हिंदी जाति दुनिया की सबसे बड़ी जातियों में से एक है। आज यह जाति भीषण आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रस्त है। स्वाभिमान से रहित है। दर-दर ठोकरें खा रही है। ऐसा क्यों हैं। इसके लिए सिर्फ आज का समाज जिम्मेदार नहीं है। बल्कि इसके अनेक ऐतिहासिक कारण हैं, जिनमें से कुछ निम्न हैं -
(क) ईस्ट इंडिया कंपनी की हिंदी नीति - जातीयता का सबसे प्रमुख आधार भाषा की एकता है। प्रेमचंद के शब्दों में - "राष्ट्र की बुनियाद राष्ट्र की भाषा है। नदी, पहाड़ और समुद्र राष्ट्र नहीं बनाते। भाषा ही वह बंधन है जो चिर काल तक राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधे रहता है और उसका शीरांजा (संरचना) बिखरने नहीं देता।" (साम्य-22, अगस्त 1995, पृष्ठ-177 पर उद्धृत) और रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है - "भाषा ही किसी जाति की सभ्यता को सबसे अधिक झलकाती है। यही उसके हृदय के भीतरी कलपुर्जों का पता देती है। किसी जाति को असक्त करने का सबसे सरल उपाय उसकी भाषा को नष्ट करना है।" (नागरी प्रचारिणी पत्रिका, जनवरी 1912, पृष्ठ-10 )।
हिंदी के जातीय क्षेत्र में सामान्य भाषा का मुद्दा आरंभ से ही उलझा कर रखा गया है। इसके पीछे अँग्रेजों की 'बाँटों और राज करो' की नीति थी जो हिंदी पट्टी में सबसे प्रभावी ढंग से लागू की गई।
लंदन के जिन व्यापारियों ने सन 1600 ई. में महारानी एलिजाबेथ से भारत में व्यापार करने की अनुमति माँगी उन्होंने सपने में भी न सोचा होगा कि वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाल रहे थे। धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्ति बढ़ती गई और 1757 ई. में प्लासी की निर्णायक लड़ाई के बाद बंगाल पर अँग्रेजों का कब्जा हो गया। देश में कंपनी का महत्व दिनों-दिन बढ़ता गया और 1857 ई. तक भारत कंपनी के अधिकार में था। सन 57 की क्रांति के बाद 1858 ई. में कंपनी के हाथ से शासन की बागडोर सीधे इंग्लैंड की सरकार के हाथ में आ गई। इस तरह पूरे एक सौ वर्ष तक ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर शासन करते हुए ब्रिटिश शासन की जड़े मजबूत करती रही।
कंपनी के शासन की स्थापना के समय भारत में प्रमुख भाषाएँ इस प्रकार थी -
(1) अँग्रेजी भाषा जो कंपनी की अपनी भाषा थी।
(2) फारसी जो मुस्लिम शासन काल से देश की राजभाषा चली आ रही थी।
(3) देशी भाषाएँ जो क्षेत्रीय भाषाएँ थी और जिनमें हिंदी का स्थान बहुत अधिक महत्वपूर्ण था।
इसी वातावरण में कंपनी सरकार राजभाषा संबंधी अपनी नीति का निर्धारण करना चाहती थी। चूँकि कंपनी की भाषा अँग्रेजी थी इसलिए वह अँग्रेजी को ही शासन की भाषा बनाना चाहती थी। किंतु इस मामले में कंपनी असमर्थ रही। जिस वक्त कंपनी ने देश की बागडोर अपने हाथों में लिया उस वक्त दिल्ली दरबार की भाषा फारसी थी और कंपनी ने उसमें परिवर्तन करना उचित नहीं समझा। यद्यपि मुगल शासन के बाद फारसी का महत्व कम हो गया तो भी कंपनी सरकार ने उसे ज्यों का त्यों रहने दिया। कंपनी सरकार के लिए तत्कालीन लोक प्रचलित भाषा हिंदी की अवहेलना करना भी कठिन था इसलिए उसने फारसी के साथ-साथ हिंदी के प्रयोग को भी जारी रहने दिया। कंपनी के राजकीय आदेशों, सूचनाओं और सरकारी कागजों में फारसी और हिंदी दोनों भाषाओं का प्रयोग होता था।
कंपनी ने 1830 ई. तक इस भाषा नीति को जारी रखा और इसी वर्ष एक विज्ञप्ति जारी कर अदालतों में देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। फिलहाल, वास्तव में इस विज्ञप्ति का पालन 1837 ई. में ही शुरू हुआ जब देशी भाषाएँ फारसी की जगह लेने लगीं। इसके बाद बंगाल में बंगला प्रचलित हुई और संयुक्त प्रांत में (उत्तर प्रदेश), बिहार और मध्य प्रांत (मध्य प्रदेश) में हिंदी का प्रचलन शुरू हुआ परंतु लिपि उर्दू (फारसी) चलती रही।
1837 ई. के उर्दू संबंधी आदेश के कुछ दिन बाद से ही सरकार से यह अनुरोध किया जाने लगा कि अदालतों और दफ्तरों में फारसी लिपि की बजाएँ नागरी को मान्यता प्रदान की जाएँ। धीरे-धीरे इस माँग ने एक सीमा तक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। अनेक अँग्रेज अधिकारी भी अदालत की इस भाषा को बोझिल और अव्यावहारिक मानते थे। अंतः 1856 ई. में एक आज्ञापत्र निकाला गया जिसमें अदालतों में भी नागरी लिपि के प्रयोग का आदेश था, जिसको भारी समर्थन मिला। इसके बाद 1857 ई. की क्रांति से प्रशासन में काफी उथल-पुथल हुआ और अंतत शासन की बागडोर सीधे इग्लैंड के हाथ में चली गई।
