जीसस को क्रॉस पर चढ़ा कर मारा। श्रीकृष्ण की जहरीले बाण से हुई। श्रीराम नदी में गिर कर अदृश्य हुए पर मैं इस दुनिया में सदा जीवित रहूँगा
,
तुम ये देखोगे।
अगस्त में भारती इरोड में ही कई जगह गए और सभाओं में वक्ता की हैसियत से वक्तव्य देते रहे। पत्रिका में उनके वक्तव्य व सभाओं के समाचार प्रकाशित होते। इससे
भारती और उनके साथी आश्वस्त हो गए कि हाथी वाले हादसे के बाद वो उबर गए हैं और उस हादसे से कोई खतरा शेष नहीं है। जून में हादसा हुआ था और जुलाई-अगस्त में
स्वस्थ होकर कार्यालय गए। इसके अलावा भजन मंडली में शरीक हुए। पत्नी और बेटी को एक महिला सभा के कार्यक्रम में छोड़ने भी गए।
जिस समय यह दुर्घटना हुई अर्जुन (उस हाथी का नाम) की उम्र मात्र चालीस वर्ष थी। इसके बाद दो वर्षों बाद अर्थात 1923 में उसकी मृत्यु हो गई।
शायद यमराज ने हाथी द्वारा संकेत दे दिया था, और उनका कुछ समय स्वस्थ रहना मात्र छलावा था। सितंबर 1921 को उन्हें आँव के दस्त लगे, पेचिश हो गई जिसका जोर इतना
अधिक था कि उनका कमजोर शरीर उसे सह नहीं पाया। कार्यालय से एक व्यक्ति उन्हें मिल कर स्वास्थ्य का पता लगाने आया था। उसने भारती से ये पूछा कि तबीयत सही होकर
अंदाज से कब तक कार्यालय आ पाएँगे। भारतीजी ने ना जाने मन में क्या हिसाब लगाया, क्या सोचा बोल दिया कि 'सोमवार दि. 12 को पक्का आ जाऊँगा।' सितंबर 12 को उनका
पार्थिव देह चिता पर रखा गया था।
भारती के अनेक साथियों को उनकी खराब तबीयत की सूचना कुछ देर से पहुँची थी। इनमें से एक व.वे.सू. अय्यर, जिनके नाम से किसी और के लिखे लेख के लिए हाथ में हथकड़ी
के साथ पुलिस सिपाहियों की निगरानी में उनसे मिलने आए। उस दिन 11 सितंबर थी। भारती की बिगड़ी हालत देख कर चिंतित और गंभीर स्वर में कहा जिसमें स्नेह का पुट भी था
- 'भारती, तुम दवाइयाँ खा नहीं रहे हो फिर ठीक कैसे होओगे?' उन्होंने काफी कुछ समझाया।
नेलैयप्पर, नीलकंठ ब्रम्हचारी, लक्ष्मण अय्यर आदि और कुछ रिश्तेदार भारती की देखभाल के लिए वहीं रहे। एक नामी होम्योपेथ चिकित्सक जानकीराम को बुला कर लाया गया।
पर उनसे चिकित्सा करवाना तो दूर भारती चिकित्सक पर ही भड़क उठे - 'किसने कहा मेरी तबीयत ठीक नहीं है? मैं एकदम ठीक हूँ, पता नहीं कौन आपको बुला कर लाया! मुझे
अकेला छोड़ दीजिए बस।'
इसी प्रकार पड़ोसी के यहाँ से एक बूढ़ी दादी भारत को देख कर बड़े स्नेह से समझाने लगी। बस कवि महाशय भड़क उठे - 'सबने मिल कर मुझे परेशान करने की साजिश रच रखी है।
मुझे कुछ नहीं हुआ, मैं ठीक हूँ।'
वैद्य ने 11 सितंबर की तारीख को खतरे का निशान माना था। उनके बचने की उम्मीद तो एक तरह से खत्म हो चुकी थी। वैद्यजी के अनुसार दी तारीख की रात पूरी होने में भी
संशय था। संध्या को दीपक जलाने के समय भारी मन से शकुंतला उनके कमरे के बाहर बैठ गई। मन में भय का तांडव मचा हुआ था। तभी उसकी माँ चेल्लमा उसको सहलाते हुए बोली
- 'हम लोगों का कहना सुनते ही नहीं हैं न दवाई लेते हैं। ऐसा करो तुम जाकर दवाई दो, शायद तुम्हारे हाथ से ले लें।'
शकुंतला ने अपनी पुस्तक में लिखा है - 'कमरे में मद्धम सा एक बल्ब जल रहा था, जिससे प्रकाश नहीं के बराबर था। उनके पास एक गिलास में बारली का पानी (जौ का) रखा
था। मुझे लगा वही दवाई है और मैंने वो गिलास उन्हें दिया। दवाई के लिए मना करते हुए उस गिलास का द्रव्य जरा सा मुँह में डाला। बोले - ये दवाई नहीं है, पापा। बस
