आजादी के बाद राष्ट्रभाषा के मसले पर हिंदी की टकराहट न केवल अन्य भाषाओं के साथ हुई बल्कि हिंदी की जनपदीय भाषाओं के साथ भी हुई। लोकभाषाओं के साथ उसकी टकराहट के कई-कई रूप और कारण थे। एक कारण तो इसका नागर केंद्रित होना और शिक्षित समुदाय से जुड़ा होना भी था। हिंदी के माध्यम से जिस आधुनिकता की नींव पड़ी थी उसको लेकर जनमानस में कई तरह की भ्रांतियाँ और संदेह थे। साहित्य में भी लोकभाषा के विपुल और समृद्ध साहित्य के कारण हिंदी के प्रति न केवल जनता बल्कि हिंदी क्षेत्र के रचनाकारों के भीतर भी महीन विरोध दिखाई पड़ता है, जो हालाँकि प्रकट रूप में सामने नहीं आता। वैसे भी हिंदी क्षेत्र में विशेषकर कस्बाई और ग्रामीण घरों के भीतर की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी कभी सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकी। बाद में नए राजनीतिक उभार ने हिंदी क्षेत्र के भीतर हिंदी विरोध को उभारने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। भोजपुरी, मैथिल, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली से हिंदी विरोध की आवाजें अब हमारे समय का सच बन चुकी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी के विरोधी देश और देश के बाहर ही नहीं बल्कि इसका बाजारू उपयोग करने वाले और हिंदी के भीतर अपनी आंचलिक सशक्त पहचान रखने वाले लोग भी हैं। इसे समझने के लिए हिंदी और अन्य भाषाओं से उसके द्वंद्व की प्रकृति को समझना आवश्यक है। मैं यहाँ हिंदी और छत्तीसगढ़ी के द्वंद्व को विश्लेषित करने का प्रयास कर रहा हूँ।
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का आंदोलन एवं इतिहास लेखन
राज्य निर्माण के इतिहास-लेखन में ही राज्य की स्वीकृत अस्मिता के बीज-सूत्र छुपे होते हैं। जिसके विश्लेषण के द्वारा हम राज्य विशेष की राजनीतिक दिशा का अंदाज लगा सकते हैं। इसे समझने के लिए छत्तीसगढ़ के इतिहास और इतिहास लेखन की प्रवृत्ति पर नजर डालना आवश्यक है। मध्य भारत में छत्तीसगढ़ को छत्तीसगढ़ प्रोविसेंज का दर्जा दिए जाने के बाद से ही छत्तीसगढ़ राज्य की भूमिका बन गई थी। औपनिवेशिक भारत में यद्यपि पृथक राज्य निर्माण के संदर्भ में जागृत राष्ट्रीयताओं ने जितनी ताकत के साथ अपनी माँग पेश की उतनी ताकत पृथक छत्तीसगढ़ के संदर्भ में नहीं दिखाई पड़ती। कदाचित् इसका कारण जनजाति बहुलता भी हो, जो आधुनिक राष्ट्र-राज्य की सैद्धांतिक व्याख्या के प्रति एक समय तक उदासीन ही रहे। फिर भी छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य बन जाने के पश्चात राज्य निर्माण के इतिहास का जो बड़े पैमाने पर लेखन हुआ उसमें इसका जिक्र बार-बार आता है कि 1924 में रायपुर कांग्रेस कमेटी ने अपनी बैठक मे स्वतंत्र छत्तीसगढ़ का प्रस्ताव पास किया। बाद में इसे त्रिपुरा कांग्रेस में भी रखा गया। हालाँकि त्रिपुरा कांग्रेस के मसौदों में तथा डॉ. बी. पट्टाभि सीतारामैय्या द्वारा लिखित 'कांग्रेस का इतिहास' में इसका कोई हवाला नहीं मिलता। इससे अर्थ निकलता है कि छत्तीसगढ़ की माँग ब्रिटिश भारत में व्यापक समर्थन हासिल नहीं कर पाई थी। हो सकता है कि यह छत्तीसगढ़ के तत्कालीन कांग्रेसी नेतृत्व की निजी माँग हो। औपनिवेशिक भारत में पं. सुंदरलाल शर्मा, ठाकुर प्यारे सिंह, बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, घनश्याम सिंह गुप्ता आदि ने छत्तीसगढ़ के स्तर पर एक मजबूत नेतृत्व की शुरुआत की थी। यद्यपि इनका प्रभाव मध्य छत्तीसगढ़ तक ही सीमित था। छत्तीसगढ़ निर्माण के संदर्भ में इन राजनेताओं की भूमिका यह रही कि इन्होंने छत्तीसगढ़ अंचल को राजनीति की मुख्यधारा से जोड़ा। राजनीति की मुख्यधारा में अपनी नेतृत्वकारी शक्ति के बिना कोई भी स्थापित अथवा दृढ़ स्थापना की ओर अग्रसर राष्ट्र, अन्य क्षेत्रीय राष्ट्रीयताओं को बहुत सम्मान नहीं देता। फिर भी, चूँकि छत्तीसगढ़ी एक बोली के रूप में स्वीकृत थी अतः इसे हिंदी की उप-राष्ट्रीयता के अंतर्गत ही रखा गया।
