कान्यकुब्ज का अर्थ
Kanauj, which is traditionaly said to be derived from Kanya-Kubja (the Croocked maiden) has given its name to an important division of Brahmans in northern India.
- (इन्साइक्लोपीडिया)
कान्यकुब्ज, गौड़, वाजपेयी विवेचन
वर्ण व्यवस्था के समर्थकों का एक यह भी मत है कि जितने भी जन्म जाति सूचक पुछल्ले हैं ये हमारे गोत्र हैं, इनकी रक्षा करनी ही चाहिए। जिनमें शुक्ल, मिश्र, तिवारी, चौबे, दुबे, त्यागी, सेठी, पाठक, कपूर, खन्ना, पुरी, टण्डन, शारदा, अग्रवाल आदि प्रसिद्ध हैं। इन शब्दों के प्रयोगमात्र से यह ज्ञान हो जाता है कि अमुक व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण है, क्षत्रिय है या वैश्य अथवा शूद्र है; क्योंकि गोत्रों के बहाने ये वर्ण-व्यवस्था के पक्के सन्तरी बने हुए हैं। इनमें अनेक तो विकृत हैं और अनेक शब्द शुद्ध कर लिए गये हैं। यथा-तगे से त्यागी, सारड़ा से शारदा, और मिस्र से मिश्र! बात यह है कि विवाहों के अवसर पर इनसे ख़ूब काम लिया जाता है। इनमें अनेक गोत्र नहीं हैं-यों ही गोत्रों की श्रेणी में गिने जाते हैं। फिर गोत्र का सवाल भी इतना पेचीदा है कि इसको हल करने के लिए बड़े साहस की आवश्यकता है। प्राचीन ऋषियों के आज्ञानुसार तो गोत्र वही है-जो ‘अपत्यं पौत्र प्रभृति गोत्रम’ में प्रतिपादित है। अब तो सारे वर्ण संकर हो गए है। देखिए-महाभारत में वनपर्व 180/31
‘संकरात्सर्ववर्णानांदुष्परीक्ष्येति मे मतिः’ अर्थात् वर्ण तो दुष्परीक्ष्य है। भाई! विवाह में तो विशेष बात ध्यान देने की इतनी ही होती है कि अत्यन्त समीप के रिश्ते न हो जावें-बाकी यथायोग्य देखकर सम्बन्ध कर दिया जाता है। एक बात और-‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ को मानने वाले मुसलमानों को शुद्ध करके किस गोत्र में रक्खेंगे, ईसाइयों को किस गोत्र में डालेंगे और इसी प्रकार डच, यहूदी, पारसी किस गोत्र में गिने जायेंगे। वहाँ पुरी खन्ना तिवारी कहाँ मिलेंगे। सारे संसार में धर्मध्वजा फहराने का स्वप्न लेने वाले गोत्र की गणना में कबतक गाफ़िल रहेंगे। स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तानुसार गुण कर्म से जब वर्ण व्यवस्था होगी तो पुरी खन्ना से, तिवारी अग्रवाल से और शुक्ल कपूर से सम्बन्धित हो जाएगा-तब इन गोत्रों की कितनी कीमत रह जाएगी। तभी स्वामी दयानन्द ने संस्कार विधि में लिख दिया है कि कन्या माता की छह पीढ़ी के भीतर भी हो तथापि उसी को देना अन्य को कभी न देना। इसलिए वर्ण व्यवस्था के ठेकेदारों को यह मिथ्याप्रलाप छोड़ देना चाहिए और तुरन्त इन तमाम पुछल्लों पर पोचा फेर कर एक विशाल ‘आर्य जाति’ का निर्माण करना चाहिए। हाँ! उद्देश्य सूचक और भावोद्वोधक उपनाम रखने में कोई हानि नहीं है। जैसे अभय, त्रिशूल, हितैषी, सनेही, विद्यार्थी, मेघार्थी और सत्यार्थी आदि। इस प्रकार नाम भेद भी हो जाता है और वर्ण व्यवस्था का दिग्दर्शन भी नहीं होता। अब इसी सिलसिले में कान्यकुब्ज, गौड़ और वाजपेयी का भी हाल सुन लीजिए। ये कैसे गोत्र हैं।
(1) ब्राह्मणों में सर्व श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘कान्यकुब्ज’ माने जाते हैं। कान्यकुब्ज में दो शब्द हैं। कान्य और कुब्ज अर्थात् सौ कुबड़ी कन्याओं से जिनकी उत्पन्न हुई वे कान्यकुब्ज कहलाए।
सुप्रसिद्ध आप्टे के विशाल कोष में भी लिखा है कि कन्नौज का नाम ‘कन्याकुब्ज’ है।
