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बुद्धू अब एक बार फिर बैठा था उसी जंगल ऑफिस में, सामने सुक्खू था और उसके पीछे हुई तरह-तरह की बातें सुक्खू की जबान पर नाच रही थीं... रायदुर्ग से अगली सुबह ही
पेदैय्या और बुद्धू लौटे। 'रिसर्च ऑफिस' में बैठा बुद्धू पेदैय्या और आनंद के साथ बतिया रहा था। बुद्धू बोला - 'पेदैय्या, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम गुंटकल जा
कर बी.डी.ओ. करीमुद्दीन को तलाश लें और उसे बताएँ कि तुम्हारी बेटी रायदुर्ग की रानी रंगम्मा के पास है?'
'हा हा हा हा हा हा,' पेदैय्या से अपना कहकहा सँभल नहीं पा रहा था पर आनंद ने उसे बुरी तरह झिड़क दिया। उससे तेलुगु में बोला - 'सा'ब का मखौल करता है? शर्म नहीं
आती तुझे? तमीज नहीं तुझे?'
पेदैय्या कोशिश करके शांत हो गया पर उसे लग रहा था कि बुद्धू सचमुच में महाबुद्धू है। पर आनंद ने समझाया, बहुत इज्जत से नर्म आवाज में बोला - 'सा'ब, करीमुद्दीन
को पता भी चल जाए कि शहजान यानी मेहरूनिस्सा कहाँ है, तो भी वह उसे स्वीकार थोड़ेई करेगा? अब तो वो खराब हो गई न क्योंकि!'
बुद्धू कुछ समझ नहीं पा रहा था। वहाँ से लौटने तक और सुबह से लेकर अब तक वह कितनी बार तो कल्पना कर गया कि वह कभी वहाँ जाए और शहजान के लिए एक बुर्का लेकर जाए।
सिनेमा दिखाने के बहाने ले जाएँ उसे और अगर दूसरी लड़कियाँ हैं भी उसके साथ तो भी वह चुपके से बुद्धू से वह काला बुर्का लेकर हॉल के अँधेरे में ही बाथरूम के
बहाने खिसक जाएँ। बाहर आए तो बुर्के में हो और तब तक बुद्धू भी वहाँ पहुँच जाए। किसी प्रकार बाहर आ कर किसी टैक्सी में बैठें दोनों और टैक्सी उस अँधेरे में ही
सरपट दौड़ने लगे, उस अँधेरे मैदान को पारकर जाए टैक्सी जिसमें कई बदनसीब औरतें सिर्फ रात का खाना-खाने के लिए अपने-अपने तंबू के बाहर लालटेन लिए बैठी हैं।
सुबह-सुबह बुद्धू शहजान को लेकर पहुँच जाए गुंटकल। शहजान तो अपना घर दिखा देगी... पर... बुद्धू अब सोचने लगा अगर सचमुच करीमुद्दीन मनाकर दे कि मेरी बेटी अब खराब
हो चुकी है, मैं उसे नहीं रखूँगा, तो शहजान के साथ वह वहीं, गुंटकल में कोई कमरा लेकर रहे और उसे हाथ भी ना लगाए। उससे कहे कि जब तक तुम्हारा बाप तुम्हें यहाँ
से ले ना जाए और तुम्हारी पढ़ाई-वढ़ाई आगे न करवाए और एक दिन तुम्हें डॉक्टर न बना दे, तुम्हारी शादी ना करवा दे, तब तक मैं तुम्हें पवित्र देखना चाहता हूँ। चाहे
तुम जबरदस्ती निर्वस्त्र हो जाओ, तब भी, मैं आँखों को जबरन बंद किए रहूँ, पर बुद्धू को अपना कल्पना संसार भी कभी-कभी विचित्र लगता। उसे समझ ही नहीं आता कि
दुनिया आखिर कैसे चल रही है? अब तक तो उसका दिमाग कई बातें समझने से ही इनकार कर बैठा है...
बुद्धू का वह दौरा कुल दो महीने और चला। इस बीच एक बार टीम लीडर शर्मा जी भी आ कर मुआयना कर चुके थे। बुद्धू से शर्मा जी बोले - 'समर्थ, तुम्हारा काम तो सचमुच
पर्फेक्ट है। अप टु डेट रखते हो सब। चीजें भी सब तरतीब से लगी हैं और सारा डेटा भी अप टु डेट। फाइलें-वाइलें सब अपनी जगह बढ़िया। तुम्हारा सब काम खुशकर देने वाला
है समर्थ। पर एक बात है, इतने दिन रहकर भी तुमने कुछ कमाया नहीं? एक दिन बैट्रियों में डिस्टिलड वाटर भरवाँ लाए तो भी रिक्शे में इतनी दूर गए आए, फिर भी रिक्शों
के किराए उतने ही क्लेम किए जितने रिक्शे वालों ने लिए! तुमने तो कुछ 'बेनीफिट' उठाया ही नहीं समर्थ यहाँ?'
समर्थ यानी बुद्धू चुप ही रहा, मुस्करा दिया बस। डिस्टिलड वाटर की भी पेट्रोल पंप से बड़ी रसीद बनवा सकता था समर्थ। पर नहीं। वह तो बुद्धू है ना! एक पैसा कमाने
में भी असमर्थ है वह। यह सब उसे अपनी आत्मा के खिलाफ लगता है। बहरहाल, जब उसका दौरा खत्म हुआ तब फिर बत्रा ही ट्रक लेकर आया और नकली कोटेशन-वोटेशन बनवाकर रास्ते
में भी एक-एक, दो-दो रुपये कमाता आनंद, पेदैय्या और बुद्धू को लेकर वापस पहुँचा अनंतापुर और वहाँ ऑफिस के बाहर पहुँच कर ट्रक के दरवाजे से नीचे मारी छलाँग।
बुद्धू को याद आने लगी यहाँ की बातें। एक दिन आंध्र की कोई मंत्री यहाँ आनी थी। लक्ष्मी अम्मा। बुद्धू को यह रिवाज भी बहुत अच्छा लगा कि यहाँ छोटी बच्ची हो या
कि बड़ी उम्र की महिला, उसके नाम के आगे अम्मा लगाते हैं। पहले वह सोचता था कि लक्ष्मी अम्मा कोई वृद्ध महिला होगी पर नहीं, लक्ष्मी अम्मा तो पैंतीस-चालीस साल की
कोई बहुत आकर्षक शाख्सियत थी। उस दिन यहाँ 'रिसर्च ऑफिस' के साथ जो बी.डी.ओ. ऑफिस है, वहाँ बहुत भीड़ जमा हो गई थी और बुद्धू, पेदैय्या और आनंद के साथ कंपाउंड
में बैठा बाहर की सारी रौनक का मजा ले रहा था। जब लक्ष्मी अम्मा आई तब उसी अनाथालय की सबसे लंबी लड़की सौदामिनी, जो उस काले से कांस्टेबल के साथ घूमती नजर आती
थी, सबसे आगे खड़ी थी और उसे घेरे बेसब्री से इंतजार में खड़ी थीं उस अनाथालय की बाकी सब लड़कियाँ। सौदामिनी अम्मा के हाथों में थी एक पूजा की थाली जिसमें माथे पर
तिलक लगाने को कुंकुम, चावल व चंदन वगैरह रखे थे। बुद्धू ने देखा कि लक्ष्मी अम्मा के आते ही उसके माथे पर जब सौदामिनी अम्मा ने अपनी अनामिका अँगुली से तिलक
लगाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो वह हाथ इतनी बुरी तरह काँप रहा था कि लक्ष्मी अम्मा ने सौदामिनी अम्मा के उस काँपते हाथ को सहारा देकर उसकी कलाई को अपने हाथ से
थाम लिया और अपने माथे तक ले गई। 'लक्ष्मी अम्मा को इन लड़कियों की दर्दनाक कहानी कहाँ पता होगी?' बुद्धू सोचने लगा। पता भी होगी तो भी वह एक मंत्री के नाते आखिर
कर क्या लेती? सिस्टम की तो मंत्री भी गुलाम होती होगी न, जानबूझ कर अनदेखी कर देती होगी, या वे लोग कुछ करना भी चाहें तो भी कर नहीं पाते होंगे। उस दिन यहाँ
बुद्धू ने बहुत अच्छे नजारे देखे। उसने गाँव से लाए गए कई हृष्ट-पुष्ट बैलों को एक साथ खड़ा करके मंत्री लक्ष्मी अम्मा के साथ ग्रुप फोटो खिंचवाते देखा। वहाँ जब
पोलिस कमिश्नर आ गया और तहसीलदार भी, तब बुद्धू भी उनके साथ मंत्री महोदया के कुछ निकट खड़ा हो गया और फोटो खिंचवाई। पेदैय्या और आनंद 'रिसर्च ऑफिस' के बरामदे
में खड़े अपने सा'ब को देखकर खूब प्रसन्न हो रहे थे। मौका पाकर छोटी सी भीड़ में पेदैय्या भी कहीं जगह बनाकर खड़ा हो गया। बुद्धू सोचने लगा अपनी-अपनी किस्मत है।
कहाँ शहजान और सौदामिनी अम्मा और कहाँ ये मंत्री महोदया लक्ष्मी अम्मा जिस की सेवा में पोलिस कमिश्नर भी खड़ा अपनी यूनिफॉर्म समा नहीं रहा है, तहसीलदार भी
मुस्करा रहा है और बी.डी.ओ. भी।
थोड़ी देर बाद नजदीक से ही कोई चमचमाता सा ट्रैक्टर भी आ गया। लक्ष्मी अम्मा ने आगे बढ़कर उस ट्रैक्टर को तिलक लगाया और एक नारियल तोड़ा सड़क पर। पेदैय्या बुद्धू से
बोला - 'सा'ब, ये नजदीक के गाँव का पहला ट्रैक्टर है। पैंतीस हजार में आता है और इसका लोन देते वक्त फार्मर अपनी जमीन सरकार के पास मॉर्टगेज कर देता।'
बुद्धू बोला - 'गिरवी। फिर वह हर साल कुछ पैसे चुका देता होगा।'
'हाँ सा'ब।'
बुद्धू को अनंतापुर से शर्मा जी ने सबसे पहले रिहा कर दिया था और वह अपना सामान लेकर रिक्शे में वही पहिए में फँसी घंटी की टक-टक सुनता स्टेशन पहुँच गया। उसे
याद आ रहा था कि लक्ष्मी अम्मा ने उसी दिन खेती-बाड़ी में काम आने वाली कई चीजों की एक प्रदर्शनी का उद्घाटन भी किया जो वहीं बाहर की सड़क पर एक शामियाने में लग
गई थी जहाँ से कुछ ही दूर वह जुए में हारी हुई औरत अपनी दुकान पर रोती हुई लाल-लाल आँखों से यथावत बैठी थी। मंत्री चली गई पर बहुत सुंदर-सुंदर लड़कियाँ जो शायद
आंध्र के किसी कृषि विश्वविद्यालय से थीं, लोगों को सब चीजें दिखा रही थीं। थोड़ी दूर वही ट्रैक्टर भी खड़ा था और ग्रुप फोटो वाले बैल भी। बुद्धू पेदैय्या के साथ
प्रदर्शनी का दौरा कर रहा था। एक लड़की बला की सुंदर लगी उसे। नाक-नक्श भी अति सुंदर और आँखों की कोरों से निकलती काजल की रेखाएँ। आँखें प्यारी-प्यारी मछलियों
सी। पेदैय्या ने बुद्धू को वहाँ से थोड़ी दूर ही समझा दिया कि सा'ब, वो लड़की को आप बोलना - 'तुमारी आँखें बऊत सुंदर'।
बुद्धू बोला - 'चुप। ऐसे अच्छा थोड़ेई लगता है!' पर बुद्धू जब फिर वहाँ पहुँचा तो उसी लड़की के सामने थोड़ी देर भी न टिक सका। पेदैय्या को एक तरफ ले जा कर बोला -
'तुम्हारी आँखें बहुत सुंदर हैं, इसे तेलुगु में कैसे कहेंगे?' पेदैय्या हँस पड़ा। उसे लगा जैसे यह साहब तो यहाँ से दिल्ली जाना ही नहीं चाहता अब! उसे बहुत जोरों
से हँसी आ रही थी पर शायद उसे आनंद की झिड़की याद आई। वह फुसफुसाता हुआ बुद्धू से बोला - 'सा'ब आप बोल दो नी कंडलू बागा उन्नारू यानी तुमारी आँखें बऊत सुंदर।'
बुद्धू उसी नवयौवना तक फिर पहुँचा तो लड़की मुस्कराई। बुद्धू ने अँग्रेजी में बहुत बातें की और अचानक उस लड़की से बोला - 'नी कंडलू बागा उन्नारू।' लड़की सहसा इतरा
कर मुस्करा दी पर उसी क्षण लजा भी गई।
बोली - 'सर, प्लीज...' बुद्धू भी आगे बढ़ गया पर उस लड़की की आँखें या मुस्कराहट, दोनों में से कोई एक चीज थी जो उसका पीछा जरूर कर रही थी। पर बुद्धू को लगा कि
कितना स्वाभाविक होता है, कितना नैसर्गिक, नारी-पुरुष के बीच का आकर्षण! संसार ने उसे या तो बंधनों में जकड़ लिया है, या बाजार सा बनाकर रख दिया है... हैदराबाद
सुबह चार बजे ही आ गया था और बुद्धू आ कर वेटिंग रूम में बैठा। उसकी नींद फिर जा कर सात बजे खुली और वह एक कुर्सी पर ही टेढ़ा सा लुढ़क कर सोया हुआ था। अगली गाड़ी
रात आठ बजे थी और बुद्धू वेटिंग रूम में नहा धोकर तैयार हो गया। नाश्ता भी उसने वेटिंग रूम के किसी चपरासी से वहीं मँगवा लिया था। बुद्धू खाली हुआ तो एक किताब
पढ़ने लगा। उसका बहुत दिल था कि वह आज फिर शाम तक हैदराबाद घूमे पर उसने स्वयं ही अपने विचार को खारिज कर दिया। उसे वह नग्न सुंदरी की संगमरमर की मूर्ति भी खूब
याद आई पर उसे न जाने क्यों एक विचित्र डर सा लगने लगा कि अब वह अगर जाए तो कहीं वह मूर्ति मैली न हो चुकी हो अब! जैसे उसके अलावा किसी और को ऐसी कलाकृति देखने
की तमीज तक नहीं होगी। फिर उसे अपने ही इस खयाल पर खुद पर ही हँसी आ गई। कैसे भी कर के, अनमने मन सही, बुद्धू रात आठ बजे गाड़ी आने पर अपनी फर्स्ट क्लास की कैबिन
में जा बैठा क्योंकि इस बार रिजर्वेशन काफी पहले ही करा चुका था वह और तीसरी सुबह चार बजे ही नई दिल्ली स्टेशन पर उतरते समय उसे एहसास हुआ कि अब वह काफी अनुभवी
व्यक्ति हो चुका है, पर एक असंयत सा कर देने वाली परिपक्वता उसके अंदर घर करती जा रही है। वगैरह-वगैरह।
सुक्खू कह रहा था - 'सा'ब नवेंदु पागल हो गया था!' सुक्खू एक-एक शब्द को लंबा करके और बड़ा जोर देकर ऐसे बता रहा था कि बुद्धू कुछ चौंक सा गया। उसने फाइल से नजर
ऊपर उठाई। यहाँ पहुँचते ही बुद्धू ने ऑफिस में फोन करके पूछ लिया था कि उसे सोमवार को कौन सी ड्यूटी में आ कर ज्वाइन करना है। उसे बताया गया था कि सोमवार को
उसकी ड्यूटी नाइट में पड़ेगी।
बुद्धू ने पूछा - 'क्या हुआ नवेंदु को?'
