दो कमरे, एक छोटे से बरामदे, लगभग उतने ही बड़े एक आँगन, एक रसोई और आँगन के कोने में पुरानी ईंटों और टाट के टुकड़ों से घेरकर बनाई गई पाखाना नामक जगह को मिलकार जो मकान की शक्ल की चीज बनती है, उसे मोहल्लेवाले और बाहरी लोग मुंशीजी के घर की संज्ञा देते हैं। एक जमाने में इस मकान के बाहरी दरवाजे पर एक तख्ती लगी रहती थी, जिस पर मुंशीजी का नाम - रामानुज लाल श्रीवास्तव, प्रधानाध्यापक बड़ी शान से लिखा हुआ था। वक्त की मार से इस मकान में बसे हुए घर के साथ जो ज्यादतियाँ की थीं, उनमें से एक यह भी थी कि उस तख्ती पर लिखे गए अक्षर धीरे-धीरे धुँधलाते गए और एक दिन जब उस तख्ती को बिना बहुत करीब आए पढ़ पाना लगभग असंभव हो गया था; मोहल्ले के लड़कों ने उसे नोचकर होलिका में जला दिया। शायद वह तख्ती मुंशी जी की सबसे बड़ी पहचान थी क्योंकि उसके गायब होते ही अब मुंशीजी सिर्फ मुंशीजी रह गए हैं। मोहल्ले के अधिकांश लोग तो भूल ही गए थे कि उनका असली नाम रामानुज लाल श्रीवास्तव है। बहरहाल नाम में क्या रखा है। मुसीबत की जड़ तो ईंट-गारे से निर्मित यह आकार था जिसमें कई साल पहले मुंशीजी का परिवार आकर बसा था और यह उस समय उनका घर बन गया था। पता नहीं कैसे, क्या हुआ कि अचानक यह मकान फिर से मकान बन गया और उसमें निहित घर तत्व धीरे-धीरे अनुपस्थित होने लगा और पिछले कुछ सालों में तो एकदम गायब हो गया है। इस घर के प्राणियों ने भी इस तथ्य को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया था। एक ही मकान की छत के नीचे रहते हुए वे एकदम एक-दूसरे से कट गए थे। नदी के अलग-अलग द्वीपों की तरह पड़े हुए वे संवादहीनता की ऐसी अंधी सुरंग में प्रवेश कर गए थे जहाँ अपने सिवा परिवार के किसी भी सदस्य का न तो स्पर्श परिचित था और न ही स्वर।
ऐसा कैसे हुआ? आखिर क्यों, एक भरा-पूरा घर सिर्फ ईंट-गारे के मकान में तब्दील होकर रह गया? घर शब्द से जुड़ी ऊष्मा एकाएक कैसे वाष्प बनकर उड़ गई? जाहिर है इन सवालों का जवाब यह निर्जीव मकान नहीं दे पाएगा, भले ही इस परिवार के एक-एक सदस्य से इसका पुराना परिचय रहा है। इस सवाल का जवाब अगर मुंशी रामानुज लाल श्रीवास्तव, प्रधानाध्यापक से उनके जवानी के दिनों में माँगा जाता तो आदतन वे चाक लिए ब्लैकबोर्ड की तरफ बढ़ जाते और उनकी उँगलियाँ ब्लैकबोर्ड पर क्रम से लिखतीं – ऐतिहासिक, और शायद तभी वे ठिठककर खड़े हो जाते। उन्हें एहसास हो जाता कि वे किसी राजवंश के नहीं बल्कि अपने ही घर के बिखराव के कारणों पर प्रकाश डालने के लिए खड़े हुए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मुंशीजी का परिवार हिंदुस्तान के लाखों-लाख सामान्य परिवारों में से ही एक है और उसके बिखराव के वे कारण नहीं हो सकते जो किसी राजवंश के हो सकते हैं। फिर भी थोड़ी देर के लिए इस ढंग से सोचने में कोई हर्ज भी नहीं।
इतिहास के किसी अध्येता को अगर मुंशी रामानुज लाल-वंश के पतन के ऐतिहासिक कारणों का विश्लेषण करने का काम सौंप दिया जाए तो शायद उसका दिमाग चकरघिन्नी खा जाएगा। मुंशीजी के परिवार का इतिहास खोजना एवरेस्ट पर चढ़ने से ज्यादा मुश्किल काम साबित होगा। इस मुल्क के असंख्य परिवारों की भाँति इस परिवार का भी मुश्किल से दो पीढ़ियों का इतिहास है। मुंशीजी के पिता किसी जमींदार के कारकुन थे और उसी हैसियत से उन्होंने गाँव में थोड़ी बहुत जमीन खड़ी कर ली थी। जमींदारी खत्म होने के बाद कारकुन के रुतबे से जुड़े नजराना, सम्मान और बेगार भी समाप्त हो गए। केवल जमीन का भरोसा रह गया। उस जमीन के दावेदार थे चार भाई और तीन बहनें। दो बहनों की शादी मुंशीजी के पिता ने जमींदारी उन्मूलन के पहले धूमधाम से की थी। तीसरी की शादी का नंबर आते-आते जमींदारी खत्म हो गई लिहाजा मुफ्त की शान-शौकत की कोई उम्मीद नहीं बची। सब कुछ अपने टेंट से खर्च करके करना था। मुंशीजी के पिता अपने को खानदानी रईस कहा करते थे, हालाँकि उनकी सारी रईसी उन्हीं की पीढ़ी की उपज थी। इसलिए उन्होंने अपनी जमीन का कुछ हिस्सा बेचकर अपनी तीसरी लड़की पहले जैसी धूमधाम