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विमर्श

हिंदी जाति की समस्याएँ

अमरनाथ

अनुक्रम 14. उपसंहार पीछे     आगे

संसद में भोजपुरी सहित हिंदी की कई बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का बिल पेश करने की तैयारी वर्षों से चल रही है। 17 मई 2012 को तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने लोकसभा के सांसदों को इस आशय का आश्वासन दे दिया था।

उन्होंने संसद में 'हम रउआ सबके भावना समझतानी' जैसा भोजपुरी का वाक्य बोलकर भोजपुरी भाषियों का दिल जीत लिया था। उक्त वाक्य उसी गृहमंत्री का था जिनकी जबान से इस देश की राजभाषा हिंदी के शब्द सुनने के लिए कान तरसते रह गए। सच है भोजपुरी भाषी आज भी दिल से ही काम लेते हैं, दिमाग से नहीं, वर्ना, अपनी अप्रतिम ऐतिहासिक विरासत, सांस्कृतिक समृद्धि, श्रम की क्षमता, उर्वर भूमि और गंगा यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों के रहते हुए यह हिंदी भाषी क्षेत्र आज भी सबसे पिछड़ा क्यों रहता ? यहाँ के लोगों को तो अपने हित-अनहित की भी समझ नहीं है। वैश्वीकरण के इस युग में जहाँ दुनिया के देशों की सरहदें टूट रही हैं, टुकड़े-टुकड़े होकर विखरना हिंदी भाषियों की नियति बन चुकी है।

अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है। साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि 'थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली'। जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएँ आठवीं अनुसूची में शामिल थी। फिर 14, 18 और अब 22 हो चुकी हैं। अकारण नहीं है कि जहाँ एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएँ यानी अस्मिताएँ टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है। हमारी दृष्टि में ही दोष है। इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के लोगों द्वारा ग्लोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ो-टुकड़ो में बाँट करके कमजोर किया जा रहा है।

अस्मिताओं की राजनीति करने वाले नेताओं को तो सिर्फ जिन्हें वोट चाहिए। उन्हें पता होता है कि किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति की भावनाओं में बहाकर गाँव की सीधी-सादी जनता का मूल्यवान वोट हासिल किया जा सकता है। इसी तरह भोजपुरी का अभिनेता रवि किसन यदि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए संसद के सामने धरना देने की धमकी देता है तो उसका निहितार्थ समझ में आता है क्योंकि, एक बार मान्यता मिल जाने के बाद उन जैसे कलाकारों और उनकी फिल्मों को सरकारी खजाने से भरपूर धन मिलने लगेगा। सांसद और अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा ने लोकसभा में यह माँग उठाते हुए दलील दिया था कि इससे भोजपुरी फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता और वैधानिक दर्जा दिलाने में काफी मदद मिलेगी।

बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने में वे साहित्यकार सबसे आगे हैं जिन्हें हिंदी जैसी समृद्ध भाषा में पुरस्कृत और सम्मानित होने की उम्मीद टूट चुकी है। हमारे कुछ मित्र तो इन्हीं के बल पर हर साल दुनिया की सैर करते हैं और करोड़ो का वारा- न्यारा करते हैं। स्मरणीय है कि नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी मैथिनी कृति पर मिला था किसी हिंदी कृति पर नहीं। मगर बुनियादी सवाल यह है कि आम जनता को इससे क्या लाभ होगा?

वस्तुत: साम्राज्यवाद की साजिश हिंदी की शक्ति को खंड-खंड करने की है क्योंकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिंदी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है। इस देश में अँग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिंदी ही है। इसलिए हिंदी को कमजोर करके इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है। अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद का यही एजेंडा है।

अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की सचमुच चिंता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए। उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिंदी से अलग कर देना और उसके समानांतर खड़ा कर देना तो उसे और हिंदी, दोनों को कमजोर बना देना और उन्हें आपस में लड़ाने की जमीन तैयार करना है।

वस्तुत: हिंदी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिंदी ही है। हिंदी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता है। हिंदी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमें हम अपने सारे औपचारिक और शासन संबंधी काम काज करते हैं। यदि हिंदी की तमाम बोलियाँ अपने अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिंदी की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो जाएगी।

इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना पड़ेगा। विद्यापति को अब तक हम हिंदी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे। अब हम उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं। अब वे सिर्फ मैथिली के कोर्स में पढ़ाये जाएँगे। क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाएँ?

वैसे भी उत्तर भारत के दस राज्यों को हिंदी भाषी राज्य कहा जाता है। कुछ लोग इसे हिंदी पट्टी या हिंदी बेल्ट भी कहते हैं। इन सभी राज्यों में सरकारी काम-काज आम तौर पर राज भाषा हिंदी में होता है, इसीलिए हमारे संविधान में इन राज्यों को 'क' श्रेणी में रखा गया है। इतना ही नहीं, मानव सभ्यता का इतिहास हमें बताता है कि दुनिया भर में गणों से लघु जातियाँ और फिर महाजातियाँ बनी हैं। महाजातियों से लघु जातियों की तरफ जाना एक इतिहास विरोधी कदम है और इतिहास की सूई कभी उल्टी दिशा में नहीं जाती। जो लोग इस तरह की माँग कर रहे हैं वे लोग इतिहास की गति को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर सकते हैं और इस तरह एक बड़े मानव समुदाय की प्रगति को बाधित कर सकते हैं।

मैं फिर कहना चाहता हूँ कि हिंदी जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है। वह दस राज्यों में फैली हुई है। साम्राज्यवाद इस देश के सत्ताधारी वर्ग से मिलकर इसकी शक्ति को छिन्न-भिन्न करना चाहता है। ब्यूरोक्रेसी इसमें बढ़चढ़कर सहयोग कर रही है। क्योंकि इसी में उसका फायदा है। हिंदी की बोलियों को संवैधानिक दर्जा देने से उन्हें एक-दूसरे के आमने-सामने आसानी से खड़ा किया जा सकेगा। हिंदी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी और हिंदी भाषी ज्ञान की भाषा से दूर रहकर कूपमंडूक बने रहेंगे। बोलियाँ तो हिंदी से अलग होकर खुद अलग-थलग पड़ जाएगी और कमजोर होकर खत्म हो जाएगी।

याद रहे, चीनी का सबसे छोटा दाना पानी में सबसे पहले घुलता है। हमारे ही किसी अनुभवी पूर्वज ने कहा है - "अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च। अजा पुत्रं बलिं दद्यात दैवो दुर्बल घातक:।"

अर्थात घोड़े की बलि नहीं दी जाती, हाथी की भी बलि नहीं दी जाती और बाघ के बलि की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। बकरे की ही बलि दी जाती है। दैव भी दुर्बल का ही घातक होता है।

अब तय हमें ही करना है कि हम बाघ की तरह बनकर रहना चाहते हैं या बकरे की तरह।

अपने नए सर्वेक्षण में ज्ञान के सबसे बड़े सर्च इंजन विकीपीडिया ने दुनिया की सौ भाषाओं की सूची में हिंदी को चौथा स्थान दिया है। अब तक हिंदी को दूसरे स्थान पर रखा जाता था। पहले स्थान पर चीनी थी। यह परिवर्तन इसलिए हुआ की सौ भाषाओं की इस सूची में भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को हिंदी से अलग स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिया गया है। आज भी यदि हम इनके सामने अंकित संख्याओं को हिंदी बोलने वालों की संख्या में जोड़ दें तो फिर हिंदी दूसरे स्थान पर पहुँच जाएगी। किंतु यदि उक्त भाषाओं के अलावा राजस्थानी, ब्रजी, बुंदेली, अंगिका, कुमायूनी-गढ़वाली जैसी बोलियों की गणना भी स्वतंत्र भाषाओं के रूप में की जाएँ तो हिंदी सातवें-आठवें स्थान पर खिसक जाएगी। कहना न होगा, जिस तरह से हिंदी की उक्त बोलियों द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों से की जा रही है, इस बात की पूरी संभावना है कि यह परिघटना आने वाले कुछ ही वर्षों में यथार्थ बन जाएगी।

22 से 24 सितंबर, 2012 को दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में 9वां विश्व हिंदी सम्मेलन संपन्न हुआ था। मुझे भी उसमें शिरकत करने का मौका मिला। यह देखकर मुझे बेहद निराशा हुई कि खंड-खंड टुकड़ों में विखरती हुई हिंदी की यह सबसे बड़ी चुनौती अचर्चित ही रह गई। विश्व हिंदी सम्मेलन की आयोजन समिति के कुछ सदस्यों से मैंने पहले ही इस विषय पर चर्चा की थी ताकि यह मुद्दा वहाँ विचार का विषय बन सके। मैंने सम्मेलन से जुड़े विदेश मंत्रालय के दो प्रमुख अधिकारियों को विस्तार से लिखकर अपना प्रस्ताव एक हफ्ते पहले मेल से भेजा था, फोन से बात की थी।

नौ सत्रों में विभाजित उक्त सम्मेलन का कायदे से एक सत्र इस ज्वलंत विषय पर होना चाहिए था, किंतु इस विषय पर कोई चर्चा नहीं हुई। मुक्तिबोध की मशहूर कविता की पंक्ति है - "जिसकी भी पूँछ उठाई मादा पाया।" सम्मेलन में विभिन्न विषयों पर आयोजित संगोष्ठियों की सदारत कर रहे अथवा बीज वक्तव्य दे रहे विद्वान लोग व्यवस्था की भंगिमा को परखने में इतने माहिर थे कि उनकी जबान से ऐसा कुछ भी नहीं निकला जो सरकार की भाषा नीति के तनिक भी प्रतिकूल हो। उन्हें पता था कि भोजपुरी आदि बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने वाला बिल संसद के पिछले सत्र में ही आ गया होता यदि पूरा सत्र कोयला घोटाले की भेंट न चढ़ गया होता।

मैं यह देखकर हैरान था कि एक सत्र में विशिष्ट अतिथि के रूप में बोल रहे माननीय मणिशंकर अय्यर ने जब कहा कि - "भारत के लोकतंत्र में सिर्फ एक ही भाषा को खतरा है और वह है अँग्रेजी' तथा "यदि हिंदी का विकास चाहते हैं तो उसे प्रोत्साहन देना बंद कीजिए, वह अपना स्थान खुद बनाएगी।" तो उसके लिए खूब तालियां बजायी गयीं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि फिर हिंदी के नाम पर भारत से सात हजार किलोमीटर दूर जोहांसबर्ग में जनता की कमायी के करोड़ो रूपये खर्च करने की क्या जरूरत थी? इस निर्णय में तो उनकी भी खास भूमिका रही है। क्या उक्त सम्मेलन हिंदी के नाम पर पर्यटन और मौज-मस्ती के अलावा कुछ भी नहीं था? बढ़-चढ़कर ताली बजा रहे एक दलित लेखक से जब मैंने कहा कि जब सब कुछ अपने आप हो जाएगा तो वे दलितों के लिए लड़ायी क्यों लड़ते हैं तो उनका मुँह देखने लायक था।

बहरहाल, हिंदी भाषा दुनिया की एक हकीकत है और यदि हिंदी भाषा का अस्तित्व है तो हिंदी जाति के अस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि दुनिया की प्रत्येक भाषा किसी न किसी जाति की होती है। हिंदी इस देश को जोड़ने वाली भाषा है। दक्षिण से कश्मीर को और असम से गुजरात को हिंदी प्रदेश ही जोड़ता है। हिंदी प्रतिरोध की भाषा भी है। 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम हिंदी के माध्यम से लड़ा गया, महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी लड़ाई भी हिंदी के माध्यम से लड़ी गई और पिछले दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मराठी भाषी अन्ना हजारे के नेतृत्व में आंदोलन हिंदी में ही लड़ा गया। स्पष्ट है हिंदी भाषा और हिंदी जाति को चाहे जितना भी दबाया और तोड़ा जाएँ इस देश को संगठित और मजबूत बनाने में उसकी अग्रणी भूमिका बनी रहेगी।

रामविलास शर्मा हिंदी जाति की अखिल भारतीय स्वीकृति के लिए और उसके भीतर जातीय चेतना के विकास के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि हिंदी जाति के पिछड़ेपन से उबरने का यही एक रास्ता है।

मैं हिंदी जाति के ऐसे अप्रतिम योद्धा को नमन करते हुए अपनी लेखनी को विराम देता हूँ।

डॉ. अमरनाथ


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