पिछले कई दिनों से सन्दीप बशीर अहमद नामक एक बीस वर्षीय युवक की खोज में था। इत्तफ़ाक़ से उस युवक का पता चल गया था। वह किसी पुराने आतंकवादी के चचेरे भाई का दोस्त था। सन्दीप उससे पूछताछ करना चाहता था और उसे आर्मी द्वारा खोले गये वर्कशाप से भी जोड़ना चाहता था, जिससे गाँव में आर्मी के प्रति सद्भावना फैले, साथ ही ग़रीबी के चलते जो आतंकवाद की तरफ़ आकर्षित होते हैं उसकी सम्भावना भी शेष हो। सन्दीप का यह विश्वास था कि आतंकवाद से लड़ने के लिए ज़रूरी है कि पहले अन्धविश्वास, अशिक्षा, भूखमरी और बेकारी से लड़ा जाए। बहरहाल, कई बार ख़बर भिजवाने के बाद भी जब बशीर अहमद मेज़र सन्दीप से मिलने नहीं आया तो सन्दीप ने धमकी दी - यदि अब भी वह उससे मिलने नहीं आया तो वह उसे जवान भेजकर उठवा लेगा अपने घर से।
अन्ततः आया वह। बेहद डरा। सहमा और सिकुड़ा हुआ। तुम क्यों नहीं आये? क्यों तुम्हें बुलवाना पड़ा इतनी बार, नरम आवाज़ में पूछा सन्दीप ने, पर जो जवाब आया उसे सुनकर सन्न रह गया मेज़र। उन्हें लगा, दुनिया को, लोगों को, कश्मीर की समस्या को शायद फिर से समझना होगा उन्हें। बशीर अहमद ने जवाब दिया, ''साहब जी, मैं बहुत डर गया था। मुझे गाँववालों ने कहा, मत जाओ वहाँ सारे हिन्दू मिलकर पीटेंगे तुम्हें।''
''क्या?'' सनाका खा गये सन्दीप। तो यह है मेरी पहचान? मैं भारतीय नहीं, इनसान भी नहीं, मेज़र भी नहीं, मैं हूँ सिर्फ़ एक हिन्दू! क्या ये वही कश्मीरी हैं जिनका मिजाज़ सूफ़ियाना था। काश! यह शहर अपने उस इतिहास को याद रख पाता जो सुदीर्घ समय तक समन्वय, भाईचारे और सह-अस्तित्व का इतिहास रहा था।
बहरहाल, इस घटना के मानसिक आघात से उबर भी नहीं पाया था सन्दीप। कैंसरग्रस्त रोगी के-से दिन बीत ही रहे थे कि एक मटमैली शाम एक मुखबिर ने उसे गुंड गाँव के ही एक ऐसे परिवार के बारे में जानकारी दी जिसका बड़ा लड़का ज़मील सिर्फ़ छह महीने पूर्व ही ताज़ा टटका आतंकवादी बना था।
''ताज्जुब, इतनी सख़्ती, चौकसी, दहशत और हिदायतों के बावजूद ख़ुद उसके एरिया में कोई जैहादी कैसे बन गया? ऐन उसकी नाक के नीचे।'' आश्चर्य से पूछा सन्दीप ने ख़बरिये से।
''साहब जी, एक तो यहाँ इस्लाम का चाबुक हर घर में लटका रहता है। लोग यहाँ ज़िन्दगी से ज़्यादा अल्लाह, कुरान, नमाज़ और दाढ़ी-टोपी में दिलचस्पी रखते हैं। दूसरा जेहादी बनते ही सारा गाँव उसे और उसके परिवार को डर और इज़्ज़त से देखने लगते हैं। क्योंकि जेहादी बनते ही उनके घर की ताक़त और रईसी दोनों बढ़ जाती है। सुना है कि ज़मील ने भी जानलेवा भूखमरी और ज़िन्दगी की जिल्लत से तंग आकर उठा ली गन और अब वह भी थिरक रहा है आतंकवाद की ताल पर।''
मुखबिर बोलता जा रहा था पर सन्दीप के दिमाग़ में दो विरोधी विचार एक साथ कौंधने लगे। बन्द करना होगा केंचुए की तरह रात के अँधेरों में रेंगते इस आतंकवाद को। पर दूसरे ही क्षण उसने चश्मा उतारा और अफ़सोस के साथ एक उच्छ्वास ली। काश, यहाँ की ख़ूबसूरती, ये हवाएँ, पहाड़ियाँ, घाटियाँ, वादियाँ बादल और पत्तियों की ख़ूबसूरती दे पाती यहाँ के युवाओं को कुछ सुकून! कुछ चैन!
दूर रख पाती उन्हें इस ख़ून-खच्चर से।
मेज़र सन्दीप ने अपनी निगाहें टिका दीं उस घर पर। उस परिवार का इतिहास, भूगोल, वर्तमान यहाँ तक कि उसके हर सदस्य की जन्म कुंडली तक हाजिर थी सन्दीप की टेबल पर। एक ग़रीब बीपीएल (ग़रीबी रेखा के नीचे का) परिवार। एक छोटा भाई ज़मील का, हमीद। एक युवा बहन, रूबीना। माँ, रुक्साना। जीविका के लिए मात्र दो घोड़े जो गुलमर्ग और नारायण नाग में सैलानियों की सवारी के लिए सीजन में निकलते और परिवार को भुखमरी से बचाते। घर के आगे थोड़ी-सी ख़ाली ज़मीन, जहाँ कभी सब्ज़ियाँ लहरातीं तो कभी मुर्गे कुड़कुड़ाते रहते। ज़मील के जेहादी बनने के बाद से परिवार की खस्ता हालत में थोड़ी तब्दीली हुई घर की टूटी छत की मरम्मत हुई।
क्या सम्भव है आत्मसमर्पण। मेज़र सन्दीप चाहता था कि ऐसी कच्ची कोपलों को समझा बुझाकर उनसे आत्मसमर्पण करवाया जाए... उन्हें एक बार कम से कम मौक़ा अवश्य दिया जाए, ज़िन्दगी पर पुनर्विचार करने का। इसी बिन्दु पर एक बार फिर वे भिड़ गये कर्नल आर्य से। कर्नल आर्य ने चश्मा उतार उसे ऐसे देखा जैसे पहाड़ी चोटी पर खड़ा इनसान नीचे खड़े इनसान को देखता है। उनकी मूँछ के कोने फड़फड़ाएँ, आँखों में सर्प रेंगने लगे। फिर भी अपने को संयत रखते हुए समझाया उन्होंने सन्दीप को, ''पागल मत बनो। सफ़ाया करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बिना जड़ से उखाड़े बात नहीं बनती। आत्मसमर्पण की तो तभी सोचनी चाहिए जब किसी कारण से हम ऐसा नहीं कर पाएँ। देखो हमें यहाँ सामाजिक कल्याण के लिए नहीं भेजा गया है। तुम पता लगाओ, क्या है परिवार की वीक लिंक और फिर अपनी स्ट्रैटेजी बनाओ। ओ.के.।''
गुंड जैसे उजड़े और वीरान गाँव में सन्दीप के लिए ऐसी किसी भी वीक लिंक का पता लगाना सचमुच टेढ़ी खीर था क्योंकि उस गाँव के अधिकतर युवा या तो मारे जा चुके थे या एके सैतालिस उठाए गाँव के बाहर थे। बची रह गयी थी बेवाएँ या सिर्फ़ बूढ़े-बूढ़ियाँ।
कड़कती आवाज़ में मेज़र सन्दीप ने ज़मील के अब्बू से पूछा, ''वन से कछी, छुई नेहू (बता, तेरा बेटा कहाँ है?) वह थर-थर काँपा। सारा घर काँपा। घर की छत झुक गयी। हिचकी लेते हुए हकलाते हुए ज़मील के अब्बू ने जवाब दिया, मैं छुन पता। (मुझे नहीं पता!)
एके सैंतालिस को उसकी पसलियों से छुआ, उसकी आँख में आँख डाल उसे घूरते हुए जब फिर पूछा वही सवाल तो थर-थर काँपते, जार -जार रोते ज़मील के अब्बू ने आयं-सायं जाने क्या-क्या कहा कि कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा ज़मील के। अनुवादक ने समझाया सन्दीप को, ''सर जी, यह कह रहा है कि क़सम ले लो, जो छह महीने से नन्हें मियाँ की शक्ल भी देखी हो।''
''तो फिर घर में पैसे कहाँ से आये? दिखा मनी ऑर्डर की रसीद!'' बोलते-बोलते सन्दीप की आवाज़ के कोने इतने नुकीले हो गये कि ज़मील के अब्बू के डर का रंग और भी गाढ़ा हो गया। अपने मटमैले फिरन से आँसू पोंछते और सामने के दो टूटे दाँतों को दिखाते हुए वह फिर कलपा, ''साहब जी, पैसे तो बेटे ने अपने किसी आदमी की मार्फ़त भिजवाए थे। बोलते-बोलते किसी अनिष्ट की आशंका से वह फिर काँपने लगा। उसके काँपते होंठ, लड़खड़ाते क़दम और झर-झर झड़ती आँखों से दुख की महागाथा फूट रही थी। वह सदी का सबसे अभिशप्त पिता लग रहा था। सन्दीप के भीतर से आवाज़ उठी, दुखी मत हो बाबा। तेरा बेटा सकुशल लौट आएगा तेरे पास, पर उसकी वर्दी कह रही थी, सच-सच बता, कब मिला था तू उससे आख़िरी बार... कहाँ मिला था? वह फिर कलपा और अपने छोटे बेटे के सिर पर हाथ रख रोया - साहब जी, क़सम ले लो, छह महीने हो गये जो उसकी शक्ल भी देखी हो।
ठीक ही कह रहा था ज़मील का अब्बू कि छह महीने से उसने ज़मील का चेहरा भी नहीं देखा। मिलिटेंसी के अपने सख़्त नियम-कायदे, जिसके अनुसार कभी भी मिलिटेंट का एरिया ऑफ ऑपरेशन (कार्य क्षेत्र) उसके घर के पास नहीं रखा जाता कि कहीं उसमें भावनात्मक कमज़ोरी न जाग जाए। ममता को ढेले मार -मार कर दूर किया जाता है और उसकी जड़ें काटी जाती हैं। इसी प्रकार चाबुक-सा सख़्त बनाया जाता है उन्हें। पर अभी वह कहाँ है, इसका थोड़ा-बहुत अन्दाज़ा ज़मील के अब्बू को ज़रूर होगा...सोचते हुए सन्दीप का दिमागी बल्व एकाएक फक से जल उठा। छह महीने से ज़मील यदि अभी तक घर नहीं आया है तो निश्चित ही आनेवाले दिनों में वह घर आने की योजना बना रहा होगा। आख़िर आदमी कितना भी कठोर क्यों न हो जाए एकदम कंकड़-पत्थर तो बन नहीं सकता है और यदि बनता भी है तो बनते-बनते बनता है। ज़मील तो अभी महज़ बाईस साल का है। कोमल पत्ता है।
अब्बू से बतियाकर सन्दीप उसकी अम्मी की तरफ़ मुखातिब हुआ। वह मरते हुए कबूतर की तरह फड़फड़ा उठी। उसकी आँखें डर से फटी पड़ रही थीं।
एक बार तो वह समझ ही नहीं पाई कि माजरा क्या है। न किसी से दुश्मनी, न झगड़ा -टंटा। न ज़मीन-जायदाद। किसी से 'धत् तेरी की' तक नहीं। फिर क्यों आर्मी उसके यहाँ? क्या काम यहाँ? क्या घर में जवान लड़के का होना मतलब ही आर्मी का आना-जाना? उसने उन घरों में देखा था आर्मी और पुलिस को अकसर आते-जाते जहाँ लड़के जवान थे या जिहाद के रास्ते पर थे।
तो क्या उसके घर में भी कोई जिहादी... ख़ुदा रहम करे। क्या ज़मील? उसका सर्वांग काँप उठा। रीढ़ की हड्डी में कुछ रेंगने लगा। और जब उसकी अठारह वर्षीया बेटी रूबीना ने उससे कश्मीरी में कहा, ''भाईजान जिहादी हो गये हैं'' तो वह इस क़दर चीख़ी कि आसमान शामियाने की तरह हिल उठा। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि कल तक जिसे उँगली से पकड़ते-पकड़ते वह मदरसे छोड़कर आती थी जाने कब उसने उठा ली गन और बन गया जिहादी।
और उसके बाद यातना की अन्धी सुरंग में लुढ़के उस परिवार का जीना मौत से बदतर हो गया। ख़ुशियाँ तो उस परिवार में शायद ही कभी उगी हों पर थोड़ा-बहुत सुकून-शान्ति जो थी वह भी बसेरा छोड़ टहलने निकल चुकी थी। और अब वहाँ था एक ठंडा, गहरा और अन्तहीन अँधेरा जिसमें ज़िन्दगी से ख़ौफ़ खाए चार जीव थे। आँतरे-पाँतरे सन्दीप अपनी टीम के साथ पहुँच जाता उस घर। उसके जवान उन्हें धमकाते। उसके छोटे भाई को अपने फौलादी हाथों के झन्नाटेदार थप्पड़ का स्वाद चखाते और पूछते, ''वनछे कैटि छुई ज़मील? (बता तेरा ज़मील कहाँ है)'' उसका छोटा भाई थप्पड़ खा बिलबिलाता, ज़मीन पर गिर पड़ता। चीखता-चिल्लाता पर मुँह नहीं खोलता। उसकी अम्मी कफ़न की तरह ओढ़े अपने फटे बुरके से थोड़ी देर के लिए बाहर निकलती। छाती-माथा पीटती। बच्चों को खींचती फिर उसी कफन को वापस ओढ़ लेती। उसका बस चलता तो कंगारू की तरह अपने दोनों बच्चों को अपनी थौली में रख लेती और बचा लेती उन्हें फ़ौज और जिहादियों से।
यहाँ तक तो फिर भी ग़नीमत थी क्योंकि मामला आर्मी वालों के अधीन था। वे कलफ़ लगी चमचम लकदक वर्दी वाले थे। शरीफ़ थे। वे मारते तो भी सभ्यता से। शराफ़त से लेकिन बहुत शीघ्र ही इस मामले में पुलिस भी आ गयी और अब यह केस आर्मी और पुलिस का ज्वाइंट वेंचर था। यूँ भी आर्मी वाले पुलिस को साथ ही लेकर चलते थे जिससे उनकी किसी भी कार्यवाही पर पुलिस एक्शन नहीं ले सके। कोई उन्हें कोर्ट में घसीट नहीं सके।
पुलिस के अपने तौर-तरीक़े। अपनी भाषा और अपना शिल्प। पुलिसवालों ने बहुत जल्दी ही उस परिवार की वीक लिंक यानी कमजोर कड़ी खोज निकाली - रूबीना की जवानी और वयःसन्धि की ओर बढ़ते ज़मील के छोटे भाई हमीद का कच्चा मन।
अब पुलिस ने अपने टार्चर, हिंसा, ख़ौ और जिल्लत का वह चँदोबा ताना कि घर की ईंट-ईंट खिसक गयी। वह हर सप्ताह हमीद को थाने पर बुलाती, उसे पीट-पीट नीला कर देती। उसके बदन पर पिटाई के निशान न उभरें इसलिए पुलिस उसे गीले कम्बल में लपेट कर पीटती, जिससे किसी भी सूरत में मानवाधिकार हस्तक्षेप नहीं कर सके। यूँ भी वह बेहद ग़रीब परिवार था, विरोध और सामर्थ्य से कोसों दूर। हमीद मार खाता रहता, पर मुँह नहीं खोलता। पुलिस का ग़ुस्सा और बढ़ जाता। वह उसके घर आ धमकती। वहाँ अड्डा मारती। सिगरेट के छल्ले उड़ाती। उसकी जवान बहन रूबीना को घूरती। उससे गन्दे-गन्दे मज़ाक करती। भद्दे इशारे करती। उसके सामने माँ-बहन की ऐसी अश्लील और भद्दी गालियाँ निकालती कि ज़मील के अब्बू रो पड़ते। सिर पीटने लगते।
पुलिस के जवान उसकी माँ को समझाते कि यदि वह अपने परिवार, अपनी बेटी और बाक़ी बच्चों की ख़ैरियत चाहती है तो बता दे कि ज़मील कहाँ है या कब आनेवाला है। ज़मील की माँ माटी के लोंदे-सी घर के कोने में पड़ी रहती और पथरायी आँखों से देखती रहती दीवारों को।
सिलसिला चलता रहा। परिवार स्वप्नविहीन और भविष्यविहीन होता रहा। यातना और उत्पीड़न का अँधेरा अमावस्या की रात की तरह बढ़ता रहा। हर नये दिन के साथ घना होता रहा।