'सुब्रह्मण्यम ने पागल कर दिया साले ने,' सुक्खू खूब उत्तेजित सा था।
नवेंदु हेडक्वार्टर में है और जिस दिन बुद्धू टूर पर जाने की तैयारी में था उस दिन उसे इतना भर पता चला था कि नवेंदु को, जो बहुत शरीफ माना जाता है,
सुब्रह्मण्यम पी.ए. ने खूब डाँटा है क्योंकि नवेंदु ने कोई काम करने से सहसा इनकार कर दिया था कि यह काम उसका नहीं है। पर बुद्धू को पता नहीं था कि पीछे बात इस
कदर बढ़ जाएँगी। सुक्खू ने बताया कि 'सुब्रह्मण्यम इतना जालिम निकला सा'ब कि नवेंदु का उसी दिन से जानी दुश्मन बन गया भैण का... जहाँ नवेंदु दिखता सुब्रह्मण्यम
भैण का... उसे फटकारने लगता। खूब जोर-जोर से चिल्लाने लगता नवेंदु पर, एकदम राक्षस सा रूप धारण कर लिया भैण के... ने। नवेंदु की तो कुछ ही दिनों में हालत खराब
हो गई। उस ने सेक्शन में एक-एक के आगे हाथ जोड़े कि मुझे सुब्रह्मण्यम से बचाओ, मैं ऐसी गलती फिर कभी नहीं करूँगा। सब लेकिन नवेंदु से ही कहने लगे कि गलती
तुम्हारी ही थी। तुमने सुब्रह्मण्यम से पंगा लिया क्यों? नवेंदु ने कई शिकायतें लिखकर दी कि एक छोटी सी बात पर डायरेक्टर का पी.ए. मुझे टॉरचर कर रहा है,
मिनिस्ट्री भी हो आया नवेंदु। पर ऑफिस में सब उसी को वही बात दुहरा कर समझाने लगे थे कि गलती तेरी थी, तूने सुब्रह्मण्यम से पंगा लिया ही क्यों? नवेंदु तो
डायरेक्टर के कमरे में जा कर उसे धमकी भी देने लगा कि मैं जा कर अभी आत्महत्या करता हूँ और मैं तेरा नाम लिखकर जाऊँगा... तुझे हथकड़ियाँ लगवा जाऊँगा डायरेक्टर...
पर सुब्रह्मण्यम तो राक्षस है राक्षस। पैदाइशी राक्षस लगता है साला। गुस्से में आ जाए तो उस जैसा जानवर कोई नहीं। उसी वक्त नवेंदु को सेक्शन में ले गया और इतना
बुरी तरह चीखा उस पर कि अब तक जैसे पानी सर से ऊपर चढ़ गया हो, नवेंदु मानसिक संतुलन खो बैठा। वह टेबल पर चढ़कर सुब्रह्मण्यम को गंदी-गंदी गालियाँ बकने लगा। उसके
होंठ काँपने लगे और उसकी गालियाँ समझ तक नहीं आ रही थीं किसी को? बुरी तरह दाँत किटकिटाने लगा। सब लोग नवेंदु के पास आ गए। सुब्रह्मण्यम बो... ड़ी का खिसक गया
वहाँ से। नवेंदु को फौरन हस्पताल ले जाया गया। नवेंदु की बीवी आ गई थी हस्पताल और चिल्लाने लगी कि वह पोलिस में रिपोर्ट करेगी। हस्पताल के डॉक्टरों से कहकर वह
पोलिस तक पहुँच भी गई। पर यह तो मिनिस्ट्री का ऑफिस है न समर्थ बाबू और हम सब इन भैण के... के बापों के नौकर। इनकी... पे मक्खन लगाने के लिए ही तो पैदा होकर ऊपर
से आए थे हम... डायरेक्टर ने विजिलेंस के ही कई लोग दौड़ा दिए हस्पताल। पूरे ऑफिस में तो फाइलों ही फाइलों का जंजाल है, या इंस्ट्रुमेंट ही इंस्ट्रुमेंट... इनसान
कहीं बैठा ही नहीं। सब अपने-अपने सरवैवल (सुरक्षा) के लिए जी रहे हैं बस।' सुक्खू ने यहाँ के अँग्रेजी शब्द अपने उच्चारणों के साथ यादकर लिए हैं। 'सबको एक ही रट
लगी थी सा'ब कि नवेंदु ही पागल है, उसने सुब्रह्मण्यम से पंगा लिया ही क्यों। एक-दूसरे को उससे भी बुरे-बुरे उदहारण बताने लगे कि पूना में भी एक खतरनाक
डायरेक्टर ने किसी को पागल कर दिया था। यह तो ऑफिस है ना, दो वक्त की रोटी के लिए चुपचाप इन भैण के... की चाकरी करते रहो,' सुक्खू को बहुत गुस्सा आ रहा था।
'पूना का वह पागल आदमी कह रहे थे कि बाद में बनियान और पैंट पहने टेबल पर पाँव रखे अधमरा सा ही ड्यूटी पर बैठा रहता। शर्ट पहनकर आता तो उसके बटन जानबूझ कर खुले
रखता (जैसे विद्रोह की अभिव्यक्ति का यही एक तरीका हो उसके पास) और एक दिन वह मर गया। आह...' सुक्खू जैसे कराह सा पड़ा।
विजिलेंस ऑफिसरों ने जा कर उस पोलिस इंस्पेक्टर को सँभाला जो नवेंदु की बीवी का एफ.आई.आर. तैयार कर रहा था। सब ने इंस्पेक्टर को खूब झाड़ पिलाई। वह तो याद रखेगा
बस... कि यह मिनिस्ट्री का ऑफिस है कोई पोलिस के बाप की खेती नहीं कि आप एफ.आई.आर. लिखने बैठ गए हो। आप होश में तो हो? इस औरत की शिकायत की हम ऑफिस में ही जाँच
कर लेंगे और जिम्मेदार व्यक्ति पर कार्रवाई कर देंगे। ऐसी कार्रवाई करेंगे कि जिंदगी भर फिर कोई ऐसी हरकत कर ही नहीं पाएगा! आखिर इंस्पेक्टर ने हार कर नवेंदु की
बीवी को ही कह दिया कि ठीक है, आप अपनी शिकायत ऑफिस में लिखकर दे दीजिए। नवेंदु की बीवी इंस्पेक्टर पर चीखने लगी तो ऑफिस से गई कुछ 'सभ्य' सी महिलाओं ने जो चीफ
डायरेक्टर ने भेजी थीं, उसे पीछे से बाँहों में सँभाल लिया।' बुद्धू को ये सब सुनकर अपार दुख हुआ और वह गर्दन झुकाकर काम में लग गया।
अगली ड्यूटी दो दिन बाद थी और बुद्धू दोपहर की ड्यूटी में आया तो एक और ही ड्रामा चल पड़ा। उस दिन भी बड़ा भसीन हमेशा की तरह सुबह-सुबह आया था और आधा घंटा अपना
काम करके अपनी मोटरसाइकिल में कहीं खिसक गया था। भसीन (बड़ा) इस बात के लिए हर जगह मशहूर है कि वह किसी भी ऑफिस में जाए तो वहाँ जेनरेटर का पेट्रोल अपनी
मोटरसाइकिल में भी डाल लेता है। किसी भी शरीफ आदमी को कभी भी पकड़कर बाहर किसी कॉफी हाउस ले जाता है और बीस-तीस का माल खाकर ही लौटता है। बड़े भसीन की शख्सियत ऐसी
कि हर कोई उसकी या तो खुशामद करता है या मौका पाकर उससे कन्नी काट जाता है। सोचता होगा - 'ना इनकी दोस्ती अच्छी, ना इनकी दुश्मनी अच्छी।' एक दिन बुद्धू को जंगल
ऑफिस में जो एक्सट्रा ड्यूटियाँ उसने की थी, उसका पैंतीस रुपये ओवरटाइम मिला तो वह भी बड़े भसीन की चपेट में आ गया और उसे चुपचाप ले गया कॉफी हाउस। वहाँ पंद्रह
रुपये का माल उसे खिलाकर खुद केवल अठतालीस पैसे की कॉफी पी कर ही संतुष्ट रहा बुद्धू। रेस्तराँ से निकलकर बड़ा भसीन एक पान सिगरेट वाले के पास रुका जो एक पेड़ की
छाँव में जमीन पर पल्थी मारकर बैठा पान-सिगरेट की दुकान चला रहा था।
उसे विल्स किंगसाइज सिगरेट की एक डिब्बी का ऑर्डर दे दिया भसीन ने। फिर उसने अचानक अपना बटुआ भी निकाल लिया जिसमें नोटों का एक मोटा सा पुलिंदा साफ झलक रहा था।
पर अगले क्षण उसने वह बटुआ जेब में भी डाल दिया और जेब में हाथ डालकर अँगुलियों से टटोल कर एक चवन्नी खोज ली और सिगरेट वाले से कहा - 'चलो, एक ही सिगरेट दे दो,
विल्स किंगसाइज की।' यह बुद्धू को अधिक स्वाभाविक लगा क्योंकि अपनी सीट पर तो बड़ा भसीन कभी अपनी खरीदी सिगरेट पीता ही नहीं! कोई ना कोई उसकी खिदमत में पेश हो ही
जाता है।
बुद्धू ने देखा थोड़ी ही दूर एक कॉलेज की खूबसूरत सी लड़की खड़ी थी जो मात्र संयोग से इस तरफ देख रही थी। बड़े भसीन ने सिगरेट वहीं एक पेड़ के तने पर लटकी सुलगती
रस्सी से सुलगा ली और चल पड़ा। फिर साथ में लटककर से चलते हुए बुद्धू पर अपना प्रभाव डालता बोला - 'मैं उस लड़की को पैसे का नजारा दिखा रहा था, मेरे पास कितना
पैसा है! चली आएगी किसी दिन!' बुद्धू के लिए कुछ कहने को तो था नहीं, सो वह चुपचाप इस क्रिमिनल भसीन की बातें सुनता जंगल ऑफिस में अपनी सीट पर आ बैठा। पर उस दिन
जब बुद्धू दोपहर की ड्यूटी पर था और बड़ा भसीन नहीं था तब जंगल ऑफिस का मि. प्रसाद जो बिहार से आया एक शरीफ सा आदमी है, सबको अपनी एक और ही राम कहानी सुनाने लगा
था। प्रसाद ने सबको बताया कि एक आउटस्टेशन पर तीनेक साल पहले बड़े भसीन ने उसको आ कर रिलीव किया था और प्रसाद खुद ट्रांसफर होकर दिल्ली आ रहा था। पर बड़े भसीन ने
प्रसाद से कहा था कि अब जो वह यहाँ नया-नया आया है, सो वह यहाँ रहेगा कहाँ, सो वह उसे अपना क्वार्टर दे जाएँ। वह यथावत प्रसाद के नाम किराया जमा कराता रहेगा।
वहाँ सिस्टम दसुआ से कुछ भिन्न था। वहाँ किराया तनख्वाह से अपने आप नहीं कटता था, वरन कर्मचारी को तनख्वाह मिलने के बाद संबंधित दफ्तर जा कर जमा कराना होता था।
