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उपन्यास

घर

विभूति नारायण राय

अनुक्रम

अनुक्रम समीकरण पेंशन और बाजार भाव का     आगे

मुंशीजी का दिन शुरू हो गया है। पीली, मटमैली धूप के चकत्ते बीमार शरीर पर फैले कोढ़ के दाग की तरह छत पर इधर-उधर पसर गए हैं। रिटायर होने के बावजूद मुंशीजी बहुत सारी आदतें नहीं छोड़ पाए हैं, जिनमें से एक अलस्सुबह धूप की उजास में बैठकर अखबार पढ़ना है। उन दिनों जब मुंशीजी को भोर में उठकर ट्यूशन पढ़ाने तीन मील पैदल जाना पड़ता था, तब भी वे इसी तरह अपने दिन की शुरुआत करते थे और आज जब पूरा दिन खाली-खाली-सा बीतता है, तब भी दिन की शुरुआत इसी तरह होती है। फर्क सिर्फ इतना आया कि उन दिनों भाग-दौड़ में सिर्फ हेडलाइन्स देख पाते थे, पूरी खबरें तो सबेरे के तीनों ट्यूशन खत्म करने के बाद खाना खाते समय या स्कूल जाते समय रास्ते में पढ़ पाते थे। आजकल तो पूरा अखबार एक बैठक में चाट जाते हैं। यहाँ तक कि फिल्मी पन्ने से लेकर बाजार भाव तक कुछ भी नहीं बचता। अखबार पढ़ते समय वे लगातार बीड़ियाँ फूँकते रहते हैं और जब तक अखबार खत्म होता है, तब तक खत्म होनेवाली एक बंडल बीड़ियाँ अपना असर दिखाने लगती हैं और उन्हें पाखाने की तलब महसूस होने लगती है।

हालाँकि आज का दिन अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट था लेकिन शुरू इसी तरह हुआ। महीने में एक दिन उन्हें पेंशन लेने सरकारी खजाने तक जाना पड़ता है। यही एक दिन ऐसा होता है जब उन्हें बहुत सारी चीजें सार्थक लगने लगती हैं। उस दिन वे झाड़-पोंछकर उस कोट को एक बार फिर से पहनते हैं जिसे वे शुरू से ही खास मौकों पर पहनते आए हैं। उनकी घटना-विहीन जिंदगी में ये खास मौके कभी-कभी ही आते थे। जब कभी डिप्टी साहब का मुआयना होता या वे जिले के किसी अफसर को सलाम करने मुख्यालय जाते या बच्चों को बहका-फुसला कर तारा के साथ कभी-कभार सिनेमा देखने चले जाते-तभी इस कोट को पहनने की नौबत आती, वरना उस कस्बाई स्कूलों में जहाँ वे पढ़ाते रहे हैं, बिना इसे पहने उनका काम ज्यादा सहजता से चल जाता रहा है। रिटायर होने और तारा की मृत्यु के बाद तो इस कोट का इस्तेमाल और भी कम हो गया है। रिटायरमेंट के बाद शुरू-शुरू में जरूर उन्हें इस बात का शौक था कि शाम को अपने एकमात्र कोट को पहनकर वे पार्क की तरफ निकल जाएँ, देर तक टहलें, पेंशन-याफ्ता बाबुओं से दुनिया-भर की बातों पर बहसें करें और फिर लाइब्रेरी से होते हुए देर रात बीते घर लौटें। लेकिन अब तो उन्होंने बाहर निकलना भी काफी कम कर दिया है। एक तो गठिया बीच-बीच में उभर आता है, दूसरे बाहर निकलते ही तरह-तरह की बातें सुननी पड़ती हैं, खासतौर से राजकुमारी के बारे में, इसलिए वे भरसक घर से कम ही निकलते हैं।

जाड़े की सुबह होने की वजह से धूप के धब्बे सुखद लग रहे थे। लेकिन उठना तो था ही क्योंकि अभी आधे-एक घंटे तो उन्हें नहाने-धोने में ही लग जाएँगे। तब तक बगल के बड़े बाबू की लड़की ट्यूशन पढ़ने आ जाएगी। पढ़ाते-पढ़ाते नौ बज जाएँगे ओर उन्हें भाग-दौड़ में कपड़ा पहनने से लेकर खाना खाने तक का काम करना पड़ेगा क्योंकि खजाने में जल्दी पहुँचकर बाबुओं की चिरौरी नहीं शुरू की तो पूरा दिन खराब और फिर दूसरे दिन इसी कार्यक्रम को दोहराना पड़ेगा। अपनी बेजान टाँगों में गर्माहट लाने के लिए उन्होंने उसे हथेलियों से रगड़ा, आगे-पीछे चलाया और फिर काँखते हुए उठ खड़े हुए।

मुंशीजी सीढ़ियाँ उतरकर गली में आए तो करीब नौ बज रहा था। जाड़े की सुबह धीरे-धीरे गर्मा रही थी। गली में अभी भी कुछ अंगीठियाँ अपने-अपने दरवाजों के सामने पड़ी सुलग रही थीं। गनीमत थी कि इस समय अँगीठियाँ काफी कम थीं, इसलिए धुआँ भी काफी कम हो गया था वरना सुबह इधर से निकलना, मुंशीजी के लिए यातना से कम नहीं होता। रिटायर होने के पहले मुंशीजी छोटे-छोटे देहाती या कस्बाई स्कूलों में रहे थे जहाँ और चाहे जितनी असुविधाएँ रही हों, कम-से-कम, हवा तो साफ मिलती थी। मुंशीजी का मन विरक्ति से भर गया। उनकी कितनी साध थी कि रिटायर होने के बाद अपने गाँव चलकर रहा जाए। रिटायरमेंट करीब आने पर जिद्द करके मुंशीजी ने गाढ़े वक्त के लिए बचाया हुआ प्राविडेंट फंड का आधा पैसा निकालकर गाँव में पैतृक मकान के पास अपने लिए एक अलग मकान बनाने पर लगा दिया था। तारा ने बहुत समझाया कि मौका पड़ने पर भाई-भौजाई कोई साथ नहीं देगा। लेकिन वे नहीं माने। आज न तारा है और न ही मुंशीजी को भाइयों-भौजाइयों ने गाँव में फटकने दिया। मुंशीजी ने धुएँ की कड़ुआहट से बचने के लिए आँखें बंद कर लीं। पता नहीं वह धुएँ का तीखापन था या तारा की याद, उनकी आँखों में पानी छलछला आया। वे न तो फौजदारी कर सकते हैं और न ही उनके पास मुकदमेंबाजी के लिए पर्याप्त धैर्य और पैसा ही है, इसलिए उन्हें इसी मकान में रहना है। मकान के बारे में सोचना उनके लिए हमेशा कष्टदायक होता है, लिहाजा उन्होंने अपने सर को झटका दिया और आस-पास बिखरे कूड़े और पाखाने के ढेर से बचकर गली पार करने लगे।