एकाएक उन दिनों आतंकवादी वारदातों में इजाफ़ा हो गया। राजौरी में हुए एनकाउंटर में दो मेज़र शहीद हो गये। एक कैप्टन बुरी तरह से जख़्मी हो गया। इस घटना से सन्दीप पर उसके वरिष्ठ अफ़सरों का दबाव एकाएक बढ़ गया था।
वरिष्ठ अफ़सरों का ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था। उस पर परिवार की चुप्पी ने सन्दीप की टीम के भीतर दुबके बैठे पशु को हिंसक कर डाला। उनका टार्चर इतना बढ़ा कि परिवार मुर्दा हो गया। जीवन के चिह्न दिन पर दिन मिटते गये।
झेलम-सी इठलाती रूबीना सूखती चली गयी। उसके चेहरे पर बदसूरत रेखाएँ खिंचने लगी। अत्यधिक पुलिसिया मार से हमीद सुन्न और विक्षिप्त रहने लगा। उसकी पढ़ाई छूट गयी।
दोनों बूढ़े घोड़े सैलनानियों को घुमाने के बजाय बाहर बँधे मिलते। उसके अब्बू घर के कोने में कम्बल ओढ़े अपने आप से बतियाते मिलते।
मेज़र सन्दीप जब भी घुसता उस घर में उसे मरी हुई सभ्यता की बदबू आती। उसका दम घुटने लगता क्योंकि वहाँ हवाएँ रुकी हुई थीं और ज़िन्दगी किसी कोने में मुँह छिपाए सुबक रही थी।
एक बार तो इन्तिहा ही हो गयी।
जैसे ही सन्दीप और उसके साथी जवान पुलिस के साथ उस घर में घुसे, उन्हें देखते ही डर के मारे हमीद का पेशाब निकल गया। ऊपर से चट्टान की तरह दृढ़ रहते हुए भी मेज़र सन्दीप ने उन क्षणों स्वयं को धिक्कारा उसका पेशाब नहीं, वरन आदमी होने की जो शुरुआत कभी की थी मैंने उसकी डोर पूरी तरह से निकल चुकी है मेरे हाथों से...।
उस रात नींद उससे परहेज करती रही। उसे लानत भेजती रही। गरियाती रही। गहन रात के सन्नाटे में उसके भीतर से प्रार्थना उठने लगी, ईश्वर मुझे सत्य कहने की शक्ति दे।
दूसरी शाम अपने कमांडिंग अफ़सर से पिनपिनाते हुए कहा उसने, ''सर, मुझे लग रहा है कि हम उस परिवार पर कुछ ज़्यादा ही जुल्म ढा रहे हैं। सवाल सिर्फ़ यही नहीं कि ज़मील आतंकवादी है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि वह आतंकवादी क्यों बना? आतंकवाद से लड़ने के लिए क्या ज़रूरी नहीं कि हम भूख, ग़रीबी, अन्धविश्वास और अशिक्षा से भी लड़ें।''
''बस... बस...'' कर्नल आर्य ने शायद पहली बार सन्दीप के साथ संवाद करने में अपना आपा खोया। उनकी आँखों का कोण तिरछा हुआ, मूँछ के कोने फड़फड़ाए चेहरा एकाएक कठोर हुआ। कमरे का तापमान अचानक बढ़ा। कर्नल आर्य एकाएक गरजे, ''जेंटलमैन, तुमने वह आग उगलता कश्मीर नहीं देखा। वह बारूदी विस्फोट। उड़ते मांस के टुकड़े और बदबू नहीं देखी जो हमने देखी। हमने बहाया है इस धरती पर अपना ख़ून, इतना ख़ून बहाया है तब जाकर यह स्थिति आयी है कि आज कश्मीर में चहल पहल है, सैलानी आ जा रहे हैं, बच्चे स्कूल जा रहे हैं। शाम सात-आठ बजे के बाद भी श्रीनगर इठला रहा है। राष्ट्रीय राइफल्स में मेरी चौथी पोस्टिंग है। आज भी भूल नहीं सकता, पहली पोस्टिंग का वह मंजर। हम जीप में बैठे जा रहे थे, हमारे आगे भी हमारी ही एक जीप थी, मेरा एक साथी भी था उस जीप में, कैप्टन अभिषेक। एकाएक पहलेवाली जीप आग की लपटों में घिर गयी। हरामज़ादों ने ज़मीन पर डायनामाइट की छड़ें बिछा दी थी और तब हमारे पास ROP यानी road opening party जैसी सुविधाएँ भी नहीं थीं (आज आर्मी के कन्वॉय जाने से पहले Rop क्लियरेंस दे दती है) हमारे सारे साथी शहीद हो गये। ख़ैर, वे तो पुरानी बात हुई, पर भूल गये कारगिल में शहीद हुए कैप्टन अनुज को। दरिन्दों ने कितनी नृशंसता से मार डाला था उन्हें। कैसे निकाल डाली थीं उनकी आँखें और कैसे काट डाला था सलाद की तरह उसके अंग-अंग को। याद रखो हमें यहाँ सभ्यता और उच्च कोटि के समाज निर्माण के लिए नहीं, वरन मिलिटेंसी का सफ़ाया करने के लिए भेजा गया है। हम अगर एक मिलिटेंट को भी बख़्श देंगे तो वह हमें न केवल मार गिराएगा वरन भविष्य में भी न जाने कितनी हिंसक वारदातों को अंजाम देगा। इसलिए सोचो मत और सोचना ही है तो यही सोचो कि हमारा काम है राष्ट्र को एक उज्ज्वल भविष्य देना।''
''पर सर, हम किसका दंड किसको दे रहे हैं?" नहीं चाहते हुए भी मेज़र सन्दीप के मुँह से हठात निकल गया था। यद्यपि आर.आर. पोस्टिंग में इस प्रकार अपने कमांडिंग अफ़सर से तर्क करना भी अनुशासन के ख़िलाफ़ था, पर शायद कर्नल आर्य ने मेज़र सन्दीप के भीतर उठने वाले तूफ़ान को भाँप लिया था। इस कारण उसे शान्त करने की फिर एक कोशिश की - देखो मेज़र, हम यहाँ करुणा, दया, मानवता और सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ने और पढ़ाने नहीं आये हैं। देखो, हमें इस गाँव में एक मिसाल क़ायम करनी है। इतना डर इस धरती पर बो देना है कि आनेवाले सालों में यहाँ इनसान तो क्या परिन्दा भी मिलिटेंट बनने की न सोचे। मेरी बात याद रखना, तभी तुम एक क़ामयाब फ़ौजी अफ़सर बन पाओगे और वह बात यह है कि युद्ध और बुद्ध एक साथ नहीं चल सकते।''
बेहद हताशा में एक सवाल फिर मेज़र के मुँह से फूट पड़ा - सर, कब तक चलेगी यह मिलिटेंसी? दरअसल, आज सुबह ही उसने एक बैनर देखा था जिसमें लश्करे तैबा का खंजर हिन्दुस्तान, अमेरिका, इंगलैंड, रूस और इज़राइल के झंडे में गड़ा हुआ था। इस बैनर ने बहुत ही उदास और हताश कर डाला था उसे।
कर्नल आर्य अवाक रह गये। इस सवाल ने शायद उन्हें भी परेशान कर डाला था। और कितनी आर.आर. पोस्टिंग लेंगे वे? वैवाहिक जीवन के पिछले 19 सालों में 19 महीने भी चैन और सुकून के साथ पत्नी के साथ नहीं रह पाए थे। बच्चों को बड़ा होते नहीं देख पाए थे। उनकी आँखों में बादल घिर गये। मन भारी हुआ, फिर भी बड़े ही सन्तुलित, संयमित और निर्णायक स्वरों में जवाब दिया उन्होंने, ''देखो, आर्मी और मिलिटेंट दोनों लड़ रहे हैं। जो पहले थक गया वही तो हटेगा मैदान से। अब आर्मी तो असीमित है, वह तो थक नहीं सकती।" कुछ देर रुककर सिगरेट के धुएँ के छल्ले बनाते हुए फिर बात जारी रखी उन्होंने - देखो, हमारी मिलिटेंसी तो फिर भी साठ वर्ष ही पुरानी है, पैलेस्टियन को देखो, अभी तक लड़ रहे हैं।
'युद्ध और बुद्ध एक साथ नहीं चल सकते' यही उन दिनों सन्दीप का मूलमन्त्र था जिसे जाप- जापकर उन घायल दिनों पर अपनी घायल आत्मा और लहूलुहान विश्वचेतना की मलहम-पट्टी किया करता था वह। मेज़र सन्दीप अभी तक एक भी मिलिटेंट को ढेर नहीं कर पाया था, अभी तक एक भी ऑपरेशन को सफल अंजाम तक नहीं पहुँचा पाया था जबकि उसके ही कुलिग मेज़र विक्रम पालीवाल को चौदह आतंकवादियों को अकेले मार गिराने के पराक्रम के लिए शौर्यचक्र मिल चुका था।
बहरहाल... दिन पर दिन सन्दीप पर यूनिट का दबाब बढ़ता जा रहाथा। हिन्दुस्तान की सुरक्षा उसका पहला कर्तव्य था और कश्मीर के गुंड, सोपोर, राजौरी और अनन्तनाग जैसे संवेदनशील इलाक़े उसे पल भर के लिए भी भूलने नहीं देते थे कि वह सबसे पहले एक अच्छा इनसान नहीं, वरन एक हिन्दुस्तानी है कि उसका अपना न कोई वजूद है और न ही कोई आत्मा। कि वह एक सामूहिक नियति और भविष्य से बँधा है, कि व्यक्ति स्वातन्त्र्य और व्यक्ति मन के लिए यहाँ कोई स्पेस नहीं है। उसे हर दिन लगता कि वह ग़लत जगह पर आ गया है, कि यह दुनिया उसकी नहीं, पर जिस शपथ पत्र पर वह 20 वर्ष की उम्र में जीवन के सीमित अनुभवों के आधार पर हस्ताक्षर कर चुका था, उसे लौटाया नहीं जा सकता था और उसके अनुसार बीस वर्ष की सेवाओं के पूर्व वह यहाँ से निकल भी नहीं सकता था।
बहरहाल... उसका तत्काल लक्ष्य था ज़मील का सफ़ाया। इस कारण उस परिवार पर आर्मी शिकंजा कसता गया। ज़्यादतियाँ, उत्पीड़न, यातनाएँ, पूछताछ, मारपीट और बदसलूकियाँ बढ़ती गयीं। ये सब उसकी रणनीति के तहत अदृश्य गोलाबारियाँ थीं जो हर दिन परिवार का कन्धा जरा-जरा कर तोड़ रही थी। उस घर की ईंट-ईंट पर एक ही इबारत साफ़-साफ़ लिख रही थी कि उस परिवार के पास अब एक ही विकल्प बचा है - या ज़मील की मौत या पूरे परिवार की तबाही।
ठंडी क्रूरता और असभ्य शालीनता के साथ मेज़र सन्दीप ने एक धूल भरी दोपहर ज़मील की अम्मी को समझाया भी - देखो, ज़मील को तो देर सबेर मरना ही है, पर तुम चाहो तो अपने बाक़ी दोनों बच्चों को तबाही से बचा सकती हो। देखो हमीद को, उसकी छाती की हड्डियाँ निकल चुकी हैं, लगभग पागल ही हो चुका है वह, देखकर लगता है जैसे सालों से बीमार हो। कहीं ऐसा न हो कि ज़मील भी न बचे और बाक़ी बच्चे भी जीवन के क़ाबिल न रहें।
''नहीं, ख़ुदा रहम करे...'' ज़मील की माँ ने अपने कानों को हथेलियों से ढाँप लिया था। कमज़ोर जड़ों वाले पौधे की तरह वह काँपने लगी थी। और यदि पास ही खड़ी रूबीना ने उसे सहारा न दिया होता तो वह शायद गिर ही पड़ती।
बहरहाल, मेज़र का निशाना ठिकाने पर लगा था। परिवार हर घड़ी टूट रहा था। बुद्ध हर क्षण ढह रहे थे। मानवीय हलचलें हर क्षण क्षीण होती जा रही थीं। बच्चे तेज़ी से ज़िन्दगी से डरे हुए चूहों में तब्दील होने जा रहे थे। जमील की माँ टुकड़े-टुकड़े हो रही थी। एक टुकड़ा जमील के लिए सोचता तो दूसरा बचे-खुचे परिवार के लिए।
और एक दोपहर कमाल हो गया। साल बीतते न बीतते सरोवर का सारा पानी सूख गया। हवाएँ रुक गयीं। सारे एहसास मर गये। जिल्लत, डर, उत्पीड़न और यातना की नोक पर टँगा वह परिवार पूरी तरह ढह गया।
शायद धरती भी अपनी धुरी पर घूमती हुई उन क्षणों कुछ देर आहत अचम्भित हो ठिठकी होगी, शायद कुम्हार का चाक भी उन पलों घूमते-घूमते रुक गया होगा जब जीने की चरम विवशता में जीने की अन्तिम चेष्टा के रूप में एक रचनाकार को अपनी ममता के कण-कण से सँवारी हुई अपनी ही रचना का गला घोंट देने का निर्णय लेना पड़ा होगा। जब एक क़ामयाब शाम ख़ुद ज़मील की अम्मा ने आँखों में जल और हृदय में असह्य ज्वाला लिए उन्हें बताया - वह आ रहा है... कल... हमसे मिलने। क्या? कौन? ज़मील???
अविश्वसनीय!
मेज़र हैरान! गद्गद! मेज़र के साथ आये चारों लांसनायकों और नायकों की आँखें सर्चलाइट-सी चमकीं। चेहरे पर कमल खिले। महीन हँसी चिड़िया-सी फुदकी।
समझ नहीं पाया मेज़र कि इस सूचना पर वह क्या कहें। उसे एहसास था कि वह इनसानियत के सबसे निचले पायदान पर खड़ा था और ज़मील की माँ बेबसी और यातना की पराकष्ठा पर खड़ी अपने बाक़ी दोनों बच्चों को बचा पाने की नसतोड़ मुहिम में अपने ही हाथों अपनी ममता का गला घोंट रही थी।
''तो ज़मील कल आ रहा है तुमसे मिलने?'' वह जैसे पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहता था।
उसने गर्दन हिलायी और घुटने में सिर दबाए रोने लगी। उसके दोनों बच्चे उससे चिपक सुबकने लगे। दुख के आवेग को सह न पाने के कारण उसके अब्बू हाँफते हुए अपनी छाती मलने लगे थे।
घर में हवाएँ रुक गयी थीं।
मौत की बदबू भर गयी थी।
पर मेज़र और उसकी टीम चहक रही थी।
पूरे साल भर की मशक्कत के बाद सफलता मिली थी मेज़र को।
एक सफल ऑपरेशन आनेवाला था मेज़र के खाते में।
बाईस घंटे। पूरे बाईस घंटे थे मेज़र के पास। मौत के इन्तज़ाम के लिए। काली रात के सर्पीले सन्नाटे में मेज़र ने उसके आसपास पूरी घेराबन्दी की। वे जातने थे कि ज़मील रात के अँधेरे में ही घुसेगा। दो सौ किलोमीटर की दूरी पर एच.एच.टी.आई., पी.एन.एन.जी. (अँधेरी रात में दूर तक देखनेवाला चश्मा) हैंड, ग्रिनेड, रॉकेट लांचर, एके-47 आदि सामान के साथ पूरी टीम अपनी पोजीशन लिए अँधेरे में दुबकी रही। और ज़मील के घर पर नज़र गड़ाए रही।
ठीक आधी रात के ठंडे ठिठुरते अँधेरे में घर का शहजादा रेंगते-छुपते घर में घुसा।
उन्होंने उसे घुसने दिया।
फिर पूरी रात घेरा डाले बैठे रहे वे। एच.एच.टी.आई. से उसके घर में निगाहें गड़ाए रहे। वे चाहते थे कि कोलेटरल डैमेज कम से कम हो, यानी सिर्फ़ ज़मील ही आर्मी की गोली का निशाना बने, एक भी सिविलियन उनकी चपेट में न आये और जहाँ तक सम्भव हो उसके घर को न ढहाया जाए। पिछले एक ऑपरेशन में उन्होंने थोड़ी-सी जल्दबाज़ी कर डाली थी। उन्होंने आसपास के घरों को तो ख़ाली करवा डाला था, पर जिस घर में छुपा था मिलिटेंट उसे रॉकेट लांचर से आर्मी ने ढहा दिया था। बाद में मानवाधिकार आयोग ने उन पर केस ठोक दिया था कि जब वे उस घर को ढहाने से बचा सकते थे तो उसे बचाया क्यों नहीं गया?