कंपनी ने अपना शासन स्थापित करने के बाद अपने सैनिक और असैनिक कर्मचारियों के लिए देशी भाषाओं के अध्ययन की कोई व्यवस्था नहीं की थी। जब लार्ड वेलेजली (1798-1805 ई.) भारत आया तब उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ। वेलेजली ने कंपनी के अधिकारियों की नैतिक दशा सुधारकर उनमें अनुशासनपूर्ण शिक्षा प्रणाली आरंभ करने और भारत विषयक ज्ञान प्राप्त करने के लिए कदम उठाना चाहा। वह कंपनी को राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़ संस्था बनाना चाहता था। इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसने कलकत्ते में सन 1800 में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। राजनीतिक और प्रशासनिक उद्देश्यों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन भी कालेज की गतिविधियों में शामिल था। यह कालेज सांस्कृतिक और शिक्षा संबंधी विषयों का प्रधान केंद्र बन गया। इस कालेज में अरबी, फारसी, संस्कृत, बंगला, तेलुगू, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम तथा अन्य अनेक भाषाओं को पढ़ाने की व्यवस्था थी। इतना ही नहीं, यहाँ ग्रीक, लैटिन आदि यूरोपीय भाषाएँ भी पढ़ाई जाती थी।
फोर्ट विलियम कॉलेज के हिंदुस्तानी विभाग (हिंदी विभाग नहीं) के पहले अध्यक्ष जॉन गिल क्राइस्ट बने। कंपनी के सभी कर्मचारियों में वही एक व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदुस्तानी का गंभीर अध्ययन किया था, इसीलिए लार्ड वेलेजली ने उन्हें विभाग का दायित्व सौंपा। इस पद पर वे 1804 ई. तक काम करते रहे और फिर इंग्लैंड चले गए।
कंपनी की भाषा नीति के अनुरूप ही कालेज की भाषा नीति थी। अँग्रेज बाँटों और राज करो की नीति अपनाकर ही अबतक सफलता प्राप्त करते रहे और भारत में अपनी जड़े जमाते रहे। वे हिंदू-मुस्लिम दो नेशन हैं - के सिद्धांत को आगे बढ़ा रहे थे और इसलिए जबान में अलगाव पैदा करना जरूरी था। अँग्रेजों ने इस कार्य के लिए मुस्लिम नेतृत्व में से सर सैयद अहमद खाँ को चुना। इस मकसद से कंपनी द्वारा जिस भाषा को प्रोत्साहित किया जाता था वह हिंदुस्तानी कहलाती थी और इसके लिए फारसी लिपि का इस्तेमाल किया जाता था। गिल क्राइस्ट महोदय हिंदी और हिंदुस्तानी में शैलीगत भेद मानते थे। उनके अनुसार हिंदुई या हिंदुवी शब्द हिंदुओं की भाषाओं के द्योतक थे। सन 1798 ई. में उन्होंने 'द ओरियंटल लिंग्विस्ट' में एक लेख लिखा था जिसका एक अंश है -"हिंदुवी को मैंने शुद्ध हिंदुओं की चीज माना है। इसलिए लगातार उसका प्रयोग भारत की प्रचीन भाषा के लिए किया है जो मुसलमान आक्रमण से पहले यहाँ प्रचलित थी। वह हिंदुस्तानी का मूलाधार है। यह हिंदुस्तानी अरबी-फारसी से कुछ ही दिन पहले बनी हुई ऊपर की इमारत है। अँग्रेजी के लिए जैसे फ्रंसीसी और लैटिन है (अर्थात अँग्रेजी ने उनसे शब्द लिए हैं) वैसे ही हिंदुस्तानी के लिए फारसी और अरबी है। अँग्रेजी का मूलाधार जैसे सैक्सन है वैसे ही हिंदुस्तानी का आधार हिंदुवी है।"
गिलक्राइस्ट के अनुसार हिंदुस्तानी की तीन शैलियाँ थी - 1. दरबारी या फारसी शैली 2. हिंदुस्तानी शैली और 3. हिंदुवी शैली। वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिंदुवी शैली को वल्गर अर्थात गँवारू मानते थे। वे हिंदुस्तानी शैली को प्राथमिकता देते थे मगर उनकी हिंदुस्तानी फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू ही थी। गिल क्राइस्ट मानते थे कि हिंदुस्तानी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए फारसी लिपि और भाषा का ज्ञान आवश्यक है। गिलक्राइस्ट स्वयं अरबी और फारसी भाषाओं के विद्वान थे। उनकी भाषा नीति का व्यापक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। उनके हिंदुस्तानी विभाग में हिंदुई और नागरी लिपि से परिचित पंडित नहीं के बराबर थे। कालेज की व्यवस्था में 'भाषा मुंसी' और 'पंडितों' का स्थान सदा गौण रहा। उनकी उपस्थिति भी आवश्यक नहीं समझी जाती थी। इनमें भी फारसी सिखाने वाले शिक्षकों और देवनागरी सिखाने वाले शिक्षकों की हैसियत में बहुत फर्क होता था। उनके वेतन में पाँचगुने तक का अंतर होता था।
7 जुलाई 1801 को फोर्ट विलियम कालेज की कौंसिल में यह निर्णय लिया गया कि कुतुब अली को एक सौ रुपए महीने और सुंदर पंडित को बीस रुपये महीने पर नागरी लिपि सिखाने के लिए नियुक्त किया गया। (ऐट ए कौंसिल हेल्ड आन द 7 जुलाई 1801, इट वाज रिजाल्वड दैट द कुतुब अली बी एप्वाइंटेड राइटिंग मास्टर इन द परसियन कैरेक्टर, ऐट ए सैलरी आफ 100/ पर मन्थ; एन्ड सून्दर पंडित इन नागरी कैरेक्टर, एट 20/ पर मन्थ - ओरिजिन आफ हिंदुस्तानी लिटरेचर बाई एम. अतीक सिद्दिकी, नया किताब घर, अलीगढ़, 1962, पेज-105)
फारसी और नागरी सिखाने वाले शिक्षकों के वेतन में पाँचगुने का फासला। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने का इससे ज्यादा प्रामाणिक उदाहरण की जरूरत होगी क्या?
