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लघुकथाएँ

जनसेवक

दीपक मशाल


लोकतंत्र का स्थानीय त्यौहार था। बारह बजे के बाद पोल बूथों पर गहमा-गहमी बढ़ने लगी थी। सेवा समिति के लोग एक घर के बाहर आ खड़े हुए और घर के प्रौढ़ सदस्य को भीतर भेज दिया गया। नतीजतन अंदर से मनुहार की आवाजें आनी शुरू हो गई थीं।

- अब चलिए भी दद्दा, दस-पंद्रह मिनट की तो बात है।

- अरे का बात करते हो बेटा, तुम सबको पता है कि इस बुढ़ापे में मुझसे चला भी नहीं जाता।

- उसकी चिंता आप मत करो, हम चार लोग आपको रिक्शा पे पोलिंग बूथ पहुँचा देंगे और वापस भी ले आएँगे.

- ना बेटा पिछले चुनाव में लोग ले तो बड़े साके से गए थे लेकिन भेजवे की खबर कोउ कों न रइ थी और तुमऊ कों जाने का काम आ परो थो सो तुमऊ चले गए थे, फिर सबई तो लठैत खड़े हैं जा चुनाव में का फायदा वोट डारे को।

- ओ शंकरा, आजा भीतर तनिक डुकरा ऐंसे कोन मानेगो.... मनाएँ-मनाएँ धोबी गधा पे कोंन चढ़त। अब माफ करियो दद्दा, आखिर हमऊ खों भैया जू के एक साइकिल और दो अंगरेजी खंभन के बदले वोट तो तुमाओ दिलाने है।


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