से ब्याही। मुंशीजी तो घर-द्वार के मामले में तटस्थ रहा करते थे लेकिन उनके और भाइयों ने इस फिजूलखर्ची का जमकर विरोध किया। पिता और पुत्रों में खूब चखचख हुई। मुंशीजी भाइयों में सबसे बड़े थे और उनकी शादी हो चुकी थी। उन्हें जल्दी ही यह अहसास हो गया कि वे न तो पत्नी को साथ लेकर उस संयुक्त परिवार में रह सकते हैं, और न ही गाँव में उनके परिवार के पास इतनी जमीन ही बची थी कि पूरे परिवार का उसमें गुजारा हो सके। अपने भाइयों में वे अकेले संजीदा किस्म के इनसान थे लिहाजा थोड़ा-बहुत पढ़ लिए थे। उस पढ़ाई से, उस जमाने में प्राइमरी स्कूल की मुदर्रिसी मिल सकती थी। बाप के लाख विरोध करने पर भी उन्होंने वही हासिल की और चुपचाप गाँव छोड़कर चले गए। दो-एक साल अकेले रहे, फिर एक दिन आकर पत्नी को भी साथ लेते गए। जब तक पिता जीवित रहे, साल-छह महीने पर गाँव आते रहे। उनके मरने पर विवाह-शादी तक उनका आगमन सीमित रहा और बाद में वह भी खत्म हो गया। अब तो शायद उन्हें याद भी नहीं होगा कि पिछली बार गाँव कब गए थे! अगर यहीं तक बात होती तो शायद इतिहास को उनकी घटनाविहीन, एकरस जिंदगी में घुसपैठ करने का मौका नहीं मिलता। लेकिन एक दिन अचानक यही इतिहास उनके घर पर चढ़कर बोलने लगा। रिटायरमेंट करीब आ गया। उनके विद्यालय में इत्तफाक से दो अध्यापक और ऐसे थे जो जल्दी ही रिटायरमेंट पानेवाले थे। उनके बीच में अकसर ऐसी बातें होती रहती थीं जो इस स्थिति को पहुँचे लोगों के बीच होनी चाहिए। मसलन लड़कों में से कुछ के नौकरी या व्यापार में सेटिल हो जाने का सुख, कुछ के अवारा निकल जाने का दुख, रिटायरमेंट के बाद खोली जानेवाली परचून की दुकान या अभी से तय किए ट्यूशनों की संख्या, पुराने मकान की मरम्मत या नए मकान का निर्माण। मुंशीजी काफी दिनों तक इन बहसों से अपने को काटते रहे। शायद यह अहसास कि कुछ दिनों बाद वे एकदम से खाली हो जाएँगे, उन्हें काफी खौफनाक लगता था। इस विषय पर बातचीत से बचकर शायद वे इस अहसास से बचना चाहते थे। लेकिन जल्दी ही वह दिन आ गया जब उन्हें लगा कि उन्हें भी कुछ-न-कुछ सोचना पड़ेगा और उन्होंने सोचना और बातचीत में शरीक होना शुरू कर दिया। विनोद, पप्पू और राजकुमारी तीनों अभी पढ़ रहे थे। विनोद अपने हमउम्र दूसरे लड़कों के मुकाबले ज्यादा संजीदा और जिम्मेदार लगता था, इसलिए मुंशीजी को उसके बारे में बहुत सोचने की जरूरत नहीं थी। उनके रिटायर होने तक कहीं-न-कहीं लग ही जाएगा। राजकुमारी की शादी के लिए प्राविडेंट फंड में जमा धन काफी था। थोड़ा-बहुत भाइयों से ले लेंगे। आखिर इतने दिनों तक उन्होंने अपने हिस्से की उपज में से एक धेला नहीं लिया था। पप्पू अभी छोटा था, काफी दिनों तक उनके साथ रहेगा। उसकी पढ़ाई और दूसरे खर्चों के लिए पेंशन थी, ट्यूशनों पर एक बार फिर से जुट जाने लायक शरीर और मन था तथा गाँव-घर से अब नियमित रूप से कुछ-न-कुछ मिल पाने का विश्वास था। सिर्फ एक मसला था, मकान का। औसत निम्न मध्यवर्गीय हिंदुस्तानी की तरह उनकी जिंदगी का बहुत बड़ा सपना था, अपना मकान। छोटा ही सही लेकिन ईंट-गारे और सीमेंट की एक ऐसी इमारत जिस पर उनका अपना निजी स्वामित्व हो। बाप-दादों के मकान में लौटना अब असंभव था। एक तो भाइयों के परिवार बड़े हो गए थे, दूसरे उनके परिवारों के आपस के झगड़ों को सुन-सुनकर मुंशीजी की इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि उस नरक में वे खुद भी जाकर कूद पड़ते। इतना तो तय हो गया कि वे अपना अलग मकान बनाएँगे लेकिन कहाँ? यहीं से इतिहास की दखलंदाजी शुरू हो गई। बावजूद इसके कि उन्होंने कायस्थ परिवार में जन्म लिया था, दुर्भाग्य से हिंदुस्तान के किसी कोने में उनके नाम पर कुछ जमीन थी। इसलिए तमाम उम्र नौकरी करने के बाद भी वे और बहुत से कायस्थों की तरह जड़-विहीन नहीं हो पाए थे। हालाँकि वर्षों से अपने गाँव नहीं गए थे लेकिन किसी के यह पूछने पर कि आप कहाँ के रहनेवाले हैं बेसाख्ता उनके मुँह से निकलता - तहसील पट्टी, जिला प्रतापगढ़। उनके बच्चों में विनोद को छोड़कर किसी की स्मृति में गाँव की कोई ठोस तस्वीर नहीं है, फिर भी वे जवाब यही देते थे। उनकी कहीं कोई पैतृक जमीन नही है, कोई विरासत नहीं है, यह कल्पना भी उनके लिए असह्य थी। इसलिए काफी सोच-विचारकर उन्होंने यही तय किया कि वे गाँव में ही रहेंगे लेकिन अपना अलग मकान बनाकर।