आजादी के बाद राज्यों का जो नया बँटवारा हुआ उसमें पहले सी.पी. एंड बेरार और बाद में मध्य प्रदेश का हिस्सा बने छत्तीसगढ़ ने कई तरह की उपेक्षाओं को महसूस किया। उपेक्षा का यह एहसास निहायत अंदरुनी था। एक तरफ, मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल थे, जो छत्तीसगढ़ अंचल के ही थे, तो दूसरी तरफ, पूरा का पूरा प्रशासनिक ढाँचा कुछ इस ढंग से विकसित हुआ था कि छत्तीसगढ़ की सीमा के भीतर कोई प्रशासनिक केंद्र नहीं आया। शिक्षा मंडल, उच्च-न्यायालय, राजधानी जैसे प्रतिष्ठा के प्रतीक छत्तीसगढ़ के बाहर ही स्थापित हुए। छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश के लिए संसाधनों की पूर्ति करने वाले एक क्षेत्र के रूप में विकसित होता चला गया। ऐसे में मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री का छत्तीसगढ़ से होना भी संतुष्टि का कारण न बन सका। छत्तीसगढ़ियों के भीतर जो उपेक्षा का एहसास जाग रहा था उसका एक कारण तत्कालीन छत्तीसगढ़ में औद्योगिकीकरण की शुरुआत और उसके विकास के बावजूद 'छत्तीसगढ़ियों' की न्यून भागीदारी भी था। डॉ. खूबचंद बघेल, जिन्हें छत्तीसगढ़ राज्य का जनक भी कहा जाता है, के वक्तव्यों में यह असंतोष बखूबी दिखता है : ''स्कूल, कालेजों की बाढ़ के कारण हमारे लड़के चटनी-बासी खा-खा कर मैट्रिक और ऊँची शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, टैक्निकल ट्रेनिंग ले रहे हैं, पर सरकारी नौकरी के लिए इस दफ्तर से उस दफ्तर मारे-मारे फिर रहे हैं। ऐरे-गैरे अनेकों बाहर से आए हुए मजे से चैन की बंशी बजाते हैं पर हमारे बच्चे बिना धनी-धोरी के हो रहे हैं।''1 डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ की इस प्रशासनिक और राजनीतिक उपेक्षा को आक्रामक रूप देना आरंभ किया। यह आक्रामकता धीरे-धीरे विकसित हुई। मध्यप्रदेश की राजनीतिक केंद्रिकता छत्तीसगढ़ की स्वायत्ता या उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारने के लिए कतई तैयार नहीं थी। ठा. रामकृष्ण सिंह, जो रायपुर विधान सभा क्षेत्र के विधायक थे, ने जब 1955 में मध्यप्रदेश की विधान सभा में छत्तीसगढ़ को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग की तो उनकी माँग को सर्वथा अनुचित माना गया। पुनः एक वर्ष पश्चात उनके ही नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल ने पृथक छत्तीसगढ़ का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया लेकिन उस पर भी विचार नहीं किया गया।2 ऐसी परिस्थिति में ही संविधान की सीमा के भीतर पृथक छत्तीसगढ़ की विनम्र माँगों को डॉ. खूबचंद बघेल ने आक्रामक रूप देना शुरू किया।
डॉ. खूबचंद बघेल मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के मंत्रिमंडल के सदस्य थे। लेकिन धीरे-धीरे पं. रविशंकर शुक्ल से उनका मतभेद बढ़ता गया। मतभेद का मुख्य कारण 1956 में डॉ. बघेल द्वारा राजनाँदगाँव में गठित 'छत्तीसगढ़ी महासभा' था। आखिरकार 1958 में उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने के पश्चात् उन्होंने 'क्षुब्ध छत्तीसगढ़' शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसकी शुरुआती पंक्तियाँ थीं - ''रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग ये तीन जिले और हाल के विलीनीकरण से शामिल हुए 14 रजवाड़े यही छत्तीसगढ़ का इलाका है। मध्यप्रदेश की राजनीति में इसका स्थान उत्तरोतर बढ़ता जा रहा है क्योंकि जनसंख्या के अनुपात में करीब 70 व्यक्ति विधान सभा में चुन कर आएँगे। शेष महाकौशल से 50, नागपुर से 40 और बरार से लगभग से 40 सदस्य रहेंगे। इस तरह कुल मिलाकर लगभग 200 सदस्य होंगे। ऐसी स्थिति में राजनीतिक सत्ता प्राप्ति की दृष्टि से निरंतर सोचने वाले राजनीतिज्ञों के सम्मुख छत्तीसगढ़ बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया है। जिस ओर यहाँ के लोग एक मत से अपना योगदान देंगे निश्चय ही वह दल प्रांत के शासन में एक अत्यंत शक्तिशाली स्थान प्राप्त करेगा। यही कारण है कि कुछ राजनीतिज्ञों को उठते-बैठते, सोते-जागते छत्तीसगढ़ को चंगुल में अच्छी तरह से पकड़े रहने की चिंता बनी रहती है। कुछ विचारवान लोगों का कहना है कि छत्तीसगढ़ इसलिए प्रांतीय राजनीति का स्नायु केंद्र कहा जाने लगा है।'' 3 स्पष्ट है कि मध्य प्रांत में राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए छत्तीसगढ़ अंचल में अपनी साख बढ़ाना और वर्चस्व के चरम पर पहुँचना अत्यधिक जरूरी था, ठीक वैसे ही जैसे देश की राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने लिए उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ बनाए रखना जरूरी था। लेकिन उत्तर प्रदेश ने इसके बदले जो राजनीतिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली थी, वे सुविधाएँ मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ को नहीं मिल पाई। उक्त लेख में आगे डॉ. बघेल ने छत्तीसगढ़ के पिछड़ेपन को लक्ष्य करते हुए स्वयं को उसकी चिंता करने वाले व्यक्ति के रूप में पेश किया। उनका मत था कि तत्कालीन राजनीतिक सत्ता छत्तीसगढ़ के लोगों का भला नहीं कर सकती, बल्कि छत्तीसगढ़ की निःस्वार्थ सेवा करने वालों को कैद में डाल देगी। मध्यप्रांत में शासन करने वालों ने छत्तीसगढ़ के हित की बात करने वालों को 'देश का दुश्मन' कहा। बदले में डॉ. बघेल ने उन लोगों को देशद्रोही करार देते हुए गिरफ्तार कर न्यायालय में मुकदमा चलाने की माँग की।