गली के मोड़ पर मुहल्ले के कुछ लड़के स्कूल जाने की तैयारी में खड़े सिटी बस का इंतजार कर रहे थे। उन्हें देखते ही मुंशीजी के दिल की धड़कन बढ़ गई। अभी तक लड़कों ने उन्हें नहीं देखा था। वे आपस में ही चुहलबाजियाँ कर रहे थे और हँस रहे थे। मुंशीजी को लगा कि वे उन्हीं पर हँस रहे हैं और उनकी चाल और धीमी हो गई। वे गली की दीवार से सटकर चलने लगे ताकि कुछ देर और लड़कों के लिए अदृश्य बने रहें। इतना तो वे बचपन में परभू से भी से भी नहीं डरते थे। परभू का घर ठीक स्कूल जाने के रास्ते में पड़ता था। जब तक गाँव का स्कूल छूटा नहीं, मुंशीजी के लिए स्कूल की तैयारी परभू की उपस्थिति से जुड़ी रही। कितना मनाते थे कि आज परभू से मुलाकात न हो लेकिन परभू तो जैसे रोज उन्हीं की ताक में बैठा रहता था। उन्हें देखते ही उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान दौड़ जाती थी। कितना छेड़ता था उन्हें, रोज वे रुआँसे हो जाते, कभी-कभी तो रोने लगते। अक्सर माँ के कमरे में छिप जाते लेकिन स्कूल जाने के वक्त पिता ढूँढ़ ही निकालते। गाँव का स्कूल छूटने पर ही उससे मुक्ति मिली थी। बरसों बाद चटखारे ले-लेकर उन्होंने तारा को अपने छेड़े जाने की कथा सुनाई थी। कभी-कभी तारा भी शरारतन परभू की नकल में उन्हें लड़की कहकर चिढ़ाती थी लेकिन पहले की तरह न तो उनकी कनपटी लाल होती थी और न ही आवाज रुँधती थी। वे सहज भाव से हँस देते थे।

लड़के बहुत करीब आ गए थे। उनमें से कुछ की नजर मुंशीजी पर पड़ी। उनकी आँखों में शरारत तैर गई। निर्विकार तटस्थता का भाव चेहरे पर ओढ़े मुंशीजी ने उनके बगल से गुजर जाना चाहा। उनके बगल में पहुँचते ही एक लड़के ने अपनी बाईं आँख दबाई और अस्फुट स्वर में कुछ कहा। सारे लड़के हो-हो करके हँसने लगे। मुंशीजी के कानों में केवल ‘राज’ शब्द पड़ा। उनकी चाल तेज हो गई। गर्दन झुकाकर वहाँ से निकल जाना क्या इतना आसान था? अक्सर यही होता है। लगता है, जलती झाड़ियों में से होकर निकल रहे हैं। लाख बचाने पर भी अंदर-बाहर कुछ-न-कुछ जल जरूर जाता है। काफी दूर आकर मुंशीजी ने दम लिया। तेज चलने के कारण उनकी साँस फूलने लगी थी। लड़के पीछे छूट गए थे और अपमान व पीड़ा का दंश लिए मुंशीजी धीरे-धीरे घिसटने लगे।

शुरू-शुरू में यह अपमान ज्यादा सालता था लेकिन अब तो मुंशीजी इसके आदी होते जा रहे हैं। पहले जब कभी बाहर से इस तरह अपमानित होकर मुंशीजी लौटते; घर आकर राजकुमारी की बेतरह धुनाई करते। मारते-मारते जब थक जाते तो छत पर एक कोने मुँह लपेटे पड़े रहते। उस समय तारा की याद आती। अगर कहीं तारा जीवित होती तो इतना मार पाते राजकुमारी को? कितना चाहती थी इसे - लड़कों से भी ज्यादा। तारा जिंदा होती तो यह नौबत ही क्यों आती। बिन माँ की लौंडिया को भटकने में कितना वक्त लगता है, फिर अब तो राजकुमारी की बात सोचकर मुंशीजी खुद शरमाने लगे हैं। उसकी इस स्थिति के लिए मुंशीजी क्या कम जिम्मेदार हैं। शादी की उम्र निकलती ही जा रही है, अभी तक मुंशीजी कोई जुगाड़ नहीं बैठा पाए। गाँव के घर को ठीक कराने के लिए निकाले गए रुपयों के बाद प्राविडेंट-फंड में नौ हजार रुपए बचे थे। सोचा था, इतने में राजकुमारी के हाथ पीले कर देंगे। बीच में तारा बीमार पड़ गई। बदहवास मुंशीजी ने उसके इलाज के लिए बेतहाशा कर्जे लिए। वे किसी भी कीमत पर तारा को बचाना चाहते थे। उन्हें पता था कि अगर तारा ने भी साथ छोड़ दिया तो रिटायरमेंट के बाद बाकी बची जिंदगी को गुजारना किस कदर यातना-पूर्ण होगा। उनके सारे प्रयत्नों के बावजूद तारा बचाई नहीं जा सकी। सारे खर्चे चुकाने के बाद प्राविडेंट-फंड में महज साढ़े पाँच हजार और बचे थे। इस पूँजी को लेकर वे बाजार में राजकुमारी के लिए लड़का ढूँढ़ने निकले। शुरू में कुछ मिले भी लेकिन किसी का डील-डौल, रूप-रंग मुंशीजी को पसंद नहीं आया, कोई दुहाजू था तो किसी की माँग मुंशीजी के सामर्थ्य के बाहर निकली। जब तक मुंशीजी की समझ में यह बात आई कि पाँच-छह हजार रुपए लेकर सौदा तय करते समय वे अपनी पसंद-नापसंद की बात नहीं सोच सकते, तब तक काफी देर हो चुकी थी। अब तो राजकुमारी की आँखों के नीचे वर्षों के इंतजार से पड़े काले धब्बे स्पष्ट झलकने लगे थे। अभाव और उपेक्षा से टूटा हुआ शरीर जवानी के शुरूवाले दिनों की चमक ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रख सका था और अट्ठाईस साल की उम्र में ही राजकुमारी बुढ़िया लगने लगी थी। अब तो तीन-चार बच्चों के बाप दुहाजू लड़के भी राजकुमारी को देखकर खामोश रह जाते और मुंशीजी के बहुत आजिजी से चिरौरी करने पर लेन-देने की उस सीमा तक पहुँच जाते जिसे छूना मुंशीजी के सामर्थ्य के बाहर होता। पिछले कुछ दिनों से मुंशीजी चुपचाप बैठ गए हैं। बार-बार का अपमान अब बर्दाश्त नहीं होता। फर्क सिर्फ इतना आया है कि जिंदगी-भर के अविश्वासी मुंशीजी ने नियमित पूजा-पाठ शुरू कर दिया है। रोज सबेरे थोड़ी देर पूजा पर बैठने का नियम बना लिया है। मंत्र-वंत्र तो कुछ आता नहीं - जिंदगी में कभी याद किया नहीं तो आए कैसे - बस चुपचाप आसन पर बैठकर आँखें मूँदे रहते हैं। शुरू-शुरू में पहले कुछ शांति मिलती थी पर अब तो घबराहट होने लगी है। खाली दिमाग में कैसे-कैसे विचार आते हैं। कभी राजकुमारी के बारे में, कभी विनोद के बारे में। अक्सर घबराहट में आँखें खुल जाती हैं और उस दिन उनकी पूजा जल्दी खत्म हो जाती है। लेकिन इसके बावजूद वे पूजा पर बैठते जरूर हैं। केवल पेंशन पानेवाले दिन इसमें नागा पड़ता है।