पुश्तैनी मकान के सामने थोड़ा-सा सहन खाली पड़ा था जहाँ उनके पिताजी ने अपने लड़कों और गाँव के दूसरे लड़कों को खेलने के लिए वालीबॉल का कोर्ट बनवाया था। मुंशीजी ने अपनी कल्पना में उसी जमीन को अपने मकान के लिए चुन लिया। तारा को इस योजना के लिए तैयार करना मुश्किल था। अपनी लड़ाकू देवरानियों के साथ रहने और वर्षों की अभ्यास बनी छोटी-मोटी शहरी सुविधाओं को त्यागने की बात उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी। फिर पप्पू की पढ़ाई का मसला भी था। मुंशीजी ने घंटों, महीनों उससे बहसें कीं। अंत में सिर्फ एक तर्क ने उन्हें विजय दिलाई। शहर में कहीं मकान बनवाने पर जमीन की कीमत भी चुकानी पड़ती। जमीन जितनी महँगी थी, उसके लिहाज से तो मकान बनवाना उनके बूते के बिल्कुल बाहर ही था। गाँव में जमीन का पैसा नहीं देना था। दो-तीन कमरे बनवाने भर का पैसा प्राविडेंट-फंड से निकाला जा सकता था। शुरू में दो-तीन कमरे भी निकल आएँ तो धीरे-धीरे बनवाते रहेंगे। हालाँकि इस तर्क से भी तारा बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं थी। उसने बार-बार समझाया कि भाई-भौजाई किसी दिन धोखा दे देंगे लेकिन मुंशीजी नहीं माने। प्राविडेंट-फंट का लगभग आधा रुपया निकालकर उन्होंने मकान बनाने में लगा दिया। दो पूरे और एक आधा कमरा निकल भी आया। अभी रिटायर होने में पूरा एक साल बाकी था इसलिए मुंशीजी ने सबसे छोटे भाई को मकान की चाभी और देखभाल का दायित्व सौंपा और वापस चले आए। उसके बाद वह मकान भाइयों का हो गया। मुंशीजी न फौजदारी कर सकते थे और न मुकदमेबाजी। अतः किराए का मकान लेकर तारा के व्यंग्य-बाणों को झेलते हुए चुपचाप पटा गए। पता नहीं इतिहास के विद्वानों को दक्षिण में फतह हासिल करने गए किसी मुगल शाहजादे को दिल्ली की गद्दी से भाइयों द्वारा वंचित किए जाने के किसी षड्यंत्र से इस घटना का कोई साम्य दिखे या न दिखे मुंशीजी जैसे आदमी के लिए तो यह दिल्ली का तख्त खो देने से ज्यादा महत्वपूर्ण घटना थी।
इतिहास के इसी दबाव के कारण मुंशी रामानुज लाल श्रीवास्तव अपने गाँव से इतनी दूर, किराए के इस मकान में पड़े हुए थे और यह मकान जिसे उन्होंने कभी घर का दरजा देने की कोशिश की थी, एक बार फिर से मकान बनकर रह गया था। पिछले कई सालों से मुंशीजी और उनका परिवार इस मकान में रह रहे थे। इसी मकान में तारा मरी भी थी। विनोद और राजकुमारी जवान हुए और देखते-देखते मुंशीजी बुड्ढ़े हो गए थे, इस मकान के साथ इस परिवार के हर सदस्य की असंख्य खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हैं। पहले जब यह परिवार नया-नया आकर बसा था, बावजूद भाइयों की धोखाधड़ी के, मुंशीजी में कितनी ढेर सारी जिजीविषा शेष थी। रिटायर होने में अभी कुछ महीने शेष थे। मुंशीजी और तारा ने नए सिरे से भविष्य के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। किसी भी कोण से सोचने पर भविष्य अंधकारमय नहीं लगता था। मुंशीजी एक बार फिर से कमर कसकर ट्यूशनों के लिए तैयार हो गए थे। राजकुमारी की शादी के लिए प्राविडेंट-फंड में रुपया था ही, बस विनोद की नौकरी लगने की देर थी। बाप-बेटे जल्दी ही इस लायक हो जाएँगे कि न सही गाँव में, इस शहर में ही एक छोटा-मोटा मकान जरूर बनवा लेंगे। जीवन की संध्या में पहुँचे हुए मुंशीजी थके नहीं थे। उस समय उन्होंने दुगने वेग से जिंदगी में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी। विनोद पप्पू और राजकुमारी की पढ़ाई हो या तारा की सेहत, हर चीज का पहले से ज्यादा ध्यान रखते। सवेरे उठते, बच्चों को जगाकर पढ़ने बैठाते, घर की सफाई करते, दूध लेने जाते और सुबह की धूप में गर्मी आते-आते ट्यूशन पर निकल जाते। तारा लाख समझाती कि अब उनकी देह इतनी मेहनत बर्दाश्त नहीं कर सकती लेकिन वे नहीं मानते। शायद भाइयों के धोखों से चोट खाया मन दूसरी तरह से अपने को आश्वस्त करना चाहता था। वे लगातार अपने को व्यस्त रखकर इस चोट को भूल जाना चाहते थे। इसके लिए सबसे आसान और बेहतर तरीका शायद यही था।