फोर्ट विलियम कोलेज 1854 ई. में बंद कर दिया गया किंतु कालेज के हिंदुस्तानी विभाग द्वारा जो भाषा नीति अपनायी गई उसका दूरगामी प्रभाव आज तक बना हुआ है। अठारहवीं सदी के अंत तक तो इस देश में हिंदी-उर्दू के विभेद का सिर्फ प्रश्न ही उठा था, परंतु गिल क्राइस्ट ने हिंदुवी का संबंध हिंदुओं से और हिंदुस्तानी का मुसलमानों से जोड़कर भाषा और मजहब का जो रिश्ता जोड़ा उसके कालांतर में भयानक परिणाम हुए, भाषा के क्षेत्र में सांप्रदायिकता पनपी जिसके घातक परिणाम देश को भुगतने पड़े और आज भी भुगतने पड़ रहा हैं। भाषायी सांप्रदायिकता की इस आग से हिंदी जाति आज तक झुलस रही है।
सन 1834 ई. में लार्ड मैकाले भारत आया और उसने अँग्रेजी द्वारा भारतीयों को शिक्षा देने पर जोर दिया। इसी वर्ष कंपनी की शिक्षा संबंधी भाषा नीति भी बदली और सरकार ने अँग्रेजी शिक्षा के प्रसार का कार्य अपने हाथ में ले लिया और सन 1853 तक अँग्रेजी का खूब प्रचार हुआ।
कंपनी और उसके बाद के कालखंड में हमारी भाषा नीति के निर्धारण में जिन चार महापुरुषों के नाम विषेष रूप से उल्लेखनीय हैं वे हैं - राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद (1823-1895), राजा लक्ष्मण सिंह (1826-1896 ), सर सैयद अहमद खाँ (1817-1898) और भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885)। हिंदी जाति के इन चारो महारथियों में से तीन अँग्रेजों के खास लोगों में से थे। भारतेंदु के अलावा बाकी तीनों ने 1857 की क्रांति में अँग्रेजों का साथ दिया था। बदले में अँग्रेजों की ओर से तीनों को ऊँचे-ऊँचे ओहदे तथा राजा और सर की उपाधियां मिली थी। जाहिर है, इन तीनों का गहरा असर अँग्रेजों के ऊपर पड़ सकता था - यदि ये एक साथ मिलकर इस देश की जनता के हित में कुछ सकारात्मक करते। ये देश की जनता के शुभेच्छु तो थे किंतु इनके बीच आपस में शीतयुद्ध चला करते थे। इनके आपसी वैचारिक मतभेद समय-समय पर जाहिर होते रहते थे और अँग्रेजों ने इसका भरपूर फायदा उठाया।
इनमें सबसे पहले हम राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद की चर्चा करेंगे। इतिहास में ये खलनायक की तरह चित्रित किए गए हैं। जिस समय देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी संकट काल से गुजर रही थी, राजा शिव प्रसाद उसके समर्थन और उत्थान का ब्रत लेकर साहित्य क्षेत्र में आए। उन्होंने हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, अँग्रेजी, बंगला आदि भाषाओं का गहरा अध्ययन किया था। बनारस में जन्म लेने वाले राजा शिव प्रसाद ने तृतीय सिख युद्ध में खुलकर अँग्रेजों का साथ दिया और फिर सरकारी स्कूलों के इंस्पेक्टर हो गए। आरंभ से ही साहित्य में गहरी रुचि रखने वाले राजा शिव प्रसाद की प्रमुख पुस्तकें है - 'मानवधर्मसार' 'योगवाशिष्ठ' के कुछ चुने हुए 'श्लोक' 'उपनिषद सार' 'भूगोलहस्तामलक' 'स्वयंबोध उर्दू' 'वामा मनरंजन' 'आलसियों का कोड़ा', 'विद्यांकुर' 'राजा भोज का सपना' 'वर्णमाला' 'हिंदुस्तान के पुराने राजाओं का हाल' 'इतिहास तिमिर नासक' ( भाग-1, 2, और 3 ), 'सिखों का उदय और अस्त' 'गुटका' ( भाग-1,2,3 ), 'नया गुटका' ( भाग-1,2 ), 'हिंदी व्याकरण' 'कुछ बयान अपनी जबान का' 'बालबोध' 'सैण्डफोर्ड और मारटन की कहानी' 'बच्चों का ईनाम' 'लड़कों की कहानी' 'वीरसिंह का वृत्तान्त' 'गीतगोविंदादर्श' 'कबीर का टीका' आदि।
इन कृतियों में से अधिकांश विद्यार्थियों को दृष्टि में रखकर लिखी गई हैं। विषय की विविधता इनकी विशेषता है। इनका महत्व भाषा की दृष्टि से ही अधिक है।
वह समय हिंदी क्षेत्र की जनता की भावनाओं का आदर करते हुए और हिंदी भाषा की जातीय प्रवृत्ति को लक्ष्य में रखकर हिंदी गद्य को सर्वमान्य रूप देने का था, इसके लिए निर्णयात्मक कदम उठाने के पूर्व पर्याप्त सोच-विचार की आवश्यकता थी। राजा शिवप्रसाद ने सोच-विचार कर और वक्त की नजाकत को परखते हुए संस्कृत, फारसी, अँग्रेजी तथा ठेठ हिंदी आदि सभी भाषाओं में प्रचलित आम बोल-चाल के शब्दों से परहेज न करते हुए एक सर्वमान्य भाषा बनाने की चेष्टा की जिसे वे 'आम फहम और खास पसंद' भाषा कहते थे। 'भूगोलहस्तामलक' 'वामा मन रंजन' 'राजाभोज का सपना' आदि उनकी कृतियों में इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया है। हाँ, वे हिंदी का 'गँवरपन' जरूर दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे उस जमाने की अदालत की भाषा से परहेज नहीं करते थे। किंतु लिपि के प्रश्न पर वे हर हालत में देवनागरी के पक्षधर थे।