1958 में डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ को उन लोगों के रहने की जगह माना, जो छत्तीसगढ़ के हित को अपना हित समझते हैं। लेकिन यह बाद में छत्तीसगढ़ में कूर्मि जाति की उपेक्षा के रूप में विकसित होता चला गया। रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग के जातिवार आँकड़ों को देखने से पता चलता है कि कूर्मि जाति की संख्या उक्त जिलों में सबसे अधिक है लेकिन सत्ता मुख्यतः ब्राह्मणों के पास थी। न केवल संख्यात्मक रूप में कूर्मि जाति यहाँ की सबसे बड़ी कृषक जाति है बल्कि जमीन का अधिकांश हिस्सा भी उनके पास है। जमीन एवं संख्या की दृष्टि से ताकतवर होने के बावजूद सत्ता में न्यून भागीदारी ने उसे पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
1956 में डॉ. बघेल ने जब 'छत्तीसगढ़ी महासभा' का गठन कर उसके अध्यक्ष बने, तब वे और उनका संगठन पृथक छत्तीसगढ़ को लेकर उतना आक्रामक नहीं था। वे केवल तत्कालीन राजनीति को लेकर असंतुष्ट थे। लेकिन धीर-धीरे यह असंतुष्टि आक्रामक होती चली गई। इसके कारण कई लोग उनसे दूर भी होते चले गए। इसे उन्होंने सत्ता पक्ष का षड्यंत्र कहा। 1967 में 'छत्तीसगढ़ भातृ संघ' का गठन करते हुए उन्होंने स्वयं इसका जिक्र भी किया है - ''मुझे एक चीज स्पष्ट दिखाई दे रही है कि वे हमारे ही अंदर के कुछ व्यक्तियों को 'टँगिया के बेंठ' की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। उन्हीं के द्वारा छत्तीसगढ़ के आशा-वृक्ष को काट देने में अपना और अपने आल-औलाद के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करते हुए प्रतीत होते हैं। परदे की आड़ में तरह-तरह के सिद्धांतों और मोहक आकर्षणों को आगे रखकर वे हमारे त्यागी-तपस्वी और प्राणवान लोगों का अप्रामाणिक उपयोग करना चाहते हैं।''4
डॉ. हीरालाल शुक्ल ने छत्तीसगढ़ की अस्मिता का विश्लेषण करते हुए उसकी दो छवियों का जिक्र किया है - आत्मछवि एवं प्रदत्त-छवि। ''छत्तीसगढ़ की अस्मिता के दो रूप हैं - एक वह जिसे छत्तीसगढ़ स्वयं अपने बारे में विकसित करता है, इसे 'आत्मछवि' कहा जाता है। दूसरी वह जिसे इतर संस्कृतियाँ देती है, इसे 'प्रदत्त छवि' कहते हैं। 5 छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के आंदोलन में प्रदत्त छवि ने आत्म-छवि को जागृत करने में महती भूमिका निभाई। मराठों के समय से लेकर आजाद भारत तक छत्तीसगढ़ को भिन्न-भिन्न नकारात्मक छवियों के साथ देखा जाता रहा है। उसकी आत्म-छवि, जो खनिज-संसाधनों, नदी, कला-संस्कृति-दर्शन आदि से निर्मित होती थी, उसे गैर-छत्तीसगढ़ी मानने को तैयार नहीं थे। बल्कि उसके प्रति एक उपहासात्मक नजरिया ही रखते थे। कालांतर में आत्मछवि और प्रदत्त-छवि के बीच जैसे-जैसे विरोध बढ़ता गया, पृथक छत्तीसगढ़ की माँग भावनात्मक रूप से प्रबल होती गई। इस माँग के वाहक अधिकतर वे ही लोग थे जो इस प्रदत्त-छवि से असंतुष्ट थे। जिन्होंने ऐतिहासिक कालक्रम में मैदानी छत्तीसगढ़ में अपनी मजबूत स्थिति कायम कर ली थी। उनकी तुलना में बस्तर एवं छोटा नागपुर के आदिवासी इलाके इसके प्रति उदासीन ही रहे। इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा छत्तीसगढ़ी अस्मिता का रूप स्वतः ही बनती चली गई। डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ की इसी प्रदत्त छवि से अपना विरोध प्रगट करते पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की भूमिका रखी थी। अपने एक लेख 'आदर्श और व्यवहार' में उन्होंने लिखा - ''जब हम अपनी भूमिका की ओर देखते हैं तो खुद को छत्तीसगढ़ की डरपोक भूमि पर खड़े पाते हैं। लोगों में सीधापन तो है लेकिन वह सिधाई किस काम की, जब अपनी जान-माल और इज्ज्त को भी लुटते देखकर मुँह न खोल सकें, हाथ-पाँव में हरकत न कर सकें। मुझे केवल इसी बात को देखकर बड़ी बेचैनी होती है। लगता है कि छत्तीसगढ़ के लोगों को सही अर्थ में सिधाई का पदार्थ पाठ कुछ मात्रा में बताऊँ। शायद यह मेरी शेखी की बात ही हो पर मुझे जो लगता है वही कहता हूँ।''