पर बड़े भसीन ने तो कोई किराया जमा कराया ही नहीं जी! और अचानक वहाँ के ऑफिस से यहाँ हेडक्वार्टर को एक नोटिस आ टपका। नतीजा यह कि प्रसाद की तनख्वाह में से ऑफिस
ने दो सौ रुपये इस बार झटक लिए और एक मेमो ठोक दिया कि बाकी की गर्दन आपकी एक-सौ-छियानवे के रूप में अगले महीने ही नापी जाएँगी! प्रसाद दुख के मारे यह बात सबको
बता रहा था पर पता सबको था और प्रसाद को भी कि जो पैसे बड़े भसीन ने छीन लिए। ना उसको कोई कुछ कहने वाला पैदा हुआ है ना हो सकेगा! और प्रसाद सबसे सहानुभूति
बटोरने के लिए ही मानो यह दुख भरी कहानी सबको सुना रहा था, अंत में चुप्पी की कड़वी दवाई पी कर सीट पर जा कर बैठ गया।
बुद्धू सोचने लगा जैसे कभी-कभी गली में चलते-चलते कोई गिरहकट मिल जाता है और चक्कू की नोंक पर पैसे टीप लेता है, वैसे किसी न किसी रूप में यहाँ ऑफिसों में भी
गिरहकट मिल जाते हैं शायद। प्रसाद तो अब मन ही मन अपने आने वाले दो महीनों की बजट बनाने में लग गया था! जाने कैसे पूरी होगी, बच्चों की फीस, बीवी को घर खर्च के
लिए दी जाने वाली रकम?
किसी ने पूछा - 'पर यह भी तो कोई बताए कि भसीन वहाँ उस आउटस्टेशन तक पहुँचा कैसे?'
बड़े भसीन के बारे में तो लोग ऐसी बातें चटखारे ले लेकर बताते हैं कि एक कोई डायरेक्टर तनेजा था पहले जिस ने इससे पंगा ले लिया था। तब यह यहीं दिल्ली हेडक्वार्टर
में पोस्टेड था और इसने जा कर तनेजा को चेतावनी दे दी थी कि 'तुमने मुझसे पंगा लिया है, सो अब देखना मैं तुम्हें कैसे सीधा करता हूँ' डायरेक्टर तनेजा ने किसी
बहस में इससे कह दिया था कि 'डोंट स्पीक मोर नउ, अदरवाइज आइ विल किक यू फ्रॉम हेयर (अब तुम ज्यादा मत बोलो, वर्ना मैं तुम्हें यहाँ से धक्का देकर बाहर कर
दूँगा)।' तब यह बोला था कि 'इफ यू किक मी फ्रॉम हेयर, आइ मे कम बैक, बट इफ आइ किक यूअर स्कल फ्रॉम हेयर, इट विल नॉट कम बैक (अगर आप मुझे धक्का दे देंगे तो मैं
यहाँ वापस भी आ सकता हूँ पर अगर मैंने आपकी खोपड़ी यहाँ से उड़ा दी तो वह वापस नहीं आएगी!)।' सब चटखारे से लेते हैं ऐसी बातों का बयान करते और सुनते। फिर एक ने
हँसते-हँसते यह दास्तान बताने वाले को याद करा दिया था - 'वो लड़कियों वाली बात भी तो बताओ ना!'
'हाँ,' बताने वाला खुश हो गया और सबको याद कराने लगा - 'इसने क्या किया था कि बहुत सी लड़कियाँ जाने कहाँ से पटा लाया था। कम से कम एक दर्जन थीं वे और सब की सब
चालू होगीं साली। जाने कौन से अड्डे से लाया था यह उन्हें? सब लड़कियों को डायरेक्टर तनेजा के कमरे में किसी बहाने भेज दिया और सहसा कमरे को बाहर से कुंडी लगाकर
चिल्लाने लगा कि 'देखो-देखो, डायरेक्टर के कमरे में लड़कियाँ! एक नंबर का बदमाश है अपना डायरेक्टर... थोड़ी ही देर बाद...' और इस बात पर कहकहे का एक कोरस सा सुनाई
देता है बुद्धू को। 'डायरेक्टर थोड़ी ही देर बाद बदहवास सा अंदर से दरवाजा भड़भड़ाने लगा बेचारा। लड़कियों में से कोई चैंबर में रखी किसी कुर्सी पर बैठ गई तो
कोई-कोई टेबल पर ही पोज सा बनाकर लेट गई, अपनी कोहनी टेबल पर टिकाए और हथेली पर चेहरा टिकाकर खिलखिलाने लगी... एक लड़की तो जा कर कुर्सी पर बैठे तनेजा की गोद में
बैठकर उसके गले में बाँहों का हार डालने की कोशिश करने लगी और तनेजा उसे किसी प्रकार धक्का देकर दौड़ा हुआ दरवाजे तक आ गया। बाहर बहुत से लोग जमा हो गए थे पर पता
सबको था कि यह सब ड्रामा है भसीन का और कि डायरेक्टर ऐसा कर ही नहीं सकता, वह भी ऑफिस में। सब लोग वहाँ लेकिन मजे ले रहे थे सीन का जैसे सोच रहे हों - 'क्या सीन
है!' बड़ी मुश्किल से तनेजा की जान छूटी थी। भसीन उन चालू लड़कियों को लेकर फौरन वहाँ से चंपत हो गया था। तनेजा डायरेक्टर ने खूब लंबा-चौड़ा पत्र-व्यवहार किया था
ऊपर वालों से पर किसी की हिम्मत नहीं कि बड़े भसीन की... का बाल भी उखाड़ सके। आखिर एक प्रोमोशन आया तो प्रोमोशन के बहाने उसे उस आउटस्टेशन पटक दिया गया जहाँ उसने