इस बार कोई जल्दबाज़ी नहीं करना चाहते थे वे।
धैर्य और ठंडे दिमाग़ से काम लिया गया।
दूसरे दिन भी डेरा डाले बैठे रहे वे।
निगाहें जड़ी रहीं घर पर।
दूसरी रात भी बीती।
तीसरे दिन दोपहरी को उनकी आशा के अनुरूप ही ज़मील ने भूल की। मर्द कंलदर की तरह ख़तरे को सूँघने के लिए क्षण भर के लिए बाहर निकला वह। आर्मी ने पहला फायर किया।
तुरन्त भीतर दुबक गया वह।
फिर शुरू हुआ, 'डुएल कांटेक्ट' यानी अब वह और आर्मी आमने-सामने थे। ज़मील को मालूम पड़ गया था कि घेरा जा चुका है वह।
अब मौत का इन्तज़ाम बड़े शान्त और व्यवस्थित ढंग से हुआ। लाउडस्पीकर पर घोषणा हुई और आसपास के घरों को खाली करवा लिया गया। एक-एक कर गाँव के लोगों की शिनाख़्त करवा कर उन्हें घेरे से बाहर किया गया। ज़मील की तस्वीर मेज़र के पास थी। काला नकाब ओढ़े मुखबिर भी साथ में था। इस कारण इसकी सम्भावना न्यूनतम थी कि वह अपने हथियार कहीं और छिपाकर लोगों के साथ बाहर निकल भागे।
अब आसपास सबकुछ ख़ाली था।
स्वप्नविहीन था।
तिकुने झोपड़ीनुमा घर में अकेला ज़मील था और उससे महज 200 मी. की दूरी पर मेज़र सन्दीप और उसकी टीम तैनात थी।
वह घर में दुबका रहा।
वे बाहर डटे रहे।
वह अकेला था।
वे पूरी यूनिट के साथ थे।
फिर गुज़री एक रात!
सफ़ेद रात!
और पूरे चौदह घंटे और चौबीस मिनट के बाद वह फिर बाहर झाँका। वह सँभला-सँभला कि घात में बैठे जवानों ने फायर किया। गोली माथे पर लगी और देखते-देखते छलाँग मारता समुद्र ज़मीन पर लोट गया।
कुलदीपक बुझ गया।
एक दुस्साहसिक जीवन का दुखद असामयिक अवसान!
मेज़र की यूनिट सन्तुष्ट थी कि बिना 'कोलेटरल डैमेज' के वे अपने मिशन में क़ामयाब हुए।
बड़ी शराफ़त और शिष्टता के साथ आर्मी ने ज़मील की मृत देह को नौ फुट लम्बे लोहे की हुक लगी छड़ी से खींचा। कई बार मिलिटेंट की मृत देह में भी ग्रेनाइड छिपा मिलता है और जैसे ही फ़ौजी मृत देह की तलाशी शुरू करता है, मृत देह जवान को उड़ा देती है। ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती है पर मिलिट्री और मिलिटेंट की नफ़रत ज़िन्दा रहती है।
बासी चावल से सफ़ेद उसके चेहरे पर जगह-जगह ताज़ा ख़ून की धारियाँ पड़ी हुई थी। कार्यक्रम सम्पन्न हो चुकने पर बड़ी शराफ़त और नफ़ासत के साथ उसके शव को चादर में लपेट कर पुलिस के हवाले किया गया जिसे बाद में क़ानूनी खाना-पूर्ति कर पुलिस द्वारा उसके परिवार को सौंप दिया गया।
'सोचते हो कि ये नहीं होगा, आस्माँ एक दिन ज़मीं होगा आँख देखेगी, पर न देखेगी, दिल के होगा, मगर नहीं होगा कोई मरने से मर नहीं जाता, देखना वो यहीं कहीं होगा।'
- इजलाह मज़ीद
ठिठुरती ठंड में भी न फिरन, न कम्बल न कांगडी बस अपनी उदासियों को ही ओढ़ा रहा मेज़र। इन उदासियों की तपिश ही काफ़ी है उसे गर्म रखने के लिए।
पर जब उदासी का यह बोझ भी असह्य हो गया तो आन्तरिक दबाब के चलते फिर खुली डायरी। टप-टप गिरने लगे शब्द... रिसते घाव से टप-टप गिरते ख़ून की तरह, ''जाने किस काली रात में रचा था ईश्वर ने धरती के इस टुकड़े को कि जितना ख़ून बह रहा है उतनी ही ख़ूनी प्यास बढ़ती जा रही है इसकी।''
उफ़! पहले गुंड गाँव की पोस्टिंग और अब यह ज़मील ऑपरेशन!
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से दूर।
बस ख़ाली बुर्का। न आत्मा का एहसास। न मन की शान्ति। इस पर विडम्बना यह कि ज़मील को ढेर कर मुझे अपनी यूनिट का हीरो बना दिया है। शायद मैंने भारत के भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक क़दम बढ़ाया है। आज मेरे सभी वरिष्ठ अधिकारी एवं कुलिग बधाइयों से नवाज रहे हैं मुझे, पर मैं सोच रहा हूँ कि समय के इस कालखंड के बाद मैं नेपथ्य में चला जाऊँगा पर बची रह जायेंगीं एक बेबस माँ की सिसकियाँ और मेरे मन में बढ़ती अशान्ति। दिन तो मेरा भागदौड़ और आपाधापी में किसी प्रकार निकल जाता है पर गहराती रात के सन्नाटे में उदासियाँ मुझे दबोच लेती हैं और मेरा मन एक अशान्त समुद्र बन जाता है। जहाँ रह-रहकर मेरी मानसिक शान्ति और सुकून को लीलने वाली सुनामियाँ उठती हैं और मुझे अतीत और स्मृतियों के घाट पर ला पटकती हैं। मुझे याद आता है कि जब मैंने पहली बार कश्मीर की सरहद में पाँव रखा था तो धरती का यह टुकड़ा मुझे इतना सुन्दर, कोमल और स्वप्निल लगा था कि मेरी सारी इन्द्रियाँ सौन्दर्य से भर गयी थीं। मुझे लगा था जैसे कि यही वह जगह है जहाँ रहकर मैं सजा सकता हूँ अपनी ज़िन्दगी को। पर ढाई साल में ही इस शहर ने मुझे हत्यारा बना मेरी अन्तरात्मा मुझसे छीन मुझे कंगाल बना डाला है। अब मेरी इन्द्रियों में सौन्दर्य नहीं ,वरन कुरूपता भर गयी है। मेरी श्रवेन्द्रियाँ अब पत्तों और हवा की सरसराहट, बादलों की गड़गड़ाहट और मेरे अन्तरात्मा की आवाज़ नहीं सुनतीं, वे सुनती हैं गोलियों की, गलियों की, चीख़ों की, बमों की, विस्फोटों की, दिलों के टूटने की, भरोसों के मरने की और माँओं की कोख उजड़ने की आवाज़ें। मेरी आँखें अब पहाड़ियों, पानियों, कश्मीर के गुलाबों, सुन्दरियों और दुधिया बादलों के सौन्दर्य को नहीं देख पाती क्योंकि उन आँखों में रह रह कर कुछ और ही दृश्य कौंधते हैं - बलगम थूकना और छाती मसलता ज़मील का अब्बा, ख़ून से सना ज़मील का चेहरा, मरी छिपकली की तरह डर से बाहर निकली ज़मील की माँ की आँखें, हमें देख पैंट में ही पेशाब करता हमीद और घरों के पीछे बनी क़ब्रें।
मेरी घ्राणेन्द्रियों को अब गुलाबों और केसर के सुगन्ध की नहीं, वरन गन्धक, बारूद और जलते हुए इनसानी मांस के गन्ध की आदत पड़ गयी है। जो शहर कभी मुझे लुभाता था, स्वप्न जगाता था, वही शहर अब मुझे डराने लगा है। मेरी सामान्य मनःस्थिति दिन पर दिन मुझसे छिनती जा रही है। दिन तो फिर भी बीत जाते हैं पर रात होते ही आराम करने की मंशा से जैसे ही मैं अपना काला चश्मा उतार फेंकता हूँ, संवेदनाओं का ज़बरदस्त हमला शुरू हो जाता है मुझ पर। ज़मील की मौत मुझे अपनी उँगलियों के पोर-पोर से छूने लगती हैं। मेरी नींद उचट जाती है। ज़बरदस्ती नींद को रिझाने और सोने की चेष्टा करता है तो दुःस्वप्न पीछा नहीं छोड़ते। एक रात स्वप्न में देखा ज़मील की माँ मुझसे कह रही थी - घर आये और गोद में बैठे मेरे बेटे को मारकर तुमने कैसा पराक्रम किया? बोलो। सच, हमने ज़मील को पराक्रम से नहीं, वरन उस परिवार पर अमानुषिक बर्बरता ढहा कर मारा था। हमारा पराक्रम सिर्फ़ इतना भर था कि हमने एक माँ से उसकी ममता छीन ली थी।
बहरहाल सप्ताह भर बाद ही गुंड गाँव में गश्त लगाते-लगाते मैं फिर उनके घर गया था, शायद यह देखने के लिए कि जीवन उठकर खड़ा हुआ या नहीं या शायद यह जानने के लिए कि उस घर में अब घर कितना बचा हुआ था।
उस दिन भी अकेली थीं वे। मन से, देह से, आत्मा से। आसपास जैसे पछतावा, आत्मग्लानि, हताशा, दुख और बेचैनियाँ बंजारों की तरह भटक रही थीं। मुझे देख शायद उनका चेहरा क्षण भर के लिए तमतमा गया था पर मैंने अपनी आँखें झुका ली थीं। थोड़ी देर बाद मुझे लगा जैसे वे कुछ बुदबुदा रही हैं। मैंने ध्यान से सुना। वे शायद मुझसे ही पूछ रही थी 'वारे छुक?' (कैसे हो? ''बस... बस...'' कर्नल आर्य ने शायद पहली बार सन्दीप के साथ संवाद करने में अपना आपा खोया। उनकी आँखों का कोण तिरछा हुआ, मूँछ के कोने फड़फड़ाए चेहरा एकाएक कठोर हुआ। कमरे का तापमान अचानक बढ़ा। कर्नल आर्य एकाएक गरजे, ''जेंटलमैन, तुमने वह आग उगलता कश्मीर नहीं देखा। वह बारूदी विस्फोट। उड़ते मांस के टुकड़े और बदबू नहीं देखी जो हमने देखी। हमने बहाया है इस धरती पर अपना ख़ून, इतना ख़ून बहाया है तब जाकर यह स्थिति आयी है कि आज कश्मीर में चहल पहल है, सैलानी आ जा रहे हैं, बच्चे स्कूल जा रहे हैं। शाम सात-आठ बजे के बाद भी श्रीनगर इठला रहा है। राष्ट्रीय राइफल्स में मेरी चौथी पोस्टिंग है। आज भी भूल नहीं सकता, पहली पोस्टिंग का वह मंजर। हम जीप में बैठे जा रहे थे, हमारे आगे भी हमारी ही एक जीप थी, मेरा एक साथी भी था उस जीप में, कैप्टन अभिषेक। एकाएक पहलेवाली जीप आग की लपटों में घिर गयी। हरामज़ादों ने ज़मीन पर डायनामाइट की छड़ें बिछा दी थी और तब हमारे पास ROP यानी road opening party जैसी सुविधाएँ भी नहीं थीं (आज आर्मी के कन्वॉय जाने से पहले Rop क्लियरेंस दे दती है कि ज़मीन के अन्दर विस्फोट नहीं है, तभी कन्वॉय आगे बढ़ते हैं) हमारे सारे साथी शहीद हो गये। ख़ैर, वे तो पुरानी बात हुई, पर भूल गये कारगिल में शहीद हुए कैप्टन अनुज को। दरिन्दों ने कितनी नृशंसता से मार डाला था उन्हें। कैसे निकाल डाली थीं उनकी आँखें और कैसे काट डाला था सलाद की तरह उसके अंग-अंग को। याद रखो हमें यहाँ सभ्यता और उच्च कोटि के समाज निर्माण के लिए नहीं, वरन मिलिटेंसी का सफ़ाया करने के लिए भेजा गया है। हम अगर एक मिलिटेंट को भी बख़्श देंगे तो वह हमें न केवल मार गिराएगा वरन भविष्य में भी न जाने कितनी हिंसक वारदातों को अंजाम देगा। इसलिए सोचो मत और सोचना ही है तो यही सोचो कि हमारा काम है राष्ट्र को एक उज्ज्वल भविष्य देना।''
मैं चुप रहा। क्या जवाब देता। मैं देखता रहा सांय-सांय करते खँडहर में खँडहर बनी उस बेचैन आत्मा को। तार -तार हुए उसके बुर्के को।
जाने कहाँ कहाँ के दुख इतिहास से निकलकर मेरे भीतर इकट्ठे होने लगे।
मानव सभ्यता का वह काला पृष्ठ जब सदियों से ग़ुलाम बनी निग्रो माँओं ने स्वयं ही अपने नवजात बच्चों को मार डाला कि उन्हें ग़ुलामी की ज़िन्दगी न जीना पड़े। समय बदला पर मानव नियति, मानव त्रासदी किसी न किसी रूप में आज भी वहीं की वहीं है। विचारों के बहाव में बहता जा रहा था मैं कि मुझे फिर भनभनाहट सुनाई पड़ी। लगा जैसे ज़मील की अम्मी कुछ बुदबुदा रही हैं। वे कुछ कह रही थी शायद मुझसे ही। हाँफते-हाँफते कश्मीरी में वे जो कुछ बोली उसका भाव यही था कि अब तो तुम बहुत अच्छे होगे। कश्मीर भी ख़ुशहाल होगा क्योंकि अब मेरा बेटा ज़मील जो मर गया है। बोलते-बोलते वे फिर बिलखने लगीं। उनका चेहरा काँपने लगा। वे चीख़ने लगीं, ''नहीं वह नहीं मरा, मैंने ही मरवा डाला उसे। वह तो अपने घर अपनी अम्मी से मिलने आया था और मैंने...'' बोलते-बोलते उन्हें फिर ऐसा भयानक दौरा पड़ा कि बेक़ाबू हो वे अपने ही हाथों से अपना माथा पीटने लगीं। कलेजा फाड़ निकला था उनका क्रन्दन। उन्हें शान्त होने में काफ़ी समय लगा।
मैं अन्दर तक हिल उठा। उनके भीतर से जैसे सदियों का दुख बोल रहा था। याद आया, मैंने ही उनसे कई बार कहा था कि कश्मीर की शान्ति के लिए ज़मील बहुत बड़ा ख़तरा है।
काफ़ी देर तक हताश चुप्पी पसरी रही हमारे बीच। चाहकर भी कुछ बोल नहीं पाया मैं। शब्द घुटते रहे। मरते रहे। अपने समय के यथार्थ से पराजित, खामोशी में लिपटे हम दोनों ही शायद अपने जीने और होने का तर्क ढूँढ़ रहे थे।
एक बात और दर्ज़ करना चाहता हूँ, जिससे कि इस भयावह समय की पटकथा को जब कभी मैं याद करूँ, इसकी सम्पूर्णता में याद करूँ। ज़मील की माँ के साथ-साथ, दिव्या जैसी अनेक महिलाओं की यातनाओं और आँसूओं का भी हिसाब रखूँ।
दिव्या, मेज़र महेश भट्ट की नवविवाहिता। 20 दिन पूर्व जब आयी थी यहाँ तो झेलम-सी इठलाती थी वह। पर आज डरी-सहमी और ज़बरदस्त अवसादग्रस्त थी। मुरझाया चेहरा, सूजी आँखें और फूले पपोटे। उसे तुरन्त अपने माँ-बाप के यहाँ भेजना पड़ा। चौबीस घंटे भी यदि उसे पति के संग रहने मिल जाता तो उसकी यह दशा नहीं होती। पर मेज़र महेश भी क्या करते। नयी शादी, अँगड़ाई लेते स्वप्न और चौबीसों घंटे की ड्यूटी। सी.ओ. हर तीसरे दिन भेज देते किसी न किसी ऑपरेशन पर। घाटी में अचानक आतंकी गतिविधियाँ बढ़ गयी थीं। पत्थरबाज़ियाँ, नारेबाज़ियाँ, घेराव, रास्ता जाम और बम विस्फोट। सरकारी दबाब ऊपर से। वह बार-बार फोन करती मेज़र को... आ जाओ, दस मिनट के लिए आ जाओ, मेरा दम घुटता है यहाँ। सिवाय दीवारों के कोई नहीं जिससे बात कर सकूँ, ऊपर से भयावह ख़बरें। मेज़र सी.ओ. को कहता। सी.ओ. एक नहीं सुनता। एक दिन वह ख़ुद रिस्क लेकर आ गयी मेज़र के कम्पनी ऑफिस तो भी सी.ओ. ने नहीं दिया उसे मिलने, भेज दिया ऑपरेशन पर। आख़िर हताशा के चरम क्षणों में मेज़र ने आर.आर.चीफ़ को फोन किया, मैं शूट कर दूँगा इस बास्टर्ड सी.ओ. को। पागल बना देगा यह हमें। चीफ ने तुरन्त कर्नल आर्य को फोन किया, सँभालो अपने अफ़सर को। परिस्थितियों के मारे कर्नल ने बना दिया बुशन कैम्प को 'नॉन फैमिली स्टेशन' न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी। यानी थोड़ी-बहुत आशा की जो किरण थी पतियों से मिलने की वह भी ख़त्म। भविष्य में अब कोई दिव्या नहीं रह पाएगी बूशन कैम्प।
सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके ज़िस्म के पूरब में चुभ जाए - पाश
शायद ऐसी ही मनःस्थिति में इन पंक्तियों को लिखा गया होगा, सोच रहे हैं मेज़र सन्दीप। ऑपरेशन पराक्रम सीने में चाकू की तरह धँस गया है। फ़ौजी मित्र सलाह देते हैं कि वे वापस काले चश्मे को पहन ले। (ऑपरेशन पराक्रम के बाद आत्मग्लानि के गहन क्षणों में उतार फेंका था उन्होंने उस सर्वनाशी काले चश्मे को) पर नहीं, सूअर जैसी इस तृप्ति से कहीं भली है यह सुकरात जैसी बेचैनी। रह-रहकर दिमाग़ के क्षितिज पर प्रश्न नहीं, प्रश्नों के गुच्छे उग रहे हैं।
एक सोचने वाले व्यक्ति के लिए जीवन हर जगह एक जैसा है, अब सवाल यह है कि जियूँ या न जियूँ।
जीवन और मनुष्य की खोज में मैं फ़ौज में आया, ऐसा जीवन जहाँ मनुष्य की मुख्यता ही सर्वोपरि हो, पर यहाँ आकर ऐसा क्या हुआ कि मुझे अपनी ही मनुष्यता खो देनी पड़ी।
सवाल यह भी कि जो ज़िम्मेदार हैं इस विनाश के लिए क्या मिल पाएगी उन्हें सज़ा?
