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विमर्श

हिंदी जाति की समस्याएँ

अमरनाथ

अनुक्रम 9. जातीय भाषा हिंदी और उसकी बोलियाँ पीछे     आगे

हिंदी जाति दुनिया की सबसे बड़ी जातियों में से एक है। वह दस राज्यों में बाँट दी गई है। इन दस राज्यों में औपचारिक काम-काज की भाषा हिंदी है। यह हमारी अर्जित भाषा है जिसे हमने मातृभाषा की तरह सीख लिया है। हम सरकारी कार्यालयों से लेकर लिखने- पढ़ने तक का सारा औपचारिक काम-काज इसी हिंदी में करते है। इसके पास लगभग चार दर्जन बोलियाँ हैं। इन बोलियों की भी उपबोलियाँ है। इन बोलियों में लिखा जाने वाला साहित्य हिंदी साहित्य का ही एक हिस्सा है। यह हिंदी जाति का साहित्य है।

मैं बंगाल में रहता हूँ। बंगाल की दुर्गा पूजा मशहूर है। जब भी दुर्गा का मिथक मेरे सामने आता है, मुझे उसमें हिंदी की छवि झिलमिलाती हुई नजर आती है। दुर्गा बनी कैसे?

महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे -

"अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा।"
अर्थात सभी देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कही तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त हो गया। तब जाकर महिषासुर का बध हो सका।

हिंदी भी ठीक दुर्गा की तरह है। जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और दुर्गा बनी वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम ही हिंदी है। यदि सभी देवता अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी वैसे ही यदि सारी बोलियाँ अलग हो जाएँ तो हिंदी के पास बचेगा क्या? हिंदी का अपना क्षेत्र कितना है? वह दिल्ली और मेरठ के आसपास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। हम हिंदी साहित्य के इतिहास में चंद बरदाई को पढ़ते हैं जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते हैं जो मैथिली के हैं। इन सबको हटा देने पर हिंदी साहित्य में बचेगा क्या?

यह सही है कि इन बोलियों में लिखने वाले सहित्यकारों को आज वह गौरव हासिल नहीं हो पा रहा है जो अवधी के तुलसी, ब्रजी के सूर, राजस्थानी के चंद बरदाई, मैथिली के विद्यापति और भोजपुरी के कबीर को हासिल है। लेकिन इसके कारण भी हैं। आज इन बोलियों के क्षेत्र में रहने वाले बड़े साहित्यकार आम तौर पर खड़ी बोली हिंदी में ही लिख रहे हैं क्योंकि आज हिंदी इस देश की राज भाषा बन चुकी है और इस भाषा में लिखने से करोड़ो पाठक सहज ही मिल जाते हैं। इस देश की पचास करोड़ आबादी तक सहज ही पहुँच पाने के लोभ से अपने को कैसे रोका जा सकता है?

ऐसी दशा में बोलियों में रचे जाने वाले साहित्य को मुख्यधारा में लाने और पाठकों तक पहुँचाने का एक रास्ता यह है कि क्षेत्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में उन्हें रखा जाएँ ताकि अपने क्षेत्र के साहित्य से छात्र परिचित हो सकें। इस तरह के प्रयोग कई विश्वविद्यालयों ने किया भी है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में निर्धारित 'पुरइन पात' नामक भोजपुरी काव्य संकलन मैंने देखा है जिसमें गोरखनाथ से लेकर गोरख पांडे तक की रचनाएँ संकलित है। इस तरह के प्रयोग प्रशंसनीय हैं।

जो लोग बोलियों के हित की वकालत करते हुए अस्मिताओं के उभार को जाएँज ठहरा रहे हैं वे अपने बच्चों को अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, खुद व्यवस्था से साँठ-गाँठ करके उसकी मलाई खा रहे हैं और अपने आसपास की जनता को जाहिल और गँवार बनाए रखना चाहते हैं ताकि भविष्य में भी उनपर अपना वर्चस्व कायम रहे। जिस देश में खुद राजभाषा हिंदी अब तक ज्ञान की भाषा न बन सकी हो वहाँ भोजपुरी, राजस्थानी और छत्तीसगढ़ी के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देकर वे उन्हें क्या बनाना चाहते हैं? जिस भोजपुरी, राजस्थानी या छत्तीसगढ़ी का कोई मानक रूप तक तय नहीं है, जिसके पास गद्य तक नहीं विकसित हो सका है, उस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराकर उसमें मेडिकल और इंजीनियरी की पढ़ाई की उम्मीद करने के पीछे की धूर्त मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है। मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हुए कई वर्ष बीत चुके हैं। वह बिहार के हृदय स्थल की भाषा है किंतु क्या मिथिला क्षेत्र में एक भी प्राथमिक विद्यालय खुला, जिसमें मैथिली के माध्यम से शिक्षा दी जा रही हो हाँ, मैथिली की लड़ाई-लड़ने वाले कुछ लेखकों को तरह-तरह के ईनाम जरूर मिल गए और उसकी राजनीति करने वालों को सरकारी खजाने से कुछ धन। हाँ, इधर बिहार का एक और बँटवारा करके मिथिलांचल बनाने की माँग जरूर होने लगी है।

यहाँ साहित्य अकादमी की भूमिका पर टिप्पणी करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। हिंदी की बोलियों में से मैथिली और राजस्थानी को सबसे पहले साहित्य अकादमी ने हिंदी के समानांतर स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दी और उनके रचनाकारों को पुरस्कृत किया। बाद में मैथिली को हिंदी से अलग स्वतंत्र भाषा को रूप में संवैधानिक मान्यता मिली। कहने के लिए तो हिंदी प्रदेश की ही एक बोली के रचनाकार को साहित्य अकादमी ने सम्मानित किया और इस तरह हिंदी को ही समृद्ध किया, किंतु प्रकाशांतार से उसने हिंदी परिवार के एक हिस्से को बाँट कर हमसे अलग कर दिया।

