भारत संभवतः दुनिया का अकेला ऐसा मुल्क है जहाँ सदियों से जाति प्रथा पाई जाती है जिसका निर्धारण व्यक्ति के जन्म से ही हो जाता है, इसलिए जब हम 'जाति' शब्द का प्रयोग करते हैं तो पाठक या श्रोता के सामने सबसे पहले इसी अर्थ की अभिव्यक्ति होती है। ऐसा इसलिए होता है कि जाति (कास्ट) हमारी समाज व्यवस्था और राजनीतिक वर्चस्व में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। परंतु 'जाति' शब्द सिर्फ इसी अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता। वह 'नस्ल' (रेस) और 'कौम' (नेशनेलिटी) के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। इसलिए 'जाति' एक क्षेत्र या प्रदेश में रहने वाले उस बड़े मानव समुदाय को भी कहते हैं जो सांस्कृतिक जीवन, आर्थिक संबंधों और भाषा की समानता के कारण परस्पर जुडे़ होते हैं। 'जाति' मानव समुदाय का एक ऐसा समूह है जो सामाजिक विकास की एक निश्चित मंजिल में अपना स्वरूप ग्रहण करता है और भाषा तथा आर्थिक जीवन एवं सांस्कृतिक विशिष्टताओं में ऐक्य तथा समभाव का अनुभव करता है। रामविलास शर्मा ने जातीयता के गठन के लिए जिन चार तत्वों को जरूरी माना है, वे हैं - सामान्य भाषा, सामान्य प्रदेश, सामान्य संस्कृति और सामान्य आर्थिक जीवन। इस दृष्टि से अँग्रेजी के 'नेशन' और हिंदी के 'जाति' शब्द समानार्थी जैसे लगते हैं। दि शार्टर आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में 'नेशन' का अर्थ दिया हुआ है, 'ए डिस्टिंक्ट रेस आर पीपुल कैरेक्टराइज्ड बाई कामन डिसेंट, लैंग्वेज आर हिस्ट्री आर्गनाइज्ड ऐज ए सेपरेट पोलिटिकल स्टेट एंड अक्कुपाइंग ए डेफिनिट टेरीटरी।'
'नेशन' शब्द की उक्त परिभाषा के आलोक में देखे तो 'नेशन' और 'जाति' में राजनीतिक स्वायत्ता के अलावा अन्य कोई फर्क नहीं दिखाई देता। इसके अनुसार भारतीय समाज में प्रदेशों में रहने वाली बंगाली, उड़िया, असमी, पंजाबी आदि जातियाँ 'नेशन' हैं जबकि अलग राज्य के लिए आंदोलन चलाने वाली उत्तर बंगाल की 'गोरखा' एक जाति है जो 'गोरखालैंड' के रूप में अपनी राजनीतिक स्वायत्ता चाहती है। जिस दिन उसे राजनीतिक स्वायत्ता मिल जाएगी, वह भी 'नेशन' हो जाएगी, दूसरी ओर, सब प्रदेशों को मिलाकर भारत के सारे लोग भी एक 'नेशन' के अंतर्गत हैं। इस अवधारणात्मक अव्यस्था का कारण वास्तव में यह है कि हिंदी के 'राष्ट्र' शब्द के लिए अँग्रेजी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं है। रामविलास शर्मा ने भी इसे नोटिस किया है। उन्होंने कहा है अँग्रेजी में राष्ट्रीय (आंदोलन) के लिए 'नेशनल' शब्द का ही व्यवहार हो सकता है - आंदोलन में एक जाति के लोग हो तब भी वह नेशनल है, जैसे आयरलैंड के लोग अपनी स्वाधीनता के लिए लड़े तो वह उनका नेशनल संग्राम था और भारत में अनेक प्रदेशों के लोग अपनी स्वाधीनता के लिए लड़े तो उनका भी वह नेशनल लिबरेशन मूवमेंट था। अँग्रेजी में 'पैट्रियाटिज्म' (देशभक्ति) शब्द है परंतु जिस मूल शब्द से यह पैट्रियाटिज्म शब्द बना है वह 'पैट्रिया' शब्द व्यवहार में नहीं आता। रामविलास जी के अनुसार अँग्रेजी में 'पैट्रिया' शब्द का व्यवहार होने लगे तो जिसे हम बहुजातीय राष्ट्र कहते हैं उसे वे मल्टीनेशनल पैट्रिया कह सकते हैं। महाराष्ट्र और सौराष्ट्र जैसे नामों को छोड़ दे तो अब 'राष्ट्र' की संज्ञा का उपयोग पूरे देश के लिए होता है और यह माना जाता है कि इस देश के अंतर्गत अनेक प्रदेशगत जातियाँ रहती हैं। नेशन और नेशनलिज्म शब्दों के अर्थ की अनिश्चितता के विषय में आज के प्रसिद्ध विचारक ई.जे. हाब्सबाम ने लिखा है कि नेशन शब्द का व्यवहार आज इतने अनिश्चित और व्यापक अर्थ में होता है कि नेशनलिज्म की शब्दावली आज अर्थहीन हो गई है। (द वर्ड नेशन इज टुडे यूज्ड सो वाइडली एंड इम्प्रीसाइजली दैट द यू आफ वाकैबुलरी आफ नेशनलिज्म टुडे मीन वेरी लिटिल इनडीड)।
