इससे पता चलता है कि हिंदी की तुलना में बंगला फिल्मों के दर्शक अधिक सुसंस्कृत और संपन्न अभिरुचि के हैं।

सत्यजीत रे अपनी फिल्मों में जिस विरासत को लेकर चल रहे थे वह बंगाल का पुनर्जागरण था। राजा राम मोहन राय, केशवचंद्र सेन और रवींद्रनाथ टैगोर ने जिस संस्कृति और दर्शन को प्रतिष्ठित किया था सत्यजीत रे ने उसी विचारधारा को आत्मसात किया और उसे ही अपने सिनेमा में अभिव्यक्त किया। उनकी क्लासिक कृति 'पाथेर पांचाली' में आलोचकों को भारतीय जन नाट्य संघ की परंपरा के साथ साम्य दिखाई देता है क्योंकि इसमें ग्रामीण बंगाल में व्याप्त निर्धनता की परिस्थितियों का चित्रण है लेकिन वह परिवार जिसके जीवन को उन्होंने कथ्य बनाया है पूर्वकाल के संपन्न वर्ग से संबंधित था।

गाँव का ब्राह्मण पुरोहित कवि, जो अब पश्चिमी सभ्यता के आग्रह और शहरीकरण, जिसके प्रति इस पुरोहित कवि का पुत्र आकर्षित हो जाता है, पर जोर के कारण दुर्दिनों का शिकार हो गया है। इतना ही नहीं, 1981 में सत्यजीत रे द्वारा बनाई गई फिल्म 'सद्गति', जो प्रेमचंद की इसी नाम से प्रकाशित कहानी पर आधारित है, यह प्रदर्शित करती है कि हिंदू-समाज में सबसे निचले तबके का एक जाति च्युत व्यक्ति भी हिंदू-धर्म के सामाजिक नियमों से कितनी मजबूती से जकड़ा हुआ है। इस तरह से हिंदू परंपराओं को चुनौती देने वाला सुधारवादी आंदोलन इस अर्थ में महत्वपूर्ण था कि उसने जाति प्रथा द्वारा निर्देशित दासता को पहली बार चुनौती दी।

हिंदी सिनेमा के निर्माता अहिंदी भाषी ही अधिक हैं और जैसा कि प्रेमचंद ने लिखा है कि पैसा कमाना ही उनका मुख्य उद्देश्य रहता है किंतु हिंदी सिनेमा के इस दमघोंटू वातावरण में भी श्याम बेनेगल, विमल राय, गोविंद निहलानी, मृणाल सेन, के.ए. अब्बास, गौतम घोष, केतन मेहता, कुमार शाहनी, एम.एस. सथ्यू,, जाह्नु बरुआ, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, मणि कौल, सागर सरहदी तथा अपर्णा सेन जैसे निर्माताओं की उपस्थिति से हिंदी सिनेमा समृद्ध हुआ है। हिंदी दर्शकों के हिस्से में ऐसी फिल्में भी आई जिनसे उनकी सामाजिकता समृद्ध हुई। श्याम बेनेगल 'मंडी' और अपर्णा सेन की 'परमा' जैसी फिल्में स्त्री शोषण, उत्पीड़न और विद्रोह पर आधारित हैं। इन फिल्मकारों की 'आक्रोश', 'भुवन सोम', 'अर्धसत्य', 'आघात', 'दामुल', 'परिणति', 'गर्म हवा', 'सूखा', 'पार', 'मंथन', 'अंकुर', 'निशांत', 'सारा आकाश', 'रजनी गंधा', 'दुविधा', 'माया दर्पण', 'अनुभव' आदि फिल्मों ने समाज को बेहतर संदेश देने का जोखिम उठाया और सिनेमा के प्रति एक उम्मीद जगायी। किंतु यह उम्मीद अधिक समय तक कायम नहीं रह सकी और लोकप्रिय सिनेमा के पैरोकारों के सामने कला फिल्मों की यह दुनिया सिकुड़ती चली गई। लोकप्रिय फिल्मकारों के अपने तर्क हैं। वे प्रदर्शित करना चाहते हैं कि फिल्मो में प्रदर्शित हिंसा, सेक्स, बलात्कार, नग्नता, अश्लीलता, व्यभिचार, चरित्रहीनता आदि हमारे समाज के यथार्थ हैं।