इस मकान और मुंशीजी की जिजीविषा में सीधा-सा संबंध था। शुरू के वर्षों में जब उनमें जीवन के प्रति आकर्षण और मोह शेष था तो वे इस मकान के रख-रखाव में भी दिलचस्पी लेते थे। लगभग हर महीने किराया देते समय मकान मालिक बड़े बाबू से छोटी-बड़ी तकलीफों की शिकायत करते थे - कभी वर्षों से पुताई न होने की, कभी छत से चूने की और कभी किसी खिड़की-दरवाजे के टूट-फूट की। ज्यादातर बड़े बाबू टाल जाते या झूठे आश्वासनों से टरका देते और कभी थोड़ा-बहुत काम करा भी देते। अपनी छोटी तनख्वाह के बावजूद मुंशीजी पुताई-उताई तो कभी-कदार खुद भी करा देते। कोई बड़ा काम न कभी मकान मालिक ने कराया और न मुंशीजी करा पाए। कितनी चखचख की थी मुंशीजी ने कि आँगन का एक कोना घेरकर गुसलखाना निकाल दिया जाए और लेकिन हर बार बड़े बाबू कोरे आश्वासनों से फुसला देते। बेचारी तारा और राजकुमारी जाड़ा, गर्मी, बरसात खुले आँगन में, मुँह-अँधेरे नहाती रहीं। जैसे-जैसे मुंशीजी की दिलचस्पी जिंदगी में कम होती गई, वैसे-वैसे वे इस मकान से भी उदासीन होते गए। मकान के अंदर-बाहर की टूट-फूट खुद उनके अंदर-बाहर की टूट-फूट थी। मकान के घर से पुनः मकान में तब्दील होने की यात्रा उनके खुद के आत्मनिर्वासित, कुंठित और छोटे होते जाने की यात्रा थी।
इस परिवार के लिए असंख्य दिनों की तरह एक दिन और बीत गया था और मकान के छत, दुछत्ती, आँगन और कमरों में एक बार फिर से सन्नाटा जमकर बैठ गया था। रोज ही की तरह एक बार फिर ऐसा हुआ कि परिवार के सभी पुरुष सदस्य दिन-भर न जाने कहाँ-कहाँ से भटकने के बाद थककर वापस लौट आए और मुँह लपेटे, अपने बिस्तरों पर पड़ गए। सभी को पता था कि अभी कोई नहीं सोया है फिर भी रोज की तरह सन्नाटे का नाटक जारी था। सन्नाटा टूटेगा मुंशीजी के खाँसने से, पप्पू के बाहर निकलकर पेशाब करने से या विनोद के ऊबकर चारपाई पर बैठ जाने से - लेकिन क्या सचमुच सन्नाटा ऐसे टूटता है? वह और भयावह सघनता के साथ चारों प्राणियों के व्यक्तित्व के एक-एक अंश को जकड़ लेता है। अँधेरा भी सन्नाटे की तरह दबे पाँव, चुपके से मकान के विभिन्न हिस्सों में नहीं उतरा था बल्कि किसी धृष्ट दस्यु-सा, ललकारता-हुँकारता मकान के एक-एक कोने में विजेता-सा घुसकर बैठ गया था। मकान के दो कमरों में सोए हुए प्राणी इस अँधेरे और सन्नाटे के सामने इस कदर निरुपाय और असहाय लग रहे थे, मानो इस पूरी संरचना में उनका कोई अस्तित्व ही न हो और उनकी अस्मिता को धीरे-धीरे कुतरनेवाला यह खूँखार सन्नाटा उन पर बार बार हमला करके, उन्हें नोच-चोथ रहा हो।
आज की रात का और रातों से फर्क सबसे ज्यादा मुंशीजी महसूस कर रहे थे। हालाँकि रोज ही ऐसा होता था कि मुंशीजी को देर रात गए तक नींद नहीं आती थी, लेकिन आज तो जगने के और भी विशेष कारण थे। रोज मुंशीजी शर्म के महासागर में डूबते-उतराते रहते थे। राजकुमारी की शादी न कर पाने की शर्म, विनोद को आगे न पढा पाने की शर्म, पप्पू पर पूरा ध्यान न दे पाने की शर्म - न जाने क्या-क्या था जो मुंशीजी को पूरी-पूरी रात खामोशी से छटपटाते रहने पर विवश कर देता था। हर रात मुंशीजी को अपने जिंदा रहने का मकसद खो गया सा लगता था। यह रात-भर धीरे-धीरे मन के एक-एक कोने पर तारी होनेवाली शर्मिंदगी का ही असर होता था कि मुंशीजी सवेरे अपने ही बच्चों से आँखें चुराने लगते। धीरे-धीरे अपने बच्चों से कटते जाने का यही राज था। आज काफी दिनों बाद मुंशीजी को आश्वस्ति का अहसास हो रहा था। आज से कुछ ही सालों पहले मुंशीजी के लिए विनोद को क्लर्क के रूप में भी सोचना असंभव था लेकिन कुछ सालों के अंतर ने कितना बड़ा परिवर्तन ला दिया था। अभाव, अपमान और उपेक्षा से टूटा हुआ मुंशीजी का मन आज बावजूद इसके कि विनोद को कल से मेठ की नौकरी पर जाना था; हल्का महसूस कर रहा था। एक ही झटके में