इस तरह एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले, आपस में संपर्क के लिए औपचारिक रूप से एक सामान्य भाषा का व्यवहार करने वाले, एक सामान्य संस्कृति वाले और सामान्य आर्थिक संबंधों में जुड़े हुए एक वृहत्तर मानव समुदाय को 'जाति' कहते हैं। उदाहरणार्थ भारत में बंगाली, उडि़या, मराठी, तमिल, गुजराती आदि तथा भारत से बाहर अँग्रेज, आयरिश, जर्मन, रूसी, फ्रेंच आदि जातियाँ हैं। जाति के निर्माण में आर्थिक संबंध मुख्य हैं। लेकिन एक बार जाति का निर्माण हो जाने के बाद भाषा और संस्कृति लोगों को जोड़े रखती है। यहाँ तक कि राजनीतिक दृष्टि से अलग हो जाने के बावजूद उनकी जातीयता टूट नहीं पाती। बंगला देश और पश्चिम बंगाल का उदाहरण इसका प्रमाण है। दो देश हैं मगर इन दोनों देशों में एक ही जाति-बंगाली जाति रहती है। अन्य भी बहुत से उदाहरण हैं जापान और फिलीपींस के लोग अलग-अलग द्वीपों में रहकर भी जातीय दृष्टि से एक हैं। तमिल लोग श्रीलंका में रहकर भी अपनी जातीय अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उत्तर बंगाल के नेपाली भाषी गोरखा जाति के लोग विगत लगभग तीन दशक से अपने लिए अलग राज्य की माँग कर रहे हैं और उनका आंदोलन तब तक चलता रहेगा जब तक उनकी जाएँज माँग पूरी नहीं होती क्योंकि उनकी स्वायत्तता एक ऐतिहासिक मंजिल और प्रगतिशील कदम है।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, जातीय गठन के चार प्रमुख तत्व होते हैं -सामान्य भाषा, सामान्य संस्कृति, सामान्य क्षेत्र और सामान्य आर्थिक जीवन। इसमें सबसे प्रमुख तत्व है सामान्य भाषा। जातीय भाषाओं के विकास की प्रक्रिया जातियों के निर्माण के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। राजनैतिक परिस्थितियों, धार्मिक कारणों अथवा व्यापारिक संबंधों के कारण जनपदीय भाषाओं में से ही कोई एक भाषा जातीय भाषा के रूप में विकसित होने लगती है। इनमें भी दो कारण मुख्य हैं - पहला, वह भाषाई क्षेत्र यदि बहुत-बड़े शासन का केंद्र हो जाएँ और दूसरा, उस भाषाई क्षेत्र में कोई महान आध्यात्मिक महापुरूष जन्म लेकर उसे अपनी कर्मभूमि बना ले। एक जमाने में आगरा और मथुरा, शासन का बहुत-बड़ा केंद्र था और इसके साथ ही वह क्षेत्र वासुदेव कृष्ण की लीला भूमि भी था, इसीलिए इस अंचल की भाषा ब्रजी सदियों तक साहित्य सृजन की प्रमुख भाषा के रूप में छाई रही। एक समय में राजस्थान से लेकर उड़ीसा और बंगाल तक ब्रजभाषा में कविताएँ रची जा रही थी। रवींद्रनाथ तक ने 'भानुसिंहेर पदावली' के नाम से ब्रजभाषा में कविताएँ रची हैं। अवधी में रामचरितमानस और पद्मावत जैसे महाकाव्य रचे गए - इसका प्रधान कारण अवध क्षेत्र का राम की लीला भूमि होना भी है। पालि भाषा का आज तक जो वैश्विक महत्व कायम है वह सिर्फ बुद्ध की भाषा होने के कारण।