सोचते-सोचते न जाने कब कटरा पार कर मुंशीजी कचहरी के करीब पहुँच गए। अभी सिर्फ सवा दस बजा था। साढ़े दस बजे के पहले दफ्तर में कोई काम नहीं होगा, इसलिए नीम के पेड़ की छाया में खड़े होकर मुंशीजी सुस्ताने लगे। आस-पास चारों तरफ देखने पर भी कोई परिचित चेहरा नहीं दिखा। पहले हमेशा यहाँ तक पहुँचने पर दो-चार पेंशनयाफ्ता परिचित चेहरे दिखाई दे जाते थे। हो सकता है आज घड़ी कुछ तेज हो इसलिए मुंशीजी कुछ पहले आ गए हों। उन्होंने अपनी कलाई घड़ी को देखा। कितनी साध से जिद करके तारा ने यह घड़ी उनके लिए खरीदी थी। नई-नई नौकरी में मुंशीजी को हमेशा देर हो जाती। हेडमास्टर बहुत खूँखार था, रोज डाँटता। तारा ने काफी मेहनत से छोटी-छोटी जरूरतें काट-काट कर रुपए बचाए थे। मुंशीजी ने सोचा था कि तारा के लिए कोट बनवा देंगे। बेचारी हर साल जाड़ों में कितनी तकलीफें झेलती थी, लेकिन तारा की जिद के आगे उनकी एक न चली। नौकरी की शुरूआत में खरीदी गई घड़ी चालीस साल से उनके साथ थी। अब वे लापरवाह हो गए हैं। पहले घड़ी की सफाई वगैरह का बड़ा ध्यान रखते थे। अब तो कभी-कभी, कई-कई दिनों तक चाभी भी नहीं देते। घटना-विहीन जिंदगी में अब वक्त बहुत मायने भी तो नहीं रखता। सामने से त्रिवेणी चला आ रहा था। मुंशीजी ने छुटकारे की साँस ली। अतीत की अँधेरी सुरंग में भटकना कितना कष्टप्रद हो गया है।

त्रिवेणी ने आते ही मुंशीजी के पैर छुए। मुंशीजी को सुख मिला। त्रिवेणी मुंशीजी का शिष्य रह चुका था। बस्ती जिले के किसी तहसील मुख्यालय पर स्थित स्कूल में मुंशीजी ने उसे पढ़ाया था। नायब तहसीलदार का बेटा था, त्रिवेणी। उसके बाप के जरिए मिलनेवाली छोटी-मोटी सुविधाओं ने उसे अभावग्रस्त अध्यापकों के बीच काफी लोकप्रिय बना दिया था। मुंशीजी को तो वह कुछ खास ही प्रिय था। वे उसके घर ट्यूशन पढ़ाने जाते थे। हर महीने नायब साहब उन्हें पूरे दस रुपए गिनकर देते थे। उस समय के लिहाज से दस रुपए बहुत ज्यादा थे। बाद में पैसे का कोई महत्व नहीं रहा, मुंशीजी घर के आदमी हो गए। तारा के मायके वगैरह जाने पर अकसर वहीं खाना भी खा लेते और नायब साहब से गप्पें लड़ाते वहीं सो जाते। रिटायरमेंट के बाद त्रिवेणी से यकायक मुलाकात हो गई। इसी तरह खजाने के खुलने के इंतजार में मुंशीजी खड़े थे कि किसी ने आकर पैर छुए। पहचानने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। बस्ती छोड़ने के बाद भी त्रिवेणी से मुलाकात होती रही थी। नायब साहब बाद में तहसीलदार हो गए थे। तबादलों के दौर में कई बार मुंशीजी और वे टकराए थे। बाद में कई साल बाद त्रिवेणी से मुलाकात होने पर उन्हें पता चला कि वे अब नही रहे और त्रिवेणी अब वहीं ठेकेदारी कर रहा था। पी.डब्ल्यू.डी. का दफ्तर कचहरी से एकदम सटा हुआ था। मुंशीजी की पेंशनवाले दिन अक्सर त्रिवेणी से वहीं मुलाकात हो जाती थी।

त्रिवेणी हमेशा वही सवाल पूछता है। राजकुमारी कैसी है - शादी का क्या चल रहा है - विनोद की नौकरी का क्या हुआ - पप्पू इस बार तो पास कर लेगा न - मुंशीजी हमेशा वही उत्तर देते हैं। उन्हें कभी भी ऊब नहीं महसूस होती! और कोई पूछता तो शायद होती लेकिन त्रिवेणी के स्वर का अपनत्व उन्हें हमेशा अच्छा लगता है। इस भरे-पूरे शहर में एक ही तो आदमी है जो इतने लगाव से उनसे ऐसे सवाल करता है। वरना लोग कितने औपचारिक हो गए हैं। आवाज में बिना किसी उतार-चढ़ाव के कितने बड़े-बड़े सवाल कर जाते हैं। पहले जब मुंशीजी रोज टहलने निकलते थे तो दिन-रात साथ टहलने वाले पेंशनर्स की तटस्थ निर्वैयक्तिकता मुंशीजी को भीतर तक छील देती थी।

मुंशीजी गंभीरता से त्रिवेणी के सवालों का जवाब देते रहे हैं। राजकुमारी की शादी तो पिछले कई सालों से पक्की है। लड़के को छुट्टी नहीं मिलती इसलिए टलती जा रही है, इस बार साफ लिख दिया है कि करनी हो तो जाड़ों तक करो, नहीं तो हमें अपनी लड़की घर बैठाकर बूढ़ी नहीं करनी है। मुंशीजी जानते हैं कि, त्रिवेणी को पता है कि वे झूठ बोल रहे हैं फिर भी वे हर बार की तरह पूरी गंभीरता से झूठ बोलते हैं। मुंशीजी बड़े गौर से त्रिवेणी की आँखों में झाँकते हैं। त्रिवेणी की आँखों में कहीं भी वैसा भाव नहीं है जैसा अकसर राजकुमारी की बात चलने पर उनके कई परिचितों और मुहल्लेवालों की आँखों में आ जाता है। यहाँ तक कि पचपन साल के पड़ोसी बड़े बाबू की आँखों में भी राजकुमारी का जिक्र चलने पर कैसी वहशी चमक आ जाती है। थू - मुंशीजी के मुँह का स्वाद कड़ुआ हो जाता है। साला बड़ा बाबू। मुंशीजी उसका अपने घर में आना इसलिए बरदाश्त करते हैं, क्योंकि बड़े बाबू की लड़की मुंशीजी के यहाँ ट्यूशन पढ़ने आती है और मुंशीजी को तीस रुपए हर महीने बड़े बाबू से मिलते हैं। एक बार विनोद का कुछ सिलसिला जम जाए, फिर इस बड़े बाबू से भी मुंशीजी निपट लेंगे।

विनोद के बारे में मुंशीजी और चाहे सबसे झूठ बोलें लेकिन त्रिवेणी से कभी झूठ नहीं बोलते। विनोद ने पिछले दिनों कई जगह अप्लाई किया था। कहीं कोई टिप्पस नहीं भिड़ा। मुंशीजी उत्सुकता से त्रिवेणी को सारे विवरण बता रहे हैं। त्रिवेणी को यह बताने के पीछे खास कारण है। कई बार त्रिवेणी ने हल्का-फुल्का आश्वासन दिया था कि अपने दफ्तर के बड़े साहब से कहकर विनोद को कहीं-न-कहीं लगवा देगा। उसके दफ्तर में ही कितनी कैजुअल जगहें निकलती रहती हैं। हर बार मुंशीजी इसी उम्मीद से उसे पूरा विवरण सुनाते थे कि वह अपनी तरफ से कोई-न-कोई पक्का आश्वासन देगा। उनका आत्मसम्मान इस बात को गवारा नहीं कर सकता कि अपने पुराने शिष्य से आजिजी और गिड़गिड़ाहट के साथ अपने लड़के की नौकरी की बात करें। निश्चित था कि त्रिवेणी केवल अति व्यस्तता के कारण ही उनकी मदद नहीं कर पा रहा था, नहीं तो वे अपने शिष्य को अच्छी तरह पहचानते थे। लेकिन ऐसे कब तक चलेगा? कभी-न-कभी तो मुँह खोलकर कहना ही पड़ेगा, आज ही क्यों न कह डालें। अपने स्वर को खँखारकर सहज बनाने की कोशिश करते हैं। तरह-तरह से वाक्य-विन्यास करने की कोशिश करते हैं। बोलने के अंदाज से बेफिक्री जाहिर करने की कोशिश करते हैं। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद जब उनका स्वर फूटता है तो लगता है कि उनकी आवाज भर्रा गई है। हो सकता है कि यह उनका भ्रम रहा हो लेकिन यही भ्रम त्रिवेणी को भी हुआ, इसलिए जब चौंककर त्रिवेणी ने उनकी तरफ देखा तो उससे निगाह मिलाने की ताब मुंशीजी में नहीं थी।

तय हुआ कि शाम को मुंशीजी विनोद को लेकर त्रिवेणी के घर जाएँगे और वहाँ से दोनों लोग बड़े साहब के बँगले जाएँगे। त्रिवेणी चला गया। मुंशीजी को पूरा बदन हल्का लगने लगा था। हालाँकि यह पहला मौका नहीं था। कई बार विनोद को लेकर वे बड़े साहबों के बँगलों पर गए थे लेकिन त्रिवेणी के आश्वासन ने न जाने क्यों उन्हें पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया था। इसके पहले त्रिवेणी जैसा ईमानदार मददगार मिला भी कब था ? इसके पहले लगभग हर बार सबेरे साथ घूमनेवाला कोई-न-कोई रिटायर्ड बाबू होता था जो बड़ी-बड़ी डीगें हाँककर मुंशीजी को किसी ऐसे बड़े साहब के बँगले पर ले जाता था जो उस बाबू के साथ कहीं-न-कहीं छोटे साहब के तौर पर रह चुका होता था। काफी देर बाहर बैठने या खड़ा रहने के बाद जब मुलाकात होती तो लगभग एक जैसी कहानी हर जगह दुहराई जाती। हर जगह बड़ा साहब बताता कि किस तरह जब वह छोटा साहब था उसने अपने बड़े साहब को पानी भरवा दिया था। रिटायर्ड बाबू उसे पुरानी गौरव-गाथा की एक-एक कड़ी याद दिलाता जाता था। पुरानी चापलूस मुस्कान एक बार फिर उसके चेहरे पर चिपक जाती। अपनी ईमानदारी, सख्ती और तेज-तर्रारी पर रिटार्यड बाबू की सहमति की मोहर लगावते-लगावते, बड़ा साहब बड़े अनुग्रह के साथ चाय पिलाता और चलते-चलते जब मतलब की बात आती तब तक बड़े साहब के कहीं-न-कहीं जाने का वक्त हो जाता और जल्दी ही कुछ-न-कुछ होने का आश्वासन पाकर मुंशीजी थके मन से बाहर निकल आते।

इसी बीच दो-तीन पेंशनर और आ गए थे। मुंशीजी खुले मन से सबसे बातें करते रहे। रोज की पस्तहिम्मती और चिड़चिड़ापन न जाने कहाँ चला गया है। अकसर साथ रहनेवाले सुरिन्दर बाबू चश्मे के कोने से देखते हैं। मुंशीजी बीच-बीच में हँसते भी हैं। मुंशीजी सचमुच आज बहुत खुश हैं। बात करते-करते न जाने कहाँ खो जाते हैं। अब नहीं करेंगे एक भी ट्यूशन, कितनी बार का सोचा हुआ वाक्य फिर दिमाग में कौंधता है। बस एक बार विनोद की नौकरी लग जाए। जिंदगी में बहुत काम किया मुंशीजी ने, अब कुछ दिन तो आराम कर लें। कितने सारे काम हैं जो मुंशीजी ने विनोद की नौकरी पर छोड़ रखे हैं। इस बार राजकुमारी की शादी जरूर कर देंगे चाहे दुहाजू, तिहाजू कैसा भी लड़का मिले। पप्पू हाईस्कूल पास कर ले तो उसका पालीटेकनिक में दाखिला करा देंगे। कहीं-न-कहीं लग जाएगा। फिर रह जाएगी सिर्फ विनोद की शादी। मुंशीजी बड़े मगन होकर एक-एक सपना सँजोते हैं। सुरिन्दर बाबू लगातार चश्मे के कोने से झाँकते हैं। मुंशीजी आस पास की बातचीत में हिस्सा ले रहे हैं और बीच-बीच में बिना वजह मुस्कुराने लगते हैं। जाहिर था कि शारीरिक रूप से उपस्थित होते हुए भी दिमागी तौर पर मुंशीजी अनुपस्थित थे, रह-रहकर वे चौंक उठते और पकड़े जाने पर हास्यास्पद बनने के भय से वापस अपने परिवेश में लौटने का प्रयत्न करते लेकिन सहसा भविष्य के सुखद हो जाने के अहसास में डूबे हुए होने के कारण वे फिर धीरे-धीरे अनुपस्थित होने लगते। केवल सुरिन्दर बाबू ही उन्हें पकड़ पा रहे थे।