किंतु सच्चाई यह है कि सिनेमा में प्रदर्शित होने वाली ये विद्रूपताएँ समाज में अधिक बिकती हैं, उसमें मुनाफा ज्यादा है। जाहिर है, सिनेमा एक उद्योग है जिसका मुख्य उद्देश्य मुनाफा कमाना ही है।

नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन और अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के विश्वव्यापी प्रसार से हिंदी फिल्में बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। इन दिनों निर्मित हिंदी फिल्में एक ओर यदि अभिजात-वर्ग की परिवार केंद्रित भावनात्मक समस्याओं को लोकप्रिय मुद्दा बना रही हैं तथा उदारीकरण तथा निजीकरण से उत्पन्न समाज के एक हिस्सें की समृद्धि को महिमा-मंडित कर रही हैं तो दूसरी ओर समाज के अपराधीकरण को भी महिमा-मंडित कर रही हैं। पिछले दिनों माफिया गिरोहो की कारस्तानियों को कई तरह से और बार-बार फिल्माया गया है।

विगत दो दशकों में हिंदी सिनेमा ने अपनी बची-खुची जातीय और लोक परंपराओं को भी काफी हद तक भुला दिया है। अब हिंदी फिल्मों का संबंध ग्रामीण यथार्थ से लगभग खत्म हो चुका है। मल्टीप्लेक्स के आगमन ने हिंदी सिनेमा की पूरी संस्कृति को ही बदल कर रख दिया है। पहले बड़े-बड़े सिनेमा हालों में समाज के सभी तबकों के लोग एक साथ बैठकर फिल्में देखते थे। यद्यपि वहाँ भी दर्शकों में स्तर भेद था और टिकटों के दाम अलग-अलग थे किंतु आज की तरह नहीं। आज मल्टिप्लेक्स में एक साथ तीन- तीन, चार-चार फिल्में दिखाई जाती हैं। अँग्रेजी बोलने वाला उच्च और उच्च मध्य वर्ग अपने समकक्ष दर्शकों के साथ बैठकर छोटे-छोटे हालों में फिल्में देखता है। इन्हीं दर्शकों को ध्यान में ऱखकर आज फिल्मों का उत्पादन भी हो रहा है।

पिछले दिनों बनने वाली हिंदी फिल्मों के शीर्षकों पर यदि नजर दौड़ाएँ तो इस परिवर्तन की कुछ बानगी देखी जा सकती है। पहले जहाँ शीर्षक शुद्ध हिंदी या हिंदुस्तानी में हुआ करते थे, वहाँ अब 'वैलडन अब्बा' ( 2010), 'मेरे ब्रोदर की दुल्हन' ( 2011), 'डबल धमाल' (2011), 'आलवेज कभी-कभी (2011), 'एक था टाईगर' ( 2012), 'साहब, बीबी और गैंगस्टर्स रिटर्न' ( 2013), 'चेन्नई एक्सप्रेस' ( 2013) जैसे शीर्षकों वाली फिल्मों की बाढ़ आ गई है।

हिंदी जाति के पिछड़ेपन का यह एक खास नमूना है। पिछलें दिनों तो हिंदी फिल्मों के पूरे के पूरे शीर्षक ही अँग्रेजी के देखे गए। जैसे 'बाडीगार्ड' ( 2011), 'दी डर्टी पिक्चर' ( 2011) 'वन्स अपोन ए टाईम इन मुम्बई' ( 2010) 'सन आफ सरदार' ( 2012) 'शूट आउट ऐट वडाला' ( 2013) 'स्पेशल -26' ( 2013) और 'पीके' ( 2014) आदि।

इस तरह आज हिंदी सिनेमा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के लिए उपभोक्ता तैयार करने का माध्यम बन गया है। यह उपभोक्ता वर्ग तभी तैयार हो सकता है जब दर्शकों को उनकी अपनी देशज संस्कृति से च्युत किया जा सके, और यह काम भाषा को विकृत करके सबसे आसानी से किया जा सकता है। आज बाजारवाद यह कुचेष्टा कर रहा है कि हिंदी भाषी संस्कृति की जड़ों को ही सुखा दिया जाएँ। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने इस उद्देश्य में सफल होती जा रही हैं। हिंदी फिल्मों की भाषा हिंदी या हिंदुस्तानी की जगह इंग्लिश होती जा रही है और इस तरह हिंदी सिनेमा अपनी जातीय छबि को धवस्त और विकृत करता जा रहा है।

