2.
बुद्धू एक हाथ में सूटकेस व दूसरे में एयरबैग थामे कंधे से उस दरवाजे को लगातार अंदर धकेल रहा था, ताकि पूरा खुल जाए। उसने देखा अंदर कमरे में एक तगड़ा सा पहाड़ी
किस्म का व्यक्ति बनियान अंडरवियर में गहरी नींद में सोया था। उसके खर्राटों से कमरे की हवा में खलबली सी थी। सुबह के पौने छ ही बजे थे तब। गाड़ी पाँच बजे ही आ
गई थी इस शहर, और बुद्धू अपनी इस दूसरी नौकरी पर सुबह-सुबह रिक्शे में पहुँच गया। उसे तो संयोग से इस नौकरी का ऑर्डर भी पता नहीं चल रहा था कि कैसे मिला?
इंटरव्यू या आवेदन पत्र, कम से कम उस समय याद नहीं आ रहा था। उसने दरवाजे को जोर से धक्का दिया तो अचानक वह पहाड़ी व्यक्ति जग गया और छलाँग मार कर चारपाई से नीचे
खड़ा हो गया।
बुद्धू ने कहा - 'हैलो!'
उस व्यक्ति का नाम मांडियाल था और वह यहाँ, इस छोटे से दफ्तर का फिलहाल इंचार्ज बना हुआ था। अब बुद्धू यहाँ का इंचार्ज होगा। कुल जमा तीन व्यक्ति। बुद्धू,
मांडियाल और एक लैब असिस्टेंट दुनीचंद।
मांडियाल ने अधुखुली आँखों से ही कहा - 'आ गए आप? मैं तो स्टेशन आ ही रहा था आपको देखने। गाड़ी पहले ही आ गई क्या?'
'कोई बात नहीं,' बुद्धू ने कहा तब तक मांडियाल ने उसका सूटकेस अंदर कर दिया और बुद्धू ने भी अपना एयरबैग दीवार से लगा लिया। मांडियाल यह कहकर सो गया कि कुछ देर
बाद चलेंगे दफ्तर। बुद्धू के लिए भी यह अच्छा मौका था। जिस तरह कानपुर की नौकरी ज्वाइन करने के इंतजार में वह रात भर होटल में जागता रहा था, उसी तरह यहाँ भी
दिल्ली से पंजाब के दसुआ तक गाड़ी में रात भर जागता ही रहा कि नौकरी ज्वाइन करे। कानपुर की नौकरी के दिन उसे रात भर याद आते रहे। सुजाता की बातें सोचते-सोचते
बुद्धू भी जल्दी ही सो गया और दो घंटे बाद दोनों जागे।
यहाँ जगह अच्छी थी। शाम को तो मांडियाल बुद्धू को खेतों की तरफ ले गया। चारों तरफ लहलहाते खेत। पंजाब तो खेती के लिए मशहूर है ही। मांडियाल बोला - 'यहाँ तो सारा
काम एक-दो घंटों में ही निपट जाता है। तीन जने हैं हम। दुनीचंद, मैं और आप। दुनीचंद से मिले न आप?'
'हाँ। आपने ही तो मिलवाया था। काफी देर तो हम बैठे रहे दफ्तर, फिर खाना-खाने चले गए तो वही तो दफ्तर सँभालता रहा।'
'ह्म्म्म!' मांडियाल की तो 'ह्म्म्म' भी तगड़ी है। पहाड़ी आदमी है! अपनी होशियारी हर समय जताता रहता है। बुद्धू से बोला - 'यहाँ कोई जरा कह दे आपको, मुझे बताना।
हड्डियाँ तोड़ दूँगा बहन के यार की!' 'बहन के यार की!' बुद्धू को यहाँ की यह गाली बहुत अजीब लगी। मांडियाल बार-बार यही गाली दिए जा रहा था। सुबह नौ बजे जाग कर वे
दोनों दस बजे दफ्तर पहुँच गए थे। सारा दफ्तर बुद्धू को दिखाकर मांडियाल बोला - 'बस, इन्हीं चार कमरों में हमारा दफ्तर सिमटा है। सारा टेक्निकल डेटा है। कोई बड़ी
बात हो तो टेलीग्राम कर दो। यहाँ सिर्फ दो फाइलें हैं। एक आने वाले पत्रों की, एक जाने वाले पत्रों की।' बुद्धू को दो-तीन बातों पर हँसी आ रही थी। एक तो उसने
सोचा कानपुर में जबान-जबान पर एक ही गाली चलती थी - बेटीचोद। कोई-कोई दफ्तर में भी उछाल देता था। तब महिलाएँ गर्दन उठाकर उस व्यक्ति को सहसा घूर-घूर कर देखने
लगती थीं। यहाँ तो सुबह-शाम मांडियाल यही कहता रहता है - 'ये सरदार बड़ा झगड़ालू है बहन का यार!' मांडियाल ने उसे बताया कि 'यहाँ से जो भी पत्र जाते हैं, वे
कॉपींग-पेंसिल से लिखे जाते हैं या बॉल पेन से। नीचे कार्बन पेपर रख दो। ऑफिस कॉपी उसी से बन जाती है। उसे यहाँ जाने वाले पत्रों की फाइल में लगा दो। फिर
मांडियाल ने दफ्तर का रेडियो चला दिया। दफ्तर का काम कुछ ऐसा है कि रेडियो भी मुफ्त मिला हुआ है। काम पूरा करके रेडियो सुनते रहो। सामने ही फ्रीज है। ठंडा पानी
पियो और गाने सुनो - 'ओ लछमी छाया, ओ लछमी छाया...' मांडियाल कुर्सी पर टेढ़ा-मेढ़ा बैठ जाता और पाँव ऊपर चढ़ा कर टेबल पर रख देता। दुनीचंद बड़ा शरीफ सा था, सो थोड़ा
अलग बैठ जाता, वर्ना उसकी कुर्सी मांडियाल की कुर्सी के एकदम सामने थी और दोनों की कुर्सियों के बीच मांडियाल की टेबल। दुनीचंद अपने बारे में बताता रहा कि वह तो
पठानकोट का है और उसकी फैमिली पठानकोट में है। यहाँ उसे क्लास फोर का क्वार्टर मिला हुआ है। यहाँ पहुँचने वाले दिन ही मांडियाल ने एक काम अच्छा किया कि यहाँ से
एक बस में बुद्धू को जालंधर ले गया। वहाँ कोई सी.पी.डब्लू.डी. का ऑफिस है जो यहाँ क्वार्टर अलॉट करता है। मांडियाल फुर्ती न दिखाता तो बुद्धू को शहर जा कर कोई
घटिया-सटिया कमरा किराए पर लेना पड़ता। मकान मालिक की सुननी पड़ती सो अलग। यहाँ सीधे तनख्वाह में से ही तैंतीस रुपये कट जाएँगे। मांडियाल बोला - 'सर, यहाँ तो
क्वार्टर के लिए ही मारामारी करनी पड़ती है। हमारे दफ्तर के साथ में जो सी.पी.डब्लू.डी. का ऑफिस है, उसके ओवरसियर बड़े बदमाश हैं बहन के यार।' बुद्धू ने कहा -
'यहाँ आज अप्लाई कर दिया, सो कब तक क्वार्टर मिलेगा?'