वक्त हो गया था। धीरे-धीरे सभी लोग खजाने की तरफ बढ़ चले। फिर शुरू हुआ औपचारिकताओं का लंबा और उबाऊ सिलसिला। यहाँ दस्तखत करो - उस फॉर्म को भरो - फलाने बाबू से मिलो। मुंशीजी यहाँ जल्दी थक जाते हैं। घर से पैदल यहाँ तक आने में भी उतनी थकान नहीं महसूस होती, जितनी यहाँ खड़े-खड़े या एक बाबू के यहाँ से दूसरे बाबू के यहाँ तक दौड़ने में आ जाती है। बीच-बीच में मुंशीजी थककर बरामदे में बैठ जाते हैं। ज्यादा देर बैठ भी नहीं सकते। उठ-उठकर अंदर जाना पड़ता है। जरा भी गफलत हुई और कागज कहीं चूका तो फिर आज का बंटाढार। कल फिर आना पड़ेगा। दूसरे दिन आने का खयाल ही मुंशीजी को बार-बार चैतन्य कर देता है। वे जाकर क्लर्क के सामने खड़े हो जाते हैं कि अब मान-अपमान कोई मायने नहीं रखता। पसीने में डूबे, मशीन की तरह कलम घसीटते बाबू की झिड़कियाँ कोई असर नहीं डालतीं। उन्हीं की तरह तमाम लोग खड़े हैं। दो बजे के करीब पैसा मिलता है। मुंशीजी इत्मीनान से धीरे-धीरे गिनते हैं - चौरानबे-पंचानबे-छियान्वे-सत्तानबे। पूरे सत्तानबे हैं। पेंशन के रुपयों में से दो रुपए निकालकर क्लर्क को देते समय हमेशा मुंशीजी को खलता है। आज भी खला लेकिन कोई चारा नहीं। न दें तो न जाने कितने दिन दौड़ना पड़े। एक बार मुंशीजी ने भीड़-भाड़ का फायदा उठाकर रुपए नहीं दिए और विजेता का-सा संतोष लिए घर चले आए थे। सोचा था, बाद मे बाबू को गिनती करते समय कहाँ पता चलेगा कि किसने अपना हिस्सा नहीं दिया। लेकिन अगले ही महीने जब बाबू ने तरह-तरह के आब्जेक्शन लगाकर मुंशीजी को चार दिनों तक दौड़ाया तो मुंशीजी रुआँसे हो उठे थे। बाद में दोनों महीनों का हिस्सा देना पड़ा था। कभी-कभी बाबू अपने हिस्से के दो रुपए काटकर मुंशीजी के हाथ में पेंशन देता है, तब इतना बुरा नहीं लगता। एक बार रुपए हाथ में आ जाने पर उसमें से दो रुपए निकालकर देना ज्यादा खलता है।

मुंशीजी जेब में पैसे रखकर जल्दी से निकल भागना चाहते हैं। अकसर पैसे मिलने के बाद पेंशनयाफ्ता बुड्ढे किसी-न-किसी चाय की दुकान पर बैठ जाते हैं। चाय-पकौड़ी के साथ गप्पें लड़ाते हैं। न चाहते हुए भी दो-तीन रुपए खर्च हो ही जाते हैं। मुंशीजी के लिए दो-तीन रुपए मायने रखते हैं। कनखियों से चारों तरफ देखते हैं। एक दुकान पर धीरे-धीरे लोग इकट्ठे हो रहे हैं। वे लंबा चक्कर काटकर तेज कदमों से बाहर का रास्ता पकड़ते हैं। एक बार कचहरी से निकल आने पर फिर वापस मुड़कर नहीं देखते।

बाहर निकलने के बाद मुंशीजी अपना शरीर सीधा करते हैं। पूरा शरीर दुख रहा है। हर महीने यही होता है। मौका मिलने पर त्रिवेणी का आश्वासन फिर दिमाग में खलल पैदा करने लगता है। ऐसा नहीं था कि खजाने में मुंशीजी के दिमाग से बात उतर गई हो लेकिन उसका तनाव जरूर कम हो गया था। वक्ती उत्तेजना खत्म हो जाने के बाद वे जरूर कुछ तटस्थता से उसके आश्वासन को जाँच सकते थे। ऐसा नहीं था कि ऐसा आश्वसन पहली बार मिला हो। पहले भी कई बार वे ऐसे सुखद तनाव से गुजरे थे लेकिन त्रिवेणी सच्चे मन से उनका भला चाहता है। त्रिवेणी कहीं-न-कहीं विनोद को लगवा देगा। त्रिवेणी भला आदमी है। त्रिवेणी को उसके बड़े साहब बहुत मानते हैं। वे आश्वस्त हो गए।

नौकरी उनके घर की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए ही नहीं बल्कि विनोद के लिए भी कितनी जरूरी थी, इसे वे अच्छी तरह जानते हैं। लड़का आत्मनिर्वासन की स्थिति में पहुँच गया है। अब तो उसे देखकर मुंशीजी को डर लगता है। चार साल पहले उसने बी.ए. पास किया था। एम.ए. कराना मुंशीजी की सामर्थ्य के बाहर था। लिहाजा पढ़ाई छुड़वा दी। सोचा था कि छोटी-मोटी नौकरी में लग जाए तो प्राइवेट एम.ए. भी कर लेगा। तबसे नौकरी की तलाश का जो सिलसिला चला, वह अब तक जारी है। उसके इंटर करने के दो साल पहले मुंशीजी रिटायर हो चुके थे। तारा भी उसी साल मरी थी। कई बार सोचा कि प्राविडेंट-फंड से कुछ रुपया निकालकर विनोद को एम.ए. करा दें। लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। सामने राजकुमारी थी, पप्पू था और खुद उनकी जिंदगी का न जाने कितना बड़ा हिस्सा था। एक बार नौकरी करने की बात तय होते ही विनोद और उन्होंने दरख्वास्तों और मुलाकतों का लंबा सिलसिला शुरू कर दिया था। लेकिन हर बार एक ही जैसा अनुभव हुआ था।