6 इसी बात को डॉ. खूबचंद बघेल के जीवन और कृतित्व पर काम करने वाले साहित्यकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने भी स्वीकार किया है - ''छत्तीगढ़ के लोगों का अनुभव संसार अब विस्तारित हुआ है। लेकिन यह हमारा छत्तीसगढ़ ही ऐसा चमत्कारिक क्षेत्र है जहाँ लात, अपमान, हार, उपेक्षा छत्तीसगढ़ियों के लिए जरूरी है, यह दर्शन गढ़ा और मढ़ा जाता है। पूरे साहस और कौशल के साथ हम इस दर्शन का मान भी बढ़ाते हैं अपनी विनम्रता, बुजदिली और परबुधियापन के कारण।'' 7 इस तरह पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन की शुरुआत उपेक्षा के प्रतिकार में विकसित हुई। इस आंदोलन के केंद्र में छत्तीसगढ़ का खेतिहर तबका था, जिसको सम्मान दिलाने के लिए प्रतिनिधि तबका प्रयत्नशील था।
डॉ. खूबचंद बघेल की मृत्यु के पश्चात पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के आंदोलन को अगले चरण पर ले जाने का प्रयत्न संत-कवि पवन दीवान ने किया। पवन दीवान का जोर भी बाहरी लोगों द्वारा किए गए शोषण को राजनीतिक रंग देना था। उन्होंने कहा - ''राजनीति, पत्रकारिता, व्यवसाय, नौकरी सब पर तो बाहरी लोग कब्जा कर चुके हैं। बच गई खेती। खेती नंगा कर रहे हैं परदेसिया लोग।''8 छत्तीसगढ़ को मध्यप्रदेश से अलग एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने 1983 में 'पृथक छत्तीसगढ़ पार्टी' का गठन किया। पार्टी की मुख्य माँग छत्तीसगढ़ को मध्यप्रदेश से अलग एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिए जाने की थी। इसी माँग को लोकतांत्रिक तरीके से सफल बनाने के लिए 1985 के विधान सभा चुनाव में अपने उम्मीदवार भी खड़े किए लेकिन उनमें से एक भी जीत हासिल नहीं कर सका। छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र राज्य की माँग जब राजनीतिक सफलता नहीं दिला सकी तब पवन दीवान इससे अलग होते चले गए। लेकिन पवन दीवान ने अपनी कविताओं के जरिए छत्तीसगढ़ी भावनाओं को उभारने की पुरजोर कोशिश की। इसे हम उनके निम्नलिखित को कवितांशों में देख सकते हैं -
1. छत्तीसगढ़ में सब कुछ है
पर एक कमी है स्वाभिमान की
मुझसे सही नहीं जाती है
ऐसी चुप्पी वर्तमान की 9
2. हमर छाती म चुक्कुल बना के
बैरी मन खेले बांटी रे भैया
तोर धरती तोर माटी 10
6 अप्रैल 1992 को छत्तीसगढ़ राज्य के आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण सर्वदलीय मंच का गठन किया गया। इसमें सभी राजनीतिक दलों के लोग शामिल हुए। इस मंच ने एक ओर जहाँ छत्तीसगढ़ी जनता को पृथक राज्य के आंदोलन के लिए प्रेरित किया वहीं अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर पृथक राज्य की सहमति के लिए प्रयास भी करते रहे। अनेक विधायकों ने मध्यप्रदेश विधान सभा में व्यक्तिगत स्तर पर पृथक छत्तीसगढ़ का मुद्दा उठाया।' 90 के दशक में पृथक छत्तीसगढ़ की मामला पर्याप्त भावनात्मक रूप ले चुका था। इसे इस रूप से और आगे ले जाने में 'आजाद छत्तीसगढ़ फौज' द्वारा 1995 में 1000 दिन का धरना भी महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हुआ। फलस्वरूप भारतीय जनता पार्टी ने अपने राष्ट्रीय घोषणा पत्र में छत्तीसगढ़ को पृथक राज्य का दर्जा दिए जाने का संकल्प किया।
उक्त तमाम प्रयासों के फलस्वरूप 1998 में मध्यप्रदेश पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया। राष्ट्रपति महोदय के विशेष निर्देश के फलस्वरूप 31 अगस्त एवं 1 सितंबर 1998 को मध्यप्रदेश विधान सभा का विशेष सत्र आयोजित किया गया। इन सत्रों में बहस के फलस्वरूप पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के प्रति सहमति जताते हुए 2 अक्टूबर 1998 को एक प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा गया। अगस्त 2000 में संसद के दोनों सदनों ने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य को मंजूर कर लिया। अंततः भारत के राष्ट्रपति की मंजूरी के पश्चात 1 नवंबर 2000 को भारत के 26 वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ राज्य का अस्तित्व सामने आया।
पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन का भाषायी पक्ष