वे कई चिंताओं से मुक्ति पा गए थे। अब न वे बड़े बाबू की परवाह करेंगे और न शंकर की। दोनों कैसी गंदी निगाहें से राजकुमारी को घूरते हैं! मुंशीजी हर बार तिलमिलाकर रह जाते हैं लेकिन सिवा खामोश रहने के और कुछ नहीं कर पाते। न तो बड़े बाबू को कुछ कह पाते हैं और न ही राजकुमारी का शंकर की दुकान में जाना बंद हो पाता है। विनोद की नौकरी का सीधा संबंध राजकुमारी की शादी से है। इस मामले में मुंशीजी की अब कोई पसंद नहीं है, दुहाजू-तिहाजू जो मिल जाए, मुंशीजी अब नहीं चूकेंगे। फिर विनोद की शादी - पप्पू की पढ़ाई - विनोद की आगे प्राइवेट पढ़ाई - मुंशीजी का मन तैर रहा है। ऊबड़-खाबड़, कँकरीले रास्तों पर घिसट-घिसटकर लहूलुहान हुआ उसका मन अब आश्वस्ति के नर्म, मुलायम बादलों पर तैर रहा है। मुंशीजी आज की रात भी काफी देर तक जागेंगे लेकिन जाहिर है कि आज के जागरण का मकसद कुछ दूसरा ही होगा।
उसी कमरे में एक और शख्स जग रहा है। आज के घटनाक्रम का केंद्र-बिंदु। उसे मालूम है कि इस भसकते हुए घर की मजबूती के लिए उसकी कुर्बानी कितनी जरूरी है। हालाँकि औसत निम्न मध्यवर्गीय नौजवान की तरह बार-बार वह आज की अपनी हरकत को त्याग और बलिदान जैसे बड़े-बड़े शब्दों के साथ जोड़कर अपने को जबरदस्ती शहीद महसूस करने की कोशिश कर रहा है लेकिन किसी-न-किसी जगह पर किरकिरी है जरूर जो कहीं-न-कहीं उसे चुभ जाती है। इसी चुभी फाँस को निकालने के लिए वह कितना बेचैन है लेकिन यातना की सुरंग इतनी अंधी है कि उसमें सिवाय सर टकरा-टकराकर लहूलुहान हो जाने के निकल भागने का कोई रास्ता नहीं है। बार-बार एक नपुंसक आक्रोश उसके मन में भर जाता है, आखिर उसने मना क्यों नहीं कर दिया? मना कर पाता वह? शायद इसी प्रश्न के उत्तर में उसकी वेदना का हल छिपा है। लेकिन वह जान-बूझ कर उसके उत्तर से साक्षात्कार करने से आँखें चुरा रहा है। पिछले कितने सालों से वह बहुत सारी चीजों से आँखें चुराता आया है। बेकारी ने उसके आत्मविश्वास को इस कदर खंडित कर दिया है कि अब फैसले का कोई भी क्षण उसके लिए भारी पड़ने लगता है और वह हमेशा बिना विरोध के दूसरों का थोपा निर्णय स्वीकार कर लेता है। बचपन में मुंशीजी और माँ दूसरे तमाम शहरी माँओं और बापों की तरह उसे अफसर बनाने की बातें किया करते थे लेकिन विनोद तमाम शहरी लड़कों के मुकाबले ज्यादा समझदार निकला। अपने समवयस्क और समान आर्थिक पृष्ठभूमिवाले लड़कों के मुकाबले उसने ज्यादा जल्दी यह बात समझ ली कि अफसर बनने के लिए जिन चीजों की जरूरत थी, वह उसे मुंशीजी मुहैया नहीं कर सकते। इसलिए उसने सपने देखने की उम्र में ही बड़े सपने देखना बंद कर दिया था। लेकिन फिर भी उसने मझोले दर्जे की नौकरियों की बात सोची थी, मसलन किसी डिपार्टमेंट की इंस्पेक्टरी, सुपरवाइजरी या हद से हद क्लर्की। इतनी भाग-दौड़ के बाद मिली भी तो पी.डब्ल्यू.डी. में मेठ की नौकरी। घबराकर उसने करवट बदल ली। किस मुँह से वह आज रात बिन्नी को बताएगा! आज रात वह छत पर जाएगा ही नहीं - उसने कई बार सोचा लेकिन हर बार उसने अपने को कमजोर पाया। उसे पता है, वह जाएगा जरूर। सिर्फ एक बिन्नी है जिसके सामने मन का सारा गुबार निकालकर वह हल्का हो सकता है। अभी मुश्किल से ग्यारह बजे होंगे। बिन्नी बारह के पहले छत पर आएगी नहीं, लिहाजा एक घंटे और इसे इसी तरह करवटें बदलते और अँधेरे में छत घूरते हुए बिताना पड़ेगा। उसने हल्के से मुंशीजी की तरफ देखा। अँधेरे में मुंशीजी निश्चेष्ट किसी लकड़ी के निर्जीव कुंदे से पड़े थे लेकिन विनोद को अच्छी तरह पता है कि रोज की तरह आज भी वे जग रहे हैं। आज तो वैसे भी जगने के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण कारण उनके पास था। वह चुपचाप बारह बजे का इंतजार करने लगा।