यह कोई कपोल कल्पित किस्सा नहीं है। प्रत्युत रामायण के बालकाण्ड अ. 32, 33 और 34 में इस विषय का विस्तृत वर्णन मिलता है। जब राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र साथ लेकर सिद्धाश्रम से लौटे हैं तब कुश राजा के राज्य में पहुँचकर राम ने विश्वामित्र से पूछा है कि-
‘भगवन्! कोन्वयं देशः अर्थात् इस देश का क्या नाम है तब विश्वामित्र ने बताया है कि मेरा जन्म देश यही है और यह देश ब्राह्मणों की उत्पत्ति का केन्द्र है। ये सारे ब्राह्मण क्षत्रियों की सन्तान हैं। इस प्रकार ‘वर्णसंकर’ का दोषारोपण भी कर दिया। प्रमाण इस प्रकार है-
ब्रह्मयोनिर्महा नासीत् कुशोनाम महातपः।
अल्किष्टव्रतधर्मज्ञः सज्जन प्रतिपूजकः॥
अर्थात् कुश नाम का महातपस्वी राजा ‘ब्रह्मयोनि’ था। उसके वैदर्भी नाम की स्त्री से कुशाम्ब, कुशनाभ आदि चार पुत्र पैदा हुए। कुशाम्ब ने कौशाम्बी बसाया जिसको आजकल ‘कोसम’ कहते हैं-और कुशनाम क्षत्रिय राजा ने घृताची नाम की स्त्री में सौ सुन्दर कन्याएँ पैदा कीं। श्लोक इस प्रकार है-
कुशनाभस्तु राजार्षिः कन्याशत मनुत्तमम्।
जनयामास धर्मात्मा घृताच्यां रघुनन्दन॥
ये कन्याएँ वायु दोष से कुबड़ी हो गयीं। इन कुबड़ी सौ कन्याओं का विवाह चूली के पुत्र ब्रह्मदत्त से हुआ। ब्रह्मदत्त ब्राह्मण था। उसके स्पर्श मात्र से सभी कन्याओं का कुबड़ापन दूर हो गया।
स्पृष्ट मात्रे तदा पाणौ विकुब्जाः विगत ज्वराः।
युक्तं परमया लक्ष्म्या बभौ कन्याशतं तदा॥
अब स्वयं सोच लीजिए कि इन सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों की उत्पत्ति कहाँ से हुई। हम तो इन बातों को बिलकुल नहीं मानते परन्तु हमारे कान्यकुब्ज भाई जब-जब अपना ‘कान्यकुब्ज’ गोत्र बतायेंगे, तब-तब हम भी वाल्मीकीय रामायण का हिस्सा सामने रख देंगे। शांतं पापम्।
कान्यकुब्ज लोग अपने को सर्व श्रेष्ठ ब्राह्मण मानते हैं। प्रमाण रूप से प्रस्तुत करते हैं कि ‘‘कान्यकुब्जः द्विजाः श्रेयाः’’। न जाने कहाँ का यह प्रमाण है। यह संस्कृत में है इस लिए लोग इसे मान अवश्य लेते हैं। परन्तु वास्तव में कान्यकुब्ज लोगों में मांस भक्षण का विशेष प्रचार है। शुद्ध इतने बनते हैं कि ‘नौ कनौजिया दस चूल्हे’। इनमें ऐसे लोग भी हैं जो अपनी स्त्री के हाथ से भी भोजन बनवा कर नहीं खाते। ये लोग हस्तपाकी कहलाते हैं। परम पवित्र होते हैं। आर्य समाज में भी इस टाइप के उपदेशक होते हैं। भला हो इनका? जब मांसभक्षण में कनौजिए निपुण हैं तब शराब को क्यों छोड़ते होंगे। कहावत है-
‘‘बाला पियें पियाला, फिर बाला के बाला’’
बाला के शुक्ल मशहूर हैं। फिर वर्ण व्यवस्था के पक्के ठेकेदार हैं। आधा अछूतपन इन्हीं के कारण देश में है। इन्हीं में शुक्ल, तिवारी, मिश्र, पांडे सब शामिल हैं। अछूतोद्धार के मार्ग में इनके ये पुछल्ले बड़े बाधक हैं।
(2) अब ‘गौड़’ की कथा सुनिए। वेद में ‘गौर’ आया है उस का विवेचन तो फिर होगा। अभी तो देखिए-बंगाल देश का नाम गौड़ है। बंगाल में खजूर का गुड़ बहुतायत से होता है। खजूर की शराब भी वहाँ खूब बनती है-जिसका पान प्रायः सौ में नब्बे बंगाली करते हैं। इनमें चटर्जी, मुकर्जी, और बनर्जी सभी हैं। ये लोग उच्च कोटि के ब्राह्मण माने जाते हैं। मछली को तो ये लोग जल तोरी मानते हैं-और अण्डे को रसगुल्ला समझ कर खाते हैं।
ऐसे ब्राह्मणों को राक्षस कहा जाए या पिशाच परन्तु ‘गौड़’ ब्राह्मणों की उत्पत्ति का श्रेय इनको अवश्य है। इसीलिए ