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कविता

डॉ. भीमराव आंबेडकर उर्फ बाबा साहब

लोकनाथ यशवंत

अनुवाद - शैलेन्द्र चौहान


असंख्य मनुष्यों का क्रुद्ध समूह
मुख्य मार्ग पर लुढ़कता हुआ आया
उन्होंने शहर में मूर्तियाँ तोड़ना शुरू किया
किसी का सर फोड़ा, किसी को पूरा ध्वस्त कर दिया
किसी को जमीन पर पटका और किसी को विरूप किया
अंतिम क्षण
वे मेरी मूर्ति के पास आए

क्रुद्ध समूह से
एक व्यक्ति दबे पाँव आगे आया
और
बिना किसी श्रम के
उसने मेरी दिशा दिखाने वाली उँगली
उसी क्षण तोड़ डाली


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