'तीन दिन तक मिल जाएगा, आप चिंता करते ही क्यों हो? नहीं तो मैं आ कर इन सब की फाड़ के रख दूँगा बहन के यारों की।'
बुद्धू चुप रहा तो मांडियाल बोला, 'जब तक क्वार्टर नहीं मिलता, तब तक आप लात लंबी करके मेरे यहाँ सोओ।'
'ठीक है,' बुद्धू आश्वस्त था। पर तीसरे ही दिन बुद्धू अचानक एक मुसीबत में सा फँस गया। वह क्वार्टर में मांडियाल की चारपाई के साथ वाली चारपाई पर झपकी मार रहा
था। लगभग चार बजे का समय था। दफ्तर तो तीन बजे बंद।
मांडियाल सुबह-सुबह अपना बैग सँभाले निकल गया, बोला - 'यहाँ कभी भी मुझे घर जाना हो तो छुट्टी की एक ऐप्लीकेशन टेबल पर धर जाता हूँ। दो-चार दिन अपने गाँव हो आता
हूँ। फिर आ कर उसी ऐप्लीकेशन की फाड़-फूड़ कर रामनाम सत कर देता हूँ।'
बुद्धू को खूब हँसी आई - 'फिर ऐप्लीकेशन लिखने का फायदा?'
'अरे सर आप तो समझते ही नहीं न। नए-नए हैं, सो यहाँ के तौर तरीके सीख जाएँगे आप। इसे कहते हैं फर्लो!'
'फर्लो?' बुद्धू की कुछ समझ ही नहीं आया। 'फर्लो क्या होता है डियर मांडियाल?'
'ह ह...' उस समय दुनीचंद आ गया था और मांडियाल से चाबी लेकर दफ्तर का ताला खोल रहा था। ताला खोलते-खोलते वह गर्दन को नीचे की तरफ करके पीछे मोड़कर बुद्धू को भी
देखता जा रहा था और मुस्करा कर आकलन कर रहा था कि बुद्धू आखिर कितना बुद्धू है। मांडियाल बोला - 'मतलब छुट्टी वेस्ट करने की जरूरत ही नहीं है! दो-तीन दिन घर हो
आओ और आ कर हाजिरी लगा लो। फर्ज करो अगर अचानक हेडक्वार्टर से कोई शनीचर सा आ धमके तो उसे छुट्टी वाली अर्जी दिखा दो। कहो जी वो तो अचानक काम पड़ गया और छुट्टी
चला गया है!'
बुद्धू रात भर क्वार्टर में अकेला सो रहा था तो कई बाते उसे अजीब-अजीब सी लग रही थीं। फर्लो और बहन का यार। ये नए शब्द उसकी समझ में आ कर भी नहीं समझ आ रहे थे।
रात कुछ देर आ कर दुनीचंद बैठा था, फिर चला गया। सुबह बुद्धू ने उठकर चाय मांडियाल के किचन में ही बना ली। फिर दफ्तर आया। दफ्तर का काम निपटा लिया। दुनीचंद
सचमुच बहुत भले स्वभाव का आदमी था। शाम के चार बजे थे और बुद्धू मांडियाल के साथ वाली चारपाई पर अकेला सो गया था। यहाँ का ढाबा-वाबा उसने देख लिया था। खूब
मुर्गा खाने वाले लोग थे। दाल तड़का और तंदूर की रोटी। चार बजे अभी बुद्धू की आँख लगी ही कि दरवाजे पर खटखट हुई। बुद्धू झपकी से जाग पड़ा। दरवाजे तक आया तो देखा
एक छँटा हुआ लफंगा सा वहाँ खड़ा है। बोला - 'चुपचाप लड़की लाओ वर्ना पिट जाओगे बहन के यार...!'
बुद्धू साँसत में आ गया - 'कौन सी लड़की भाई!'
'वही जो पठानकोट से भागी थी...'
बुद्धू की तो घिग्घी बँध गई - 'पठानकोट? कौन लड़की भागी थी वहाँ से? मैं तो दिल्ली से आया हूँ चार दिन पहले।' तब तक उस लफंगे के पीछे तीन और दोस्त आ खड़े हो गए।
एक कुछ शरीफ सा लग रहा था। शरीफ बोला - 'आप यहाँ के इंचार्ज नहीं हो?'
'हाँ मैं ही हूँ इंचार्ज। पर अभी तीन दिन पहले ही तो चार्ज लिया है!' वे लोग आपस में खुस-फुस करने लगे। लफंगा बोला - 'पहले वाला इंचार्ज भाग गया बहन का...?'
'गाली मत दें आप,' बुद्धू में हिम्मत आ गई तो खुश सा हो गया। वह भी रोब जमा सकता है। बोला - 'आप लोग चलो, सामने ही दफ्तर है। मैं वहीं आता हूँ।' और क्वार्टर के
बाहर ही दफ्तर था, कुछ देर बाद बुद्धू वहीं आ गया और दफ्तर का ताला खोलकर अपनी सीट के सामने की कुर्सियों पर चारों को बिठा दिया। फिर उसे खयाल आया, नजदीक ही
क्लास फोर क्वार्टर से दुनीचंद को बुला लाया। दुनीचंद ने उसके साथ दफ्तर पहुँचते-पहुँचते ही बताया कि 'वो लड़की, तो जी पिछले हफ्ते मांडियाल साहब के साथ आई थी और
यहीं दो रातें उनके साथ क्वार्टर में गुजार कर चली गई। कह रहे थे उनकी बुआ की लड़की है'। दफ्तर में बुद्धू को उस शरीफ आदमी ने एक फोटो दिखाई। बुद्धू फोटो देखकर
बोला - 'यह लड़की कौन है? और इस लड़की की गोद में यह बच्चा कौन है?'
