1
बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गयी है और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू-कार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार की ग्लानि, निराशा और क्षोम के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले, तंग चक्करदार गलियों में एक लड्ढी वाले के लिए ठहरकर, सबका समुद्र उमड़ाकर - ‘बचो खालसाजी!,’ ‘हटो भाई जी!’, ‘ठहरना भाई!’, ‘आने दो लाला जी!’ - ‘हटो वा’ छा!’ कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खोजते हैं। क्या मजाल है कि ‘जी’ और ‘साहब’ बिना सुने किसी को हटाना पड़े यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा, जीणेजोगिये; हट जा, करमाँवालिए; हट जा, पुत्तांप्यारिए; बच जा, लम्बी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ है कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है। तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा?
ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और उसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दूकानदार एक परदेशी से गुँथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
‘‘तेरे घर कहाँ है?’’
‘‘मगरे में-और तेरे?’’
‘‘माझे में, यहाँ कहाँ रहती है?’’
‘‘अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।’’
‘‘मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बाज़ार में है।’’
इतने में दूकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्कराकर पूछा, ‘‘तेरी कुड़माई हो गयी?’’ इस पर लड़की कुछ आँख चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गयी और लड़का मुँह देखता रहा गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, या दूधवाले के यहाँ, अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘‘तेरी कुड़माई हो गयी?’’ और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला।
एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की सम्भावना के विरुद्ध बोली, ‘‘हाँ, हो गयी।’’
‘‘कब?’’
‘‘कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।’’ लड़की भाग गयी। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ीवाले की दिन भर की कमाई खोयी, एक कुत्ते के पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पायी। तब कहीं घर पहुँचा।
2
‘‘राम-राम यह भी कोई लड़ाई है!’’ दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गयीं। लुधियाने से दस-गुना जाड़ा, और मेह और बरफ ऊपर से। पिण्डलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। गनीम कहीं दिखता नहीं - घण्टे-दो घण्टे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। उस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पच्चीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक के बाहर साफा या कुहनी निकल गयी तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।
‘‘लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों ‘रिलीफ’ आ जाएगी और सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों ‘झटका’ करेंगे और पेट भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में-मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आये हो।’’
‘‘चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुकम मिल जाए। फिर सात जर्मनों को अकेला मारकर न लौटूँ तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े-संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का एक गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल साहब ने हट आने का कमान दिया, नहीं तो...’’
‘‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते। क्यों?’’ सूबेदार हजारासिंह ने मुस्कराकर कहा-‘‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गये तो क्या होगा?’’
‘‘सूबेदार जी, सच है’’ लहनासिंह बोला, ‘‘पर करें क्या?’’ हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाए तो गर्मी आ जाए।
‘‘उदमी, उठ, सिगड़ी में कोयले डाल। वजीरा तुम चार जने बाल्टियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गयी है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल दे।’’ यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भरकर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, ‘‘मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भरकर उसके हाथ में देकर कहा, ‘‘अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब भर में नहीं मिलेगा।’’
‘‘हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस गुना जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।’’
‘‘लाड़ी होराँ को भी यहाँ बुला लोगे! या वही दूध पिलानेवाली फिरंगी
मेम - ’’
‘‘चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।’’
‘‘देस-देस की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाकू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया। अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।’’
‘‘अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?’’
‘‘अच्छा है।’’
‘‘जैसे मैं जानता ही न होऊँ। रात भर तुम अपने दोनों कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाना क्या है मौत है और ‘निमोनियाँ’ से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।’’
‘‘मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।’’
वजीरासिंह ने त्यौरी चढ़ाकर कहा, ‘‘क्या मरने-मराने की बात लगायी है? मरें, जर्मनी और तुरक। हाँ भाइयो, कैसे -
दिल्ली शहर ते पिशौर नुं जाँदिए,
कर लेणा लौगाँ दा वपार मडिए,
कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए,
(ओय्) लाणा चटाका कदुए नूँ
कद्दू बणाया वे मजेदार गोरिए
हुण लाणा चटाका कदुए नूँ॥’’
कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी, सिख, ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानो चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
3
दो पहर रात गयी है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछाकर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरकोट ओढ़कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
‘‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’’
‘‘पानी पिला दो।’’
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह में लगाकर पूछा, ‘‘कहो कैसे हो?’’ पानी पीकर बोधा बोला, ‘‘कँपनी (कँपकँपी) छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।’’
‘‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो।’’
‘‘और तुम?’’
‘‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गरमी लगती है, पसीना आ रहा है।’’
‘‘ना, मैं नहीं पहनता, चार दिन से तुम, मेरे लिए - ’’
‘‘हाँ, याद आयी। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आयी है। विलायत से मेमें बुन-बुनकर भेज रही हैं। गुरु उनका भला करें।’’ यों कहकर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा।
‘‘सच कहते हो?’’
‘‘और नहीं झूठ?’’ यों कहकर नाहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप ख़ाकी कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आयी - ‘‘सूबेदार हजारासिंह!’’
‘‘कौन, लपटन साहब? हुकुम हुजूर।’’ कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके सामने हुआ?
‘‘देखो इसी दम धावा करना होगा। मीलभर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीनकर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।’’
‘‘जो हुकुम।’’
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतारकर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना नहीं चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेरकर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ाकर कहा -
‘‘लो, तुम भी पियो।’’
आँखें मारते-करते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपाकर बोला, ‘‘लाओ, साहब।’’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा, बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियोंवाले बाल एक दिन में कहाँ उड़ गये और उनकी जगह कैदियों के-से कटे हुए बाल कहाँ से आ गये?
शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा - लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजीमेण्ट में थे।
‘‘क्यों साहब, हम लोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?’’
‘‘लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं!’’
‘‘नहीं साहब! शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी के जिले में शिकार करने गये थे - हाँ, हाँ, - वहीं जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था? ‘‘बेशक, पाजी कहीं का’’ - सामने से वह नीलगाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नीलगाय का सिर आ गया था न! आपने कहा था कि रेजीमेण्ट की मेस में लगाएँगे।’’
‘‘हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।’’
‘‘ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे।’’
‘‘हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया!’’
‘‘पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ’’ - कहकर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया था कि क्या करना चाहिए।
अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया।
‘‘कौन? वजीरासिंह?’’
‘‘हाँ, क्यों लहना!’’ क्या कयामत आ गयी! जरा तो आँख लगने दी होती!’’
4
‘‘होश में आओ। कयामत आयी है और लपटन साहब की वर्दी पहनकर आयी है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहनकर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा है और बातें की हैं। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।’’
‘‘अब मारे गये। धोखा है। सूबेदार होराँ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आएँ। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।’’
‘‘हुकुम तो यह है कि यहीं...’’
‘‘ऐसी-तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम - जमादार लहनासिंह, जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।’’
‘‘पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।’’
‘‘आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।’’
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर के तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी पर रखने वाला था -
बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारी। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने कुन्दा साहब की गरदन पर मारा और साहब ‘‘आख! मीन गौट’’ कहते हुए चित हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकालकर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँसकर बोला - ‘‘क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है! आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगाएँ होती हैं और उसके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये! हमारे लपटन साहब बिना ‘डेम’ के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।’’
लहना ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहनासिंह कहता गया, ‘‘चालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए, एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा1 बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनवाले बड़े पण्डित हैं। वेद पढ़कर उनमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं, गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जाएँगे तो गौहत्या बन्द कर देंगे। मण्डी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो; सरकार का राज जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूँड दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो...’’
साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की ‘हैनरी मार्टिनी’ के दो फायरों ने साहब की कपाल क्रिया कर दी। धमाका सुनकर सब दौड़े आये।
बोधा चिल्लाया - ‘‘क्या है?’’
लहनासिंह ने उसे तो यह कहकर सुला दिया कि ‘‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया,’’ औरों से सब हाल कह दिया। बन्दूकें लेकर सब तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कसकर बाँधीं। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तककर मार रहा था - वह खड़ा था, और सब लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े मिनटों में वे -
अचानक आवाज आयी - ‘‘वाह गुरुजी की फतह! वाह गुरुजी का खालसा!!’’ और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और - ‘‘अकाल सिक्खाँ दी फ़ौज आयी? वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा!! सतश्री अकाल पुरुष!!!’’ और लड़ाई खत्म हो गयी। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर-पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कसकर कमर-बन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव-भारी घाव-लगा है।
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था। ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मर जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिने ओर की खाईवालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट डॉक्टर और बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो कोई एक डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँचीं। एक फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गये और दूसरी में लाशें रक्खी गयीं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही पर उसने यह कहकर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जाएगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा - ‘‘तुम्हें बोधा की कसम है और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है, जो इस गाड़ी में न चले जाओ।’’
‘‘और तुम?’’
‘‘मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास तो है ही।’’
‘‘अच्छा, पर - ’’
‘‘बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था-टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो यह कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था, वह कर दिया।’’
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा - ‘‘तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?’’
‘‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।’’
गाड़ी जाते ही लहना लेट गया। ‘‘वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।’’
5
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिलकुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जी वाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि ‘‘तेरी कुड़माई हो गयी?’’ तब ‘धत्’ कहकर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा - ‘‘हाँ कल, हो गयी, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू?’’ सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
‘‘वजीरासिंह, पानी पिला दे।’’
पच्चीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं. 77 राइफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान भी न रहा। न मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकद्दमे की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजीमेण्ट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे, तब सूबेदार बैढे में से निकलकर आया, बोला - ‘‘लहना, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है। जा मिल आ।’’ लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजीमेण्ट के क्वाटरों में कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर ‘मत्था टेकना’ कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
‘‘मुझे पहचाना?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तेरी कुड़माई हो गयी? – धत् - कल हो गयी - देखते नहीं रेशमी बूटोंवाला सालू - अमृतसर में - ’’
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
‘‘वजीरा, पानी पिला।’’ - ‘‘उसने कहा था।’’
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - ‘‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गये। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमकहलाली का मौका आया है, पर सरकार ने हम तीमियों की एक घँघरियाँ पलटन क्यों न बना दी जो मैं सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।’’ सूबेदारनी रोने लगी - ‘‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दही की दुकान के आगे बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़े की लातों में चले गये थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।’’
रोती-रोती सूबेदारनी ओवरी में चली गयी। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
‘‘वजीरासिंह, पानी पिला, उसने कहा था।’’
लहना का सिर अपनी गोदी पर रखे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आधे घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला - ‘‘कौन? कीरतासिंह?’’
वजीरा ने कुछ समझकर कहा - ‘‘हाँ।’’
भाइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।
वजीरा ने वैसा ही किया।
‘‘हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस। अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में इसे मैंने लगाया था।’’
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।...
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा -
फ्रांस और बेलजियम - 68वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं.77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।
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