वास्तव में राजा शिवप्रसाद की पूरी लड़ाई देवनागरी लिपि की लड़ाई थी। वे हिंदी और उर्दू को अलग-अलग भाषा नहीं मानते थे। 1837 ई. में जब प्रांतों में प्रांतीय भाषाओं को राज-काज की भाषा बनाने का निर्णय हुआ तो उस समय हिंदुस्तानी को उर्दू लिपि में लिखने का प्रचलन था। राजा शिवप्रसाद ने नागरी लिपि के लिए जोरदार आंदोलन चलाया क्योंकि उनके अनुसार उर्दू के कारण सरकारी नौकरियों पर मध्यवर्गीय कायस्थों और मुसलमानों का कब्जा था। आम जनता के लिए सरकारी नौकरियां दुर्लभ थी। उन्होंने सरकार को इस संबंध में कई मेमोरन्डम दिए जिनमें माँग की कि अदालतों की भाषा से फारसी लिपि को हटा दिया जाएँ और उसकी जगह हिंदी (नागरी) लिपि को लागू किया जाएँ। 1937 ई. में हिंदी और देवनागरी लिपि को कचहरियों में जो प्रतिष्ठा मिली उसमें राजा शिवप्रसाद की प्रमुख भूमिका थी।
भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है। भारतेंदु ने खुद घोषित किया कि - "हिंदी नए चाल में ढली" ( हरिश्चंद्र मैग्जीन, 1873 )। जबकि भारतेंदु से दशकों पूर्व राजा शिप्रसाद ऐसा सहज और परिमार्जित गद्य लिख रहे थे कि वैसा गद्य भारतेंदु कभी नहीं लिख सके। उनके गद्य के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है - "यह पानी, जिसमें दो तिहाई से अधिक पृथ्वी ढँकी हुई है, समुद्र अथवा सागर कहलाता है। खारा सब जगह है लेकिन कही कम कही ज्यादा। थाह उसकी सवा पाँच मील तक तो मालूम हो सकी है परंतु गहरा यह कही-कही इससे भी अधिक है। लहरें उसकी बाईस फुट तक ऊँची नापी गई हैं। यद्यपि इस भूमंडल पर एक ही है, पर जैसे हवेलियों का ठिकाना मिलने के लिए शहर को मोहल्लों में बाँट देते हैं वैसे ही समुद्र में द्वीप और जहाजों का सहज से पता लग जाने के वास्ते उसके पाँच हिस्से करके पाँच नाम रख दिए गए हैं।" ( भूगोल हस्तामलक से)।
एक दूसरा उद्धरण 'विद्यांकुर' से है - "हड्डी वालों की चौथी किस्म मछली है। वो पानी में रहती है। इनमें और ऊपर लिखी तीनों किस्मों में यह फर्क है कि वो तो फेफड़े से नाक और मुँह की राह सांस लेते हैं और इनके फेफड़ा नहीं होता है। गले में दो छेद रहते हैं जिन्हें गलफड़ा कहते हैं और उन्ही छेदों से सांस लेने का काम निकलता है। कोई-कोई मछलियां बड़ी सुंदर, बल्कि सुनहले, रुपहले रंग की होती हैं और आँखें भी उनकी निराले तौर की रहती हैं जो हमारी-तुम्हारी सी होती तो उनको पानी में कुछ न दिखाई देता। बोलती नहीं, और न इनके बनाने वाले ने इनको कान दिया, तो भी पानी के लगाव से ये आवाज मालूम कर लेती हैं।"
कहना न होगा, जिस समय राजा शिव प्रसाद यह गद्य लिख रहे थे उस समय भारतेंदु 7 साल के बच्चे थे और उसी बनारस में रहते थे। सुनते हैं कि वे भारतेंदु के शिक्षक भी रह चुके थे। लेकिन इतिहास में उन्हें खलनायक की तरह चित्रित किया गया है और उनका ऐसा चरित्र निर्मित करने में भारतेंदु की भूमिका सबसे अहम थी। उन्होंने 'भुतही इमली का कनकौआ' जैसा लेख लिखा। वास्तव में बनारस में जहाँ राजा शिव प्रसाद का घर था वहाँ एक इमली का पेड़ था जिसे भुतही इमली कहा जाता था। कहा जाता है कि नागरी प्रचीरिणी सभा के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव था और उसमें शिव प्रसाद का चुना जाना निश्चित था तो भारतेंदु मंडल के लोगों ने उन्हें रास्ते में ही उलझाए रखा और वे समय पर चुनाव स्थल तक नहीं पहुँच सके। जाहिर है चुनाव लड़ने का अवसर ही नहीं मिला और वे चुनाव नहीं जीत सके। (देखिए, रस्साकसी, वीरभारत तलवार, पृष्ठ-57)
तरह राजा शिव प्रसाद को बड़े ही सुनियोजित तरीके से बदनाम किया गया। भारतेंदु मंडल के लेखकों ने उनके ऊपर आरोप लगाया कि वे देवनागरी में 'खालिस उर्दू' लिखते हैं। 'सितारेहिंद' का खिताब मिलने पर उन्हें अँग्रेजों का चापलूस कहा गया। बालकृष्ण भट्ट ने इस अभियान में बड़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 1881-82 में गोरक्षा की आवाज इंग्लैंड की संसद तक पहुँचाने के लिए एक प्रतिनिधि मंडल भेजना तय हुआ और काशी नरेश नें उनमें शिव प्रसाद को शामिल किया तो बालकृष्ण भट्ट आदि ने इसका जमकर विरोध किया।
