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प्रेम के स्वागत से ठिठक गई आत्मा
अपराध बोध था - पाप, वासना का
प्रेम की गिद्ध दृष्टि ने भाँप लिया तत्क्षण
प्रथमागमन से ही मेरा वह म्लान मन
मोहक अदा से आकर मेरे निकट
प्रेम ने पूछा - कोई समस्या है विकट ?
***
एक आगंतुक - जवाब दिया मैंने,
क्या योग्य है सम्मान के !
प्रेम ने प्रत्युत्तर दिया - हाँ !
पर मैं अभद्र और कृतघ्न... फिर भी !
ओह ! मेरे प्रिय... नहीं देख सकता मैं
स्नेह से थाम लिया था प्रेम ने मेरा हाथ
और मीठी मुस्कराहट से दिया जवाब -
किसने बनाई है आँखें, मेरे सिवाय !
***
शाश्वत, ध्रुवसत्य ही तो है देव !
पर मैंने कर दिया है उन्हें दृष्टिहीन
छि... छि... अब मेरे भीतर की शर्म को जाने दो
वहाँ पर, जो है बेशर्म आँखों का नियत स्थल
***
मैं जानता हूँ की नहीं कर सकते हो ऐसा तुम
कहा प्रेम ने - किसने ओढ़ लिया दोष !
प्रियवर ! कौन होगा सिवाय मेरे !
बैठ जाओ - अधिकारिक स्वर था प्रेम का
खत्म कर दो तत्क्षण मेरे भीतर की ईर्ष्या
बस ! करने लगा था ईर्ष्या आत्मसात मैं !!!
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