जिन प्रांतों के नामों के साथ वहाँ की प्रचलित भाषा या बोली प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती है वहाँ की राजनीति उस भाषा या बोली के इर्द-गिर्द स्वतः केंद्रित होने लगती है। समय के साथ भाषायी राजनीति का एक ऐसा अभेद्य कवच बन जाता है कि दूसरी रूप-छवियाँ या भावनाएँ उसका अतिक्रमण नहीं कर पाती। परिणामस्वरूप वह भाषा अथवा बोली समस्त सांस्कृतिक इयत्ताओं को परिभाषित करने लगती है। वह स्वयं प्रातिनिधिक या वर्चस्ववादी संस्कृति में रूपांतरित हो जाती है। इस प्रकार एक भिन्न प्रकार की राजनीतिक पृष्ठभूमि अस्तित्व में आती है।
आजाद भारत में पृथक छत्तीसगढ़ की माँग 1955 से लगातार दुहराई जाती रही है। इस माँग ने भाषायी आधार पर अनेक अंदरुनी परिवर्तन किए। प्रतीकात्मक होते हुए भी इन परिवर्तनों ने मनोवैज्ञानिक रूप से गहरा असर डाला। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण का मुख्य केंद्र रायपुर रहा है। जाहिर है कि रायपुर में यह गहमागहमी अधिक सघन रही होगी। रायपुर में इसने क्या भाषायी रूप ग्रहण किया, इसे 1951 एवं 1961 की जनगणना रिपोर्ट में विभिन्न भाषा-भाषियों की संख्या के आधार पर देखा जा सकता है -
मातृभाषा बोलने वालों की संख्या जिले की कुल जनसंख्या का प्रतिशत
|
1951
|
1961
|
1951
|
1961
|
छत्तीसगढ़ी
|
4,32,717
|
10,82,479
|
26.38
|
54.06
|
हिंदी
|
9,33,360
|
6,33,136
|
56.94
|
31.62
|
उड़िया
|
2,05,334
|
1,76,867
|
12.52
|
8.83
|
सिन्धी
|
11,487
|
19,915
|
0.70
|
0.99
|
उर्दू
|
15,644
|
17,507
|
0.95
|
0.95
|
मराठी
|
7,901
|
15,539
|
0.48
|
0.78
|
कमारी
|
---
|
10,329
|
---
|
0.52
|
गुजराती
|
10,679
|
8,045
|
0.65
|
0.40
|
पंजाबी
|
2952
|
5,554
|
0.17
|
0.28
|
मारवाड़ी
|
5,261
|
5,471
|
0.32
|
0.27
|
(स्रोत : रायपुर जिला गजेटियर) 11
1961 से पूर्व छत्तीसगढ़ राज्य की माँग वास्तविक रूप लेने लगी थी इसलिए 1961 की जनगणना में लोगों ने अपने को हिंदी भाषी की बजाय छत्तीसगढ़ी-भाषी के रूप में दर्ज कराया। उक्त आँकड़े में छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या में जो लगभग साढ़े छः लाख की वृद्धि दिखायी पड़ती है उसका मुख्य कारण भाषायी चेतना का विकास है। अर्थात पृथक राज्य की माँग छत्तीसगढ़ी भाषा की माँग से संबद्ध हो रही थी।
1961 की जनगणना में द्विभाषिकता से संबंधित जो आँकड़े उपलब्ध हैं वह भी छत्तीसगढ़ की भाषिक अस्मिता को समझने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
रायपुर
मातृभाषा बोलने वालों की कुल संख्या मुख्य सहायक भाषा प्रमुख सहायक भाषा
|
|
छत्तीसगढ़ी
|
हिंदी
|
|
हिंदी
|
6,33,136
|
23,508
|
4,836
|
---
|
छत्तीसगढ़ी
|
10,82,479
|
20,479
|
---
|
7,134
|
(स्रोत : रायपुर जिला गजेटियर) 12
दुर्ग
मातृभाषा बोलने वालों की कुल संख्या मुख्य सहायक भाषा प्रमुख सहायक भाषा
|
|
छत्तीसगढ़ी
|
हिंदी
|
|
हिंदी
|
2,11,588
|
12,634 271
|
|
---
|
छत्तीसगढ़ी
|
15,15,536
|
12,820
|
---
|
3,348
|
(स्रोत : दुर्ग जिला गजेटियर) 13
सरगुजा जिले में हिंदी बोलने वालों की संख्या 8,02,872 थी। अन्य भाषा-भाषियों में से भी अधिकांश लोगों ने अपनी सहायक भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया। बस्तर जिले में भी छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की कुल संख्या (1,95,453), गोंडी (4,23,187) एवं हल्बी (2,92,304) के बाद तीसरे क्रमांक पर थी। बस्तर अंचल में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग मुख्यतः काँकेर के उत्तरी क्षेत्र, जो रायपुर से लगा हुआ है, एवं सीमित मात्रा में जगदलपुर में होता है।
उक्त तमाम आँकड़ों का विश्लेषण करने से छत्तीसगढ़ की भाषायी अस्मिता के प्रति जागरूकता का पता चलता है। रायपुर में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करने वाले कुल 10,82,479 लोगों में से केवल 7,134 लोगों ने दूसरी सहायक भाषा के रूप में हिंदी का उल्लेख किया। जबकि दुर्ग में कुल 15,15,536 छत्तीसगढ़ी भाषियों में से केवल 3,348 लोगों ने हिंदी को दूसरी सहायक भाषा के रूप में स्वीकार किया। ये आँकड़े आश्चर्यजनक हैं क्योंकि रायपुर एवं दुर्ग के शहरी क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ी और हिंदी मुख्य रूप से संपर्क भाषाएँ थीं और आज भी हैं। रायपुर की शहरी जनसंख्या 1961 में 2,28,148 थी जबकि दुर्ग की 2,35,554। शहरी जनसंख्या की तुलना में छत्तीसगढ़ियों का हिंदी को दूसरी सहायक भाषा के रूप में स्वीकार करने वालों की संख्या काफी कम है। दरअसल दोनों जिलों में छत्तीसगढ़ियों के हिंदी प्रयोग में कमी का कारण उनका हिंदी को दूसरी भाषा के रूप में अस्वीकार कर देना था। अन्यथा शहरी छत्तीसगढ़ी जनता के लिए हिंदी को सहायक भाषा के रूप में प्रयोग में लाना ज्यादा आसान था। 