आज दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में पालि पढ़ाई जाती है और उसमें आधा से अधिक हिस्सा बौद्ध साहित्य का ही है। इसी तरह वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, स्मृतियों और पुराणों आदि के कारण संस्कृत को आज भी अभूतपूर्व गौरव हासिल है और उसे देववाणी कहा जाता है। कुरान की भाषा होने के कारण अरबी को अतिरिक्त सम्मान हासिल है। किंतु इसका यह अर्थ हरगिज नहीं है कि कोई भाषा किसी विशेष धर्म की होती है। भाषा का मजहब से कोई अनिवार्य संबंध नहीं होता। उसका संबंध सिर्फ जाति से होता है। इस तरह एक मुल्क में कई भाषाएँ बोली जाती हैं और उन्हें अलग-अलग जातियाँ बोलती हैं। रामविलास जी उदाहरण देते हैं कि स्विटजरलैंड में तीन भाषाएँ बोली जाती हैं - स्वीडिश, फ्रेंच और जर्मन। इस तरह वहाँ तीन जातियों के लोग रहते हैं। फिर भी वह एक राष्ट्र है। फ्रेंच और जर्मन दो आजाद कौमों की भाषाएँ हैं किंतु उसे बोलने वाले अधिकांशतः ईसाई हैं। एक जाति में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं जैसे अमेरिकी जाति में ईसाईयों के अलावा यहूदियों का एक समृद्ध तबका है। ब्रिटेन में जहाँ पूँजीवाद का विकास बहुत तेजी से हुआ - अँग्रेज, वेल्स और स्काट तीन जातियों के लोग रहते हैं। वेल्स के अधिकांश भाग में अँग्रेजी बोली जाती है किंतु वेल्स बोलने वाले भी अभी वहाँ हैं। स्काटलैंड में गेलिक बोलने वालों की संख्या और अधिक है। जहाँ तक आयरलैंड का संबंध है, उत्तरी भाग में अँग्रेजों ने अपना उपनिवेश कायम कर रखा है। लेकिन आयरिश भाषा अब भी व्यवहार में आती है। अमरीका में कोई भी देख सकता है, वहाँ गोरी अमरीकी जाति के अलावा बहुत से रेड इंडियन हैं। उनकी भाषाएँ अलग हैं, उनकी सांस्कृतियां अलग हैं। उन सबको एक मान लिया जाएँ तो भी कम से कम दो बड़ी जातियाँ अमरीका में रहती हैं। एक गोरी - काली अमरीकी जाति जो अँग्रेजी बोलती है दूसरी आदिवासी रेड इंडियन जाति जो अपनी पुरानी भाषा या भाषाएँ बोलती हैं। रामविलास जी के अनुसार पूँजीवादी विकास का नियम यह नहीं है कि एक जातीय राष्ट्रों का निर्माण होता है वरन नियम यह है कि बहुजातीय राष्ट्रों का निर्माण होता है। यूनाइटेड किंगडम का नाम ही इस बात को प्रमाणित करता है कि वहाँ कई जातियाँ बसती हैं। रूस और चीन बहुजातीय राष्ट्र हैं। उसी तरह भारत भी बहुजातीय राष्ट्र है।
जहाँ लोगों को गुलाम बनाया गया है वहाँ उनकी भाषाएँ लगभग खत्म हो गई। जैसे अफ्रीकियों को गुलाम बनाकर अमरीका में रखा गया है वहाँ उनकी भाषाएँ खत्म हो गई, लेकिन अफ्रीका में वे अब भी जीवित हैं। जिन अमरीकी आदिवासियों को बंजर धरती और पहाड़ों में खदेड़ दिया गया वहाँ उनकी भाषाएँ अब भी जीवित हैं।
फ्रांसीसी और अमरीकी साम्राज्यवादियों ने बहुत वर्षों तक वियतनामियों को मारा, उनका शोषण किया, उन पर शासन किया लेकिन वे जो कुछ भी लूटकर ले गए हो वियतनामी भाषा बनी हुई है क्योंकि उसे बोलने वाले लोग बने हुए हैं और इन बोलने वाले लोगों को हम वियतनामी जाति कहते हैं।
इसी तरह खड़ी बोली हिंदी, जिसे आज भारत की राजभाषा होने का गौरव हासिल है कभी दिल्ली और मेरठ के आप-पास बोली जाने वाली कौरवी के रूप में जानी जाती थी, किंतु जब दिल्ली देश की राजधानी बनी और उसके परिणामस्वरूप वहाँ की भाषा में व्यापार आदि होने लगा तो उस भाषा के विकास को नहीं रोका जा सका। अन्य जनपदीय भाषाएँ जब जातीय भाषा के रूप में आकार ग्रहण कर लेती हैं तो वह उस जाति का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा बन जाती है, उस जाति की संस्कृति और साहित्य की अभिव्यक्ति उसी भाषा में होती है और हो सकती है। उस जाति की