इस कमरे के बाहर एक छोटा सा बरामदा था, जहाँ इस समय सिर्फ सन्नाटा था, अँधेरा था, सवेरे से बिछी हुई एक चटाई थी, दो-तीन पुराने सामानों से भरे कनस्तर थे, आँगन के एक कोने मे आधा आगे को झुका, अपने कमर के तनाव से मुक्ति पाने का प्रयास करता हुआ पप्पू था जो काफी देर तक बिस्तर पर उलटते-पुलटते रहने के बाद असह्य हो जाने पर आँगन में भाग आया था। पता नहीं, राजकुमारी को पता चला या नहीं। वह चोरी से मुंशीजी और विनोदवाले कमरे की ओर देखता है। एक दिन वह इसी हालत में था कि यकायक मुंशीजी बाहर निकल आए थे - शायद पेशाब करने के लिए। उसे उस तरह देखकर एकदम हड़बड़ाकर वापस अंदर कमरे में चले गए। उसके बाद लगातार कई दिनों तक पप्पू मुंशीजी के सामने पड़ने से बचता रहा। उनके उठने के पहले ही वह घर से निकल जाता था और इस बात से आश्वस्त होकर ही घर के अंदर आता कि वे सो गए हैं।
राजकुमारी उसके बाहर जाने या वापस अंदर आने से बेखबर उसी तरह दीवार की तरफ करवट लिए सो रही थी। राजकुमारी की रजाई में एक बार फिर से घुसकर लेटने के खयाल से पप्पू की कमर में फिर से तनाव होने लगा। वह चाहता था कि बगल में खाली पड़ी चारपाई पर चादर लपेटकर पड़ रहे लेकिन इससे कोई फायदा नहीं। पहले कई बार वह ऐसा कर चुका है लेकिन हर बार रात में रजाई लिए दिए राजकुमारी उसकी चारपाई पर आ गई है। इसलिए वह चुपचाप राजकुमारी की चारपाई पर लेट गया और प्राण-पण से इस बात का प्रयास करता रहा कि उसका बदन राजकुमारी के बदन की हरारत से अछूता रहे, लेकिन छोटी-सी चारपाई की पाटी से सट जाने और रजाई का सिर्फ एक छोटा सा अंश ओढ़ने की कोशिश के बावजूद उसका बदन राजकुमारी के बदन से छू जाता था और उसकी कमर का तनाव और कुछ वर्जित सोचने का अपराध-बोध उसके मन में बढ़ता जाता था। वह बार-बार कोशिश कर रहा था कि राजकुमारी की जगह उसके जेहन में मोहल्ले की किसी दूसरी लड़की या किसी सिने तारिका की तस्वीर उभरे लेकिन हर बार राजकुमारी की ही छाया उसके मन में उभरती थी और हर बार घबराकर वह आँखें खोल देता था। राजकुमारी से कुछ दूर और सरककर वह पाटी पर पहुँच जाता था। थोड़ी देर तक अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़ कर छत को घूरते हुए, अपने मन में घुस गए गंदे विचारों से मुक्ति पाने की कोशिश करता लेकिन हर बार आँखें मूँदते ही फिर से वर्जित दुनिया में प्रवेश, उसके पूरे व्यक्तित्व को एक बार पुनः अपराध-बोध से जकड़ लेता।
उसकी तमाम हरकतों से अनभिज्ञ राजकुमारी, एक अलग दुनिया में थी। अर्द्धनिद्रित दशा में वह अनुभव की अजीबो-गरीब स्थिति को झेल रही थी। आज शाम उसने जो अनुभव भोगा था, वह खुमारी की तरह उसके जिस्म पर तारी था। मुंशीजी वगैरह को खाना खिलाते हुए जिस चीज को यह सायास भुलाए हुए थी, वह लेटते ही उसकी चेतना पर एक बार फिर हावी हो गई थी। जब से चारपाई पर लेटी है, तब से अपने उसी अनुभव के एक-एक अंश को आधा सोने, आधा जगने की स्थिति में वह बार-बार सोच रही थी। अक्सर रातों को ऐसा हुआ है कि देह के दिलचस्प समीकरण में वह काल्पनिक मर्दों के साथ फँसी है और रात-रात-भर सोते-जागते बेचैन बनी रही है। लेकिन आज तो उसके पास एक ठोस और दिलचस्प अनुभव है और इस अनुभव ने भले ही उसे और ज्यादा अतृप्त बना दिया हो पर भोगे हुए इस अनुभव की लहर में डूबने-उतराने में उसे अजीब-सा मजा आ रहा था। पप्पू के बगल में आकर लेटने, उठकर आँगन में जाने और फिर लौटकर बगल में लेट जाने से जो खलल पड़ा था उसे पूरी तरह से नजरंदाज करते हुए वह उसी लहर में डूब-उतरा रही थी। मजे की बात यह थी कि अभी तक वह जिस वर्गीय संकोच और कुंठा से ग्रस्त रहती थी, वह आज शाम से न जाने कहाँ लुप्त हो गया था, और इस समय वह पूरी तरह मुक्त और कुंठारहित थी। देह की दुनिया में प्रवेश ने उसे एकदम से हल्का बना दिया था और इस समय वह न जाने किस अदृश्य लोक की तरफ उड़ जाना चाहती थी।