उसके बाद श्रांत होकर आँखें बंद कर लीं। थके हुए पिता को जगा कर दवाई देने की इच्छा नहीं हुई। कमरे से बाहर निकली और पास के कमरे में लेट गई। शायद मेरी नींद लग
गई थी।'
11 सितंबर 1921 की रात को भारती के मित्र चिंता में डूबे हुए थे। अचानक भारती बोले - 'अमान उल्ला खान पर एक आलेख तैयार कर कार्यालय ले जाना है।' अमान उल्ला खान
उस समय अफगानिस्तान के राजा थे। प्रथम महायुद्ध में उन्होंने जर्मनी का साथ दिया था, इसलिए ब्रिटिश सरकार उनसे नाराज थी। खराब स्वास्थ्य के चलते पिछले कई दिनों
से वो कार्यालय भी नहीं गए थे। अचेतावस्था में, मृत्यु के मात्र दो घंटे पूर्व, बोला गया यह वाक्य उनका अंतिम वाक्य था।
उनके मित्र लगातार उनको जाँच रहे थे और आश्चर्य कर रहे थे कि ये वही भारती महान कवि हैं जिन्होंने मनुष्य को अमरत्व पर भाषण दिया था। 'काल को तो वो घास के तिनके
की तरह समझते थे और कहते कि मेरे पास आकर तो दिखा मैं पैर से दबा कर कुचल दूँगा।'
इनसान कितना भी चाहे या प्रयत्न कर ले पर काल से वो हारता ही है। भारती के साथ महानता के किस्म-किस्म के पदक लगे पर आखिर काल के सामने एक इनसान ही तो थे। रात के
1.30 बजे उनके प्राण ने उनके शरीर को छोड़ दिया और उनकी पवित्र-सच्ची आत्मा महाप्रयाण के लिए निकल पड़ी।
सुबह होने तक भारती के शेष मित्रों को दुखद समाचार दिया गया। बाकी के मित्र ए दुरैस्वामी अय्यर, हरीहर शर्मा, ईसाई पास्टर यदिराज, सुरेंद्रनाथ आर्य,
म.श्रीनिवासचार्य, एस.तिरूमलाचार्य, कु. कृष्णन आदि रात से वही थे। इस परिवार की समय-समय पर मदद करने वाले दुरैस्वामी अय्यर ने इस समय भी बहुत मदद की। उनका वजन
वैसे भी अधिक तो कभी नहीं था पर पिछले कुछ समय से अस्वस्थ रहने से उनका वजन बहुत ही कम हो गया था। उन सबको दुख इस बात का था कि एक महान देशभक्त, राष्ट्रकवि की
अंतिम क्रिया में मात्र बीस व्यक्ति थे। अग्नि को सौंपने के पहले आर्य ने भारती से संबंधित एक वक्तव्य दिया और नलैयप्पर ने उनके आखिरी दिन का विवरण दिया।
भारतीजी की दोनों पुत्रियाँ ही थी, पुत्र संतान न होने से चिता में अग्नि देने का कार्य कौन करे, ये प्रश्न उठा। भारतीजी बोलने की स्थिति में होते तो बोल पड़ते
कि मेरी सुपुत्रियाँ किसी बेटे से कम नहीं हैं, वहीं देंगी। एक शताब्दी पूर्व के भारत में वो ऐसा सोचने और कर के दिखाने वाले व्यक्ति थे। उन दिनों विधवा के बाल
साफ कर दिए जाते थे पर भारती की पत्नी ने भी ऐसा नहीं होने दिया। बहरहाल उनकी चिता में उनके दूर के रिश्तेदार वी. हरीहर शर्मा ने आग दी और बाकी कर्मकांड भी पूरे
किए।
कई सौ सालों में भारतीजी जैसी मेधा वाला व्यक्ति पैदा होता है। इस बात को उनके कुछ मित्रों ने ही समझा। तमिलनाडु का दुर्भाग्य था कि उन्होंने ना भारती को समझा
ना उनके व्यक्तित्व को पहचाना। अगर पहचान लेते तो शायद, शायद उन्हें दरिद्रता, निराशा और कुंठाओं में जीकर अपनी जान इतनी शीघ्रता से नहीं गँवानी पड़ती। मृत्यु के
समय उनकी आयु मात्र 38 वर्ष 9 माह थी। जब स्वामी विवेकानंद का 39 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया था तब भारतीजी को बहुत बुरा लगा था। वो कहते थे कि स्वामी
विवेकानंद जैसे महान आत्माओं से ही भारत का युवा वर्ग सही राह पर चलेगा और मानसिक तथा शारीरिक रूप से ताकतवर होगा। दोनों महान आत्माओं में ये समानता थी कि दोनों
39 वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए। दूसरी समानता ये थी कि भारती भी अपनी लेखनी से युवा वर्ग में जोश, प्रगतिशील विचार, राष्ट्रभक्ति का जज्बा पैदा कर
रहे थे।