सातवें दशक के आरंभ से सिनेमा का मूल्यांकन कलात्मक आधार पर उसे दो वर्गों में बाँटकर किया जाने लगा। कला सिनेमा (आर्ट फिल्म) और लोकप्रिय सिनेमा (पापुलर फिल्म)। लोकप्रिय सिनेमा की प्रतिक्रिया में साठ के दशक से ही फिल्मकारों का अलग वर्ग उभरना शुरू हो गया था जिसे 'समांतर सिनेमा', 'कला सिनेमा' और 'नया सिनेमा' जैसे नामों से पुकारा जाने लगा। इस तरह की फिल्मों की विशेषताओं में छोटा बजट, यथार्थ पर केंद्रित विषय वस्तु और भारतीय दृश्य महत्वपूर्ण है। भारत में कला सिनेमा की आतंरिक प्रेरणा के स्रोत सत्यजित रे माने जाते हैं जिन्होंने 1955 में 'पाथेर पांचाली' बनाकर विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा को जगह दिलायी। हिंदी को छोड़कर बाकी भाषाओं में कला फिल्मों ने अपने स्थाई दर्शक बना लिए तथा उनकी निर्माण गति तुलनात्मक रूप से ज्यादा है। व्यावसायिक सिनेमा के माफियओं ने भी कला फिल्मों के प्रदर्शन और वितरण को बुरी तरह प्रभावित किया है। प्रख्यात अभिनेता उत्पल दत्त के शब्दों में - " ये (माफिया) लोग सत्यजित रे की किसी फिल्म को अनिश्चित काल तक रोके रख सकते हैं। मृणाल सेन को बंगला से खदेड़कर तेलुगू में फिल्म बनाने पर मजबूर कर सकते हैं, सथ्यू 'गर्म हवा' के धमाके के बाद कोई दूसरी हिंदी फिल्म नहीं बना सके।" (उत्पल दत्त का लेख, भारतीय सिनेमा : गुस्सा करने का समय, इतिहास बोध, सिनेमा अंक-19, पृष्ठ-8)

हिंदी जाति के संगीत को हिंदुस्तानी संगीत कहा जाता है। संगीत की इस दुनिया में उर्दू-हिंदी का बँटवारा नहीं किया जा सका है। हम आज भी हिंदी के जातीय संगीत को 'हिंदुस्तानी संगीत' ही कहते हैं, इस संगीत का इतिहास वैदिक काल से शुरू होता है। इसकी परंपरा को हिंदी जाति के जिन दिग्गजों ने समृद्ध किया है उनमें हिंदू भी हैं और मुसलमान भी। तानसेन इस परंपरा के सिरमौर हैं। इसे उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ, अमजद अली खाँ जैसे मुसलमानों से लेकर पंडित रविशंकर तक और उधर सुरैया, मोहम्मद रफी से लेकर मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, किशोर कुमार और लता मंगेस्कर तक सबने मिलकर समृद्ध किया है।