इस अभिशप्त मकान की छत के नीचे लेटे लोगों के लिए आज की रात महज इस मायने में भिन्न थी कि आज चार में केवल तीन पूरी तरह जग रहे थे। एक व्यक्ति आधा सोने और आधा जागने की हालत में था जबकि रोज चारों व्यक्ति आधी से ज्यादा रात पूरी तरह जगते हुए बिताते थे। दूसरा फर्क आज की रात यह आया था कि रोज की तरह आज का अँधेरा एकदम से घना और उबाऊ अँधेरा नहीं था बल्कि आज इस अँधेरे की पर्तों के बीच से इस परिवार के कुछ सदस्य उजाले की नन्हीं-नन्हीं किरणें तलाशने की कोशिश कर रहे थे। खासतौर से मुंशीजी को बहुत दिनों बाद एक कहानी याद आ गई थी। पता नहीं कैसे, इतने दिनों बाद यह कहानी अचानक उन्हें याद आई थी। उन्होंने बचपन में इसे नानी के मुँह से सुना था। बचपन में, गर्मियों में आम खाने मुंशीजी ननिहाल जाया करते थे। ननिहाल के आम जितने मजेदार थे, उतनी ही मजेदार थीं नानी की कहानियाँ। अपने और भाइयों के मुकाबले मुंशीजी को आम से ज्यादा उनकी कहानियाँ रास आती थीं। नानी की सुनाई कहानियों के असंख्य राजाओं में से एक पर अचानक विपदा टूट पड़ती है। राजा का राजपाट बिला जाता है और वह खुद वनवास लेने पर मजबूर हो जाता है। उसकी आशा का एकमात्र केंद्र है, राजकुमार जो धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है। राजा की एकमात्र कन्या का भी दुश्मन अपहरण कर लेते हैं। लेकिन राजकुमार बड़ा होकर अपने पराक्रम से शत्रुओं को पराजित करके अपने पिता को वापस राजगद्दी पर बैठाता है और अपनी बहन को छुटकारा दिलाता है। कहानी खत्म होते-होते अक्सर नानी सोने लगती थीं और कहानी के अंत में हमेशा पूरी श्रद्धा से एक वाक्य कहती थीं कि जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें। आज बार-बार मुंशीजी को यह कहानी याद आ रही है। उन्हें लग रहा है कि पराक्रमी राजकुमार अब बड़ा हो गया है और वह अपने बाप, भाई, बहन सबके दिन फेरेगा। मुंशीजी बार-बार चाहते हैं कि नानी की तरह उनके चेहरे पर भी संतुष्टि की मुस्कान आ जाए और वे भी पूरी श्रद्धा के साथ कहानी के खात्मे पर कामना कर सकें कि जैसे उनके दिन फिरे... लेकिन पता नहीं क्या है कि उन्हें बार-बार लगता है, कहीं इस कहानी में अपने राजपाट के लिए राजा ने राजकुमार को किसी चक्रव्यूह में तो नहीं ढकेल दिया ।
इस ठोस अँधेरे में उजाले की किरण खोजनेवाला दूसरा व्यक्ति विनोद था जो अब काफी हद तक तटस्थ हो चुका था और चुपचाप बारह बजने का इंतजार कर रहा था। करीब आधा घंटा और शेष था। इस बीच विनोद ने मान लिया था कि शाम को हुए महत्वपूर्ण फैसले पर उसे खुश होना चाहिए और वह खुश हो गया था। बड़ी देर से वह लेटे-लेटे तरह-तरह से रिहर्सल कर रहा था। बिन्नी के सामने वह कैसे यह खुशखबरी रखेगा! लेकिन हर बार कुछ-न-कुछ गड़बड़ा जाता था। अँधेरे में कई बार हँसने की कोशिश करते-करते उसे लगता कि वह रो रहा है। लेकिन यह उसका भ्रम था क्योंकि वह खुश था और यह बात अलग थी कि अपनी देखी तमाम हिंदी फिल्मों के नायकों की तरह बलिदान करने के बाद नायिका के सामने मुस्कुराकर, शहीदों की तरह अपनी बात रखने की अदा बार-बार कोशिश करने पर भी उसके चेहरे पर नहीं आ पा रही थी। बहरहाल वह खुश था और चुपचाप बारह बजने का इंतजार कर रहा था।
दूर पुलिस लाइन में बजनेवाले घंटे की हल्की-हल्की सी आवाज सुनाई दी। दम साधे बिस्तर पर पड़े-पड़े विनोद ने गिनने की कोशिश की, एक... दो... तीन... चार... लेकिन बीच में उसका धैर्य टूट गया और वह हड़बड़ाकर अपने ऊपर से रजाई फेंककर चारपाई से नीचे उतर आया। चारपाई की चरमाहट अस्वाभाविक रूप से कमरे के सन्नाटे को बेध गई। विनोद ने घबराकर मुंशीजी की तरफ देखा। मुंशीजी उसी तरह मुँह लपेटे, दीवार की तरफ करवट लिए’ निश्चेष्ट जग या सो रहे थे। विनोद ने अँधेरे में टटोलकर चप्पलों में अपने पैर डाले और कमरे के बाहर निकल गया।
मकान का निचला हिस्सा एक बार फिर सन्नाटे और अँधेरे की चादर ओढ़कर, अपने आगोश में छिपे प्राणियों की तरह सोते-सोते जागने या जागते-जागते सोने लगा। मकान के ऊपरी हिस्से में पता नहीं कौन-सा नाटक शुरू हो गया था कि नीचे लेटे-लेटे मुंशीजी को बेचैनी होने लगी। उन्हें विनोद के उठकर जाने का पता चल गया था और वे यह भी जानते हैं कि विनोद बीच-बीच में रात को उठकर कहीं चला जाता है लेकिन कई बार टोकने की बात सोचकर भी वे कभी कुछ नहीं कह पाए। आज उसके लौटने में कुछ अस्वाभाविक देरी हो गई थी। काफी देर तक बेचैनी से कसमसाते रहने के बाद अंत में वे चारपाई के नीचे उतर आए लेकिन आँगन में पहुँचते-पहुँचते उनका बदन ढीला पड़ गया और बजाय छत पर जाने के वे आँगन के कोने में नाली पर बैठ गए।