नौकरी की तलाश ने अपमान और कुंठा के जो दंश चुभोए थे, उनसे मुंशीजी उतना नहीं टूटे थे जितना विनोद टूटा था। मुंशीजी स्पष्ट देख रहे थे कि साल-दर-साल किस तरह उसके चेहरे पर बेबसी और हीनता की परत चढ़ती चली जा रही थी। अब तो उससे बात करते मुंशीजी घबराते हैं कि कहीं वह रो ही न पड़े। पिछले कुछ दिनों से उससे बात करने का मौका भी कहाँ मिलता है? उनके उठकर तैयार होते-होते वह बाहर निकल जाता है। अगर किसी दिन नहीं निकल पाता है तब भी उनसे बात करने का अवसर न आए, इसका प्रयास बराबर करता रहता है। अक्सर वह रात में इतनी देर से लौटता है कि मुंशीजी या तो सो जाते हैं या सोने का नाटक किए पड़े रहते हैं। शुरू में, कुछ दिनों मुंशीजी ने जागकर उसका इंतजार किया लेकिन उसने और देर करनी शुरू कर दी। मुंशीजी समझ गए थे, इसलिए अब उसके आने पर अगर जगे भी रहते हैं तो नहीं बोलते। चुपचाप सोने का नाटक किए पड़े रहते हैं। राजकुमारी जीने के दरवाजे को खुला छोड़ देती है। दरवाजे की आवाज से ही पता चलता है कि वह आ गया है। रसोई में अगर बरतन खटकते हैं तो मुंशीजी जान जाते हैं कि खाना खा रहा है। अक्सर रसोई में कोई आहट नहीं होती, मतलब वह बाहर खाना खा आया है और चुपचाप सो जाएगा। शुरू-शुरू में मुंशीजी ने उसके दोस्तों से पता लगाने की कोशिश की थी कि दिन-भर वह कहाँ रहता है - क्या करता है, लेकिन बाद में झल्लाकर पूछताछ बंद कर दी थी। उसके दोस्तों को भी कुछ निश्चित नहीं पता था। दरअसल उसके पुराने दोस्तों से अब उसके खास ताल्लुकात भी नहीं रह गए थे। कोई नौकरी कर रहा था तो कोई आगे पढ़ने में मशगूल था। विनोद सबसे अलग-थलग पड़ गया था।

विनोद राजकुमारी से छह साल छोटा था। इस साल बाईसवाँ पूरा करेगा। देखने में कैसा तो लगने लगा है! मुंशीजी के कलेजे में हूक उठती है। बचपन में कितना गोल-मटोल था। राजकुमारी से पहले दो लड़के हुए थे। दोनों गुजर गए। राजकुमारी के जन्म के छह साल बाद विनोद पैदा हुआ था। तारा अपनी जान से ज्यादा बेटे की सहेज करती थी। पति-पत्नी ने अपनी कितनी जरूरतें काट-काट कर बेटे की देखभाल की थी। मुंशीजी को अब भी याद है कि किस तरह वे और तारा उसके भविष्य को लेकर घंटों बहसें करते और कभी-कभी तो लड़ भी पड़ते। उनकी आँखें नम हो जाती हैं। पाँच साल बाद अप्रत्याशित रूप से पप्पू हुआ था लेकिन तब भी विनोद को मिलने वाले दुलार में कोई कमी नहीं आई। दरअसल पप्पू को सबसे छोटा होने के बावजूद तारा ने विनोद से कम प्यार दिया। जाने क्यों, उसके मन में यह बात बैठी थी कि विनोद ही उनके घर की दरिद्रता दूर करेगा। तारा को क्या पता था कि उसके मरने के कुछ ही दिनों बाद स्वस्थ, सुदर्शन विनोद पिचके गालों, बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी-मूछों और धँसी आँखोंवाले युवक के रूप में तब्दील होकर उनके घर की आर्थिक दरिद्रता दूर करते-करते आत्मविश्वास के स्तर पर खुद इतना दरिद्र हो जाएगा कि अपने बाप से आँखें मिलाकर बात करने भर का साहस भी नहीं बचा पाएगा।

आज त्रिवेणी के आश्वासन का सुरूर खत्म होते ही मुंशीजी का मन फिर भारी हो गया है। शरीर से ज्यादा वे मन से थक गए हैं। वे पोस्ट ऑफिस में घुस जाते हैं और बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ जाते हैं। जाड़े में अपराह्न की धूप अच्छी लगती है। सामने से कचहरी से लौटनेवालों की अथाह भीड़ जा रही है। सिटी बसें, टेम्पो, इक्के, रिक्शे, गाड़ियाँ - मुंशीजी खाली आँखों से भाग-दौड़ देख रहे हैं। भीड़ के बीच में नितांत अकेले होने की अनुभूति मुंशीजी के लिए नई नहीं है। जिंदगी में कभी किसी को दोस्त नहीं बना सके मुंशीजी। तारा को छोड़कर कोई ऐसा नहीं मिला जिससे खुलकर मुंशीजी ने सुख-दुख की बातें की हों। तारा के बाद तो और भी अकेले हो गए हैं। जब तक तारा थी, बेटी-बेटों से कुछ देर बातें हो जाती थीं, अब तो वह भी नहीं रहा। बच्चे बड़े हो गए थे और मुंशीजी के साथ उनका संवाद एकदम खत्म हो गया था। महज जरूरी बातें होती थीं और अब तो सिर्फ राजकुमारी उनके और पप्पू-विनोद के बीच सेतु का काम करती थी। न जाने कब तक मुंशीजी उसी तरह चुपचाप बैठे रहे। सीढ़ी के उस कोने से जहाँ मुंशीजी बैठे थे, धूप तेजी से फिसलती जा रही थी। मुंशीजी को हल्की-सी ठंडक लगी। वे उठ खड़े हुए। सामनेवाली सड़क का रेला अभी भी अंतहीन था। वे भी चुपचाप उसी में शरीक हो गए।

पेंशनवाले दिन मुंशीजी हल्की-फुल्की खरीददारी करते हैं। ज्यादातर सामान तो वे शंकर के यहाँ से लेते हैं जो उन्हीं की तरह मुहल्ले के बहुत सारे लोगों की विवशता है। सामान महँगा जरूर देता है लेकिन उधार तो दे देता है। उधार वसूलते समय जलील जरूर करता है लेकिन महीने के किसी दिन कुछ जरूरत पड़ जाने पर मना भी नहीं करता। थोड़ी बहुत खरीददारी करने मुंशीजी कटरा की तरफ निकल आते हैं। उन्हें पता नहीं है कि क्या-क्या खरीदना है। चुपचाप एक-एक दुकान देखते हैं। कुछ चीजों के दाम पूछते हैं। दाम सुनकर चुपचाप सिर हिलाते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। हर महीने की तरह दामों में कुछ-न-कुछ बढ़ोत्तरी हुई थी। हर महीने की तरह वे बाजार भाव और पेंशन के बीच संतुलन बैठाने की कोशिश करते हैं। हर महीने की तरह उनका समीकरण गड़बड़ा जाता है।