दुनीचंद ने आते ही सबको बताया था कि ये तो नए इंचार्ज हैं सा'ब। बहुत नेक आदमी हैं। कोई लड़की यहाँ आई जरूर थी, पर वह तो मांडियाल साहब की बुआ की लड़की थी, जैसा
वो बताते थे'। लफंगे ने देखा बुद्धू भी शरीफ है और दुनीचंद भी। बोला 'यह लड़की इस आदमी की बहन है। यह बच्चा कोई इस मामले से मतलब नहीं रखता, यह तो इस, मंगतराम
(शरीफ आदमी) का बेटा है जिसे इसकी बहन गोद में लिए खड़ी है। यह लड़की दस दिन पहले घर से भाग गई थी। वह उस इंचार्ज की बुआ की लड़की-वड़की ना है जी।'
दुनीचंद बात को भाँप गया। बोला - 'मांडियाल साहब ने बताया बुआ की लड़की है। हमें सचमुच कुछ पता नहीं। मेरा घर तो मेन पठानकोट में है और मांडियाल सा'ब का कोई पाँच
किलोमीटर दूर है। यहाँ आने की बस पठानकोट से ही पकड़ते हैं।'
बुद्धू बोला - 'लड़की भागी तो पठानकोट से है। मांडियाल को कहाँ मिली? आपको यहाँ का पता किसने दिया?'
'सब बताते हैं। लड़की पठानकोट के बस अड्डे पर चली गई थी और एक बस में चढ़ गई थी। बस में ही वह इंचार्ज बहन का... बैठा था। इसने उसे बताया कि उसका कोई प्रेमी है जो
यहाँ टांडा स्टेशन पर काम करता है। उसके पास पहुँचाने में वह उसकी मदद कर दे।' 'और वह उसे मदद के बहाने यहाँ क्वार्टर में ले आया।'
बुद्धू ने पूछा - 'आपको किसने बताया कि मांडियाल ही मिला था उसे?'
लफंगा बुद्धू की शराफत देख हँसने लगा। तनाव में भी था, कहने लगा - 'लड़की हमें ना मिली तो हम इस इंचार्ज को जिंदा गाड़ देंगे समझे...?' फिर हँसकर बुद्धू से बोला -
'कंडक्टर ने। बस अड्डे पर बसों के कंडक्टरों से पूछताछ की मैंने। एक ने कहा कि कोई दसुआ का है जो किसी कैनाल कॉलोनी में रहता है। उसी के साथ बैठी बतिया रही थी
एक लड़की। उस कंडक्टर ने यह भी बताया कि दोनों यहीं दसुआ उतरे थे। लड़की के पास अपनी पहनी हुई ड्रेस के सिवा कुछ भी नहीं था।' बुद्धू सब कुछ समझ गया। इस कॉलोनी
में एक से बढ़कर एक उस्ताद लोग नौकरियाँ करते हैं। कैनाल का दफ्तर है। और भी दो-चार दफ्तर हैं। एस.डी.ओ. ओवरसियर, एग्जिक्यूटिव इंजीनियर... खूब माल उड़ाते हैं,
मांडियाल तो इस गरीब से लगते सरकारी ऑफिस में एक अदना सा असिस्टेंट है, वह भी लड़की के चक्कर में फँस गया! बुद्धू बोला - 'जो उसका प्रेमी टांडा में है, वहाँ पता
किया आपने?'
'हमें सिर्फ इतना पता है कि प्रेमी टांडा के बिजली दफ्तर में है। कौन है पता नहीं। हम इस इंचार्ज से पता करना चाहते थे कि वह इस लड़की को किस के पास छोड़ आया।'
बुद्धू ने तब तक फ्रीज से पानी के ठंडे गिलास निकलवा लिए। दुनीचंद को कहकर फौरन नजदीक ही एक झोंपड़ीनुमा रेस्तराँ से चाय भी मँगा ली। पर वे सब तनाव में थे।
बुद्धू बोला - 'आज रात को ही आ पहुँचेगा मांडियाल। आप लोग फिक्र मत कीजिए। मैं उस पर सीरियस एक्शन लूँगा। उसे खूब झाड़ूगा। लड़की आपको जरूर मिलेगी, मेरा मन कहता
है।' बुद्धू की बात पर सब ने केवल उसे गौर से देखा भर। सब तनाव में थे, सो फिलहाल चले गए। बुद्धू दुनीचंद से बोला - 'अपना मांडियाल ऐसा है? लड़की दो रातें अपने
क्वार्टर में रखी!' दुनीचंद बोला - 'पता नहीं जी। मुझे भी नहीं लगता। जाने क्या मामला है।' दुनीचंद सब कुछ समझ तो गया था कि मांडियाल ने लड़की की परिस्थिति का
नाजायज फायदा उठाया है, पर वह जबान से कुछ कहने से डर रहा था। मांडियाल रात को ही आ गया था। बुद्धू ने सब कुछ समझा दिया। बोला - 'अब वो सुबह सात बजे ही आ
धमकेंगे।' पर वे तो साढ़े छ बजे ही आ गए और मांडियाल का कॉलर पकड़कर बाहर घसीट कर ले गए। तीन-चार घंटे मांडियाल आया ही नहीं। दुनीचंद ने बताया कि दो-तीन ओवरसियर
उसे बचाने गए हैं जी। लड़की मिल जाए उनको भगवान करे। किसी की बेटी है वो।'
बुद्धू सिर्फ इतना ही बोला - 'कितनी गलती करते हैं ये लोग भी। यानी इनके माँ-बाप! लड़की को अगर किसी से प्यार है तो उसके लिए भागी क्यों? माँ-बाप का साथ नहीं
होगा न!' पर फिलहाल बुद्धू यहाँ दसुआ में बहुत सतर्क सा भी हो गया था।
बुद्धू एक और मुसीबत में दो महीने में ही फँस गया। यहाँ चारों तरफ इंजीनियर ओवरसियर एस.डी.ओ. भरे पड़े हैं। सी.पी.डब्लू.डी. का ऑफिस है, कैनाल ऑफिस है, एकाध
बिजली का ऑफिस थोड़ा सा दूर है। यहाँ इन क्वार्टरों और इन दफ्तरों से हाइवे थोड़ा ही दूर है, पर वहाँ तक पहुँचने में अच्छी-भली सैर हो जाती है। थोड़ी ही दूर एक
स्कूल भी है, जिस की दीवार के बाहर-बाहर से चलते रहो तो कुछ ही फासले के बाद बी.डी.ओ. ऑफिस है (ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिस')। वहीं एक मिलिट्री का गेस्ट हाउस और एक
छावनी सा लगता दफ्तर। उसके बाद हाइवे।'
बुद्धू को क्वार्टर मिल गया, जो मांडियाल के क्वार्टर के एकदम साथ था। यहाँ की एक-दो बातें और नई थी। बुद्धू को अक्सर बहुत हँसी भी आती। एक तो पुरुष लोग रात को
क्वार्टरों के बाहर भी कभी-कभी सो जाते थे। पर चारपाई पर मच्छरदानी ऐसे लगी होती कि पैरों और सिर की तरफ दो-दो लाठियाँ आपस में क्रॉस करके खड़ी नजर आती। चार
क्वार्टर थे और चारों के चार मालिकों की चार चारपाइयाँ लाइन में नजर आती। दो की पत्नियाँ व बच्चे यहीं रहते थे पर वे कभी बाहर नहीं सोती थी। किसी को थोड़ी देर
सेक्स-वेक्स सताए तो उठकर क्वार्टर चला जाता, फिर घंटे भर बाद बाहर आ कर यथावत लेट जाता। बुद्धू की नींद जल्द खुल जाती और कभी-कभी तो वह घबरा जाता क्योंकि आँख
खुलते ही चारपाई के नीचे पाँव रखते-रखते उसकी नजर थोड़ी दूर रेंग रहे किसी साँप पर पड़ जाती। वह चिल्ला पड़ता और मच्छरदानी के भीतर कूद कर पल्थी मारकर बैठ जाता।
दफ्तर का ही एक चौकीदार था सुखबीर सिंह। वह दौड़ा आता और लोगों के जागते न जागते एक लाठी से साँप को वैकुंठ पहुँचा देता।
सुबह आठ-नौ बजे बुद्धू दफ्तर पहुँच जाता तब तक दुनीचंद जमादारनी से चारों कमरे साफ करवा चुका होता। जमादारनी बुढ़िया थी, जो चुपचाप काम करके चली जाती। पोछा
लगाते-लगाते कोई कुर्सी पर बैठा मिलता तो उसके पाँवों के जूतों पर बार-बार हाथ की अँगुलियाँ फिरा कर धूल सी झाड़ देती। व्यक्ति जूते हटा देता और वह पोछा लगाकर
आगे बढ़ जाती। शाम को एक दिन बुद्धू ने देखा कि दफ्तर खुला है। मांडियाल अपने दोस्तों के साथ बैठा है। शराब चल रही है। बुद्धू हैरान था। दफ्तर के फ्रीज में ही
आस-पास के ये भ्रष्ट लोग शराब की बोतलें रखकर जाते। अपने-अपने पानी के जग भी ठंडे होने रख जाते क्योंकि किसी-किसी के यहाँ फ्रीज खराब हो गए हैं या वे उन्हें
अपने क्वार्टरों में उठाकर रख आए हैं। बुद्धू एक को तो पहचान गया। इस दफ्तर को टॉर्च सेल या अन्य कई चीजें जैसे बिजली के फ्यूज वगैरह की जरूरत पड़ती तो जालंधर के
उसी सी.पी.डब्लू.डी. ऑफिस से एक ओवरसियर यहाँ सप्लाई कर जाता। ऐसा बुद्धू के विभाग के व उस दफ्तर के बीच अनुबंध था। पर वह ओवरसियर जितनी चीजें सप्लाई करता उनमें
से कुछ अपने लिए भी माँगने लगता। जैसे बारह सेल सप्लाई करके कहता - 'दो मुझे दे दो न।' बुद्धू ने मनाकर दिया - 'नहीं-नहीं, सरकारी माल है मखौल थोड़ेई है!'
ओवरसियर चुप कर जाता। मांडियाल उसे इशारे से चुप करा देता कि 'नया-नया आदमी है, अपने आप समझ जाएगा।'
बुद्धू ने शराब की महफिल अपने ही ऑफिस में देखी तो हक्का-बक्का सा कुछ देर दरवाजे पर खड़ा रहा। मांडियाल ने भी उसकी तरफ निरुत्साहित सा करने के अंदाज में देखा
जैसे बुद्धू इस समय वहाँ बेहद अवांछित सा व्यक्ति है। बुद्धू कुछ क्षण ही रुका और बाहर की तरफ लौट पड़ा।
अंदर महफिल में एक सरदार इंजीनियर बहुत बढ़-चढ़कर बातें करता रहा - 'हमें कोई क्या कह देगा जी? हमने खूब खा लिया। हमें सस्पेंड करना है कर लो! हमारा ये पकड़ लो...
लो...' शेखियाँ बघारना, अश्लील बोलना, यही इन सबका कल्चर है बहन के... बुद्धू को खुद अपनी सोच पर ही हँसी आ गई कि अब उसके सोचने की शब्दावली में भी वही शब्द और
मुहावरे आ रहे हैं। पर वह ऐसी गाली यहाँ कभी न दे पाया। सुजाता की याद उसे कभी-कभी सताती थी पर वह अध्याय तो भारत सरकार ने तभी समाप्त कर दिया था जब उसकी नौकरी
खत्म कर दी गई। उसने एकाध जानकारों से पूछा भी था, क्या वह मुकद्दमा कर सकता है? पर उसे नामी-गिरामी तथा सयाने लोगों ने बताया कि अस्थायी कर्मचारी को भारत सरकार
बिना नोटिस दिए या स्पष्टीकरण माँगे फालतू के फर्नीचर की तरह बाहर निकाल सकती है। रूल न. 30 के तहत कारण बताना भी जरूरी नहीं। सुजाता ने उसे लेकिन कारण बताकर
अपनी जिंदगी से टर्मिनेट कर दिया था। बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि सुजाता की माँ ने ऐसा किया। उसके मन पर डिप्टी डायरेक्टर आनंद मोहन श्रीवास्तव की बात का असर
पड़ चुका था कि लड़का दिल्ली का है, कभी भी आपकी बेटी को छोड़-छाड़ कर जा सकता है। इसीलिए सुजाता की माँ ने उसे डाँट-डपट कर कहीं और उसकी सगाई कर ही दी। संयोग था
जबरदस्त कि सुजाता की माँ ने जो लड़का ढूँढ़ा, उसका नाम भी था समर्थ! बुद्धू हाइवे पर बने एक मिल्क डिपो पर बैठा ठंडे दूध की बोतल पी रहा था और हाइवे पर आती-जाती
गाड़ियाँ व ट्रक देख रहा था। हाइवे यहीं, मिल्क डिपो के सामने अपने चरम पर पहुँचता और थोड़ी ही दूर चुपचाप नीचे को ढल जाता। बुद्धू की नजर
कभी-कभी उस नीचे जाती ढलान पर निरुद्देश्य सी दूर तक चली जाती, जब तक कि उसे खड़े-खड़े मितली न आने लगती।
बुद्धू ने देखा वही बूढ़ी जमादारनी क्वार्टर में पोछा मार रही है। क्वार्टरों में भी उसी को झाड़ू-पोछे के काम सब ने दे रखे थे। बुढ़िया जमीन पर उकड़ू बैठी हाथ से
पोछा इधर-उधर घुमाती अपनी जगह बदलती जा रही थी और बुद्धू क्वार्टर में चारपाई पर लेटा छत की तरफ देखे जा रहा था। पर बीच-बीच में उसकी नजर बुढ़िया पर चली जाती।
उसके पुराने से ब्लाउज के ऊपर के हुक उखड़ चुके थे और इधर-उधर पेंडुलमों की तरह उसकी खोखली सी छातियाँ हिलती नजर आती थी। बुद्धू को इस खोखले से
लगते दृश्य से भी तन-बदन में बहुत आग सी महसूस होने लगी, पर फिर वह जल्द ही करवट बदल कर लेट गया। उसे स्वयं से नफरत होने लगा। शायद वह इस दुनिया में चलने लायक
व्यक्ति नहीं है। बुढ़िया तीनों कमरों का पोछा लगाकर पतली, अस्तित्वहीन सी आवाज में बोलती है - 'जा री ऊँ... (जा रही हूँ)...' बुद्धू का लेकिन चौकीदार सुखबीर
सिंह से झगड़ा हो गया। सुखबीर सिंह बुड्ढा है और यहाँ रात को पाँच रुपये दैनिक भत्ते पर चौकीदारी करता है। इस बुढ़िया पर न जाने क्यों, उसकी बुरी नजर काफी समय से
है। सुनकर बुद्धू को लगा कि यहाँ तो सबके सब गिरे हुए हैं शायद। उसे आ कर उस बुढ़िया ने ही रो कर बताया - 'सा'ब, बहुत तंग करता है।' बुद्धू ने उसे आश्वस्त किया
और पास ही उकड़ू बिठाकर कहने लगा कि 'मैं उसे सीधा कर दूँगा। फिकिर मत करो।' बुढ़िया की बातें सुनकर बुद्धू थोड़ा हल्का महसूस कर रहा था पर जब वह सारी बातें बताकर
उठकर चली गई तो बुद्धू को फिर स्वयं से बड़ी घिन होने लगी। चौकीदार सुखबीर सिंह को क्वार्टर के अंदर बुलाकर उसने डाँटा तो सुखबीर सिंह उल्टा उसी पर बरसने लगा। यह
बुद्धू के लिए अप्रत्याशित था। कोई दैनिक भत्ते वाला चौकीदार भी इस कदर अकड़ सकता है, यह बुद्धू को पहली बार पता चला। सुखबीर सिंह बोला - 'आप बहुत शरीफ हो जी।
बुढ़िया चोर है, चोर। वह दफ्तर की चीजें इधर-उधर करती रहती है, आपको पता भी चलता है?' बुद्धू लेकिन खुद से ही खफा था। उसने इस बुढ़िया से छुटकारा पाने की सोच ली
और एक दिन उसकी बेहद कच्ची नौकरी का फायदा उठाकर चुपचाप उसे नौकरी पर न आने को कह दिया तो बुद्धू पर भारी मुसीबत सी आ गई। उस दिन मांडियाल का वीकली ऑफ था और
बुद्धू अकेला ही था। दुनीचंद चला गया पर बुद्धू दफ्तर बैठा रहा। बुढ़िया को उसने अचानक बाहर से जाते देखा। वह पूरी कॉलोनी में घर-घर के काम करके कहीं सुस्ता कर
तीनेक बजे ही घर जाती नजर आती है। हाथों में पोटली सी होती है जिसमें लोगों की दी हुई बची-खुची रोटियाँ-सब्जियाँ होती हैं। और चेहरे पर सबके प्रति एक खुशामदिया
सी मुस्कराहट जो उसके खोखले चेहरे पर कारण-अकारण सवार रहती है। बुद्धू लपक कर बाहर आ गया और दफ्तर के दरवाजे के बाहर छोटे से कंपाउंड जिसमें बिजली के मीटर वगैरह
लगे हैं और एक-दो कुर्सी रखकर गप्पें मारी जा सकती हैं, में खड़ा होकर चिल्लाया - 'क...मली।'
बुढ़िया लौट पड़ी। तेजी-तेजी से आ कर बुद्धू के सामने खड़ी हुई। बुद्धू ने कहा - 'जरा अंदर से एक कुर्सी बाहर निकाल लाओ।' बुढ़िया तुरंत काँपती हुई आकृति से कुर्सी
बाहर खींच लाई। ऐसे में उसकी आकृति फुर्ती के मारे काँपती है या उम्र के मारे, कि खुशामद के मारे, पता नहीं चलता। आ कर कुर्सी झट से जमीन पर टिकाते-टिकाते लड़खड़ा
सी पड़ी। बुद्धू सहारा देना चाहता था पर न जाने क्यों पीछे हट गया, जैसे बतौर शिष्ट व्यवहार के ऐसा कर रहा हो। बुढ़िया अपने आपको बचाती फिर मुस्कराती अपने सा'ब का
चेहरा ताकती रही। बुद्धू ने उससे पूछा - 'आखिर इस उम्र में कितना कमा लेती हो तुम? क्यों अपने आपको इतना खींच रही हो?