1951 तथा 1961 की जनगणना में रायपुर में छत्तीसगढ़ी भाषियों में लगभग साढ़े छः लाख की वृद्धि एवं हिंदी भाषियों में तीन लाख की कमी दिखती है। वे छत्तीसगढ़ी, जो 1951 में अपनी मातृभाषा हिंदी दर्ज कराई थी, यदि 1961 में छत्तीसगढ़ी की ओर शिफ्ट हुए तो अपनी सहायक भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की अस्मिता छत्तीसगढ़ी एवं हिंदी के बीच की दूरी को बढ़ाने का कार्य कर रही थी? उपर्युक्त आँकड़ों को देखने से तो ऐसा ही प्रतीत होता है। लेकिन इसे केवल छत्तीसगढ़ी भाषियों के हिंदी प्रयोग के आधार पर ही नहीं बल्कि हिंदी भाषियों के छत्तीसगढ़ी प्रयोग के आधार पर भी देखना चाहिए, तभी वास्तविक रूप सामने आएगा।
1961 की जनगणना में दुर्ग जिले में कुल हिंदी बोलने वाले 2,11,588 में से केवल 271 लोगों ने छत्तीसगढ़ी तथा 11 लोगों ने गोंडी को अपनी दूसरी सहायक भाषा मानी। इसी तरह रायपुर जिले में कुल 6,33,136 हिंदी भाषियों में से केवल 4,836 लोगों ने छत्तीसगढ़ी को अपनी दूसरी सहायक भाषा स्वीकार की। ये आँकड़े भी उपर्युक्त आँकड़े की तरह आश्चर्यजनक हैं जो यह बताते हैं कि हिंदी और छत्तीसगढ़ी के बीच संघर्ष की धीमी शुरुआत हो चुकी थी और संघर्ष के केंद्र रायपुर और दुर्ग थे। द्विभाषिकता के संदर्भ में ऐसे आँकड़े सरगुजा और बस्तर अंचल में नहीं दिखाई पड़ते।
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के मुद्दे में भाषा का सवाल प्रत्यक्ष नहीं उठाया गया लेकिन फिर भी छत्तीसगढ़ की अस्मिता छत्तीसगढ़ी के आस-पास केंद्रित होती चली गई। पृथक छत्तीसगढ़ का अर्थ दरअसल मैदानी और पठारी छत्तीसगढ़ के लिए भिन्न-भिन्न था। मैदानी छत्तीसगढ़ में यह भाषायी आग्रहों को अपने भीतर समाहित किए हुए था, जबकि बस्तर और सरगुजा अंचल अपनी जनजातीय विशिष्टताओं के संरक्षण एवं उपेक्षा के परिणामस्वरूप इस ओर जागरूक हुए थे। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के पश्चात राजभाषा के रूप में जब छत्तीसगढ़ी को लागू करने और उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने संबंधी प्रस्ताव विधान सभा से पारित कर केंद्र को भेजा गया तो उक्त दोनों अंचल के लोग उसके प्रति उदासीन रहे, बल्कि उनमें एक धीमा विरोध ही दिखाई पड़ा।
पृथक छत्तीसगढ़ की माँग के लिए अस्सी और नब्बे के दशक में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग भी व्यापक पैमाने पर होने लगा था। यहाँ तक कि कुछ विशुद्ध जाति आधारित संगठनों ने इस ओर रुचि दिखानी शुरू कर दी थी। छत्तीसगढ़ राज्य के बन जाने के बाद नेतृत्वकारी राजनीति छत्तीसगढ़ी को राजभाषा के पद पर बैठाने के लिए तुरंत सक्रिय हो गई और नारा दिया गया - पहले छत्तीसगढ़, पाछे छत्तीसगढ़ी। ऐसे में पिछड़ेपन के आर्थिक और सामाजिक मुद्दे लगातार पीछे छूटते चले गए, मुख्य मुद्दा हो गया भाषा को सम्मान दिलाना।
यह पूरा मामला आजाद भारत के सातवें-आठवें दशक में नए वर्ग से संबंधित था, जो राष्ट्रीय राजनीति में अपनी न्यून उपस्थिति को लेकर खिन्न था। फलस्वरूप वह क्षेत्रीय राजनीति में अपना वर्चस्व कायम कर राष्ट्रीय राजनीति में, सीमित ही सही, लेकिन मजबूत उपस्थिति कायम करना चाहता था। आठवें दशक से भारतीय राजनीति में केंद्रीय सत्ता के क्षीण होने के साथ-साथ क्षेत्रीय अस्मिताओं को नए ढंग से तलाशने एवं उनसे नए राजनीतिक समीकरण बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। ऐसे में क्षेत्रीय अस्मिताओं ने भी भावात्मक उभारों के फलस्वरूप अपने ताकतवर होने की नई संभावनाओं को पहचाना। छत्तीसगढ़ राज्य में छत्तीसगढ़ी का मसला इसी राजनीतिक प्रकल्प का हिस्सा था। भाषा विवाद और लोकतंत्रीकरण14 नामक लेख में धीरू भाई शेठ ने क्षेत्रीय अस्मिता और क्षेत्रीय अंतर्संबंधों पर विचार करते हुए कई महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। आजादी के आस-पास (या उसके पहले से ही उभरा और अब) शक्तिशाली हुआ प्रभुवर्ग भाषा के आधार पर अंग्रेजी वर्चस्व के कारण स्वयं को सत्ता के शीर्ष पर रखने में कामयाब हो गया। हिंदी की ढुलमुल राष्ट्रीय नीति इस प्रभुवर्ग और उसके भाषायी वर्चस्व को ध्वस्त नहीं कर सकी। सत्तर के दशक में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया से निकले नए क्षेत्रीय प्रभुवर्ग ने अंग्रेजी के पुराने प्रभुवर्ग के समक्ष क्षेत्रीय स्तर पर चुनौती पेश की। इस क्रम में चूँकि क्षेत्रीय भाषाओं ने महती भूमिका निभाई थी इसलिए क्षेत्रीय भाषाएँ, क्षेत्रीय अस्मिताओं के एक सुदृढ़ वाहक के रूप में उभरी। हिंदी ने चूँकि उनके संघर्ष में कोई सक्रिय हिस्सेदारी नहीं की थी इसलिए क्षेत्रीय अस्मिताओं का हिंदी विरोध पहले दबे-छुपे रूप में और बाद में खुले रूप में सामने आया।