चलते-चलते वे मन में हिसाब करते जाते हैं। जेब में पंचानबे रुपए हैं। शंकर को डेढ़ सौ से कम क्या देना पड़ेगा। अभी तीन ट्यूशनों से एक सौ बीस रुपए और मिलेंगे। कुल हो जाएँगे दो सौ पंद्रह रुपए। गनीमत है कि मकान मालिक को सिर्फ दस रुपए देने पड़ते हैं। कुल किराया है चालीस रुपए। बाकी तीस रुपयों के एवज में वे उसकी लड़की को एक घंटा रोज पढ़ाते हैं। शंकर का हिसाब चुकाने के बाद लगभग पैंतालिस-पचास बचेगा। दूधवाले को तीस रुपए देने के बाद बचे पंद्रह और अखबारवाले का हिसाब चुकता कर देने के बाद छह रुपए बच जाएँगे। पप्पू दो साल से हाई स्कूल का प्राइवेट इम्तहान देर रहा है, इसलिए उसकी पढ़ाई वगैरह पर हर महीने खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती। विनोद कभी भी अपने लिए एक पैसा नहीं लेता। हालाँकि उसने कभी नहीं बताया लेकिन मुंशीजी जानते हैं कि यह ट्यूशन करता है और अपने जेब खर्च के लिए मुंशीजी को परेशान नहीं करता। महीने-भर के लिए चाय, चीनी, तेल, साबुन, सब्जी वगैरह के लिए कम-से-कम चालीस रुपए और चाहिए। जाड़ा हालाँकि अभी पूरी तरह से आक्रामक नहीं हुआ है लेकिन जल्दी ही काफी तेजी पकड़ लेगा। मुंशीजी पिछले कई सालों की तरह इस बार भी नई रजाई बनवाने का फैसला करते हैं। नौकरी के दिनों की बनवाई तीन रजाइयाँ घर में थीं। जब तक पप्पू छोटा था राजकुमारी के साथ एक रजाई में उसका सोना अटपटा नहीं लगता था लेकिन अब दोनों को एक ही रजाई में सोते देखकर मुंशीजी को घबराहट होने लगती है। इस बार जरूर बनवा लेंगे। मन-ही-मन वे हिसाब लगाते हैं। पचास-साठ में काम लायक रजाई बन सकती है। अगर दूध लेना दो महीने बंद कर दें तो रजाई बन जाएगी। लेकिन दूध बंद करवा पाना क्या इतना आसान है? मुंशीजी चाय के पुराने शौकीन रहे हैं। जिंदगी में इसके अलावा और कोई शौक भी तो नहीं किया उन्होंने। फिर बच्चों को सुबह चाय के सिवा और देते भी क्या हैं? इसे भी बंद कर देने से कैसे चलेगा। हर बार की तरह अखबार दूसरा निशाना बनता है। लेकिन नौ रुपए बचाकर होगा भी क्या? अखबार वे कई बार बंद कर चुके हैं। पड़ोस के बड़े बाबू से माँगकर पढ़ने का नाटक भी कई बार शुरू हुआ पर कभी भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका। अपने पैसे से खरीदकर अखबार पढ़ना मुंशीजी के दरिद्र मन को कहीं न कहीं सहलाता है। उनकी गली में केवल वे और बड़े बाबू ही अखबार लेते हैं और अंग्रेजी का अखबार तो सिर्फ वे ही। अपना खरीदा हुआ अंग्रेजी का अखबार उन्हें दूसरों से विशिष्ट होने का अहसास कराता है। दूध और अखबार को छोड़कर वे दूसरी मदों में कटौती करने की बात सोचते हैं। कोई ख्रर्च ऐसा नहीं है जिसमें कटौती करना संभव हो। पेंशन और बाजार-भाव का समीकरण काफी जटिल था और भाषा के अध्यापक मुंशीजी तो शुरू से ही गणित में कमजोर रहे हैं। वे एक दुकान से दूसरी दुकान में भटक रहे हैं। अंततः एक दुकान में पकड़ में आ ही जाते हैं। बार-बार कई चीजों का दाम पूछने पर दुकानदार जिस तरह बेरुखी से उत्तर देता है, उससे मुंशीजी आहत होते हैं। आखिर समझता क्या है? वे चाय का पैकेट, लाइफबाय साबुन और बिस्कुट का एक छोटा पैकेट ले लेते हैं। नौ रुपए कुछ पैसे देकर मुंशीजी दुकान से बाहर निकलते हैं। अब किसी दूसरी दुकान में घुसकर दाम पूछने की उनकी हिम्मत नहीं होती। वे चुपचाप घर की तरफ घिसटने लगते हैं।

मुंशीजी शुरू से ही खराब खरीददार रहे हैं। बाजार में ज्यादा मोल-तोल नहीं कर सकते। अक्सर ठगाकर घर लौटते और खीझी हुई तारा के व्यंग्य का सामना करते। बाजार में आकर वे अक्सर एक तरह की हड़बड़ी के शिकार हो जाते हैं। अब तो वे कुछ मोल-भाव कर भी लेते हैं, पहले तो दुकान में घुसते ही उन्हें खरीदकर भागने की जल्दी मची रहती थी। उनकी इसी आदत से चिढ़कर तारा ने उनके साथ बाजार न आने की कसम न जाने कितनी बार खाई थी। इधर पुरानी आदत काफी हद तक छूट गई थी। फिर भी अकसर ऐसा होता है कि कई दुकानों से सौदेबाजी करके आते हुए मुंशीजी, किसी एक दुकान पर अपनी पुरानी हड़बड़ी के शिकार होकर, कोई-न-कोई ऐसी चीज ले लेते हैं जो दुकान के बाहर निकलते ही उन्हें अनावश्यक लगने लगती है।

इस बार भी ऐसा ही हुआ। बाहर सड़क पर पहुँचते ही बिस्कुट का पैकेट सालने लगा। क्या जरूरत थी इसकी? मेहमान के नाम पर अब आता ही कौन है जिसे वे बिस्कुट खिलाते और फिर अड़ोसी-पड़ोसी जो आते हैं, उन्हें तो काफी दिनों से मुंशीजी सिर्फ चाय पिलाते आ रहे हैं, वह भी तब जब घर में दूध, चाय और चीनी में से कोई चीज अनुपस्थित न हो। दुकानदार ने जिस ढंग से उन्हें लिया था, उससे लौटकर बिस्कुट का पैकेट वापस करने की संभावना भी नहीं बची थी।