नौकरी छोड़ दो बस,' और बुद्धू ने उसे एक कागज पकड़ा दिया। बुढ़िया रो पड़ी और झुककर उकड़ू बैठ गई और अपने दाहिने हाथ की अँगुलियों से उसके जूतों की धूल बार-बार हटाने
लगी, फिर गिड़गिड़ाई - 'सा'ब, तीन रुपया रोज ही तो है...'
'अरे क्या करोगी मर-खप कर। बेटियाँ जवान हैं न, वे दूसरे मोहल्लों में काम करती ही हैं बस...'
'नई-नई...' वह फिर उसके जूतों पर अँगुलियाँ फिराती रही। पर बुद्धू पर जाने कौन सा मनोविज्ञान सवार था कि उसने बहुत दृढ़ता से उसे कहा - 'बस, कल से तुम मत आना।
सुबह हिसाब पूरा कर दूँगा।'
बुढ़िया पर तो गाज गिरी और बुद्धू नजदीक ही एक और दफ्तर के जमादार के घर के बाहर चला गया। वहाँ एक जमादार व उसकी मोटी सी बीवी रहते हैं। वह जमादार आते-जाते उसे
सलाम मारता व मोटी सी बीवी मुस्करा देती। बुद्धू जमादार को बोल आया कि 'कल सुबह से हमें एक नई जमादारनी की जरूरत है, सो आप इसे भेज देना।' पर रात आने तक तो यहाँ
दृश्य ही और था। हैरानी में कॉलोनी के बीस-पच्चीस लोग यहाँ इकट्ठा हो गए। मांडियाल ऐसे समय खूब तमाशा करता है। बुद्धू को अपने वाले क्वार्टर में चुपचाप ले आया -
'सब क्या कह रहे हैं? आपने कमली को निकाल दिया है?'
अब बुद्धू साँसत में था। उसे यह प्रत्याशा नहीं थी कि कॉलोनी में ही खबर आग की तरह फैल जाएगी। लड़खड़ाती जबान से बोला - 'मुझे तो उस पर तरस आ गया था। इतने बुढ़ापे
में क्यों काम करती है?'
'कोई बात नहीं चलो मैं सबको समझाता हूँ। आप डरो मत।' पर बाहर आ कर मांडियाल का स्वर ही बदल गया। उसी शराबी इंजीनियर को लाए थे सब। औरतें मांडियाल के ही क्वार्टर
के बरामदे में बच्चों के झुंड समेत जैसे सामने कोई सिनेमा देखने बैठ चुकी थी और फटी-फटी आँखों से बुद्धू को देखने भी लगी थी। शराबी इंजीनियर से मांडियाल फुसफुसा
कर बोला - 'बेवकूफ लगता है। कहता है बहुत बूढ़ी हो चुकी है।'
सरदार इंजीनियर चिल्लाकर बोला - 'इधर आइए इंचार्ज साहब, आपने जमादारनी को क्यों निकाला? आपको पता नहीं यहाँ ऐसे काम सलाह करके ही करने पड़ते हैं? यहाँ हर चीज में
पॉलिटिक्स चलती है पॉलिटिक्स! कौन सी जमादारनी को रख आए?'
मांडियाल ही बोल पड़ा - 'वो जो मोटी लछमी है न, उसी को। हह... सरदार इंजीनियर और चिल्लाया - 'लच्छी को! वह तो इतनी मोटी है कि जरा डाँटोगे तो डेढ़-डेढ़ किलो का
मुँह में पकड़ा देगी!'
औरतें दूर से ही सुन रही थी। सबके चेहरे झुक गए और फिर दबे-छुपे बुद्धू को ही घूरने लगी, जैसे ये गालियाँ भी तो उन्हें बुद्धू के कारण ही सुननी पड़ रही हैं। सब
जानती हैं, सरदार ऐसा ही है। उसकी तगड़ी सी बीवी मांडियाल के क्वार्टर में अंदर एक पलंग पर थकी-माँदी सी पसरी हुई थी। संयोग से इन दिनों मांडियाल की बीवी भी आई
हुई है। वह कभी पठानकोट से आ जाती है तो कभी कई दिन गुजार कर ससुराल चली जाती है। सरदार की डेढ़-डेढ़ किलो की बात सुनकर उसकी तगड़ी सी बीवी जो लेटी हुई थी व आँखों
को बाँह से ढके थी, कि आकृति की सतह से सहसा भीतर से उभरी एक निःस्वर सी खिखिलाहट तैर गई। उसे आभास हुआ उसके पास ही मांडियाल की बीवी भी दूसरे पलंग पर बैठी बाहर
का जायजा ले रही है तो भी निःस्वर खिलखिलाती वह उल्टी सीधी होने लगी। सरदार बीवी के अकड़ने पर भी ऐसे ही कहता है - 'बस, अब दे देगी डेढ़-डेढ़ किलो का मुँह में...'