जहाँ तक 1857 के विद्रोह में अँग्रेजों का साथ देने का मामला है तो अँग्रेजों की मदद सर सैयद हमद खाँ , राजा लक्ष्मण सिंह और भारतेंदु के पिता ने भी की थी। इतना ही नहीं, जिस समय बैरकपुर में मंगल पांडे ने गोली चलाई थी उस समय बंगला नवजागरण के अधिकांश मनीषी कलकत्ते में मौजूद थे - किसी ने कोई चर्चा तक नहीं की। समर्थन में कही के कोई आवाज नहीं आई। जबकि बैरकपुर से कलकत्ता मात्र 20-25 किलोमीटर दूर है।
फिलहाल, उस समय बनारस में नौकरी करते हुए राजा शिव प्रसाद को मात्र 2 साल हुए थे। 4 जून 1857 की शाम को परेड की ओर से तोपे चलने की आवाज हुई तो वे तुरंत कमिश्नर हेनरी कार्टकर की कोठी पर आए। बीच में नदेसर कोठी थी। बनारस की टकसाल इसी नदेसर कोठी में थी। विद्रोहियों से बचने के लिए अँग्रेज परिवारों ने इसी कोठी में पनाह ले रखी थी। यही कार्टकर और उसकी पत्नी भी थी। कार्टकर ने शिव प्रसाद से बताया कि 30-40 गोरों की एक बैलगाड़ी कलकत्ता से बनारस होते हुए कानपुर जाती है। वह गाड़ी शाम को इसी वक्त बनारस आती है। मुझे डर है कि उसकी रक्षा में लगे देशी सिपाही उसे कही और न ले जाएँ। वे राजघाट की ओर जाएँ और यही ले आयें।
शिव प्रसाद ने यही किया। इसके अलावा नदेसर कोठी में रसद कम था उसे भी पहुँचाया। यही अँग्रेजों का साथ देना था। क्या कोई भी इंसान जिसमें तनिक भी इंसानियत होगी - ऐसा नहीं करेगा? (विस्तार के लिए देखिए, रस्साकसी, वीरभारत तलवार 'इतिहास का खलनायक और हिंदी की नई चाल' शीर्षक निबंध)
राजा शिव प्रसाद की किताब है 'इतिहास तिमिर नाशक'। इसके आधार पर कहा जाता है कि वे मुसलमानों के विरोधी थे।
बहरहाल, वे सर सैयद का लगातार विरोध करते रहे। वह विरोध सैद्धांतिक था। सर सैयद अहमद खाँ अदालतों में उर्दू भाषा और लिपि की माँग करने वाले मुसलमानों के अगुआ थे। वे उस जमाने में सबसे प्रभावशाली मुसलमान थे। वे 1838 ई. में दिल्ली में सरिश्तेदार नियुक्त हुए, फिर सब जज बने, 1846 ई. से 1854 ई. तक दिल्ली के सद्रे अमीन रहे। वे कई पुस्तकों के लेखक, 'तहजीबुल इखलाक' पत्रिका के संपादक, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक, मुसलमानों के सर्वमान्य नेता और सबसे अधिक अँग्रेज बहादुर के सबसे प्रिय मुसलमान थे। ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति से पंगा लेना आसान नहीं था। राजा शिवप्रसाद ने निजी हित को दांव पर लगाकर उनसे पंगा लिया क्यों कि सर सैयद अहमद खाँ अँग्रेजों को समझा रहे थे कि हिंदी हिंदुओं की जबान है जो बुतपरस्त होते हैं और उर्दू मुसलमानों की, जिनके साथ अँग्रेजों का मजहबी रिश्ता है। दोनों सामी या पैगंबर मत को मानने वाले हैं।
वक्त की नजाकत को पहचानते हुए देवनागरी लिपि और हिंदुस्तानी भाषा की प्रतिष्ठा के लिए जो व्यक्ति अपने समय के सर्वाधिक प्रभावशाली मुसलमानों और अँग्रेजों से लड़ रहा था, जिसने हिंदी को प्रांत में शिक्षा का माध्यम बनवाया, हिंदी में पाठ्य पुस्त के तैयार करवायी, प्रभावशाली हिंदी गद्य लिखा, देवकी नंदन खत्री की तरह हिंदी को लोकप्रिय बनाने में योगदान किया उसी पर हिंदी द्रोही का आरोप लगाया गया। उसे जहाँ अपनों का समर्थन मिलना चाहिए वहाँ उसे तरह-तरह से अपमानित किया गया।
सुनते हैं मुसलमानों के विरोध के पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी थे। शिव प्रसाद के कुछ पुरखे दिल्ली में नादिरशाही के दौरान कत्ल हुए थे। वैसे मुसलमानों के विरोध के मुद्दे क्या थे? 'इतिहासतिमिरनाशक' में उन्होंने लिखा है - "इन मुसलमानों ने इस देश को उसी हालत में दबा रखा और यूरोप और अमेरिका को वहाँ वालों के बुद्धिबल ने कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया - मुसलमान जहाँ गए, यही हाल हुआ। इनकी अलमदारी में कोई देश उन्नति की सीढ़ी पर नहीं चढ़ा।"
कहना न होगा, मदरसों की शिक्षा तथा दैनिक जीवन में फैले धार्मिक अंधविश्वास आदि को देखते हुए आज इक्कीसवीं सदी के किसी आधुनिक बुद्धिजीवी को भी राजा शिव प्रसाद का उक्त उन्नीसवीं सदी का कथन सही लग सकता है।
राजा लक्ष्मण सिंह को भी 'राजा' की उपाधि अँग्रेजों की ओर से ही मिली थी। 1857 की क्रांति में अँग्रेजों का साथ देने के बदले उन्हें डिप्टी कलक्टरी मिली। 1861 ईं में आगरा से उन्होंने 'प्रजा हितैषी' नाम का पत्र निकाला। 1863 ई. में महाकवि कालिदास की विश्वप्रसिद्ध कृति 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का उन्होंने 'शकुंतला नाटक' नाम से अनुवाद किया।