कैसे मिलेगी? क्या लोग समझ पाएँगे सियासत के इस खेल को? मस्जिद की इस राजनीति को? कश्मीर की पीड़ा का सौदा कर जो आज फल-फूल रहे हैं क्या कभी सामने आएगा उनका सच? क्या भटके हुए कश्मीरी फियादीन कभी समझ पाएँगे इस सच को? आज अवाम ख़ून बहाने को तैयार है, पर सत्य जानने को नहीं।
सोचो ज़रा सोचो कि कश्यप के नाम पर बना कश्मीर जो सुदीर्घ समय तक भाईचारे, समन्वय और सहअस्तित्व का इतिहास रहा, कहाँ गये उसके उत्तराधिकारी? जहाँ हवाओं में करुणा बहती थी, किसने घुसायी बारूद की गन्ध?
सोचते-सोचते उदासी और आत्मग्लानि में डूबे मेज़र बिस्तर पर ढह जाते हैं, मन के भी दो टुकड़े हो चुके हैं। एक मन कहता, मैंने मनुष्यता का अपमान नहीं किया, न ही एक माँ से उसकी ममता का सौदा किया, मैंने तो सिर्फ़ वही किया जो एक फ़ौजी का धर्म था। पर तभी ख़ामोशी के अनन्त विस्तार से उठती कोई दूसरी आवाज़ रात-दिन पीछा करती उनका - तो अब एक इनसान का भी धर्म तू ही निभा, बन जा ढाल उस ढहते परिवार की। क्या तुम्हें पता है कि ज़मील को अम्मी पर अवसाद के भयंकर दौरे पड़ने लगे हैं, कि धमाकों की आवाज़ सुनते ही उसका पेशाब निकल जाता है, वह काँपने लगती है। गश्त लगाते फ़ौजी हों या घर में दस्तक देते जिहादी, दोनों को देखते ही वह रूबीना और हमीद को जकड़ कर बैठ जाती है। या ख़ुदा! रहम कर!
उसकी आँखों से आँसू नहीं, ख़ून के क़तरे बहने लगते हैं, कि कैसे बचाए इस घिनौनी दुनिया के ख़ूनी पंजों से अपने लाड़लों को कि ज़मील को मरवाकर भी इसके लिए अमन नहीं, तबाही और अन्याय का दूसरा दौर शुरू हो गया है।
क्या तुम्हें पता है कि आतंकवादियों का क़हर भी उस परिवार पर अचानक बढ़ गया है? पहले सेना उस घर में अड्डा जमाए हुए थी अब वह घर गाहे-बगाहे, रात-दिन आतंकवादियों के लिए सुरक्षित अड्डा बन गया है। चूँकि अपने ही लाड]ले को फ़ौज के हवाले कर वह घर अब पुलिस और सेना की गुड बुक में आ गया है, इसलिए इसका फ़ायदा मिलिटेंट उठाने से नहीं चूक रहे हैं और जब-तब आ धमकते हैं, कभी खाने के लिए तो कभी पनाह के लिए। अब यह घर आतंकियों के लिए जन्नत है, सुरक्षित है और निरापद भी कि जिस घर ने आगे बढ़कर अपने लाड़ले को आर्मी के सुपुर्द किया, क्या खाकर वह आतंकियों को पनाह देगी?
तो जुल्म की दोहरी मार झेल रहे, भुखमरी के कगार पर खड़े जर्रा-जर्रा बिखरते इस परिवार के लिए तुम क्या कर रहे हो?
मेज़र सन्दीप का आत्मालाप
- क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारा इस क़दर बार-बार रूबीना से घुलना-मिलना तुम्हें भी शक के दायरे में ला सकता है? भारतीय फ़ौज के इतने कुशल मेज़र हो तो क्या, तुम पर भी निगरानी रखी जा सकती है (यदि अभी तक नहीं रखी गयी है तो) यू बिल वी केप्ट ऑन विजीलेंस। तुम्हारे सेल्स वग़ैरह भी टेप किये जाएँगे।
- उसे कुछ बातें समझाना बहुत ज़रूरी था।
- क्या सुनी उसने तुम्हारी बात?
-सुनी, पर फिर भी रूबीना सहानुभूति अपने ही लोगों से रखती है, कहती है कि कश्मीर से हिन्दुस्तान फ़ौज वापस बुलवा लेनी चाहिए।
- क्या तुमने उसे यह समझाने की चेष्टा नहीं की कि 1989 से पहले घाटी में फ़ौज थी ही नहीं। यह तो तब आयी जब जिहादियों ने यहाँ से डोगरों और पंडितों को बेरहमी से मार- मार कर अपने घरों से खदेड़ना शुरू कर दिया। उन्हें जम्मू में शरण लेने को विवश किया। क्या वे कश्मीर की जनता नहीं थे? क्या अपराध था उनका? क्यों राष्ट्रीयता का प्रश्न मजहब का सवाल बन गया? किसने खेली यह गन्दी राजनीति? 1987-89 में कश्मीर में जो ख़ूनी खेल खेला गया, जो छापामार युद्ध हुआ कौन हुआ उसका सबसे बड़ा शिकार?
- मैंने तो यह भी समझाना चाहा कि इस्लाम में मजहब, समाज, राजनीति और क़ानून सब एक है कि इनके यहाँ देश और राष्ट्रीयता की कोई अहमियत नहीं है, कि इनमें सर्वश्रेष्ठ भाव इस्लाम का ही है और बाक़ी सब कुफ्र है। इसीलिए जहाँ-जहाँ इस्लामिक राज्य है वहाँ- वहाँ उदार विचारों की चलती ही नहीं है। इसीलिए आज पाकिस्तान में भी पाकिस्तानी अपने राष्ट्र की जगह इस्लाम के आधार पर तालिबान से सहानुभूति रखते हैं।
- मैंने तो यह भी कहा कि तुम लोग पत्थरबाजी, ख़ून-खराबा, सेना और सुरक्षा बलों पर हमले बन्द कर दो तो हम बुला लेंगे अपनी फ़ौज वापस। आख़िर हम क्यों हर दिन तीन करोड़ रुपये कश्मीर पर खर्च कर रहे हैं?
- लेकिन हुआ क्या, न वह हिली न तुम।
- ऐसा नहीं है, सीधी-सच्ची बातों का प्रभाव चाहे देर से ही पड़े, पर पड़ता ज़रूर है।
- मैंने उसे कई बार समझाना चाहा कि इस्लाम अपने ही सम्मोहन में जीता है। न उसे कला से मतलब है, न खेलकूद, संगीत और नृत्य आदि से। इसीलिए इस्लामिक इतने क्रूर होते हैं क्योंकि कलाएँ जीवन को सुन्दर बनाती हैं और आत्मा को सुन्दर विचारों से भर देती हैं।
- तो क्या जवाब दिया उसने?
- उसके जवाब ने मुझे लाजवाब कर दिया। उसने तमक कर पूछा कि हमारे यहाँ तो कलाओं को खुली छूट है, कलाएँ लोगों में सुन्दर विचार भरती हैं, क्रूरता से दूर रखती हैं, तो फिर क्यों दस हज़ार से अधिक कश्मीरी नौजवान ऐसे हैं जिनका कोई अता-पता नहीं है। यह भी नहीं पता कि वे जीवित हैं या मृत। जो पुलिस कस्टडी से ग़ायब हो चुके हैं।
- तो तुम चुप रहे, इस आंशिक सत्य पर।
- नहीं मैंने उसे कहा कि ऐसा नहीं है, हमारे ऊपर भी मानवाधिकार आयोग की कटार लटकी हुई है। हमारे जवान और अफ़सर यदि थूकते भी हैं तो मानवाधिकार आयोग द्वारा तुरन्त कटघरे में बन्द कर दिये जाते हैं लेकिन तुम्हारी तरफ़ से जो ज़्यादतियाँ होती हैं उस पर कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि ज़िम्मेदारी की उम्मीद हमसे ही की जाती है।
- यह भी सोचो कि आज कश्मीर की सारी अर्थव्यवस्था केन्द्र सरकार की सब्सिडी के सहारे चलती है। हमने कश्मीरियों को अपना माना इसीलिए तो कश्मीर पर अरबों रुपये खर्च किये, भारत में किसी राज्य पर सरकार ने इतना खर्च नहीं किया जितना कश्मीर पर खर्च किया। उसे विशेष राज्य का दर्जा दिया। तुम्हारी अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत नहीं कि तुम ख़ुद को सँभाल सको। यदि तुम्हें आज़ाद कर भी दें तो तुम्हें पाकिस्तान हड़प लेगा और अब तो कश्मीरी अवाम भी नहीं चाहती है पाक में विलय होना और न अब ऐसे पुराने कट्टरपन्थी ही बचे हैं जो पाकिस्तान छोड़ कश्मीर में बसना चाहे। आज अस्सी प्रतिशत मिलिटेंट विदेशी मिलिटेंट हैं या फिर अफगानिस्तान, चेचन्या, बोस्निया और पाकिस्तान के रास्ते आये भाड़े के मिलिटेंट।
- फिर भी कश्मीर की अवाम को यह अधिकार है कि वह अपना भाग्य स्वयं चुने।
- हाँ है, पर सोचो क्या ज़्यादातर चुनावों में वे अपना नेता स्वयं चुनने को स्वतन्त्र नहीं रहते? क्या उन्हें यह अधिकार नहीं कि वे अपने तरीके से इबादत करें?
- फिर क्या कहा रूबीना ने?
- उसने कहा कि तुम क्यों चाहते हो कि मैं तुम्हारी तरह सोचूँ।
- मैंने कहा कि मैं क़तई नहीं चाहता कि तुम मेरी तरह सोचो, मैं तो सिर्फ़ यह चाहता हूँ कि तुम सत्य जान लो, क्योंकि सत्य सदैव सुन्दर होता है। पर मुश्किल यह है कि अमरनाथ की गुफा के इस शहर में सृष्टि और अमरता के रहस्य को तो जाना जा सकता है, पर कश्मीर, अवाम और आर्मी के सत्य को जानना महामुश्किल है।
भाग दो
बीत गये पाँच साल!
ख़ुशियों ने मुद्दतों बाद आज फिर मेज़र सन्दीप के घर की सुधी ली है। घर मंगल-गीतों से गूँज उठा है।
'ऊँट चढ़ी घर आवे लाड़ो
सागे नहीं भेजूँगी। '
'केसरिया बालम, आओगी, पधारो म्हारे देश...'
'बाईसारा वीरा म्हाने पिबरियों ले चालो सा...'
शादी का जश्न। मेहँदी। गीत। संगीत। नृत्य। चुहलबाजी।
मेहमानों से अटे पड़े घर में हँसी-ठहाकों का इन्द्रधनुष खिल उठा है। पर शेखर बाबू और उनकी पत्नी के चेहरे की मायूसी नहीं छँट पा रही है। कभी अँधेरा तो कभी उजाला आत्मा के घर में। सीने पर चट्टान रखकर उन्होंने शादी तो रचा दी सिद्धार्थ कि पर जब-जब नज़र पड़ती है सन्दीप के गिरते स्वास्थ्य और बालों के उजड़ते चमन पर, मन चाक-चाक हो जाता है। माँ कलपती है, उफ़! कितनी तेज़ी से जा रहा है जिस्म का हरियालापन, पर वे भी क्या करती, सन्दीप को शादी के लिए मनाते-मनाते सिद्धार्थ भी तीस पार कर चुका था। ढोलकी बज रही है। बधावे गाये जा रहे हैं पर मन है कि उड़ता फिर रहा है बादलों सा।
रस्म-दर-रस्म!