हिंदी के भक्ति साहित्य का संगीत से घनिष्ठ संबंध का विश्लेषण करते हुए रामविलास शर्मा ने संगीत के इतिहास पर एक पूरी पुस्तक लिखी है। उनकी मान्यता है कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत दोनों को भक्ति साहित्य की महत्वपूर्ण देन है। उनके अनुसार ध्रुपद और धमार गायकी ब्रज की थी और वहीं से वह ग्वालियर-आगरा और फिर दिल्ली के दरबारों में पहुँची थी। यही ब्रज भाषा काव्य की भी भाषा थी और संगीत की भी। यही हिंदुस्तानी संगीत और हिंदी साहित्य के वैभव का युग भी है। आचार्य बृहस्पति का उद्धरण देते हुए रामबिलास शर्मा ने हिंदी भाषा, ब्रज और हिंदुस्तानी संगीत में अमीर खुसरो की देन को बड़े आदर के साथ याद किया है। वे ब्रज में जन्मे थे। उसके बाद अवध और फिर दिल्ली पहुँचे थे। अमीर खुसरो की रुझान शास्त्रीय संगीत की तुलना में लोक संगीत पर अधिक थी। रामविलास शर्मा के अनुसार संतों की संस्कृति जनवादी थी, उनके पद लोकगीतों की ही एक उठी हुई लहर थी इसीलिए आज भी शास्त्रीय गायक सूर-मीरा के पद गातें या साज पर कोई लोकधुन बजाते हैं या फिर गायिकाएँ कजरी इत्यादि से समापन करती हैं और इस तरह संगीत के मूल स्रोत को प्रणाम करती हैं। तानसेन की संगीत की इस परंपरा को परवर्ती काल में मल्लिकार्जुन मंसूर, पलुस्कर, उस्ताद फैयाज खाँ, बड़े गुलाम अली खाँ, भीमसेन जोशी, सिद्धेश्वरी देवी, किशोरी मोनकर, पंडित रविशंकर, बिस्मिल्ला खाँ, अलाउद्दीन खाँ जैसे संगीतकारों ने समृद्ध किया है। हिंदी प्रदेश से ही हिंदी भाषियों का यह जातीय संगीत पश्चिम में महाराष्ट्र और पूर्व में बंगाल तक फैला है।

लोक भाषाओं में संचित आंचलिक साहित्य और शासक वर्ग की भाषा में रचित शिष्ट साहित्य के बीच का चरित्रगत भेद उसके साहित्य में साफ दिखाई देता है भले ही उस पर अभी पंडितों की पैनी और वैज्ञानिक दृष्टि न पड़ी हो। आंचलिक साहित्य, जिसे मैं लोक साहित्य कहना अधिक उपयुक्त समझता हूँ बहती नदी के समान होता है, फलत: बहने के क्रम में धारा बहुत कुछ छोड़ देती है और इसी तरह नए तत्वों को अपने साथ बहाकर ले भी जाती है। लोक अपने आनंद में उसी तरह उत्फुल्ल होता है जैसे प्रकृति होती है। इसीलिए लोक का रचनात्मक आनंद कही भी व्यक्तिगत नहीं है। इस आनंद पर सबका अधिकार है। लोक गायकी में व्यक्तिगत गायकी है ही नहीं। औरत और पुरुष सामूहिक रूप से सोहर, फाग, कजरी, चैता आदि गाते हैं। अनेक सुरों की एकांतता से न किसी का अहंकार व्यक्त होता है न किसी की हीनता। लोक की समस्त जीवन पद्धति और उसकी समस्त कला संरचनाओं का मूल लक्ष्य सत्य के करीब पहुँचने के साथ आत्म-मुक्ति के आनंद को प्राप्त करना होता है। अपनी भावनाओं के विस्तार के लिए उसने प्राकृतिक उद्दीपनों को अपनी काव्य चेष्टाओं में अभिव्यक्त किया है।

वसंत, वर्षा, शरद, ग्रीष्म आदि के अनुभवों ने उसके भीतर जो संवेदनाएँ जागृत की उन्हीं संवेदनाओं के परिणाम स्वरूप उसने लोक कलाओं के स्फुरणों को समेंटा है। चांचर, फाग, धमार, कजरी जैसी लोक गायकी में ऋतु उद्दीपनों के साथ जैविक अनुभूतियों की अनुगूंज भी लय संरचना के रूप में रही होगी। उसके विषय वृत्त में क्रमशः फैलाव आता गया।

लोक और शिष्ट समुदाय के वाद्य भी अलग-अलग हैं। हुड़का, करताल, झांझ, मृदंग, ढोलक, नगारा, मजीरा, झाल, खजड़ी, सिंघा आदि हिंदी क्षेत्र के प्रचलित लोक वाद्य हैं।

इस तरह सारी दुनिया में हिंदी फिल्मों ने अपने गीतों के माध्यम से हिंदी भाषा और हिंदी की जातीय संस्कृति को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है फिर भी हिंदी की जातीय संस्कृति के प्रति हमारे देश के आम नागरिकों में सम्मान का भाव नहीं जाग सका है और न तो हिंदी समाज ही अपनी विरासत को ठीक से पहचान सका है। दुनिया के सामने हिंदी जाति की सम्मान जनक छवि भी नहीं बन सकी है।


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