इसमें हिंदी के स्वरूप को देखकर लोगों का ध्यान इनकी भाषा की ओर गया। 1875 ईं में प्रसिद्ध हिंदी प्रेमी फ्रेडरिक पिंकाट ने इसे इंग्लैड से प्रकाशित कराया। इस कृति से राजभक्त लक्ष्मण सिंह को काफी ख्याति मिली और इसे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में पाठ्य पुस्तक के रूप में स्वीकार किया गया। 1877 ई. में इन्होंने रघुवंश महाकाव्य का हिंदी में अनुवाद किया और इसकी भूमिका में अपनी भाषा संबंधी नीति स्पष्ट करते हुए हिंदी को उर्दू से न्यारी केवल हिंदुओं की बोली घोषित किया और उसमें से प्रयत्न पूर्वक अरबी फारसी के चिर परिचित तथा सर्वग्राह्य शब्दों को भी अलग कर दिया। उनका मत है - "हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी है। हिंदी इस देश के हिंदू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं उर्दू में अरबी-फारसी के। परंतु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों बिना हिंदी न बोली जाएँ और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी के शब्द भरे हैं।"
इस प्रकार राजा लक्ष्मण सिंह का भाषा विषयक आदर्श राजा शिव प्रसाद से सर्वथा विपरीत था। जिन शब्दों के विषय में राजा साहब की धारणा थी कि वे जनता में अधिक प्रचलित हैं केवल विदेशी होने के कारण उन्होंने उन्हें भी हिंदी के अंतर्गत स्वीकार करने में हिचक दिखाई। फलस्वरूप गवाह, अदालत, कलक्टर जैसे शब्द भी उन्हें मान्य नहीं हुए। विकसित होती हुई भाषा के लिए यह दृष्टिकोण कितना घातक हो सकता है इसका सहज अनुमान किया जा सकता है।
राजा लक्ष्मण सिंह और राजा शिव प्रसाद की परस्पर विरोधी नीतियों का दुष्परिणाम यह हुआ कि हिंदी के स्वरूप को लेकर साहित्य क्षेत्र में दो विरोधी मत उठ खड़े हुए। दूसरी ओर सर सैयद अहमद खाँ अदालतों में हिंदी के प्रवेश को रोकने के लिए कटिबद्ध खड़े थे। अँग्रेजों ने हमारे इस आतंरिक कलह का खूब फायदा उठाया। वे तीनों की पीठ थपथपाते रहे क्योंकि हमें आपस में लड़ाना और उससे फायदा उठाना उनकी पुरानी नीति है।
हाँ, इस खींचतान में हिंदी अपना स्वाभाविक विकास करती रही। हिंदी का जोरदार समर्थन आर्य समाजियों और ब्रह्मसमाजियों ने किया। श्री नवीनचंद्र राय ने पंजाब में हिंदी का खूब प्रचार किया जो ब्रह्मसमाजी थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बीच का रास्ता अपनाया किंतु राजा शिव प्रसाद के संघर्ष को सहयोग न देकर हिंदी की जाएँज लड़ाई को क्षति पहुँचाई। यद्यपि उन्होंने कभी खुलकर राजा शिव प्रसाद का विरोध नहीं किया। वे स्वयं अदालतों में सरल हिंदी के प्रयोग के हिमायती थे। शिक्षा आयोग के प्रश्न का जवाब देते हुए उन्होंने 1882 ई. में लिखा था-"सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।... ... हिंदी का प्रयोग होने से जमींदार, साहूकार और व्यापारी सभी को सुविधा होगी, क्योंकि सभी जगह हिंदी का ही प्रयोग है।"
भारतेंदु का बलिया वाला मशहूर भाषण 'भारत की उन्नति कैसे हो सकती है' का अंतिम वाक्य है - "परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।" उनका मशहूर कथन हिंदी हितैशियों की जबान पर रहता है - "निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल।"
(ख) 1857 और उसके परिणाम
1857 का आंदोलन मुख्यतः हिंदी क्षेत्र में लड़ा गया था। इसे अबतक अँग्रेज इतिहासकार और उसी के साथ कुछ 'काले अँग्रेज' भी सिपाही विद्रोह (सिपाय म्युटिनी) कहते थे। विगत 2007 में इस आंदोलन की डेढ़ सौवीं जयंती मनायी गई। देश भर में इस पर चर्चा हुई, गंभीर विचर-विमर्श हुए और अब हम इस आंदोलन को आजादी की पहली लड़ाई कहने लगे हैं। यह सही है कि इस ल़ड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब और वीर कुँवर सिंह जैसे सामंत भी लड़े और अनेक शहीद हुए किंतु इसमें मुख्य भूमिका सिपाहियों और किसानों की थी। इस लड़ाई की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसमें हिंदू और मुसलमान दोनों एक साथ लड़े। यहाँ तक कि दिल्ली की गद्दी पर बैठाने के लिए बहादुरशाह जफर के नाम को लेकर भी कोई विवाद नहीं था। यद्यपि बादशाह बूढ़ा हो चुका था। शासन में उसकी दिलचस्पी नहीं रह गई थी, किंतु मुगलों का वही एक मात्र वारिस था और आजादी के लड़ाकों ने उसे मिलकर मना लिया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हिंदुओं और मुसलमानों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ाकर अँग्रेज शासन करने के अभ्यस्त थे। उनको इस बात की बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि उनके विरुद्ध उक्त लड़ाई में हिंदू और मुसलमान दोनों एक साथ हो जाएँगे। परंतु हुआ यही।