मांडियाल की बीवी लेकिन इस खिलखिलाती औरत की बेशर्मी से सिर झुकाकर अपने गालों पर फैली हल्की मुस्कराहट को दबा कर जबरन बहुत गंभीर सी हो गई जैसे उसे दरअसल
बुद्धू की चिंता हो रही थी कि कमली को तो कोई निकलने नहीं देगा, पर बुद्धू की पिटाई हो जाएगी कही। उसके गालों पर मुस्कराहट आ ही गई, ऐसे जैसे उसे इस समय पड़ोस की
अन्य सहेलियों की जरूरत सी महसूस हो रही थी कि उनके साथ नजरें मिलाकर वह इस मोटी सी सरदारनी की बेशर्मी पर हँस तो ले जरा। सरदार एक प्रकार से यहाँ का लीडर है।
खूब कमाता है और उसके कारण दो-तीन एक्जीक्यूटिव इंजीनियर घबराकर भाग गए, हालाँकि वह उन से नीचे, एस.डी.ओ. की पोस्ट पर है। यहाँ इस कॉलोनी में एक और मुसीबत यह है
कि थोड़ी दूर जो बिजली का छोटा सा दफ्तर है (केवल प्रशासनिक), उसका एस.डी.ओ. इंचार्ज पागल है। कहते हैं बीवी कही जालंधर में लेक्चरार है और इससे शादी के कुछ साल
बाद ही एक प्रोफेसर से इश्क लड़ा बैठी। एस.डी.ओ. 'बांगा' पगला सा गया। बीवी कब की उसे तलाक देकर चली भी गई पर इसका दिमाग ठीक नहीं हुआ। हमेशा मैले कपड़ों में
दफ्तर आ कर बैठ जाता था। कोई उसकी सुनता ही न था। सब इस परिस्थिति का खूब फायदा उठाते और सबका मसीहा सरदार इंजीनियर अहलूवालिया बन गया। अहलूवालिया की महफिल यहाँ
क्वार्टरों के बाहर या तो नीचे सूखे से लॉन में लगी होती या आस-पास के सभी दफ्तरों से दो-दो कुर्सियाँ उधार रूप में निकलवा ली जातीं और एक गोलाई में बैठा एक
क्लब सा दीखता यहाँ। कहकहे लगते तो अहलूवालिया की मर्जी से, और सब चुप हो जाते तो अहलूवालिया की मर्जी से। इस कॉलोनी का कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो यहाँ से
गुजरे और इंजीनियर अहलूवालिया को सलाम न करे। कोई गुजर जाएँ तो अहलूवालिया चिल्ला पड़ता और बुलाकर खूब फटकारता उसे। कभी मूड में होता तो किसी भी चपरासी या
नौकर-चाकर को बुला लेता - 'ओए, इधर आ।' बोलने में बहुत रोब था उसके। 'बोल, अठासी ते बारह किन्ने बणे...' कोई उसे हिप्स पर च्यूंडी मारकर फुसफुसा देता - 'सौ बोल
नई ते कुट्टेगा।'
'जी सौ।' लड़का फुर्ती से बोलता।
'वेरी गुड। सौ विचों दस गए?'
'नब्बे।' अब की लड़के को मदद की जरूरत न पड़ती, पर वह खासा घबरा चुका होता। सोचता कहीं इन सबका कोई हिसाब-किताब पर झगड़ा तो नहीं हो गया।
'नब्बे में से बीस गए?'
'सत्तर,' अब भी लड़का फुर्ती से बोलता।
'सत्तर में अट्ठारह और जोड़ो तो?'
यह भी लड़के को कुछ आसान लगता, पर मदद के लिए कोई फुसफुसाते हुए झाड़ देता - 'जल्दी अठासी बोल!'
'अठासी।' लड़का घबराई हुई फुर्ती से बोल पड़ता और सरदार कहकहा मारता। सबको इसी कहकहे का इंतजार होता। सब लेकिन इंतजार में रहते कि पहले सरदार कहकहा मारे, तभी तो
चेले मारेंगे। सरदार कहकहा लगाता - 'हा हा हा... हा हा हा...' किसी कंपाउंड में बैठी औरतों की खिलखिलाहट भी यहाँ तक आ जाती। सरदार कहता - 'आ गया न मुंडा, अठासी
से फिर अठासी पर!'
'हाहा हाहा हाहा,' बड़ा जोर का सम्मिलित कहकहा पड़ता।
यहाँ कोई मल्होत्रा है, एक बार बहुत से सामान को बेच डालने के घपले में फँसा था। केस चल पड़ा था। नौकरी खतरे में थी पर वह सरदार के घर जा कर पाँव पकड़कर गिर पड़ा -
'मुझे मोक्ष दिलवाओ बस। मेरी मदद करो।' सरदार मोक्षदाता है भ्रष्ट अधिकारियों का। किसी ने दफ्तर का फ्रीज घर में लगा रखा है, किसी ने अलमारी अपने घर में फिट कर
रखी है। कोई मार्केट निकल जाता है कि यहाँ वेल्डिंग की सख्त मना है, फिर यह वेल्डिंग क्यों चल रही है। वेल्डिंग करने वाला उठकर हाथ जोड़ता है। मुर्गे की प्लेट ले
आता है और व्हिस्की का अद्धा।
इन सबका मोक्षदाता अचानक चीख पड़ा और लपक कर बुद्धू का कॉलर पकड़ लिया - 'मुझसे पूछे बिना तूने जमादारनी क्यों निकाली?' बुद्धू घबरा गया पर इस क्षण उसके मोक्ष के
लिए कई लोग आ गए। मांडियाल पहले-पहले आगे बढ़ा और उसके साथ ही सरदार की मोटी बीवी जो अब थोड़ा बाहर आ कर यूँ ही हवा खाने खड़ी हो गई थी, वह लपक कर आई और बुद्धू से
लिपट कर उसे पीछे किया - 'छोड़ो जी, नया आदमी है। मेरा भ्रा (भाई) है। बड़ा शरीफ है यह तो। रख देगा वापस कमली को।' बुद्धू उस सुगंध और पसीने से भरी मोटी सी आकृति
के आलिंगन में सहमे हुए बच्चे सा छुप गया। उसे तो इस मोटी औरत में ही अब मोक्ष मिलना था मानो। मांडियाल के साथ-साथ बाली और शोरीलाल भी आ गए जो बुद्धू के साथ
वाले दोनों क्वार्टरों में रहते हैं। बाली बोला - 'बड़ा पढ़ाकू आदमी है जी। उच्ची-उच्ची किताबें पढ़ता रहता है। जलंधर जा कर कितावाँ खरीद ले आता है। पढ़ता ही रहता
है। कहता है पहले यहाँ मन नहीं लगता था। पर अब लगता है। पढ़कर समय काटता रहता है। थोड़ा सा तो काम है।'
शोरीलाल बोला - 'यह जी बुद्धिजीवी है बुद्धिजीवी।'
सरदार की मोटी बीवी खिलखिला पड़ी - 'बुद्धू बुद्धू... क्या बोले?'
'बुद्धिजीवी। मतलब कि पढ़ता बहुत है। कभी गांधी पढ़ता है? तो कभी बड़े-बड़े पंजाबी कवि जैसे शिव बटालवी...'