मुंशीजी ने खर्च किए नौ रुपए सत्तर पैसों को निकालकर फिर से पेंशन और बाजार भाव का समीकरण दुरुस्त करना शुरू कर दिया। बार-बार वे हिसाब भूल जाते और फिर नए सिरे से शुरू करते। वे जानते थे कि बार-बार हिसाब लगाने से भी उनसे यह समीकरण दुरुस्त नहीं होगा लेकिन फिर भी वे घर आने तक हिसाब में उलझे रहे। उन्हें इसमें कुछ मजा मिलने लगा था। पहले जब वे पूरी तरह शंकर के चंगुल में नहीं फँसे थे और एक तरह से उससे बचने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब वे पेंशनवाले दिन अपनी जरूरतों की पूरी लिस्ट बनाकर चलते थे। कुछ चीजें उसी दिन लौटते समय खरीद लेते और कुछ अगले दिनों में ट्यूशन के पैसे मिलने पर खरीदते। लेकिन यह ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका। हर बार बाजार में पहुँचने पर पिछले महीने के मुकाबले भाव बढ़े मिलते। मुँह बाए मुंशीजी एक-एक चीज के दाम बार-बार पूछते और व्यस्त भाव से लापरवाही दिखाते हुए लिस्ट फिर से पढ़ते। हर बार ऊपर से नीचे दो-एक चीजें कट जातीं। पेंशन और बाजार भाव के इस समीकरण में उलझकर मुंशीजी बेहद थक जाते। धीरे-धीरे शंकर से दूर रहने की उनकी जिद कमजोर पड़ती गई और बाजार से नकद सामान खरीदने का उनका आग्रह क्षीण होता गया। अब तो वे कभी-कभी ऐसी ही कोई अप्रत्याशित खरीददारी कर लेते हैं, नहीं तो चुपचाप जेब में पैसे डाले, एक दुकान से दूसरी दुकान भटकते घर पहुँच जाते हैं। जब तक उन्होंने शंकर के सामने पूरी तरह से आत्म-समर्पण नहीं किया था, बाजार की दुकानों में चीजों के दाम पूछने का एक और मकसद भी था। बाजार में दाम पूछते रहने से उन्हें शंकर द्वारा की जा रही लूट का भी पता चलता था। बाजार और शंकर की दुकान के भाव के अंतर से मुंशीजी का मन हमेशा गुस्से से भर जाता। हर बार वे तय करते कि शंकर की दुकान पर जाकर उसे खूब खरी-खोटी सुनाएँगे या भुगतान करते समय उसके पैसे काट लेंगे। लेकिन हर बार शंकर के सामने वे अपने को कमजोर महसूस करते। उसके सामने पहुँचते ही दयनीय हो उठते। पूरे मोहल्ले के सामने उसने कैसा जलील किया था वर्मा बाबू को‌? उनका थैला फेंककर बोला था कि लेना हो तो लो वरना भाड़ में जाओ। सड़क पर अपने कुर्ते की बाँहें चढ़ाते हुए शंकर के लड़के ने कैसी गंदी-गंदी गालियाँ दी थीं और असहाय वर्मा बाबू मोहल्लेवालों की तरफ टुकुर-टुकुर ताकते रहे। कोई नहीं आया मदद को। मुंशीजी हर बार चुपचाप शंकर की दुकान से सामान लाते हैं और पैसे मिलने के दूसरे-तीसरे दिन ही हिसाब चुकता करने का प्रयत्न भी करते हैं। इसलिए अब बाजार में दाम पूछने पर उसे वहीं भूलने की कोशिश करते हैं। उन्हें पता है कि शंकर की दुकान से तुलना करने में कोई फायदा नहीं।

मुंशीजी जब अपनी गली के मुहाने पर पहुँचे, करीब तीन बज रहा था। दो-एक घरों के दरवाजों पर पंजाबिनें खड़ी होकर बातें कर रही थीं। एकाध लड़के नाली पर बैठे टट्टी कर रहे थे। जाड़े की रात धीरे-धीरे उतर रही थी। कूड़े और पाखाने से अपने को बचाते हुए मुंशीजी अपने दरवाजे पर पहुँचे तो थककर चूर हो चुके थे। चुपचाप चारपाई पर लेटने की इच्छा हो रही थी। रात को विनोद को लेकर त्रिवेणी के यहाँ भी तो जाना था। बिना आराम किए अब मुंशीजी कहीं नहीं जा सकते। उन्होंने हलके से दरवाजे पर दस्तक दी। लगता है, राजकुमारी सो रही है। उन्होंने थोड़ी तेजी से दरवाजा खटखटाया। कोई आहट नहीं हुई। मुंशीजी का थका मन क्षुब्ध हो गया। उन्होंने पूरी ताकत से दरवाजा पीटना शुरू किया। अचानक उन्हें लगा कि औरतें बातचीत छोड़कर उनकी तरफ देख रही हैं और उनकी आँखों और होंठों से रहस्यमयी मुस्कान तैरने लगी है। उनका बूढ़ा हाथ हवा में लटक गया। ज्यादा देर वे इस असहज स्थिति में नहीं रहे। राजकुमारी ने आकर दरवाजा खोल दिया था और वे चुपचाप भीतर चले गए।

राजकुमारी काफी अस्त-व्यस्त हालत में थी। ऐसा लगता था कि उसने जल्दी-जल्दी में कपड़े पहने हैं। उसकी आँखों में अजीब-सा तनाव था और उसके चेहरे पर घबराहट साफ लिखी थी। मुंशीजी का मन वितृष्णा से भर गया। उनकी अनुपस्थिति में यह लड़की न जाने क्या-क्या करती है। अब तो पहले की तरह इसे पीट भी नहीं पाते। केवल संदेह और शर्म की आग में जलते रहते हैं। उसे उपेक्षित करके वे चुपचाप अपने कमरे की तरफ बढ़ चले। लेकिन चुपचाप सो जाना क्या इतना आसान था? बारी-बारी से वे किसी-न-किसी बहाने दोनों कमरों में गए। गुसलखाने, पाखाने, रसोई और छत से घूमकर नीचे आए। राजकुमारी रसोई के एक कोने में सिर झुकाए खड़ी थी। वे जानते थे कि वे क्या तलाश रहे हैं यह राजकुमारी समझती है। कई बार संदेह होने पर उन्होंने ऐसा किया था। पहले की ही तरह इस बार भी कोई नहीं था। वे चुपचाप अपने कमरे में चले गए। पहले की तरह राजकुमारी पर हाथ उठाने का साहस उनमें नहीं था। घर के दो कमरों में यह बड़ा कमरा था जिसमें वे और विनोद सोते हैं। किसी के आने पर मुंशीजी उसे यहीं बैठाते हैं। दूसरे कमरे में राजकुमारी और पप्पू सोते हैं।

धीरे-धीरे मुंशीजी ने अपना कोट उतारकर खूँटी पर टाँग दिया। कमीज उतारने की हिम्मत उनमें नहीं बची थी। धोती और कमीज पहने ही वे लेट गए। जाड़े की दोपहर में मुंशीजी को नींद नहीं आती हालाँकि वे लेटते रोज हैं। रोज खाना खाकर वे चुपचाप लेट जाते हैं और शाम को ट्यूशन का वक्त होने तक लेटे रहते हैं। इसके अलावा और करें भी क्या? करने के लिए कुछ होता भी तो नहीं। आज थके हुए मुंशीजी को झपकी आने लगी थी। वे न सोने का पूरा प्रयत्न कर रहे थे। आज जल्दी ट्यूशन पर जाएँगे, फिर अभी विनोद को ढूँढ़ना भी तो होगा। पता नहीं कहाँ हो, कितना समय लगे। हर हालत में सात बजे तक त्रिवेणी के घर पहुँच जाना है। जाड़े में सात बजते-बजते वैसे भी कितनी रात हो जाती है, लेकिन इन सबके बावजूद न जाने कब मुंशीजी धीरे-धीरे गहरी नींद के आगोश में डूब गए।


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