सन सत्तावन की क्रांति हिंदी जाति की एकता और बलिदान की ऐसी मिशाल है कि जिसके उदाहरण इतिहास में कोई दूसरी नहीं मिलती। इस क्रांति ने बाद के स्वाधीनता आंदोलन के लिए जमीन तैयार की जिससे सबक लेकर हम स्वाधीनता के सफल आंदोलन चला सके। दूसरी ओर इस क्रांति ने अँग्रेजों के कान खड़े कर दिए। ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन खत्म कर दिया गया और भारत के शासन की बागडोर सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथ में चली गई। बंगाल के मीर जाफर ने अँग्रेजों को जड़ जमाने के लिए भारत में यदि आमंत्रित किया तो बंगाल की सरजमी पर ही मंगल पांडे जैसे हिंदुस्तानी ने अँग्रेजों को पहली बार ललकारा।
इस लड़ाई को बुरी तरह कुचला गया। गाँव-गाँव के पेड़ों तक को फाँसी घर बना दिया गया। सरेआम निरपराधों को भी फाँसी पर लटकाया गया। गाँव के गाँव फूट दिए गए। अँग्रेजों की मनसा यही थी कि इस आंदोलन को इस तरह कुचला जाएँ ताकि हिंदुस्तानियों की फिर से सिर उठाने की हिम्मत न रहे। 1857 की क्रांति के बाद हिंदी जाति के प्रति अँग्रेजों की धारणा कितनी बदल गई थी, वे कितने आतंकित थे इसका अनुमान 11 सितंबर 1857 को पंजाब सरकार की ओर से ब्रैडरेथ द्वारा कलकत्ता सरकार को लिखे पत्र के निम्नलिखित अंश से लगाया जा सकता है - "अब 18920 हिंदुस्तानी सिपाहियों में से एक का भी विश्वास नहीं किया जा सकता। ये सब कमजोरी और खतरे की जड़ हैं। हर छावनी में गोरी और पंजाबी पल्टनें दिन-रात ड्यूटी पर तैनात रहती है और जरा भी गड़बड़ होते ही हिंदुस्तानियों पर टूट पड़ने को तैयार हैं।"
उक्त उद्धरण इस बात का भी प्रमाण है कि अँग्रेजों को हिंदुस्तानी या हिंदी जाति के बारे में पूर्ण ज्ञान हो चुका था। यहाँ हिंदुस्तानियों को पंजाबियों से भिन्न जाति में गिना गया है। 20 अगस्त 1857 के 'फ्रेंड आफ इंडिया' ने यह समाचार प्रकाशित किया कि पंजाब में जुडशियल मैजिस्ट्रेट ने यह घोषणा करा दी है कि आम तौर से हिंदुस्तानियों को किसी सरकारी सेवा में नहीं लिया जाएगा। स्यालकोट के हिंदुस्तानी अमलों के बारे में अँग्रेज अधिकारियों का विचार था कि वे वैसे तो बड़े अच्छे आदमी हैं, काम भी जी लगाकर करते हैं फिर भी उनकी जगह धीरे-धीरे पंजाबियों को नियुक्त करना चाहिए (देखिए, सन सत्तावन की राज्यक्रांति, रामविलास शर्मा, पृष्ठ 346-47) इतिहासकार होल्म्स के अनुसार पंजाब सरकार के सामने समस्या यह थी कि पंजाबी पल्टनों में करीब एक चौथाई हिंदुस्तानी थे। कही अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों को गुमराह न कर दें।
1857 से 1947 तक यानी लगभग 90 वर्षों तक के अपने शासन काल में अँग्रेजों ने हिंदी जाति के विकास को हर तरह से रोकने, उन्हें दबाने, सांप्रदायिकता और भाषा के आधार पर उन्हें विभाजित करने की नीति अपनायी। उनके प्रति घृणा का प्रचार किया। 'काऊबेल्ट' कहकर उनकी उपेक्षा की। उनकी भाषा और संस्कृति को खंड-खंड करके देखने की प्रवृत्ति विकसित की। ग्रियर्सन जैसे भाषा वैज्ञानिकों ने अस्तित्व न होने के बावजूद हिंदी के सामांतर 'बिहारी' नामक भाषा की कल्पना की और हिंदी की ही कुछ बोलियों को उसमें रखकर हिंदी की बोलियों के भीतर अंतरकलह पैदा किया। भाषाओं का वर्गीकरण करते हुए उपभाषाओं की एक कल्पित श्रेणी बनायी और उसमें पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी और बिहारी को रखा। सच्चायी यह है कि कोई एक भाषा होती है और साथ में उसकी कुछ बोलियाँ। हिंदी एक भाषा है और उस क्षेत्र में बोली जाने वाली बाकी उसकी छोटी-बड़ी बोलियाँ। इसके बीच में उपभाषा की कोई श्रेणी नहीं होती किंतु ग्रियर्सन महोदय नें यह कल्पित श्रेणी बनायी और उदयनारायण तिवारी जैसे भारतीय भाषा वैज्ञानिकों ने ग्रियर्सन के उस कल्पित झूठ को नतमस्तक होकर स्वीकार किया।
खेद इस बात का है कि आजादी के बाद भी भारत के बुद्धिजीवियों ने वस्तुस्थिति के विश्लेषण की कोशिश नहीं की और हिंदी जाति को हिकारत की नजर से देखते रहे। उन्हें हिंदी पट्टी इस पृथ्वी पर रूढ़िवाद और कलहवाद का सबसे बड़ा क्रीड़ांगन नजर आती है। हिंदी जाति के बुद्धिजीवी जब खुद ही हीनताग्रंथि से ग्रस्त होकर अपनी जाति का अपमान करते और सहते रहेंगे तो अन्य जातियाँ उनके प्रति सम्मान का भाव कैसे रख सकती हैं?