जा कर सबसे पहले प्रसाद का क्वार्टर हड़प लिया था...' लड़कियों वाला प्रसंग सुनकर बुद्धू को लगा कि कुछ लोग तो ऑफिस में ही यूनिवर्सिटी जैसी गुंडागर्दी तक फैला
देते हैं। ऑफिस है जाने मजाक। सरकार मानो नपुंसक सी कोई चीज हो...।
'बड़ा भसीन तो ट्रांसफर पर जाते-जाते तनेजा की बेटी को भी छेड़ गया था!' किसी को एक और दिलचस्प बॉक्स ऑफिस हिट किस्सा याद आ गया तो सुनाने लगा। 'कैश ब्रांच से
ट्रांसफर पर जाने का एडवांस लेते समय कॉरीडॉर में उसने देखा साड़ी में कोई अनदेखी सी महिला तनेजा के चैंबर की तरफ बढ़ रही है। किसी ने उसे बता दिया कि यह तो तनेजा
साहब की बेटी है, अभी कुछ ही दिन में शादी है इसकी। बड़ा भसीन चलता-चलता तनेजा की उस लंबी सी बेटी के पास पहुँच उसके साथ-साथ चलने लगा। फिर सहसा उसके कंधों के
गिर्द अपनी बाँह डाल दी हीरो ने।' सब ही ही ही ही करके हँसने लगे। 'तनेजा की बेटी इस अप्रत्याशित हमले से बौखलाई सी और बुरी तरह घबराती हुई सी तनेजा साहब के
चैंबर की तरफ दौड़ गई।' यह प्रसंग सुनकर किसी ने इस प्रसंग पर बड़े भसीन की रेटिंग भी कर दी - 'पर यार कुछ भी कहो, है हिम्मत वाला अपना भसीन।'
'हिट विलेन है साला हिट,' एक और ने अपना कमेंट उछाल दिया।
यहाँ किस्सों की कोई कमी नहीं। एक दिन बुद्धू मॉर्निंग ड्यूटी पर था कि गपोड़बाजी के दौरान किसी ने एक खबर उछाल दी - 'बलबीर ने तो डिपार्टमेंट को ही फुद्दू बना
दिया भाई!'
बलबीर सिंह भी हेडक्वार्टर में है और पता चला कि उसने अमरीका जाने के लिए 'नो ऑब्जेक्शन सर्टीफिकेट' की गुहार लगा दी थी पर ऑफिस ने किसी कारण उसकी गुहार को रद्द
कर दिया था। बलबीर सिंह कई दिन परेशान रहा था पर फिर अचानक खबर आई कि बलबीर सिंह की तो जान ही खतरे में पड़ गई है! किसी ने बताया उसके घर में प्रॉपर्टी का झगड़ा
चल पड़ा है और उसने लिखकर दे दिया है कि उसकी तो जान खतरे में है, उसका किसी भी दिन खून हो सकता है, उसके भाई शाम को उसके इंतजार में दफ्तर के बाहर तैनात हो जाते
हैं ताकि किसी भी दिन उसके बाहर निकलते ही उसका काम तमाम कर दें। बलबीर सिंह ने सुब्रह्मण्यम के हाथ-पाँव जोड़े और सुब्रह्मण्यम को तो ऐसे गिड़गिड़ाने वाले मुर्गे
चाहिए ही जो सुबह शाम उसकी परिक्रमा करते रहें। सुब्रह्मण्यम ने दफ्तर के कई सिक्युरिटी वालों से बात की जिन में से कोई ना कोई बढ़कर बलबीर सिंह को जीप में छोड़
आता था। बलबीर सिंह ऐसा चालू निकला कि सुब्रह्मण्यम को रोज दूर से ही दिखा देता कि वो देखो सा'ब, वो मेरे भाई हैं, इनके हाथों में तो कृपाण भी होती है।
सुब्रह्मण्यम जैसे तीखे आदमी को भी झाँसा दे गया बलबीर, और एक दिन बलबीर के फादर आ गए अमरीका से। दरअसल बलबीर सिंह के फादर ही अमरीका में बिजनेस चला रहे थे और
चाहते थे कि उनका बेटा बलबीर आ कर बिजनेस में हाथ बटाए। वहाँ अपना धंधा फैला चुके थे वे। वे आ कर सुब्रह्मण्यम से मिले कि मैं अपने बेटों के झगड़े में ही फँस गया
हूँ। यहाँ रहेगा बलबीर तो किसी भी दिन कुछ भी हो सकता है। इसीलिए आपसे हाथ जोड़कर वेनती है मेरी कि किसी प्रकार इसे अमरीका के लिए नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट दिलवा
दीजिए। जिस दिन इन भाइयों में वाहगुरु सद्बुद्धि का वास करेगा और ये सही राह आ जाएँगे उस दिन यह आ कर फिर ड्यूटी चढ़ जाएँगे और कोई बात नहीं जी। और सुब्रह्मण्यम
अच्छा चूतिया बना साला। जा कर प्रशासन की नींद हराम कर दी कि उसकी जान खतरे में है और किसी दिन ऑफिस के बाहर ही मर्डर-वर्डर हो गया तो ऑफिस क्या जवाब देगा
दुनिया को। आखिर ऊपर वालों ने भी कागजात और फाइलों में कुछ एडजस्टमेंट किया और अपने कमेंट्स में कुछ शर्बत-वर्बत डालकर कायदे कानून में कुछ हेरफेर करके बलबीर को
पहुँचा दिया अमरीका!