हिन्दू विवाह की यह विशेषता कि वह परिवार को एक सूत्र में बाँध देता है। सभी रिश्तेदारों को बारी-बारी से किसी-न-किसी रस्म में सम्मिलित कर वह सबको न केवल उनकी अहमियत बता देता है, वरन सभी को आत्मीयता के धागे में भी पिरो देता है। विचारों का काफ़िला साथ-साथ बहने लगता है कि तभी स्पीड ब्रेकर की तरह एक और रस्म झटका देती है सन्दीप को। विचारों का ताना-बाना टूट जाता है। हुलसित हो देखते हैं सन्दीप। चुहलबाजी चल रही है। जुआ-जुई का खेल चल रहा है, दुल्हा-दुल्हन के बीच। पतले दूध से भरी बड़ी-सी परात में कुछ कौड़ियाँ, कुछ हल्दी-आटे से बने सूखे फल। कुछ लोहे के रिंग और इस भीड़ के बीच एक चाँदी का छल्ला। दूल्हे को एक हाथ और दुल्हन को दोनों हाथों की सहायता से खोजना है इस छल्ले को।
सात बार फेंका जाता है छल्ला। अभी तक लगातार जीत रही है दुल्हन।
यह सातवीं बार।
कोई स्त्री कह रही है - यह आख़िरी बार है। इसमें जिताना ज़रूरी है सिद्धार्थ को। क्यों? मुस्करा कर कहती है चाची, इसमें हार गया तो फिर सारी उम्र हारता ही रहेगा दुल्हन से।
वाह! इन खेलों में भी कितने अर्थ कितनी सोच और कितनी सीख छुपी है।
एक और रस्म। सिद्धार्थ के हाथ में कपड़े से बना चाबुक जिसे वह लहरा रहा है और चला रहा है दुल्हन पर। दुल्हन बचने का नाटक करती भाग रही है, चाबुक से बचने के लिए। लोग हँस रहे हैं, हर बार चाबुक पड़ते-पड़ते रह जाता है दुल्हन के जिस्म पर।
ये रस्म-रिवाज़ भी हमारे समाज के दर्पण हैं। किस प्रकार जीवन के प्रभात में ही पुरुष सत्ता के हाथ में थमा दिया जाता है चाबुक जिससे ताउम्र वह अपने अधीन रख सके अर्द्धांगिनी को।
हर रस्म का अपना निहित अर्थ ढूँढ़ रहे हैं सन्दीप कि तभी फिर शुरू हुई, एक और रस्म।
यह रस्म है पग पकड़ाई की रस्म।
इसमें दुल्हन घर के सभी बुज़ुर्गों के पाँव पकड़ती है और तब तक पकड़ी रहती है जब तक बुज़ुर्ग दुल्हन को आशीर्वादस्वरूप कुछ न कुछ उसे भेंट नहीं कर देते हैं।
शेखर बाबू ने भेंट स्वरूप एक सोने की गिन्नी दी। पत्नी ने सोने का हार दिया।
अब बारी सन्दीप की।
अविवाहित जेठ! जाने कहाँ से शब्द गूँजा। सब हो-हो कर हँस पड़े। झेंप गये सन्दीप। मारवाड़ी समाज में अविवाहित रहना भी जैसे अपराध है। 'अविवाहित' शब्द की नोक भाले की तरह गड़ी सिद्धार्थ के सीने में भी। यहाँ जमा इतने लोगों में है कोई ऐसा जो बराबरी कर सके भैया के नाखूनों की भी? फिर चिन्ता के बादल मँडराए, सिद्धार्थ के मानसिक क्षितिज पर। कुछ कुछ अन्देशा उसे भी था कि भैया किसी के इन्तज़ार में ही लुटा रहे हैं ज़िन्दगी के ये बहुमूल्य वसन्त। भैया के ही मित्र मेज़र सुखवन्त की आवाज़ कानों में फिर गूँजने लगी - अज़ीब पागल है यह सन्दीप भी। यह इन्तज़ार नहीं, बेवकूफ़ी है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पूरे समाज का बोझ ढोते हैं अपने सिर पर। अब पूछो इनसे कि ज़मील का परिवार बर्बाद हुआ तो इसकी ज़िम्मेदारी सन्दीप पर कहाँ आती है? पर जनाब हैं कि बैठे हैं उसी रूबीना के इन्तज़ार में। कहते हैं कि मैं प्यार करता हूँ उससे। रूबीना से।
रूबीना? रूबीना कौन? चौंक गये थे सिद्धार्थ। क्या आपको कुछ नहीं मालूम?
अब चौंकने की बारी थी मेज़र सुखवन्त सिंह की।
यार, इतने भी क्या डूबे रहते हो अपनी ही दुनिया में, कि सगे भाई की ज़िन्दगी में इतने तूफ़ान उठ रहे हैं, उसकी भी कोई जानकारी नहीं। अरे, जब से उस ज़मील को मार गिराया है सन्दीप ने, तभी से वह जैसे चिपक कर बैठ गया है सन्दीप की रूह से। मैंने बहुतेरा समझाया, पर वह यही कहता रहा कि देखो उसे मारकर मैंने एक फ़ौजी का धर्म बखूबी निभाया, अब उस परिवार को सहारा देकर एक अच्छे नागरिक का धर्म भी निभाना चाहता हूँ। मैंने पूछा भी कि सहारे का मतलब यह तो नहीं कि तू ज़मील की बहन को ही अपनी बीवी बना ले। अरे, ये मुल्ले ऐसे ही होते हैं, कर दिया होगा उन्होंने अपनी लड़की को ही इसके आगे, डोरे डालने को, अरे जो परिवार अपने सुख के ख़ातिर मरवा डाले अपने ही बेटे को, वह कुछ भी कर सकता है। जानते हो क्या कहा उसने? सन्दीप ने कहा, कई बार किसी और को तो क्या ख़ुद अपने को भी हम कहाँ पहचान पाते हैं। मैंने भी यही सोचा था कि जैसे ही मैं ज़माने से लुटी-फुटी दुख और भुखमरी से टूट चुकी उस रूबीना के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखूँगा, वह झूम उठेगी, पर जानते हो मेज़र, स्त्री की अन्तर्निहित गरिमा से भरपूर उस गर्वीली लड़की ने क्या जवाब दिया? उसने कहा, कि मुझे बहुत पहले से ही पता था कि तुम मुसलमान नहीं, हिन्दू हो, मैं यह भी जानती हूँ कि तुमने सिर्फ़ एक 'आर्डर' का पालन किया जिसके लिए तुम वचनबद्ध थे। एक इनसान के तौर पर मैं तुम्हारा सम्मान भी करती हूँ क्योंकि जिस प्रकार ज़मील भाई की शहादत के बाद भी तुम हमेशा हमारे यहाँ आते रहे हमें सँभालने की वापस खड़ा करने की चेष्टा भी करते रहे, पर मैं यह कैसे भूल सकती हूँ यह हिन्दुस्तानी फ़ौज ही थी जिसने हमारे भाईजान को मार डाला, इसलिए जब तक तुम इस वर्दी से ख़ुद को अलग नहीं कर लेते, मैं तुम्हें नहीं अपना सकती। यदि तुम्हें अपना लिया तो क़यामत के दिन भाईजान को क्या मुँह दिखाऊँगी?
रह-रहकर सारी बातें याद आ रही हैं सिद्धार्थ को। भाई के क्षत-विक्षत और घाव खाये खंडित व्यक्तित्व को आवश्यकता है एक स्त्री मित्र की, प्रेयसी की, पत्नी की जिसके प्रेम की धीमी-धीमी आँच में पुनर्निमित हो उठे वह, पुनर्जीवित हो उठे, पर कहाँ से जुगाड़ करे वह भाई के लिए ऐसी स्त्री? भाई तो जाने किस रूबीना की रूह से चिपक कर बैठ गये हैं।
''कहाँ खो गये जीजू?'' शोख सालियों ने फिर खींचा सिद्धार्थ का ध्यान?
सामने दिलचस्प मंजर था। दुल्हन सन्दीप का पाँव छोड़ ही नहीं रही थी। उसने अजीब-सी माँग कर परेशानी में डाल दिया था जेठ जी को। बाक़ी दुल्हनों की तरह उसने अपने जेठ से न सोना-चाँदी माँगा, न हीरे-जवाहरात माँगे और न ही विदेश यात्रा के लिए टिकट। माँगा तो यह कि जब तक जेठ जी जल्दी से ही उसे एक प्यारी-सी जेठानी देने का वादा नहीं करते, वह नहीं छोड़ेगी जेठ जी का पाँव।
झेंप और हास्य का मिला जुला कत्थई रंग पुत गया सन्दीप के चेहरे पर। कहना चाहा, कुछ कहानियाँ ज़िन्दगी में शुरू ही इसलिए होती हैं कि कभी पूरी नहीं हो सकें, पर कहा यही - पाँव नहीं छोड़ोगी तो कहाँ से लाऊँगा तुम्हारी जेठानी को?
सिद्धार्थ ने सोच लिया था, आज खोलना ही होगा उसे भाई के जीवन का वह दरवाज़ा जिसके तहख़ाने तक आज तक कोई भी नहीं पहुँच पाया था। बहुत हुआ, अब और टालमटोल नहीं। आज बनकर रहेगा वह भाई के अँधेरे जीवन का हिस्सा। हाँ आज की ही रात, क्योंकि यही रात सबसे अचूक अस्त्र की तरह है उसके पास!
शाम ढलते-ढलते फिर पहुँचा वह सन्दीप के पास, ''भाई जब तक तुम मुझे सारी बातें नहीं बताओगे कि क्यों नहीं कर रहे तुम शादी, मैं भी अपनी सुहागरात नहीं मनाऊँगा, शादी तो मैंने घरवालों और तुम्हारे दबाब में आकर कर ली, पर...'' बोलते-बोलते आवाज़ अचानक भर गयी थी सिद्धार्थ की।
यह क्या? सिटपिटा गये सन्दीप। अच्छा पकड़ा। क्या कुछ सुगबुगाहट मिल गयी है उसे? कहाँ से मिली होगी। फिर ग़ौर से गहरे देखा चेहरा सिद्धार्थ का। नयी शादी की उमंग, उत्तेजना, थिरकन सब पर छायी हुई थी उदासी की झीनी-सी चादर।
क्या तुम मेरा ब्लैकमेल कर रहे हो? कड़क आवाज़ में पूछा सन्दीप ने। आर्मी में रहते -रहते भावनाओं को नियन्त्रण में रखना ख़ूब साध लिया था उन्होंने।
''मैं ब्लैकमेल नहीं कर रहा, पर जीवन के सवालों से इस प्रकार भागा नहीं जाता है भैया, मैं आपको यह बताना चाहता हूँ, क्योंकि आपका जीवन आपके अकेले का नहीं है, वरन हम सबसे जुड़ा हुआ है। मुझे पता है कि आप किसी का इन्तज़ार कर रहे हैं। मेज़र सुखवन्त सिंह से मैं बहुत कुछ सुन चुका हूँ, पर जनश्रुतियों की लहरों पर उछलती आयी सच्चाइयाँ काफ़ी कुछ विकृत और फैल चुकी होती हैं। मैं ठोस सचाई जानना चाहता हूँ।''
सन्दीप का चेहरा बुझा और राख बन गया। रुमाल से ललाट का पसीना पोंछते हुए कहा उसने - देखो, मैं तुमसे वादा करता हूँ कि यहाँ से जाने के पहले मैं तुम्हारे सामने अपने सारे सत्य, सारे रहस्य खोलकर रख दूँगा, पर आज की रात को तुम बर्बाद मत करो, जतन से पाली तमन्नाओं की रात है यह, जाओ सीमा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होगी, इस रात की नोक पर उसके भी सपने टँगे होंगे जिनको सँभालना तुम्हारी नैतिक ज़िम्मेदारी है। बोलते-बोलते गला भर आया सन्दीप का। शब्द बिखरने लगे। अपने आवेग पर क़ाबू पाने के लिए सिद्धार्थ के माथे पर हाथ फेरा उन्होंने। एक गहरी साँस ली और किसी प्रकार अपनी बात पूरी की - देखो, मेरा विश्वास करो, एक रात में कुछ नहीं उखड़ने वाला, कल दोपहर तक मेहमान विदा हो जाएँगे, शाम तक मैं तुमको सबकुछ बता दूँगा यह वादा रहा मेरा। एक फ़ौजी का। एक भाई का।
ढीली रात के बाद तनी तनी सुबह।
सिद्धार्थ को घर के सेवक रामलखन ने एक मोटा-सा लिफ़ाफ़ा पकड़ाया। सिद्धार्थ ने उसे खोला तो हैरान रह गया, उसमें सन्दीप का एक लम्बा-सा पत्र था, जो इस प्रकार था -
भाई मेरे,
इस पत्र में मैं स्वयं को पूरी ईमानदारी के साथ पेश कर रहा हूँ। जब-जब मैं अपने अभी तक के पूरे जीवन पर एक नज़र फेंकता हूँ तो यह बात साफ़ समझ में आती है कि कुछ जीवन ऐसे होते हैं जो कभी जिये नहीं जाते हैं, जो जीवन को समझने और उसकी तैयारी करने में ही बीत जाते हैं। मेरे जीवन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। जितना अधिक मैं ज़िन्दगी को समझने की चेष्टा करता रहा, उलझता रहा। जितना अधिक मैं इसके क़रीब आना चाहा, यह मुझे दूर धकेलती रही।
मेरी कहानी के बीज़ शायद तभी पड़ गये थे जब अपने अल्हड़ और तितलियों को पकड़ने की उम्र में मैंने अपने लिए एक सपना पाल लिया, बिना सोचे-विचारे। पर वह स्वप्न ही क्या जिसे सोच-समझकर पाला जाए। बहरहाल, मैंने स्वप्न पाला एक कड़क फ़ौजी बन जीवन के उन अनजाने रास्तों पर चलने का जो ख़तरों से भरा था, अनजाना था।
यह तो मैं आज समझ पाया हूँ कि पिता का जीवन बच्चों को किस प्रकार प्रभावित करता है। घनघोर सांसारिकता वाले मेरे पिता का जीवन मुझे शून्य लगता और उनके सारे तर्क इस शून्यता को सजावट से ढँकने की कोशिश। मैं किसी 'महान' के लिए किसी 'शिव' के लिए, किसी सत्य के लिए जीना चाहता था, और वह था, 'फ़ौजी'। यदि मेरे पूज्य पिता का जीवन वैसा नहीं होता तो सम्भवतः मेरा जीवन भी ऐसा नहीं होता। जानते हो, इसीलिए हमारे फ़ौज में जितने भी आर्मी ऑफ़िसर्स हैं, उनमें से अधिकांश के बच्चे अब फ़ौज में नहीं जा रहे हैं। वे जा रहे हैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में, केन्द्रीय सेवाओं में, राजकीय सेवाओं में, या फिर प्राइवेट प्रतिष्ठानों में। क्योंकि उन्हें वितृष्णा हो चुकी है उस जीवन से जो उनके पिता जी रहे हैं। शायद हर पीढ़ी के स्वप्न अपनी पूर्व पीढ़ी से अलग होते हैं, क्योंकि उसका मोहभंग हो चुका रहता है। इसीलिए फ़ौज प्रेमी कर्नल बाजपेयी फ़ौज में उच्च स्थानों पर रिक्ति का रोना हमेशा रोते रहते हैं। जानते हो जिस समय मैंने कर्नल बाजपेयी से फ़ौज से त्यागपत्र देने की इच्छा ज़ाहिर की तो उन्होंने यह सोचने तक कि जहमत नहीं उठायी कि मैं किन गम्भीर व्यक्तिगत कारणों से फ़ौज को अलविदा कहना चाहता हूँ कि आज मैं ऐसे मुकाम पर खड़ा हूँ कि या तो ज़िन्दगी का चुनाव कर सकता हूँ या फ़ौज का। उनकी सोच वहाँ तक जा ही नहीं सकती थी कि मैं ज़िन्दगी से मुलाक़ात करने के लिए फ़ौजी ज़िन्दगी को छोड़ना चाहता हूँ। हाँ, ठीक समझा तुमने, मैं रूबीना की बात कर रहा हूँ, जो अब मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन स्वप्न बन चुकी है, पर वह तब तक मेरा वरण नहीं करेगी जब तक मेरे ज़िस्म पर यह फ़ौजी वर्दी और तमगे चिपके हुए हैं। नहीं, उसे ग़लत समझने की भूल मत करना। बड़ी ठोस नैतिकता वाली लड़की है वह जिसने भूख झेली, टूटन झेली, यातनाओं का ज़हर पिया पर अपने विश्वास के साथ विश्वासघात नहीं किया।
कर्नल वाजपेयी मेरी मजबूरी नहीं समझ पाए, उन्हें लगा कि मैं हाई ग्रोथ के लिए, उच्च वेतन के लिए, फ़ौजी नौकरी छोड़ना चाहता हूँ। मुझे ज्ञान पिलाते हुए कहा उन्होंने, गहरे दुख और अफ़सोस के साथ - मैं जानता हूँ कि तुम क्यों निकलना चाहते हो, पर इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। आज आर्मी कुछ भी ऐसा नहीं देती कि युवक उसकी ओर आकर्षित हो। आज भारत की नम्बर वन प्रतिभा की फ़ौज में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए आज चालीस हज़ार अफ़सरों में ग्यारह हज़ार अफ़सरों के पद ख़ाली पड़े हैं। कई बार मैं ख़ुद यह सोचकर परेशान हो जाता हूँ कि जिस रैंक में आर्मी में मैं बाईस साल बाद पहुँचा हूँ, मेरे आई.ए.एस. दोस्त छह साल में पहुँच जाते हैं। और मुझसे 20 प्रतिशत अधिक वेतन पाते हैं। मैं आज भी उन लमहों को याद कर सकता हूँ जब चाय का घूँट भरते हुए बड़ी पीड़ा के साथ उन्होंने मुझे कहा था, भई, इफ यू गिव पीनट्स, ओनली मंकीज विल कम (यदि आप मूँगफली देंगे तो सिर्फ़ बन्दर ही आएँगे)। बड़े दर्द के साथ कहा था उन्होंने कि देखना आज से बीस वर्षों बाद इन्हीं बन्दरों के हाथों में देश की प्लानिंग, डिफेंस और स्ट्रेटजी रहेगी। देखना यदि सिलसिला इसी प्रकार चलता रहा तो एक समय बाद हमारे जाने कितने टुकड़े हो जाएँगे क्योंकि धीरे -धीरे हमारा निकृष्ट आर्मी में आता जाएगा और हमारे दुश्मन का उत्कृष्ट आर्मी में जाएगा। पाकिस्तान अपनी जीडीपी का साढ़े तीन प्रतिशत आर्मी पर खर्च करता है जबकि हम महज 1.99 प्रतिशत खर्च करते हैं। तो आप ही कहिए, हमारा निकृष्ट उनके सर्वोत्कृष्ट का मुक़ाबला कैसे कर सकेगा?