इस तरह आजाद भारत में नई राष्ट्रीयताओं और उप-राष्ट्रीयताओं के सशक्तिकरण की प्रक्रिया औपनिवेशिक भारत के बिल्कुल विपरीत क्रम में दिखाई पड़ती है। यद्यपि यह नई लोकतांत्रिक कार्रवाई थी जिसने लोकतंत्र की केंद्रिकता को विकेंद्रीकरण की दिशा में ढकेलने में कामयाबी पाई। लेकिन विकेंद्रीकरण की उपर्युक्त प्रक्रिया में उभरी जो नई वर्चस्ववादी शक्तियाँ थीं, वह पहले के मुकाबले अधिक अनुदार बल्कि आक्रामक थीं। इस नई उभरी शक्ति ने अन्यों के साथ निहायत अतार्किक व्यवहार किया। इतिहास और संस्कृति की व्याख्याएँ भी नए सिरे से ध्रुवीकृत की गईं। छत्तीसगढ़ में ध्रुवीकरण का नतीजा यह हुआ कि पृथक छत्तीसगढ़ को लेकर दो भिन्न विचार सरणियाँ बनती चली गईं। जो वर्ग पृथक छत्तीसगढ़ के माध्यम से केवल सत्ता के शीर्ष पर पहुँचना चाहता था, उसके लिए लोकतांत्रिकता केवल एक सुविधा थी। उसके पास जन-सशक्तिकरण की कोई निश्चित योजना नहीं थी। फलस्वरूप उसने भाषा को स्थानीय सम्मान के प्रमुख तत्व के रूप में प्रचारित करना शुरू किया। इसे डॉ. परदेशीराम वर्मा के निम्नलिखित कथन में देख सकते हैं : ''मैं यह मानता हूँ कि भाषा और साहित्य के असर के कारण यह अंचल बना बनाया रखा हुआ था। जैसे काँच को काटने के लिए हीरे लगे हुए उपकरण का इस्तेमाल होता है वैसे ही यहाँ छत्तीसगढ़ी भाषा का हीरा लगा था, जिसके कारण यह इलाका मध्यप्रदेश से अलग हो गया। इसके लिए न क्रांति हुई न खून बहा।''15
पृथक छत्तीसगढ़ की दूसरी विचार सरणि उपेक्षित जनता की मुक्ति, औद्योगिकीकरण की पुनर्व्याख्या, आदिवासी-जनजाति वनसंपदा और कृषि को केंद्र में रखते हुए छत्तीसगढ़ को नए सिरे से बनाना चाहती थी। चूँकि इनके लिए छत्तीसगढ़ी भाषा भावनात्मक मुद्दा नहीं था। इसलिए पृथक छत्तीसगढ़ राज्य में ऐसी शक्तियाँ लगातार उपेक्षित होती चली गईं। शंकर गुहा नियोगी और उनकी पार्टी 'छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा' ऐसी ही शक्तियाँ थीं जिसकी पृथक छत्तीसगढ़ में घोर उपेक्षा हुई।
पृथक छत्तीसगढ़ के निर्माण के आंदोलनों और उसके इतिहास-लेखन में छत्तीसगढ़ी जनता के शोषणों का अनेक बार जिक्र हुआ लेकिन शोषण के कारणों एवं तरीकों का खुलासा नहीं हुआ। एक वर्ग-शून्य छत्तीसगढ़ी समाज की भावुक कल्पना जानबूझकर की गई ताकि छत्तीसगढ़ी भावना का गैर-छत्तीसगढ़ियों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सके। नियोगी इस तरह की भावुकता को छत्तीसगढ़ के लिए खतरा मानते थे। 'छत्तीसगढ़ी कौन' की परिभाषा देते हुए छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने जिस तरह से अपना पक्ष रखा और छत्तीसगढ़ के जिन दुश्मनों की शिनाख्त की, वह, जाहिर है कि छत्तीसगढ़ के संभावित शासकों को कतई अच्छा न लगता। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के लिए वे सभी लोग छत्तीसगढ़ी जनता के दुश्मन थे जो शोषण की किसी भी प्रक्रिया से जुड़े हों, चाहे उनकी भाषा छत्तीसगढ़ी ही क्यों न हो। इसी कारण ग्रामीण अंचलों से अनेक लोग छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़े।
शंकर गुहा नियोगी एवं छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का समर्थन किया। अनेक छोटी पुस्तिकाएँ जारी कर इसके लिए लोगों को संगठित भी किया। लेकिन उनका छत्तीसगढ़ केवल भाषिक इकाई या भाषायी सुविधा नहीं थी बल्कि आजादी के बाद 'छत्तीसगढ़' जिस अंचल के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा था, उसकी मुक्ति का एक सपना था। एक पुस्तिका जारी कर उन्होंने इस बात का प्रचार भी किया कि 'नए छत्तीसगढ़ की माँग एक जनवादी माँग है।'16