अस्मिता उस भाषा से अनिवार्यतः जुड़ जाती है। इतना ही नहीं, एक जाति एक साथ केवल एक भाषा ही बोलती है अथवा बोल सकती है। पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु, उड़िया आदि आज की जातीय भाषाएँ इसी तरह की भाषाएँ हैं संविधान बनने के बाद से अपने-अपने प्रांतों में इन्हें कानूनन राजभाषा का दर्जा भी हासिल है। मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग की जनता दैनिक जीवन में इन भाषाओं का स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल करती हैं।
भाषा के अलावा जाति की पहचान का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है संस्कृति। प्रत्येक जाति की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है, परंपराएँ और रीति-रिवाज होते हैं, व्रत और त्यौहार होते हैं, जीवन शैली होती है जिनसे उस जाति की पहचान जुड़ी होती है। जैसे दुर्गा पूजा, काली पूजा, भाई फूटा, जमाई षष्ठी जैसे त्योहार, रवींद्र, बंकिम और शरदचंद्र के साहित्य के प्रति गहरा अनुराग, रामकृष्ण परमहंस, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और नेताजी सुभाषचंद्र बोस आदि के प्रति गहरी श्रद्धा, कलाओं में जात्रा, बाउल गान सहित रवींद्र संगीत और नजरूल संगीत, पहनावे में खास तौर पर तांत की साड़ियाँ और पुरुषों में बंगाली कुर्ता और किनारे वाली धोती, भोजन में माँछ-भात, सुत्तो, बैगुनी, आलूरभाजा, रोसोगुल्ला, संदेश, डाभ और नारियल से बने विभिन्न खाद्य पदार्थ आदि बंगाल की संस्कृति का हिस्सा है। बिहू नृत्य असम की पहचान है तो कुचिपुड़ी आंध्रा की, गणेश पूजा से महाराष्ट्र की पहचान जुड़ी है तो ओडि़सी से उड़ीसा की।
किसी जाति के आर्थिक स्वरूप के निर्धारण में उस जाति के प्राकृतिक संसाधनों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। प्राकृतिक संसाधनों पर ही अधिकांशतः उस जाति की जीविका निर्भर करती है। पहाड़ों पर रहने वाले लोगों की जीविका आमतौर पर पर्यटन उद्योग पर निर्भर होती है तो समुद्र के किनारे के लोग अमूमन मछलियाँ पकड़कर अपनी जीविका चलाते हैं। जातीय क्षेत्रों के आर्थिक स्वरूप की विशिष्टाएँ स्थानीय हस्तशिल्पों में सबसे ज्यादा प्रतिबिंबित होती है। मनुष्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, उसकी दैनंदिन जिंदगी और उसके कलात्मक तथा व्यावसायिक कौशलों को अपनी अभिव्यक्ति इन्हीं में मिलती है। यह बाजार संबंध समाज के विविध वर्गों और तत्वों को आपस में जुड़ने के लिए विवश करता है। जातीय चरित्र का विकास सामंतवाद के खात्मे और पूँजीवाद के प्रारंभिक अभ्युदय के काल की परिघटना है। घरेलू मेंडी पर व्यापारिक वर्ग द्वारा कब्जा किया जाना इसका आर्थिक आधार है।
प्रत्येक जाति का अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है। हमारे देश में मराठी, तमिल, उडि़या, असमिया, मलयाली, पंजाबी, बंगाली आदि सभी जातियों के अपने भौगोलिक क्षेत्र हैं। खास बात यह है कि राजनीतिक कारणों से बंगाल दो हिस्सों में बँटकर दो मुल्क बन चुका है फिर भी दोनों मुल्कों में एक ही जाति बसती है - बंगाली जाति। दोनों एक ही भाषा बोलती है - बांग्ला भाषा। दोनों का एक ही साहित्य है - बांग्ला साहित्य। एक जाति का दो मुल्कों में बँट जाना एक भयंकर ऐतिहासिक दुर्घटना है।
इस तरह एक सामान्य भाषा बोलने वाले, सामान्य संस्कृति वाले और एक क्षेत्र विशेष में बसने वाले मानव समुदाय को जाति कहते हैं।