तो मेरे भाई, विडम्बना यह है इस समय कि कोई भी सत्य सुनने को तैयार नहीं। और यह अभी ही नहीं, शुरू से ही मेरे साथ हो रहा है। मैं चाहकर भी जो है और जो सत्य है, के बीच की दीवार को नहीं गिरा पाया। हालत यह है कि पहले मैं अकेलेपन से डरता था, अब दुनिया से डरता हूँ। मैं आँखें बन्द करता हूँ तो मेरी बन्द पलकों के बीच युवा सुलभ स्वप्न नहीं, वरन सत्य तैरने लगता है, वह सत्य जिसे चीख़ -चीख़ कर मैंने अपने वरिष्ठ अफ़सरों को सुनाना चाहा, पर उन्होंने अपने कानों में उँगली डाल ली।
जिस समय हम 'ऑपरेशन फ्राइडे' पर थे, हम पर ज़बरदस्त राजनैतिक दबाव था आतंकियों को पकड़ने का। हमने गाँव के एक नौजवान को पकड़ा, उसका अपराध सिर्फ़ इतना भर था कि उसके दोस्त का भाई आतंकी था और वह अपने दोस्त के घर आया-जाया करता था। बहरहाल, हमारी नज़रें उस घर पर टिकीं थी, जैसे ही वह निकला हमारे कमांडर ने उसे ढेर कर दिया और उसके शव के पास हमने वह एके - सैंतालीस रख दी जिसे हमने कभी ढेर हुए आतंकवादियों के पास से पायी थी। हम कभी भी उतने हथियारों की रजिस्टर में एंट्री नहीं करते जितने हमें किसी वारदात या मुठभेड़ के दौरान मिलते हैं। वक़्त-बे-वक़्त इन्हीं हथियारों को हम किसी निर्दोष को आतंकवादी सिद्ध करने में काम लेते हैं। हमारे कमांडर ने उस नौजवान की लाश के पास एके - सैंतालीस रख फोटो खिंचवाई और मीडिया को बताया कि हमने एक खूँखार आतंकवादी को ढेर किया।
ताज्जुब! इसी धरती पर कभी हमारे पुरखों ने सत्य, शिव और सौन्दर्य की माँग की थी।
तो मेरे भाई, यह दुनिया झूठ से भरी पड़ी है। अमानवीयता से अटी पड़ी है। यहाँ अँधेरे सिर उठाकर चलते हैं और उजाले आत्महत्या करने को विवश हैं। यहाँ हर वह आदमी घुटन महसूस करता है जो सत्य जानता है पर उसे बोल नहीं सकता है। मैंने अपने सभी वरिष्ठ अफ़सरों, रक्षा मन्त्रालय और यहाँ तक कि राष्ट्रपति तक के पास अपील भेजी है कि मुझे फ़ौज से मुक्ति दिला दी जाए जिससे मैं ज़िन्दगी में घुस सकूँ। पिछले पाँच वर्षों से मैं गुहार लगा रहा हूँ, पर कोई मुझे सुनने को तैयार नहीं। मुझे तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जब तक अनुबन्ध की शर्त के अनुसार मेरे फ़ौजी जीवन के 20 वर्ष पूरे न हो जाएँ।
आज मुझे लगता है कि मैं बुद्धू बना दिया गया हूँ। मैंने अपना सबकुछ फ़ौज को समर्पित किया, अपना सुविधा-सम्पन्न जीवन, कैरियर, सुख, स्वप्न, रातों की नींद, दिन का चैन यहाँ तक कि अपनी आत्मा की आवाज़ तक का गला घोंट दिया। हर पल मौत की आहट में जीया। तन-मन-आत्मा सबको लहूलुहान किया। भयंकर मानसिक यातना में जिया। अपने मनुष्य बोध तक को कुचल डाला। मैंने वह सबकुछ किया जो व्यवस्था मुझसे चाहती थी और इसी का परिणाम है कि आज मैं न जी पा रहा हूँ, न मर पा रहा हूँ। यही सम्मान है हमारे देश में एक फ़ौजी का। उस फ़ौजी का जो अपनी जान हथेली पर रख, सरहदों की रक्षा करता है। विकसित देश अपने बहादुर सैनिकों के नाम पर खिलौने निकालते हैं, कॉमिक निकालते हैं, जिससे किशोरों में सेना के प्रति सम्मान भाव और रुचि पैदा हो जबकि हमारे देश की युवा पीढ़ी अपने जांबाज फ़ौजियों के नाम तक नहीं जानती।
तो मेरे भाई, हम सभी एक पतनोन्मुख समाज में जी रहे हैं। ऐसा समाज जिसकी संवेदनाएँ मर चुकी हैं। आर्मी भी तो उसी समाज का हिस्सा है। कई बार मैं स्वयं को मानवीय नियति का दार्शनिक जामा पहनाकर सान्त्वना देने की कोशिश करता हूँ। मैं स्वयं को यह समझाने का प्रयास भी करता हूँ कि मानव जीवन सम्पूर्ण कभी नहीं होता, आन्तरिक अधूरापन बना ही रहता है। महाभारत युद्ध के बाद कुरुक्षेत्र विजेता भी उल्लसित नहीं थे। उन्हें भी लग रहा था कि सब ठीक नहीं हुआ है, कहीं धोखा हुआ है।
पर मैं ख़ुद को समझा नहीं पाता। मुझे मेरा वर्तमान रह रह कर कचोटता है। मैं क्या करूँ उस जीवन का जो एक उचटी हुई नींद बनकर रह गया है। मैं भूल नहीं पाता कि एक परिवार को उजाड़ डाला है मैंने। एक माँ से उसी के पुत्र को मरवा डाला। दो किशोरों के जीवन को झुलसा दिया।
इन कीलों और कसकों के साथ मैं आनेवाली ज़िन्दगी कैसे जी पाऊँगा? यह तो तभी सम्भव है कि मैं मानसिक रूप से इतना ठंडा, ठस्स हो जाऊँ कि कुछ भी अमानवीय मुझे बेचैन न करे, पर यह तो अपने मनुष्य होने को ही नकारना होगा। उफ़! मैंने आर्मी ज्वाइन की थी, अमन, मुहब्बत, करुणा, सहअस्तित्व और इनसानियत के अर्थ को समझने के लिए।
अपने मनुष्य होने को नकारने के लिए नहीं।
मैं क्या करूँ?
विडम्बना यह है कि मैं कुछ कर भी नहीं पा रहा हूँ सिवाय सवालों से घिरे रहने के।
असीम सम्भावनाओं से भरी यह ज़िन्दगी क्यों सत्ता में बैठे चन्द लोगों के स्वार्थ और बनते-बिगड़ते मिजाज़ के चलते रेत के क़िले-सी ढ़ह जाती है क्यों? क्यों?
क्या कसूर मेरा?
क्या चाहा था मैंने? सिवाय यही कि वृहत्तर लक्ष्यों के प्रति जीवन को समर्पित कर सकूँ। आज भी चाह रहा हूँ सिर्फ़ यही कि मैं मनुष्य बना रहूँ... कि सौन्दर्य और इनसानियत की डोर मेरे हाथों से कभी न छूटे कि जो संवेदनाएँ मेरे भीतर सुप्त पड़ी थीं और रूबीना के प्रति प्रेम या कर्तव्य भावना ने जिन्हें पूरी ताक़त से जगा दिया है, उनके प्रति मैं ईमानदार बना रहा हूँ कि हिंसा की बारिश में भींग-भींग कर मैं इतना भारी हो गया हूँ कि मेरे पैर एक क़दम भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं, इसलिए भारतीय फ़ौज मुझे मुक्त करे।
और अन्त में मेरे भाई, मेरी ज़िन्दगी के सबसे बड़े राजदां! तुम समझ ही गये होगे कि रूबीना किस प्रकार मेरे जीवन का सत्य बन चुकी है। यद्यपि मैं उससे अभी तक सिर्फ़ छह बार ही मिला हूँ। पाँच बार श्रीगर के गुंड गाँव में पोस्टिंग के दौरान और छठी बार चंडीगढ़ पोस्टिंग में रहते हुए। पर हमारे रिश्ते की ख़ूबसूरती यह है कि यह रिश्ता ख़ामोश भूमि पर पनपा है।
उसने मुझे बहुतेरा समझाया है कि उसकी तबाही के लिए मैं किसी भी सूरत में ज़िम्मेदार नहीं हूँ, इसलिए मैं यह बोझ अपनी आत्मा से उतार फेंकूँ। पर मेरी विडम्बना यह है मैं ऐसा नहीं मानता। मैं यह मानता हूँ कि ज़मील को ढेरकर मैंने चाहे एक फ़ौजी के सीमित उद्देश्य और कर्तव्य को पूरा किया हो, पर ऐसा कर मैंने सम्पूर्ण मानवता का अपमान किया है। कि मैंने ख़ुद अपने ही हाथों अपने भीतर के ईश्वर को मार डाला है।
जब-जब प्रकृति के निःशब्द मौन के बीच मैं ख़ुद को पाता हूँ, मेरे भीतर हाहाकार मचा रहता है। जब-जब सिन्धु और झेलम की कल-कल सुनता हूँ मेरे भीतर से एक आवाज़ उठती है - कि मैंने एक अधूरा जीवन जीया है, कि मैंने पवित्र जीवन नहीं जीया... कि मैंने झेलम, सिन्धु और हिमालय के सौन्दर्य के साथ विश्वासघात किया है। जाने कैसी पीड़ा और अपराधबोध गहन एकान्तिक क्षणों में मेरे भीतर उफ़ान मारते हैं कि मेरा मन अवसादग्रस्त रोगी की तरह फूट-फूट कर रो पड़ने को होता है।
शायद तुम समझ पाओ मेरे वर्तमान जीवन को। कुछ अनुमान लगा पाओ उस पीड़ा का जो इनसान को बन्द दरवाज़े के बाहर खड़े रहने को विवश कर रही है।
जाने किस कवि ने कहा था, ''मैं एक फूल को बचाने के लिए युद्ध कर रहा हूँ। क्या मैं भी यही नहीं कर रहा?''
एक फूल को बचाने की चेष्टा!
सोचो, जिस तिरंगे की हिफ़ाज़त और गरिमा के लिए मैं फ़ौज में आया, आज अरुणाचल से नगालैंड और असम से कश्मीर तक - उस तिरंगे की रक्षा कना कठिन होता जा रहा है। नगालैंड में खुले आम भारत से अलग होनेवाले आतंकवादी और अलगाववादी गुट अपनी सेनाएँ रखते हैं और चीन से हथियार मँगवाते हैं। आतंकवाद ने एक लाख से अधिक भारतीयों की जान ली... पर क्या हुआ?
कितना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब हम सैनिक युद्ध के लिए नहीं, शत्रु के लिए नहीं, वरन देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए शहीद हो रहे हैं।
और अन्त में, कभी नचिकेता ने पूछा था, मृत्यु क्या है?
सुकरात ने पूछा था - सत्य क्या है?
बुद्ध ने पूछा था - जरा, रोग और मरण क्या है?
मार्क्स ने पूछा था - भूख क्या है?
मेरा प्रश्न है - आज़ाद भारत में एक फ़ौजी के लिए आज़ादी का मतलब क्या है?
तो भाई, सुन ली तुमने मेरी कहानी, स्वप्न, स्मृति और यथार्थ की भूलभुलैया में भटकती मेरी कहानी। क्या तुम अब भी माँ-पापा की तरह यही कहोगे कि मेरी बर्बादी के पीछे औरत है? मेरी बर्बादी के पीछे औरत नहीं, मनुष्य बने रहने की मेरी ज़िद्द है। और सच कहूँ तो मैं इसे अपनी बर्बादी भी नहीं मानता, मेरी नियति की रचना सम्भवतः इसी प्रकार होनी थी। क्योंकि रूबीना पूरी तरह खँडहर बन चुकी थी और मैं भी शायद दो खंडहर मिलकर ही एक नयी दुनिया का निर्माण कर पाएँ!
नहीं जानता मैं कि अपने इस जीवन की व्याख्या मैं किस प्रकार करूँ। नहीं जानता मैं कि कितना कह पाया मैं अपने जीवन को। पूरी ईमानदारी के साथ मैं सिर्फ़ यही कह सकता हूँ कि रूबीना ने मेरी ज़िन्दगी से न कुछ लिया, न कुछ दिया, बस एक बार फिर मुझे ख़ुद से मिला दिया। कितना चाहा मैंने उसे ख़ुद से दूर धकेलना। पर वह तो दूने वेग से मुझमें उदित होती गयी। शायद इसीलिए कि ज़मील के ओझल होने के बाद मैं अपनी मूल सत्ता में वापस लौट सकूँ।
मेरे पास अब दो ही विकल्प हैं। या तो अगले आठ वर्षों तक और इन्तज़ार करूँ तब तक मेरे फ़ौजी जीवन को 20 वर्ष पूरे हो चुके होंगे और अनुबन्ध के अनुसार मैं स्वाभाविक रूप से फ़ौज से ससम्मान निकल जाऊँगा, या फ़ौज पर मुक़दमा चलाऊँ। सोच कर मन उदास होता है कि जो फ़ौज कभी मेरा सबसे बड़ा हसीन स्वप्न थी, आज उसी पर मैं मुक़दमा चलाने की सोच रहा हूँ। हर सत्य क्या इसी प्रकार अपने विरोधी सत्य में दम तोड़ता है? पर मैं क्या करूँ? आज मेरे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि मनुष्य एक सम्पूर्ण मनुष्य की तरह मैं जी सकूँ। बहुत ज़रूरी है कि आदमी अपने परिवेश के साथ जुड़ सके, तभी वह इनसान बनकर जीवित रह सकता है। पर यही चीज़ है जो आज सबसे अधिक ख़तरे में है। कहाँ जाऊँ मैं? किसके पास आश्रय लूँ? कोई ईश्वरीय सत्ता? कोई गुरु? कोई अध्यात्म? पुस्तक? कहाँ मिलेगा मुझे जीवित रहने का आधार? ख़त्म होगी यह भटकन? यह उचाटपन?
नहीं जानता कि मैं अपने को कितना कह पाया हूँ, पर मैंने अपने सारे भेदों को तुम्हारे सामने खोल दिया है। माँ, पापा को तुम समझाने की चेष्टा करना। परिवार को कुछ दे नहीं पाया, इसका दुख सर्वदा रहेगा।
तुम्हारा भाई
सन्दीप
बह गये और पाँच वर्ष!