'हैं! शिव बटालवी नूँ पढ़ता है? मैं सदके जाँवाँ,' वह फिर बुद्धू से लिपट गई। बुद्धू फिर होश खोने सा लगा। 'मैं तो तरीफ भी खूब सुनी इसकी,' अहलूवालिया की तगड़ी
बीवी चौंक सी पड़ी थी। यहाँ पंजाब में जिसे शिव बटालवी पसंद है, वह सचमुच बड़ी ऊँची पसंद वाला है। वैसे पंजाबी के कल्चरल प्रोग्रामों में वल्गर बातें भी कम नहीं
चलती, जैसे 'चीचों चीच गंडेरियाँ, मुंडे मेरे ते कुड़ियाँ तेरियाँ...' या कहीं प्रेम जालंधरी के नाटकों पर खूब कहकहे लगते, जिनके संवादों में दो-दो अर्थ होते। ये
नाटक सबसे ज्यादा तो सरदार इंजीनियर अपनी उस मोटी सी बीवी के साथ देखता और वह खूब कहकहे लगाती। एक नाटक में किसी ने अपनी बूढ़ी बीवी से पार्टी में पूछा - 'मेरा
किथे है?' (वह चाय के कप के बारे में पूछ रहा था)।
बूढ़ी बोली - 'त्वाडा ते त्वाडे कोल है! (आपका तो आपके पास है!)' और हॉल में सबसे ज्यादा हॉ हॉ हॉ सरदार एस.डी.ओ. की मोटी बीवी की गूँजती। ऐसे कि जैसे हॉल में
प्रतिध्वनि सी गूँज रही हो। सरदार इंजीनियर शरमा कर हॉल में कोहनी से बीवी को हिट करता तो वह अपने गोल-गोल से घूमते कहकहे को होंठों में बंद कर लेती और अपना सर
पति के कंधे पर टिकाकर बिना आवाज में ही बहुत देर तक खिलखिलाती रहती।
सब ने मिलकर बुद्धू का खतरा टाल दिया। बुद्धू फिलहाल अगली सुबह कमली को नौकरी वापस देकर और ऑफिस के टेबल पर अपना इस्तीफा रखकर चुपचाप दिल्ली चला गया। पर
मांडियाल ने वह इस्तीफा हेडक्वार्टर भेजा ही नहीं। बुद्धू दस दिन दिल्ली की हवा खाकर अपनी बड़ी बहन की झाड़ खाकर चला आया। उसकी बहन ने खूब झाड़ा - 'एक नौकरी तो एक
लड़की के प्यार में होम कर दी और दूसरी एक बुढ़िया जमादारनी के चक्कर में खुद ही छोड़ आए कि मेरा विवेक मुझे कचोटता है। एक गरीब जमादारनी को नौकरी से निकालकर। जा
चुपचाप नौकरी कर जा के। यहाँ कोई नहीं बैठा किसी को खिलाने वाला।' और बुद्धू को वापस आना ही पड़ा। मांडियाल से बोला - 'मैंने इस्तीफा दिया था, तो अब नौकरी कैसे
मिलेगी?'
मांडियाल बाली के साथ बैठा था। हँस पड़ा - 'अजी आपने इस्तीफा दिया कब, मुझे तो याद नहीं!' बुद्धू चुपचाप दुनीचंद के साथ वाली एक कुर्सी पर बैठ गया तो मांडियाल
हँसता हुआ चिल्ला पड़ा - 'अपनी कुर्सी पर बैठो इंचार्ज साहेब। यह लो, इसे फाड़ डालो, आपका इस्तीफा। और चुपचाप सब दिन की हाजिरी लगाओ। समझो आप भी फर्लो पर थे।
हाहहाहा।' सब आ गए थे और बुद्धू फिर से घिर गया था। बुद्धू ने उसके बाद डेढ़ साल और बिताया और यहाँ की खूब बातें पता चली। मल्होत्रा को तो तभी एस.डी.ओ.
अहलूवालिया ने मोक्ष दिला दिया था। उस पगले एस.डी.ओ. को एक दिन सब मिलकर पोलिस थाणे ले गए क्योंकि उसने की भी गड़बड़ थी। उसने एक चपरासी को पागलपन में खूब जोर से
थप्पड़ मार दिया और वह गिर पड़ा था, गिरकर तड़पने सा लगा था। ऐसे में इन सबको अपनी ताकत का सिक्का जमाने का खूब मौका मिलता है। पोलिस थाणे पहुँचते ही बांगा बोला -
'जा, इस को चा चू पिला दो बस। ज्यादा चोट नहीं लगी...' थाणेदार ने बात समझकर मामला रफा-दफा कर दिया। पर उसके बाद कई दिन तक ये सब अपने गुणगान करते थक नहीं रहे
थे। सबने माथे पर यहाँ के रक्षक होने का लेबल लगा दिया था, जबकि असलियत यह थी कि उनके लिए यह पागल एस.डी.ओ. ही अच्छा था जिसे कभी-कभी ठूँसा दिखाकर या कॉलर को
अँगुलियों में पकड़ खींच लेते और कोई हस्ताक्षर ले लेते। बुद्धू ऐसे ही डेढ़ साल के करीब और काट कर पहुँच गया दिल्ली। इस दौरान वह दो महीने दिल्ली जा कर ट्रेनिंग
भी कर आया जो जिस अनुभाग में बुद्धू था, उसमें सबके लिए अनिवार्य थी। इस बीच उसे फाइलों से और दुनीचंद की बातों से अपने ही विभाग के कई आउटस्टेशनों की कई बातें
पता चली। पंजाब में ही एक दर्जन आउटस्टेशन थे। किसी में जुआ चलता था तो किसी में दो जनों की अक्सर मारामारी होती रहती। एक में तो बाकायदा गाँव से तैनात कोई
कर्मचारी दफ्तर में ही लड़कियाँ ला कर किसी पोलिसवाले की मदद से धंधा करता था। वहाँ के शरीफ से इंचार्ज ने एतराज किया तो पोलिस का मामला बन गया। इंचार्ज को कुछ
लोग पीटने दौड़े और वह जान बचाकर भागा-भागा एक पोलिस थाणे में घुस गया। इत्तफाक कि थाणे में उस समय वही कांस्टेबल एस.एच.ओ. के सामने बैठा था जो यहाँ धंधा करवाता
था। लेने के देने पड़ गए। बाद के वर्षों तक वह इंचार्ज जो कि दिल्ली का था, इस मामले को भुगतता रहा था। जब बुद्धू का दिल्ली ट्रांसफर हुआ तो काफी कुछ संतुष्ट ही
था बुद्धू, और उसकी बड़ी बहन अनामिका भी, जो पूर्णतः बुद्धू के घर की इंचार्ज थी और पूरा घर चलाती थी, सोचती थी मेरे तीन भाई। पर समर्थ सबसे बुद्धू। अब इस बुद्धू
का आखिर क्या करूँ मैं!