अगर साहित्य अकादमी ने ऐसा न किया होता तो शायद मैथिली का हिंदी से संवैधानिक रूप से अलग हो जाना आसान न होता। साहित्य अकादमी ने राजस्थानी को भी मान्यता दे दिया है और संवैधानिक मान्यता पाने की दिशा में राजस्थानी एक कदम आगे बढ़ गई है। हिंदी को टुक़ड़ो-टुकड़ों में बाँटकर उसे कमजोर करने की साजिश में साहित्य अकादमी सबसे आगे हैं।

हिंदी की समस्याएँ हिंदी वाले ही ठीक से समझ सकते हैं। आखिर यह सवाल अपनी जगह है कि आजादी के पैंसठ साल बाद भी हिंदी का कोई साहित्यकार आज तक साहित्य अकादमी का अध्यक्ष क्यों नहीं बन सका? क्या हिंदी में सुयोग्य लेखकों की इतनी कमी है?

यह देखना दिलचस्प होगा कि अस्मिताओं की राजनीति करने वाले कौन से लोग हैं? कुछ नेता, कुछ भोजपुरी के अभिनेता और कुछ साहित्यकार। नेता, जिन्हें वोट मिलता ही इसलिए है कि उनके पास गँवार जनता है, अभिनेता जिनकी भोजपुरी फिल्मों को फलने-फूलने के लिए पैसे मिलेंगे और चंद साहित्यकार जो बोलियों में लिखकर भी पुरस्कृत होना चाहते हैं जो तभी मिलेगा जब उन बोलियों को संवैधानिक मान्यताएँ मिलेंगी।


सच्चाई तो यह है कि छत्तीसगढ़ में 93 बोलियाँ हैं जिनमें 'हालबी' और 'सरगुजिया' जैसी समृद्ध बोलियाँ भी हैं। छत्तीसगढ़ी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ने वालों को इन छोटी-छोटी उप बोलियाँ बोलने वालों के अधिकारों की चिंता क्यों नहीं है? इसी तरह जिस 'राजस्थानी' को संवैधानिक दर्जा दिलाने की माँग जोरों से की जा रही है उस नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। राजस्थान की 74 में से सिर्फ 9 ( ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेंवाड़ी, मेंवाती, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी) बोलियों को 'राजस्थानी' नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की माँग की जा रही है। बाकी बोलियों पर चुप्पी क्यों?

संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिंदुस्तान की कौन सी भाषा है जिसमें बोलियाँ न हो? गुजराती में सौराष्ट्री, गामड़िया, खाकी आदि, असमिया में झखा, मयांग आदि, ओड़िया में संभलपुरी, मुघलबंक्षी आदि, बंगला में बारिक, भटियारी, चिरमार, मलपहाड़िया, सामरिया, सराकी, सिरिपुरिया आदि, मराठी में गवड़ी, कसारगोड़, कोस्ती, नागपुरी, कुडाली आदि। इनमें तो भी अलग होने का आंदोलन सुनाई नहीं दे रहा है।

अपने पड़ोसी नेपाल में सन 2001 में जनगणना हुई थी। उसकी रिपोर्ट के अनुसार अवधी बोलने वाले 2.47 प्रतिशत, थारू बोलने वाले 5.83 प्रतिशत, भोजपुरी बोलने वाले 7.53 प्रतिशत, और सबसे अधिक मैथिली बोलने वाले 12.30 प्रतिशत हैं। वहाँ हिंदी बोलने वालों की संख्या सिर्फ एक लाख पाँच हजार है। यानी, बाकी लोग हिंदी जानते ही नहीं। मैंने कई बार नेपाल की यात्रा की है। काठमांडू में भी सिर्फ हिंदी जानने से काम चल जाएगा। नेपाल में एक करोड़ से अधिक सिर्फ मधेसी मूल के हैं। भारत से बाहर दक्षिण एशिया में सबसे अधिक हिंदी फिल्में यदि कही देखी जाती हैं तो वह नेपाल है। ऐसी दशा में यहाँ हिंदी भाषियों की संख्या को एक लाख पाँच हजार बताने से बढ़कर बेईमानी और क्या हो सकती है? हिंदी को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटकर जनगणना करायी गई और फिर अपने अनुकूल निष्कर्ष निकाल लिया गया।

ठीक यही साजिश भारत में भी चल रही है। हिंदी जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है। वह दस राज्यों में फैली हुई है। इस देश के अधिकांश प्रधानमंत्री हिंदी जाति ने दिए हैं। भारत की राजनीति को हिंदी जाति दिशा देती रही है। इसकी शक्ति को छिन्न- भिन्न करना है। इनकी बोलियों को संवैधानिक दर्जा दो। इन्हें एक-दूसरे के आमने-सामने करों। इससे एक ही तीर से कई निशाने लगेंगे। हिंदी की संख्या बल की ताकत स्वतः खत्म हो जाएगी, हिंदी भाषी आपस में बँटकर लड़ते रहेंगे और ज्ञान की भाषा से दूर रहकर कूपमंडूक बने रहेंगे। बोलियाँ हिंदी से अलग होकर अलग-थलग पड़ जाएगी और स्वतः कमजोर पड़कर खत्म हो जाएगी।

क्या हिंदी जाति अपने खिलाफ रची जा रही इस साजिश से बच पाएगी?


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