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लघुकथाएँ

जिजीविषा

दीपक मशाल


एक-दो रोज की बात होती तो इतना क्लेश न होता लेकिन जब ये रोज की ही बात हो गई तो एक दिन बहूरानी भड़क गई।

- देखिए जी आप अपनी अम्मा से बात करिए जरा, उनकी सहेली बूढ़ी अम्मा जो रोज-रोज हमारे घर में रहने-खाने चली आती हैं वो मुझे बिलकुल पसंद नहीं।

- लेकिन कविता, उनके आ जाने से बिस्तर में अशक्त पड़ीं अपनी अम्मा का जी लगा रहता है...

गृहस्वामी ने समझाने की कोशिश की।

- अरे!! ये क्या बात हुई कि जी लगा रहता है! आना-जाना भर हो तो ठीक भी है मगर उन्होंने तो डेरा ही जमा लिया है हमारे घर में...

स्वामिनी और भी भड़क उठी। दूसरी ओर से फिर शांत उत्तर आया -

- अब तुम्हें पता तो है कि बेचारी के बेटों ने घर से निकाल दिया... ऐसी सर्दी में वो जाएँ भी कहाँ?

- गजब ही करते हैं आप... घर से निकाल दिया तो हमने ठेका ले रखा है क्या उनका? जहाँ जी चाहे जाएँ... हम क्यों उन पर अपनी रोटियाँ बर्बाद करें?

मामला बढ़ता देख हार कर गृहस्वामी ने कहा -

- ठीक है तुम्हे जो उचित लगे करो... उनसे जाकर प्यार से कोई बहाना बना दो।

- हाँ मैं ही जाती हूँ... तुम्हारी सज्जनता की इमेज पर कोई आँच नहीं आनी चाहिए, घर लुटे तो लुटे...

भुनभुनाती हुई कविता घर के बाहर वाले कमरे में अपनी सास के पास बैठी बूढ़ी अम्मा को जाने को कहने के लिए वहाँ पहुँची। पहुँचकर देखा कि बूढ़ी अम्मा अपनी झुकी कमर, किस्मत और बुढ़ापे का बोझ एक डंडे पर डाले, मैली-कुचैली पोटली काँख में दबाए खुद ही धीरे-धीरे करके घर के बाहर की ओर जा रही थीं। अंदर चल रही बहस की आवाज उन तक न पहुँचती इतना बड़ा घर न था। आँखों में आँसू भरे उसकी बेबस सास अपनी सहेली को रोक भी न सकी।

मगर शाम को रोटियाँ फिर भी बर्बाद हुई, अम्मा खाने की तरफ देखे बगैर भूखी ही सो गई थीं।


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