चिनार के सूखे पत्तों की तरह गुज़र रहे हैं साल-दर-साल। मेज़र सन्दीप हुए अब कर्नल लेकिन खड़े हैं अभी भी बन्द दरवाज़ों के बाहर। बहुत कुछ हुआ इन पाँच वर्षों में, पर वह मन लौटकर नहीं आया जो फ़ौज ज्वाइन करने से पहले था। गुंड गाँव से चंडीगढ़ पोस्टिंग हुई, लेकिन कुछ तार अभी भी जुड़े हैं रूबीना से। अभी भी चेष्टारत हैं सन्दीप कि रूबीना को चंडीगढ़ ले आएँ, पर कैसे? वह अपनी ज़िद से इंच भर हिलने को तैयार नहीं और पिछले आठ-नौ महीनों से तो उसने सन्दीप के पत्रों और फोन तक का जवाब नहीं दिया है। परेशान हैं सन्दीप।
रात फिर खुली डायरी - कुछ अतीत ऐसे होते हैं जो बीतकर भी व्यतीत नहीं होते।
कुछ उद्देश्य ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ स्वप्न बनकर ज़िन्दगी भर कसक देते हैं। कुछ प्रतीक्षाएँ ऐसी होती हैं जो कभी सम्बन्धों में नहीं ढल पाती।
कौन जाने क्या होगा इस कहानी का पटाक्षेप?
क्यों नहीं किया उसने पिछले आठ महीनों से मुझसे सम्पर्क? क्या कभी कामनाओं के बादल बरसेंगे मेरे मन की मुँडेर पर भी? अनमने से फिर बैठ जाते हैं सन्दीप लैपटॉप पर। मेल चेक करने के लिए वेबसइईट खोलते हैं कि आँखें चमक जाती हैं - सामने सिद्धार्थ का ई- मेल। दम साधे पढ़ते हैं इसे -
भाई,
डेढ़ महीने चीन रहकर पिछले सप्ताह सीमा वापस भारत लौटी। ऑफ़िस के किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में गयी थी वह वहाँ। आते ही मैंने देखा, उसके चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी। एकदम बुझी-बुझी-सी रहने लगी थी वह। दिन भर अपने पलंग पर लेटी सीलिंग पंखे को ताक़ती रहती। यह क्या हुआ? मैं घबरा-सा गया। जिसकी ज़िन्दगी इतनी तेज़ घूमती थी कि कई बार एक दिन में वह चार-चार महानगर की हवा खा लेती थी वह पूरे चौबीस घंटे पलंग से नीचे नहीं उतरी। क्या कुछ अनहोनी घट गयी उसके साथ? मैंने उससे बार-बार पूछना चाहा पर वह गुमसुम थी। एकदम सुन्न। एकदम हताश। पराजित एवं ध्वस्त।
दूसरे दिन मैं उसे उसी भयंकर अवसाद की हालत में डॉक्टर के पास ले गया। फेमिली डॉक्टर ने कहा आप तुरन्त न्यूरोलॉजिस्ट के पास ले जाइए। न्यूरॉलाजिस्ट ने बताया कि वह सैरिब्रलएट्रोजी की शिकार हैं, यानी उसके दिमाग़ की कोशिकाओं का क्षरण तेज़ी से हो रहा है। पर ऐसा कैसे हुआ? मैं जानने को छटपटा रहा था।
डॉक्टर ने बताया कि बढ़ते तनाव, अन्धे भोग एवं आधुनिक जीवन शैली के चलते युवक-युवतियाँ इसके शिकार हो रहे हैं।
पर हमें कोई ऐसा तनाव नहीं है, हम दोनों अच्छी नौकरी में है।
डॉक्टर ने फिर सहानुभूति से मुझे देखते हुए कहा, अत्यधिक, कृत्रिम और तेज़ जीवन शैली के चलते तीस वर्ष की उम्र में ही इन्हें 'मेनोपॉज' हो गया है, इस सदमे को ये सह नहीं पायी, इसीलिए...।
क्या बताऊँ भाई, याद है, जिस समय मैंने सीमा का प्रोफाइल आपको बताया था, आपने झिझकते हुए मुझसे कहा था कि मैं इतनी हाई प्रोफाइल वाली लड़की से शादी न करूँ, क्योंकि यदि पति-पत्नी दोनों ही भयंकर रूप से व्यस्त रहेंगे तो बच्चे अपराधी हो जाएँगे। आपकी चिन्ता व्यर्थ हो गयी, भैया...। अपनी ज़िन्दगी में हम सन्तान का मुँह नहीं देख पाएँगे, अब तो उम्मीद सिर्फ़ आप लोगों से हैं कि माँ को दादी बनने का सुख नसीब हो।
ई-मेल पढ़ अन्तर्मन आर्त्तनाद कर उठा सन्दीप का - सब कुछ क्या इसी घर में होना था? दूसरी बहू का ठिकाना नहीं और पहली बहू के साथ यह हादसा। फलने-फूलने के पहले ही बाँझ हुई कोख। दोष किसका? जाने कितनी बार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से कहना चाहा था उन्होंने सीमा को, सिद्धार्थ को कि जीवन स्टाइल पर नहीं, जीवन पर ध्यान दो। पिछले दिनों ही पढ़ा था एक आर्टिकल कि अति आधुनिक जीवन शैली युवकों को समय पूर्व ही नपुंसक बना रही है। क्या यही है कलियुग? समय पूर्व ही सूख रही है नदियाँ, घट रहे हैं सरोवर।
रात खाना नहीं खाया गया उनसे। बॉस से दस दिनों की छुट्टी के लिए बात की और दूसरे दिन ही पहुँच गये सिद्धार्थ के पास मुम्बई में।
वही घर। वही मुम्बई। वही सिद्धार्थ और सीमा, पर जैसे सब कुछ बदला हुआ था।
सब कुछ वही था।
पर स्वप्नविहीन था।
न हवा थी, न घूप थी।
न चाँद था न आसमान था।
न चिड़ियाँ थीं, न दीवारों पर छिपकलियाँ।
थी केवल बुझी-बुझी सी सीमा और उदासी जो ख़ास सहेली की तरह उससे लिपटी थी और जिसकी मुहब्बत पल-प्रतिपल फैलती जा रही थी और फैलते-फैलते इतनी फैल गयी थी कि चन्दोबे की तरह तन गयी थी पूरे घर पर।
कितना चाहा था सन्दीप ने कि वह बात करे उम्मीदों की, हौसलों की, भरोसों की, पर जैसे उम्मीद और हौसले घर के कोने में मुँह छिपाए सिसक रहे थे।
कितना चाहते थे सन्दीप कि सान्त्वना दे सीमा को, पर जाने कैसा तो संकोच था कि आड़े आ जाता। छोटी बहन सी सीमा और हादसा असमय आ धमके मीनोपॉज का।
दिनभर मन की मुँडेर पर जब तब आ धमके स्मृतियों के कबूतरों को उड़ाते रहते। घर की छोटी-मोटी व्यवस्था में हाथ बँटाते रहते। किसी प्रकार बीते आठ दिन और एक फीकी सुबह 'सब ठीक होगा' का सूखा औपचारिक आशीर्वाद और अपनी बची-खुची नींद और चैन देकर लौट गये वे।
फिर चंडीगढ़
पर वापस आकर भी क्या पूरी तरह वापस लौट पाए वे। जाने क्यों लगता है कि आत्मा का एक अंश वहीं छूट गया, भाई के पास। काम करते-करते मन के स्क्रीन पर रह रह कर कौंध जाती है उदासी से भरी सीमा की आँखें और रौंदी हुई फसल की तरह जगह-जगह से धचके खायी हुई उसकी देह। लैपटॉप को परे खिसका देते हैं सन्दीप। आँखें पीछे घूम जाती हैं और देखने लगती हैं पीछे फैले समय को।
उफ़! क्या यह वही सीमा है जिसकी रग-रग में ज़िन्दगी चिड़िया की तरह चहकती थी। चंचल पहाड़ी नदी की तरह जो पल-पल उद्दाम वेग से बहती थी। वही सीमा आज किस प्रकार पंख टूटी चिड़िया की तरह औंधी पड़ी है। क्यों हुआ ऐसा? क्या उबर पाएगी वह इस सदमे से? जितने दिन रहे सन्दीप मुम्बई, एक दिन भी बैठा नहीं देखा उन्होंने सीमा को।
क्यों हुआ ऐसा? क्या इसीलिए कि दोनों जी नहीं रहे थे, वरन ज़िन्दगी को तेज़ी से निगल रहे थे। जितने वेग से बही उतने ही झटके से लगी ब्रेक।
कहाँ हुई चूक। हर कोई यही पूछ रहा है सन्दीप से।
सिद्धार्थ। सीमा। शेखर बाबू
क्या जवाब दे सन्दीप! कहीं न कहीं ख़ुद उसकी ज़िन्दगी पूछ रही है उससे यही सवाल 'कहाँ हुई चूक?'
उसने देखा था सिद्धार्थ को - रात-रात पढ़ाई करते। परीक्षा की तैयारी में घानी के बैल की तरह जुटते। फिर सफल होते। आगे बढ़ते। देश की क्रीमी लेयर बनते। और फिर दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सेल्स टार्गेट को पूरा करने के लिए दिन-रात मरते खपते। और लगभग यही हाल था सीमा का भी। सप्ताह के पाँचों दिन कम्पनी के खाते में। इसी चिन्तन में कि कम्पनी का मुनाफ़ा कैसे बढ़ाएँ? रेड़ मार आगे बढ़ने का दबाब। कुछ न कर पाने पर प्रोमोशन न होने का ख़ौफ़। देश की क्रीमी लेयर की कमाई राजा की तरह पर जीवन गधे की तरह। न खाने की सुध। न सोने की। दिन भर कान में मोबाइल। आँखों के आगे लैपटॉप और दिमाग़ में कम्पनी।
याद आ रहा है पिछली बार जब मिलने गये थे भाई से तो आधे घंटे के लिए भी पास नहीं बैठ पाया था भाई। उन दिनों पीठ और कमर में ज़बरदस्त दर्द था सिद्धार्थ के, शायद दिन भर झुककर लैपटॉप पर काम करने के चलते। पर इतना भी समय नहीं था भाई के पास कि डॉक्टर के दिये सारे परीक्षण करवा पाए। बस पेन किलर खाता, इंजेक्शन लेता और निकल जाता काम पर।
किस महान काम के लिए गला रहा है तू अपने को... पूछना चाहा था सन्दीप ने भाई से। पर पूछता किससे? भाई तो हर वक़्त यह जा, वह जा।
अब कैसे समझाया जाए सीमा को? माना, जो गया वापस नहीं लौटाया जा सकता, पर जो बचा है उसे तो सुन्दर बनाया ही जा सकता है। ठीक है, नहीं जन पाएगी बच्चा पर माँ तो वह अब भी बन ही सकती है। क्या कभी भूल पाएँगे वे डॉ. महेश वाडवानी को जिनका सपना है सौ बच्चों का पिता बनना।
पत्नी के देहान्त के बाद 48 वर्षीय निस्सन्तान महेश जी संसार से विरक्त होकर उद्भ्रान्त से इधर-उधर भटकने लगे थे। कुछ दिन शराब, टीवी और सट्टेबाजी का दौर भी चला। एक दिन मन की इसी उखड़ी-उखड़ी स्थिति में कानपुर स्टेशन पर खड़े-खड़े आलू-पूरी खा रहे थे। खाने के बाद ज्यों ही पत्ते के दोनों को फेंका एक बच्चा उस पर झपट पड़ा और पत्ते पर लगे अवशिष्ट को कुत्ते की तरह चाटने लगा। बस वही क्षण बन गया उनके जीवन का शाश्वत क्षण। उस एक क्षण ने समझा दिया उन्हें जीवन का मर्म। अपने अवशिष्ट दम-खम के साथ अपने अवशिष्ट जीवन को उन्होंने भूखे-नंगे बच्चों को समर्पित कर दिया। कड़ी मेहनत और संचित पूँजी से निवेदिता आश्रम की स्थापना की। बाद में कई और हाथ उनसे जुड़ते गये। आज बाईस अनाथ आदिवासी बच्चे इनके आश्रम में हैं और उनका स्वप्न है सौ बच्चों के पिता बनने का।
काश! सीमा के जीवन में भी आ जाए कोई ऐसा क्रान्तिकारी मोड़। कोई टर्निंग प्वाइंट!
भीतर उठ रही है एक प्रार्थना! जुड़ रहे हैं हाथ!