बुद्धू सोचने लगा हमारे विभाग में आखिर लोग काम किस समय करते हैं? कुल मिलाकर हर व्यक्ति के पास औसतन एक घंटे का काम है और बाकी सारा समय या तो गप्पें चलती हैं
या किसी न किसी बात पर मारामारी। झगड़ा करना हो तो किसी भी बात पर कर लो या कोई तमाशा खड़ाकर दो यहाँ। एक दिन किसी के हाथों से एक इंस्ट्रुमेंट गिर गया जिसका
बनर्जी को पता नहीं चला। सब लोग बेचैन से हो गए कि बनर्जी को पता तो चले कि इंस्ट्रुमेंट किसके हाथों गिरा है। आखिर उस व्यक्ति ने सबको चाय पिला दी तो मामला
फौरन दब गया। सारी ब्यूरोक्रेसी ही मानो मुफ्त की चाय पर टिकी है बस। खालीपन बढ़ता जा रहा है। बुद्धू ने पढ़ा था - 'आईडिलनेस इज ए हॉलीडे ऑफ फूल्स (खालीपन मूर्खों
का त्यौहार है)।' चाहे हेडक्वार्टर के थोड़े से विजिट हो चाहे यहाँ की एक साल की जिंदगी, बुद्धू को लगा कि किसी के पास कोई काम है ही नहीं इसीलिए सबके सब निकम्मे
और भ्रष्ट होते जा रहे हैं जिसका शायद सरकार को पता भी होगा पर सरकार नहीं चाहती कि वह मय अपने निकम्मेपन सारी दुनिया के सामने नंगी खड़ी नजर आए।
बुद्धू लेकिन एक दिन नाइट ड्यूटी में एक ऐप्लीकेशन लिखने बैठ गया कि उसका ट्रांसफर दिल्ली के नजदीक ही किसी आउटस्टेशन पर कर दिया जाएँ। बुद्धू ने दिल्ली के
नजदीक का आउटस्टेशन इसलिए चुना कि वह जब मर्जी दिल्ली आ कर अपने परिवार से मिल भी लेगा और माँ-बाप भी खुश रहेंगे। उसके माता-पिता दोनों अब काफी वृद्ध हो चले थे
और बीमार रहने लगे थे। यहाँ दिल्ली से तो किसी आउटस्टेशन जाने वाले लोग अक्सर वापस दिल्ली ट्रांसफर के लिए हेडक्वार्टर की जान खाते रहते हैं कि हो जाए तो आ कर
घर परिवार में सुखी हो और एक बुद्धू है कि आउटस्टेशन के लिए तड़प रहा है क्योंकि यहाँ उसका दिल नहीं लग रहा! डायरेक्टर को तो ऐसे मौके चाहिए होते हैं। दिल्ली के
निकट ही एक आउटस्टेशन सोनीपत का इंचार्ज तो रोज ऐप्लीकेशन पर एप्लीकेशन दे रहा है कि मुझे दिल्ली वापस बुलाओ। मौका पाते ही डायरेक्टर ने क्या किया कि आखिर अपनी
कलम चला ही दी और एक दिन बुद्धू चुपचाप काम कर रहा था कि उसकी टेबल पर अचानक एक फाइल आ टपकती है। बुद्धू का ट्रांसफर सोनीपत हो गया जो दिल्ली से केवल साठ
किलोमीटर दूर है और हर हफ्ते या जब मर्जी दिल्ली आना हो तो गाड़ी केवल एक घंटा लेती है। बुद्धू को जाने क्यों, बहुत अच्छा लगा, हालाँकि किसी ने बताया कि इस
आउटस्टेशन पर तो केवल दो ही जने हैं, दसुआ की तरह तीन भी नहीं। इसलिए छुट्टी-वुट्टी माँगने में बड़ी तकलीफ होगी। जब तक हेडक्वार्टर से कोई रिलीवर नहीं आएगा तब तक
एक दिन भी छुट्टी जाना मुश्किल होगा। पर बुद्धू सोचता था कि नौकरी काफी शांतिपूर्ण होगी। सो बुद्धू एक दिन घर में काफी देर अपना सूटकेस तैयार करता रहा और सोनीपत
के संभावित जीवन के बारे में भी सोचने लगा। आखिर वह माँ-बाप का आशीर्वाद लेकर और भाई-बहनों से गले मिलकर चला आया सोनीपत। उसकी सिस्टर ने ही बताया कि सुबह-सुबह
अमृतसर एक्सप्रेस जाती है और जा कर ज्वाइन कर लो। कभी दोपहर को जाना हो तो बारह चालीस पर फ्लाईंग मेल भी जाती है जो पैंतालीस मिनट में ही सोनीपत पहुँचा देती है!
बुद्धू चल पड़ा।