अर्द्धनिद्रा में डूबी राजकुमारी पर फिर से उसका सपना हावी होने लगा। रूई के फाहों जैसे बादलों के पार घोड़े पर सवार राजकुमार उड़ता चला जा रहा है, लेकिन ताज्जुब की बात थी कि आज राजकुमारी बड़ी तेजी से अपने और उसके बीच का फासला मिटाती जा रही है। राजकुमारी उसके बहुत पास पहुँच गई है - एकदम करीब, यहाँ तक कि राजकुमार का चेहरा काफी साफ दिखाई पड़ने लगा है। राजकुमारी चाहती है कि आज राजकुमार का चेहरा सुरेंद्र की तरह हो जाए। लेकिन यह क्या - वह ठिठक कर खड़ी हो जाती है - आज तो राजकुमार का चेहरा एकदम शंकर की तरह लग रहा है - राजकुमारी के करीब आते ही शंकर ठठाकर उसकी तरफ दौड़ता है। उसकी वीभत्स पकड़ से बचने के लिए राजकुमारी जान हथेली पर लेकर भागती है। रुई के नर्म फाहों जैसे बादलों पर उसके पैर धँसते जाते हैं और राजकुमारी भागती जाती है। बार-बार लगता है कि अट्टहास करता शंकर किसी भी क्षण उसे पकड़ लेगा। हर बार वह घबराकर आँखें खोल देती है और हर बार नए सिरे से यही सपना किसी परिवर्तन की आशा में देखती है लेकिन हर बार शंकर का खौफनाक हाथ उसके संपूर्ण अस्तित्व को झिंझोड़ता हुआ, उसके इतने करीब आ जाता है कि पसीने से नहाई राजकुमारी घबराकर अपनी आँखें खोल देती हैं।
आँगन में मुंशीजी कितनी देर तक नाली पर बैठते? दिसंबर की सर्दी उनके बूढ़े बदन की हड्डियों तक को कँपकँपा दे रही थी। सर्दी से ज्यादा उनके मन की आशंकाएँ उन्हें मथ रही थीं। शाम से विनोद का मुँह कैसा उतरा-उतरा सा लग रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि सचमुच उनकी नानी की कहानियों का राजकुमार किसी चक्रव्यूह में फँस गया हो । बैठे-बैठे वे बेचैन होने लगे। उन्हें ऊपर जाना ही पड़ेगा। विनोद को एकाध बार छत पर बिन्नी के साथ जिस हालत में उन्होंने देखा है, उसे सोचकर वे अँधेरे में खुद से शरमाने लगे। लेकिन जैसे-जैसे देर होती जा रही थी, उनके मन की घबराहट बढ़ती जा रही थी। लड़का है भी तो कितना घुन्ना। कुछ बोलता ही नहीं। चुपचाप न जाने क्या कर बैठे? मुंशीजी और ज्यादा देर नहीं रुक सके और दबे पाँव सीढ़ियों से ऊपर छत पर चढ़ गए।
राजकुमारी की चारपाई की पाटी पर सिकुड़ा पप्पू सो गया था और सोने में भी उसका चेहरा भिंचा हुआ था। अपने घर के अन्य लोगों की तरह उसे भी सपने देखने की बुरी आदत थी। लेकिन मजेदार बात यह थी कि इधर सपने में उसे सेक्स नहीं सताता। सपने में वह सिर्फ अनिल दादा को देखता हूँ। अनिल दादा के नेतृत्व में पार्क में बैठकर मोहल्ले के लड़कों के साथ शंकर की दुकान लूटने की योजना बनाते हुए वह खुद को और दोनों हाथ ऊपर उठाए, भौंचक्के, असहाय शंकर को देखता है। सपने में पहले से बनाई गई स्कीम में केवल एक फर्क यह आता है कि अनिल दादा की हिदायत के बावजूद, भागते समय पप्पू नकाब उतारकर अपना चेहरा शंकर को दिखा देता है, जिससे शंकर का मुँह और ज्यादा खुल जाता है। आज भी पप्पू को यही सपना दिख रहा है और सपने के दौरान पहले की तरह आज भी उसका चेहरा भिंचा हुआ है।
सीढ़ियाँ खत्म होने के बाद एक चौखट और चौखट के पार छत है जो निचले हिस्से के मुकाबले कहीं ज्यादा गहरे अँधेरे में डूबी हुई है। दिसंबर की सर्द, मध्य रात्रि बूँद-बूँदकर टपक रही है और चारों तरफ लटकी हुई पाले की बूँदों के बीच देखने की तकलीफदेह कोशिश करते हुए मुंशीजी चौखट पर खड़े हैं। पता नहीं उनके और बड़े बाबू की छतों को विभक्त करनेवाली मुँड़ेर के दोनों ओर खड़े विनोद और बिन्नी की कुहराछन्न, धुँधली आकृतियाँ थीं या दर्द की काँपती हुई स्वर लहरियाँ की तरह छा जानेवाली हल्की-हल्की सिसकियाँ जो विनोद के क्षीण कंठ से तैरती हुई मुंशीजी के कानों से टकरा रही थीं, जिन्होंने मुंशीजी को अभी तक नीचे लौटने नहीं दिया था। बिन्नी हौले-हौले विनोद का सर सहला रही थी। विनोद सिर्फ पाजामा-कमीज पहने था। मुंशीजी का मन हुआ कि नीचे से एक कंबल लाएँ और उसे ओढ़ा दें लेकिन वे चुपचाप नीचे उतरे और अपनी चारपाई पर रजाई में चेहरा ढककर, दीवार की तरफ मुँह करके लेट गए।