धीर -धीरे लहरें सम पर आ रही हैं। मनस्थिति सामान्य हो रही हैं।
अपने चेम्बर में बैठे कुछ ज़रूरी दस्तावेज देख रहे थे कर्नल सन्दीप कि पोस्टमैन ने एक मोटा-सा लिफ़ाफ़ा पकड़ाया। लिफ़ाफ़े पर भेजनवेाले का नाम देख जहाँ आँखें चमकीं कि क्षण भर में ही उस चमक पर धुआँ पसर गया। लिफ़ाफ़ा किश्तवाड़ा जेल से भेजा गया था। धड़कते दिल से खोला। ख़त रूबीना का था। उर्दू में लिखे पत्र को अनुवाद करवाने में, अनुवादक को खोजने में कई घंटे लग गये। इस बीच जाने कितनी बार मर-मर कर जिये सन्दीप। अनूदित पत्र इस प्रकार था,
सलाम वालेकुम सन्दीप,
मैंने ज़िन्दगी को समझने में भारी भूल की। मैंने तुम्हें समझने में भूल की। और तो और, कश्मीर की आज़ादी को, इस्लाम को, सबकुछ को मैंने समझने में भारी भूल की। मेरा आज तक का इतिहास सिर्फ़ भूलों, छलावों और यातनाओं का ही इतिहास है। तुम इस लिफ़ाफ़े पर जेल का पता देख घबराना नहीं, मुझे सिर्फ़ उस अपराध के लिए जेल दिया गया है, जो अपराध मैंने किया ही नहीं। तुम्हें जानकर ताज्जुब होगा कि मुझे घर में आतंकवादियों को पनाह देने के अपराध में जेल में डाल दिया गया है। यह सब कैसे हुआ, कैसे मेरे सख़्त विरोध के बावज़ूद हुआ। इस सारी कहानी के बीज शायद उसी दिन पड़ गये थे जब ज़मील भाई को हिन्दुस्तानी फ़ौज द्वारा मार डाला गया।
तुम तो जानते हो कि ज़मील भाई की शहादत के बाद घर के चप्पे-चप्पे पर किस प्रकार ख़ौफ़, बर्बादियों, आँसुओं और उदासियों की कहानी लिखी गयी। अम्मी का तीन महीने के भीतर ही इन्तकाल हो गया। अम्मी के बाद अब्बू भी अधिक दिन जी नहीं सके। घर पर अब मैं और हमीद थे और थी भूख, बेकारी, और हताशा। ऐसे में एक मैली सुबह अब्दुल रशीद हमारे घर आया, उसने हमीद की हथेली पर ढेर सारे नोट रखे, और उसे सुझाव दिया कि यदि हमीद अपने घर के अन्दर जिहादियों के लिए तहख़ाना बनवा ले तो इतने पैसे उसे नियमित रूप से मिल सकेंगे। मैं पूरी ताक़त से अपने अस्तित्व के अंश-अंश से चिल्लायी कि हमें पाप की कमाई नहीं खानी, जिस घर की दीवारें एक नहीं तीन-तीन लाशें देख चुकी हैं, उस घर में ऐसा हर्गिज नहीं होगा। पर भूख के पास न धैर्य होता है न विवेक। मैंने देखा भूख आदमी से बड़ी थी। भूख पाताल से गहरी थी। भूख सूर्य से भी तेज़ थी जिसका सामना यथार्थ की आग में झुलसा हमीद नहीं कर सका। मेरी एक नहीं सुनी। वरन मुझे ही समझाया कि पुलिस को ज़रा भी शक नहीं होगा और यूँ भी गाहे-बगाहे आतंकी हमारे यहाँ आकर ठहरकर हमें परेशान कर ही रहे थे, क्या हर्ज़ यदि साथ में नियमित रूप से कुछ पैसे भी हाथ में आ जाएँ। भूख का इतना डरावना और दयनीय रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। कीड़े की तरह बिलबिलाती मेरी पीड़ा को कीड़े की तरह ही मसलकर भाई ने भुखमरी से मोर्चा लेने की ठानी।
कुछ सप्ताह में तहख़ाना बनकर तैयार हो गया। मैं अम्मी के इन्तकाल के बाद तुम्हें दिये वचन के अनुसार नियमित रूप से स्कूल जाने लगी, अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने लगी। मुझे उम्मीद थी कि अगले वर्ष मुझे कॉलेज में दाख़िला मिल जाएगा। एक दोपहर मैं जैसे ही स्कूल से लौटी कि हमीद ने मुझसे कहा, पाँच आदमियों का खाना बना दे। मैं भौंचक्क, पर मुझे समझते देर नहीं लगी कि उसे उसके तहखाने में छिपे चार आतंकवादियों के लिए खाना चाहिए। मुझ पर बिजली गिरी। मैंने सख़्ती से मना कर दिया कि किसी भी हालत में किसी भी क़ीमत पर यह मुझसे नहीं होगा। आधे घंटे तक शोर-शराबा हुआ पर मैं टस से मस नहीं हुई। आख़िरकार पाँव पटकता हुआ वह बाहर से खाना लाने चला गया। मैं पढ़ने में ध्यान लगाने लगी कि तभी किसी ने पीछे से मेर मुँह में रूमाल ठूँस दिया। मुझे चार बलिष्ठ हाथों ने पकड़ा और घसीटते हुए मुझे नीचे तहख़ाने ले गये और वहाँ बारी-बारी से...।
हमीद ने दीवारों से सिर पीट-पीट ख़ुद को लहूलुहान कर लिया। उसने पाँव पकड़ मुझसे माफ़ी भी माँगी। जिल्लत और अपमान के घूँट को पीकर भी मैंने पढ़ाई जारी रखनी चाही, पर हमीद पर अवसाद का इतना भयंकर दौरा पड़ा कि उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। इस बीच जाने किस ख़बरिया ने मोटी रकम के लालाच में पुलिस को ख़बर कर दी और 3 अक्टूबर 2008 की एक शाम हमारे घर पर छापा पड़ा और मुझे और हमीद को गिरफ़्तार कर किश्तवाड़ा की जेल में डाल दिया गया।
सन्दीप, आज जब ज़िन्दगी हाथ से निकल गयी है तो समझ पायी हूँ कि मैंने ज़िन्दगी को समझने में कितनी भूल की। जिस समय ज़िन्दगी तुम्हारे रूप में बाँह फैलाए मुझे अपने आगोश में बाँधने को तत्पर थी, मैंने तुम्हें ठुकराया क्योंकि मुझे लगता था कि हमारी तबाही के लिए हिन्दुस्तानी सरकार और फ़ौज ज़िम्मेदार है, पर मेरे साथ जो कुछ हुआ वह किसी फ़ौज या हिन्दुस्तानी ने नहीं किया, वरन हमारे अपनों ने किया। ख़ुद जिहादियों ने किया। मुझे अफ़सोस, गहरा अफ़सोस है कि मैंने तुम्हारा यक़ीन नहीं किया। कितना समझाया था तुमने मुझे कि कश्मीर को समझने के लिए मुझे 1947 से आज तक की राजनीति के लम्बे, छिपे खेल और षड्यन्त्र को समझना होगा, कि अच्छा होगा कि हम कश्मीर की आज़ादी और जिहादियों के सवालों को अफ़ीम पिलाकर सुला दें और दो अच्छे इनसानों की तरह एक हो जाएँ, ज़िन्दगी का राग दुबारा छेड़ें। पर ज़िद्दी पौधे-सा मेरा मन तुम्हारे दलीलों की माटी में नहीं जमा सो नहीं ही जमा।
उस समय जाने क्यों मुझे लगा कि तुम्हारे भीतर से एक प्रेमी नहीं, वरन एक हिन्दुस्तानी बोल रहा है जो अपनी आत्मिक शान्ति के लिए, प्रायश्चितस्वरूप मेरा वरण करना चाहता है। क्योंकि तब हिन्दुस्तानी फ़ौज के लिए हमारे दिल में नफ़रत सुलगती थी, पर तब भी पुलिस तो हमारी अपनी थी, उसने क्या कम जुल्म ढहाए हम पर। इतना ख़ौफ़ था उसका कि उसकी दस्तक के अन्दाज़ से हम समझ जाते थे कि यह पुलिस की दस्तक है और हमारी रूह काँप उठती थी। पर तब भी मेरी आँखों से जाला नहीं उतरा, पर आज जब किसी काफ़िर ने नहीं, हिन्दू ने नहीं, हिन्दुस्तानी फ़ौज ने नहीं, वरन अपने ही लोगों ने, कश्मीर की आज़ादी का नारा लगाने वालों ने ही वहशियों की तरह मुझे नोंच डाला तो मैं समझ पायी हूँ तुम्हारे बातों की सचाई को कि 'कश्मीर की आज़ादी और इनसान की हिफ़ाज़त कितना बड़ा भ्रम है, छलावा है जिसे कुछ विशेष लोगों ने जाल की तरह फैला रखा है। ये शैतान क्या इस्लाम को बचाएँगे जो ख़ुद औरत की इज़्ज़त से खेलते हैं और नमाजियों और दरगाहों पर ग्रेनेड फेंकते हैं। जो 'आकबत' (मरने के बाद की दुनिया) और इस्लाम की दुहाई दे देकर ज़मील भाई जैसे मासूमों को बहला बहलाकर जेहादी बना देते हैं, कश्मीर के सबसे बड़े गुनाहगार वे ही लोग हैं। 'आकबत' को किसने देखा है, पर उस अनजाने 'आकबत' के लिए जीती-जागती दुनिया को दोज़ख में धकेल देना कहाँ की बुद्धिमानी है?
आज समझ पायी हूँ सन्दीप कि कभी मिलिटेंसी पाक इरादों के साथ शुरू हुई होगी, पर आज लोग इससे ऊब गये हैं आज जिहादियों, पीरों, मौलवियों और मिलिटेंटों के दोहरे चेहरे सामने आ रहे हैं। आज आतंकवाद सिर्फ़ पैसा और रुतबा हासिल करने का ज़रिया बन गया है। ज़मील भाई जान ने भी इसी इरादे से गन उठायी होगी। हमीद के घर में तहख़ाना बनाने के बाद मुझे कई दिनों तक प्राग पहाड़ के जंगलों में छिपना पड़ गया था। मैंने देखा था वहाँ पुलिस और मिलिटेंट की साँठ-गाँठ से जंगलों को काटते हुए देवदारु के पेड़ों को गिरते हुए। जंगलों की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस वहाँ पहुँच ही नहीं रही थी जहाँ कट रहे थे जंगल।
इसीलिए देखते-देखते कश्मीर क्या हो गया? पैसा ज़रूर कश्मीर में आया, पर कैसा पैसा? फ़िजाओं में गीत नहीं, खेतों में मजदूर नहीं, स्कूलों में बच्चे नहीं, घरों में चिराग़ नहीं, चारों और नज़र आती है विधवाओं की ताज़ा फसल। हर घर के पीछे नज़र आती है एक ताज़ा क़ब्र। जश्न मनाती, शिकारे पर गाती वह कश्मीरी औरत अब कहीं नहीं दिखती। अब दिखते हैं सिर्फ़ रात के अँधेरे में रेंगते, दरवाज़ा खटखटाते जिहादी, या दिन के उजाले में गश्त लगाते बूट ठकठकाते, एके - सैंतालिस तानते हिन्दुस्तानी फ़ौजी।
सोचो, क़ब्रों से अटे, जवानी से शून्य, ख़ूनी नींव पर खड़ा आज़ाद कश्मीर मिल भी जाए तो क्या? अच्छा हो, इस मामले में हम वर्तमान की सत्यता को स्वीकार कर लें। क्योंकि कश्मीर आज एक खुला चरागाह बन चुका है जहाँ सभी ने, राजनेताओं ने, मुल्लाओं ने, मौलवियों ने, दहशतगर्दों ने, पाकिस्तान ने, और आतंकवादियों ने अपने-अपने स्वार्थों की बकरियों को चरने के लिए छोड़ रखा है। इसलिए आज हर वह चीज़ बिक रही है जिसके केन्द्र में आतंकवाद है। कोई आतंकी को पकड़वाने की फ़ीस वसूल रहा है तो कोई उससे मिलवाने की तो कोई उसे अपने घर ठहराने की। इस नापाक पैसे ने यदि हमीद की बुद्धि भ्रष्ट न की होती तो मैं आज जेल की सलाखों के पीछे न होती।
अब धुन्ध छँट गयी है। तुम्हारी आभारी हूँ सन्दीप कि तुमने मुझे जीना ही नहीं, सोचना भी सिखाया है। इसीलिए समझ पा रही हूँ कि यदि आज़ाद कश्मीर एक सचाई है तो उससे कहीं ज़्यादा सुलगती सचाइयाँ और भी हैं। यह भी समझ रही हूँ सन्दीप कि मजहब के सारे ताजिए हम ग़रीबों की देह के ऊपर ही टिके हुए हैं। मुझे मेरी अम्मी ने कभी तस्वीर तक नहीं खिंचवाने दी कि यह इस्लाम के ख़िलाफ़ है। तुमने मुझे एक बार कहा था कि मैं पीरों, मौलवियों और नेताओं के सुनने के साथ ज़रा देखना भी शुरू करूँ और यदि सम्भव हो तो थोड़ी शक की निगाह से भी देखूँ, उस दिन मुझे यही लगा था कि तुम सिर्फ़ मुझे अपने मजहब के ख़िलाफ़ भड़का रहे हो, लेकिन अनजाने ही मैं सुनते-सुनते देखने भी लगी। मैंने देखा कि तस्वीर खिंचवाने के ख़िलाफ़ फतवे जारी करनेवाले मुल्ले, मौलवी बड़े चाव से राजनेताओं के साथ न केवल तस्वीर खिंचवा रहे हैं, वरन उन्हें अख़बारों में छपवा भी रहे हैं। जब मैं मदरसे में थी तो हमारे मुल्लाओं ने लाऊडस्पीकर को 'आला एक शैतानी' यानी शैतानी यन्त्र कहकर उसका पुरजोर विरोध किया था लेकिन आज मुल्ले, मौलवियों की आवाज़ सरेआम लाउडस्पीकरों पर गूँजती रहती है। इन मुल्लाओं और मौलवियों से बढ़कर पाखंडी कोई नहीं है। ये तो रक्तदान और सर्जरी को भी इस्लाम के ख़िलाफ़ ठहरा चुके हैं। बैंक के सूद और जीवन बीमा के ख़िलाफ़ भी फ़तवा पहले ही निकल चुका है। लेकिन सारे जिहादियों और नेताओं के बैंक में खाता है। मेरी आँखें अब खुल गयी हैं। मुझे अब इस्लाम से नहीं, वरन इनसान से प्यार है।
सन्दीप, भाई जान की शहादत के बाद जब तुम दूसरी बार हमारे घर आये थे, सूरज की किरणें हलके-हलके ढुलक रही थीं तुम्हारे चेहरे पर, तभी - तभी दिल से हलकी-सी आवाज़ निकली थी कि ऐसी रूह दूसरों के दुख से इस क़दर ढह जानेवाली रूह हत्यारिन नहीं हो सकती।
काश! उसी समय सुन ली होती मैंने अपने भीतर की आवाज़!
तुमसे गुजारिश है सन्दीप कि तुम फ़ौज से मुक़दमा वापस ले लो। क्योंकि अब यह शादी मुमकिन नहीं।
क़ाश! समय रहते मैं तुम्हें समझ पाती। तुम्हारी लय, ताल और सुर के साथ जुड़कर ज़िन्दगी के अर्थ को समझ पाती। मैंने तुम्हें समझने में भूल की ऐसी भूल जो कालिख की तरह मेरी ज़िन्दगी पर पुत गयी। आज अपने सारे सपनों और चाँदी को लुटा चुकी हूँ मैं। परिवार को तो पहले ही गँवा चुकी थी। तीन-तीन लाशों का बोझ ढो चुकी यह ठंडी ठस्स और नापाक हुई काया आपके लायक बची भी कहाँ है? मेरे भीतर यदि अब कुछ है तो बस एक भयावह ख़ालीपन। न दुख, न सुख। न ख़्वाब, न खयाल न गति, न आवेग। सारे एहसास मर चुके हैं।
अब कोई तसव्वुर (सपना) नहीं बचा भीतर।
बस फना होने को, माटी में मिल जाने को जी चाहता है।
नहीं जानती कि तुम कौन हो? ख़ुदा के रूप में बन्दे हो या बन्दे के रूप में ख़ुदा। ख़ैर... जो भी हो इसे मेरा आख़िरी पत्र समझना और मुझसे मिलने की चेष्टा अब कभी मत करना। जो कुछ आधे-अधूरे पल साथ-साथ गुज़ारे हमने, वही हमारी कहानी है, अमानत है।
अलविदा,
तुम्हारी रूबीना
ओह ज़िन्दगी!! ज़िन्दगी के उदास पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। क्या है ज़िन्दगी? सिर्फ़ कुछ स्मृतियों का सफ़र? कुछ आवेग? और कुछ काँपते-थरथराते पल। हैरत भरी कहानी? उदास लमहे! नहीं, ज़िन्दगी इससे बहुत ऊपर है। आँख मूँदे टेबिल से सिर टिकाए सोच रहे हैं सन्दीप। क्या चाहा था उन्होंने ज़िन्दगी से, सिर्फ़ यही कि तिरंगे और ज़िन्दगी को सजा सके। पर न तिरंगे को सजा सके न ज़िन्दगी को। दोष किसका? कहाँ हुई भूल उनसे? क्या ज़िन्दगी को समझने में भूल की उन्होंने? या रूबीना को अपने खयालों में, अपने सपनों में शामिल कर भूल की उन्होंने? नहीं, वे ऐसा नहीं मानते। रूबीना ख़ुद व ख़ुद शामिल हो गयी उनकी ज़िन्दगी में, ख़्यालों में। पर क्या वे दावा कर सकते हैं कि रूबीना को पूरी तरह समझ लिया है उन्होंने, पढ़ लिया है ग़ज़ल की उस किताब का पृष्ठ-दर-पृष्ठ। नहीं, वे सिर्फ़ इतना भर जान पाए हैं कि रूबीना उससे कहीं आगे हैं, कुछ और भी है पर वहाँ तक पहुँच नहीं है उनकी। तभी तो रूबीना ने उन्हें अपनी दुगर्ति की सिर्फ़ आधी कहानी ही लिखी, आधी छिपा गयी। सच्चाई किसी बिजली की तरह ही गिरी थी सन्दीप पर जब अपने फ़ौजी दोस्त मेज़र अमर प्रताप सिंह की मार्फ़त पता चला था कि रूबीना ने सप्ताह भर पूर्व ही जेल में एक नाज़ायज बच्चे को जन्म दिया है।
सिर झुकाए आँखें मूँद बैठे हैं सन्दीप। बन्द आँखों के भीतरी पर्दे पर काँपने लगती है रूबीना की आँखें, जब पहली बार ग़ौर से देखा था उन्होंने रूबीना को, जब बताया था उसे कि उसके भाईजान मिलिटेंट बन चुके हैं, कितनी भयभीत हो गयी थी वे आँखें, जैसे सारी सृष्टि की वेदना समा गयी हो उन आँखों में। नहीं भूल पाते हैं वे उन आँखों को जो सृष्टि की सबसे उदास आँखें थी।
ओह ईश्वर!
इतना ही कुछ काफ़ी नहीं था कि इस सिसकती ज़िन्दगी पर एक और गाज गिरा दी। पर नहीं, वे हिम्मत नहीं हारेंगे। लाख रूबीना लिखे कि ज़िन्दगी से उसे कोई उम्मीद नहीं, पर वे ख़ुद को और रूबीना को उम्मीद से और ज़िन्दगी से जोड़ कर रखेंगे। रूबीना के बच्चे को बाप का नाम प्यार और संरक्षण देंगे। अपनी माँ को दादी बनने का सुख! पर सबसे पहले वे रूबीना के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ेंगे।