(ग) बहुकेंद्रियता और असंतुलित विकास :
हिंदी जाति दुनिया की सबसे बड़ी जातियों में से एक है। वह दस राज्यों में बाँट दी गई है। अँग्रेजों के जमाने से ही हिंदी जाति को एक साथ नहीं रहने दिया गया। भारत में प्रेसीडेंसियां बनीं, भाषावार प्रांत बनाने के लिए आंदोलन चले, आयोग गठित हुए। उस आयोग में हिंदी प्रदेश के गठन का सवाल भी था। किंतु उसमें बैठे लोगों ने हिंदी भाषी राज्य बनाने के बदले जो पहले से संयुक्त प्रांत था उसे भी तोड़ देने की सलाह दी। प्रतिरोध हुआ।
संयुक्त प्रांत (अब यू.पी.) तब तो सुरक्षित रह गया किंतु भाषा के आधार पर हिंदी प्रदेश का मामला अटक गया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान प्रेसीडेंसियों की चिंता न कर पूँजीवीदी नेतृत्व ने महाराष्ट्र, गुजरात आंध्र प्रदेश की समितियाँ गठित की लेकिन हिंदी प्रदेश को छोड़ दिया। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार आजादी की लड़ाई में 1857 की क्रांति से लेकर 1942 की क्रांति और उसके बाद भी हिंदी भाषी प्रदेश की भूमिका असंदिग्ध रही है। फलस्वरूप उसकी एकता न अँग्रेज चाहते थे और न भारतीय शासक वर्ग। राम विलास शर्मा ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है - "आजादी से पहले कांग्रेस महाराष्ट्र की, आंध्र की कमेटी बनाती है, मैं पूछता हूँ कि हिंदी जाति की कमेटी क्यों नहीं थी? 1936 में जब लखनऊ कांग्रेस हुई, तब वहाँ बालकृष्ण शर्मा नवीन ने यह प्रश्न उठाया था। उन्होंने कहा कि हिंदी प्रदेश को एक होना चाहिए, इसकी एक कमेटी होनी चाहिए।
वह भाषण कर रहे थे कि बीच में जवाहरलाल नेहरू ने उनको डाँट दिया। कहा, ये क्या बदतमीजी है। यह तो मेरे सामने की बात है। कांग्रेस के भीतर से आवाज उठती थी कि हिंदी प्रदेश को एक करो, एक कमेटी बनाओ, तो कांग्रेस के नेता उसको दबा देते थे। सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू दबा देते थे। दूसरे प्रदेश के जो नेता थे, जैसे लोकमान्य तिलक थे, वे तो मराठी भाषा में लिखते थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू हमेशा अँग्रेजी में लिखते थे। हिंदी में उन्होंने कुछ नहीं लिखा। ( उद्धृत, गोदारण, रामविलास शर्मा अंक, 2005, पृष्ठ-375)
अँग्रेजों के जमाने में हिंदी क्षेत्र कम से कम तीन हिस्सों में बँटा हुआ था। मध्य प्रांत, युक्त प्रांत के अलावा आज के बिहार और झारखंड का एक बड़ा हिस्सा बंगाल में शामिल था और आज वह दस टुकड़ों में बँटा हुआ है और आगे भी बँटने की प्रक्रिया में है। हर प्रांतों को और टुकड़े करने की माँग हो रही है।
आजादी के बाद भी अलग-अलग राज्य होने के कारण उन राज्यों की राजधानियाँ भी अलग-अलग थी। अलग-अलग मंत्री-मंडल, अलग-अलग पूरी शासन व्यवस्था। फलस्वरूप जिस प्रांत में सुशासन रहा वहाँ प्रगति हुई और जहाँ कुशासन रहा वहाँ अवनति। बिहार के बँटने के कुछ ही वर्षों बाद वहाँ मधु कोड़ा पैदा हुए। वहाँ की स्थिति बदतर होती गई जबकि बिहार नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रगति करता गया। इसी तरह की स्थिति पूरे हिंदी क्षेत्र की हुई। हिंदी क्षेत्र के भीतर आने वाले प्रांतों में हरियाणा और दिल्ली की दशा काफी अच्छी है जबकि झारखंड और मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की दशा बहुत खराब। इस बहुकेंद्रियता के कारण सामाजिक और सांस्कृतिक एकता बाधित होती रही है जो स्वाभाविक है। जब असंतुलित विकास होगा तो उसका असर सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों पर पड़ना स्वाभाविक है। हरियाणा आर्थिक दृष्टि से काफी समृद्ध है किंतु पिछले दिनों आनर किलिंग की जितनी घटनाएँ वहाँ देखने को मिली उससे लगा कि सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से वह काफी पिछड़ा है। वहाँ आए दिन ग्राम पंचायतें विधायिका द्वारा बनायी गई कानूनों और संवैधानिक प्रवधानों को धता बताती रहती हैं।
इतना ही नहीं, असंतुलित विकास के कारण हिंदी क्षेत्र के कुछ केंद्र औद्योगिक तथा वाणिज्यिक रूप से विकसित हैं तो व्यापक इलाके आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़े हुए हैं। इन विरोधाभासी स्थिति का कारण इस क्षेत्र में पूँजीवादी संबंधों का अपेक्षाकृत देर से हुआ विकास भी है।
संजातीय दृष्टि से भी हिंदी क्षेत्र समरूप नहीं है। यहाँ विभिन्न छोटे जातीय समूहों, जनजातियों और संजातीय समूहों का आवास है जो हिंदी भाषी आबादी से भिन्न है।
अलग-अलग कई प्रांतों में बँट जाने के कारण जातीय चेतना का सबसे ज्यादा अभाव हिंदी क्षेत्र में ही दिखाई देता है। बँटने की प्रवृत्ति सबसे ज्यादा हिंदी क्षेत्र में ही है। पिछले दिनों यह एक विचित्र घटना देखने को मिली जब खुद मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बाँटने का प्रस्ताव विधान सभा में रखा, उसे 16 मिनट में पास कराया और केंद्र को मंजूरी के लिए भेजा। यह घटना हमारे लिए विचित्र और चौकाने वाली इसलिए है क्योंकि यहाँ बंगाल की हकीकत मैं देख रहा हूँ। विगत दो दशकों से भी ज्यादा दिनों से उत्तर बंगाल को अलग करने की माँग चल रही है। किंतु जनता का इतना दबाव है कि यहाँ की पूर्व की वाम फ्रंट सरकार और आज की ममता बनर्जी की सरकार दोनों ही बंगाल को न बँटने देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आपस में चाहे जितने भी विरोध हो। यह सब जातीय चेतना से लैस बंगाल की जनता के दबाव का ही फल है।