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के छत्तीसगढ़ की संकल्पना में भाषायी तत्व उपेक्षित नहीं था, बल्कि वह राष्ट्रीयता के एक सहायक तत्व की तरह प्रयुक्त हुआ था। सन 1989 में उन्होंने एक विज्ञप्ति जारी कर यह माँग की कि छत्तीसगढ़ में गोंडी, हल्बी एवं छत्तीसगढ़ी में शिक्षा दी जानी चाहिए। इतना ही नहीं, पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के आंदोलन में सक्रिय छत्तीसगढ़ी नेताओं की मंशाओं का खुलासा करते हुए लिखा - ''आज छत्तीसगढ़ी पूँजीपति एवं निम्न-पूँजीपति छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के विचार से अधिकाधिक उत्साहित हो रहे हैं और उसे अपना रहे हैं। किसानों में भी अलग राज्य के गठन की माँग जोर पकड़ती जा रही है। इसलिए मजदूर वर्ग का यह कर्तव्य है कि वह इस विषय में सक्रिय भाग ले। अगर एक स्पष्ट दिशा में इस अभियान को नहीं चलाया जाता और इसे लोगों के मुक्ति-संघर्ष के प्रश्न के साथ नहीं जोड़ा जाता तो यह गलत दिशाओं में भटक सकता है। उग्र अंधराष्ट्रवाद पूरे अभियान को नुकसान पहुँचा सकता है।'' 17
छत्तीसगढ़ के पृथक्कीकरण को लेकर जो लोग सक्रिय राजनीति से संबद्ध थे या मनोवैज्ञानिक रूप से उसका समर्थन करते थे, उनका पूरा जोर शासन के शीर्ष पर छत्तीसगढ़ियों की पहुँच तक केंद्रित था। वे नीतियों की आलोचना के प्रति प्रायः मौन ही रहे। डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ राज्य की माँग के आरंभिक दिनों में नेहरू की नीतियों की आलोचना तथा धान का समर्थन मूल्य घोषित किए जाने जैसे जरूरी मुद्दे अवश्य उठाए लेकिन बाद में वे कूर्मि संगठन के अध्यक्ष पद से संतुष्ट हो गए। उनका छत्तीसगढ़ किसी भी छत्तीसगढ़ी के लिए असुविधाजनक नहीं था क्योंकि केवल छत्तीसगढ़ी होना ही इस अंचल से उनके प्रेम को वैध सिद्ध कर देता था। जबकि नियोगी के रास्ते पर चलने के लिए शोषक की स्थितियों एवं सुविधाओं को त्यागना जरूरी था। राष्ट्रीयता का संबंध भाषा से कितना गहरा होता है, छत्तीसगढ़ राज्य की स्मृति में नियोगी की उपेक्षा इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
नियोगी का रास्ता 'स्वभाषा' के माध्यम से 'स्वराज्य' को पाने के बिल्कुल विपरीत था। उन्होंने 'स्वराज्य' को पाने के रास्ते में भाषा को एक उपकरण माना। इसलिए यद्यपि वे वैचारिक अंतर्विरोधों का शिकार होने से तो बच गए, लेकिन जहाँ तक छत्तीसगढ़ के संदर्भ में एक भावनात्मक दृष्टिकोण को उभारने का मामला था, वे असफल ही हुए। उनके नए छत्तीसगढ़ से वे ही लोग जुड़े जिनकी हैसियत छत्तीसगढ़ में एक मजदूर की थी। भाषा के संदर्भ में उनकी सोच स्टालिन के काफी करीब थी, जो भाषा को मशीन की तरह केवल एक उपकरण मानते थे। भारत के रूप में राष्ट्र-राज्य का विकास जिस मूल संकल्पना पर आधारित था, नियोगी का छत्तीसगढ़ी प्रयोग उस संकल्पना को चुनौती देता था। औपनिवेशिक भारत में राजनीति के शीर्ष पर पहुँचा नेतृत्वकारी वर्ग भाषा के सवाल पर कई तरह के अंतर्विरोधों का शिकार हुआ। भाषायी समाज को जागरूक कर एक उदार राष्ट्र का निर्माण करने की राष्ट्रीय राजनीति 1930 के दशक से ही राष्ट्रीयताओं और उप-राष्ट्रीयताओं के टकराहटों की समस्या का सामना करने के लिए बाध्य हुई। ऐसे में राष्ट्रीय एकता के नाम पर संघर्ष एक समय तक टाले तो रखे जा सकते थे, लेकिन अंतिम रूप से उनका निपटारा नहीं किया जा सकता था। आजाद भारत में पं. नेहरू ने भी संघर्षों को टालने की जो नीति अपनाई, क्षेत्रीय राजनीति पर उसका प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। भाषायी राष्ट्र आक्रामक होने की दिशा में बढ़ चुके थे। वे एक निश्चित भावनात्मक रूप ले चुके थे। इन तमाम परिस्थितियों के लगातार बढ़ते जाने के बीच यदि नियोगी और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का छत्तीसगढ़ी राष्ट्रीयता को लागू करने के प्रयास के प्रति जन-समुदाय उदासीन है तो कोई आश्चर्य नहीं।
संदर्भ
1. डॉ. खूबचंद बघेल (डॉ. परदेशीराम वर्मा लिखित पुस्तक 'डॉ. खूबचंद बघेल : व्यक्ति एवं विचार' से उद्धृत) पृष्ठ - 41
2. पूजा निर्माण - भारत के हिंदी राज्य : छत्तीसगढ़ (पृष्ठ - 16)
3. डॉ. खूबचंद बघेल (उप.) पृष्ठ-20
4. (उप.) पृष्ठ-32
5. हीरालाल शुक्ल - क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति (पृष्ठ - 113)
6. डॉ. खूबचंद बघेल (उप) (पृष्ठ - 45)
7. (उप.) (पृष्ठ - 18)
8. परदेशी राम वर्मा - अपने लोग (पृष्ठ - 39)
9. उप. (पृष्ठ - 37)
10. उप. (पृष्ठ - 38)
11. रायपुर जिला गजेटियर पृष्ठ - 94
12. रायपुर जिला गजेटियर पृष्ठ - 98
13. दुर्ग जिला गजेटियर पृष्ठ - 108
14. धीरूभाई शेठ संवेद अंक - 18 संपादक किशन कालजयी पृष्ठ - 29)
15. डॉ. परदेशी राम वर्मा से एक निजी बातचीत
16. फागूराम यादव - छत्तीसगढ़ के मुक्ति के खातिर (संघर्ष और निर्माण : शंकर गुहा नियोगी और उनके नए भारत का सपना - सं. अनिल सद्गोपाल एवं श्याम बहादुर नम्र पृष्ठ - 67)
17. (उप.) पृष्ठ - 138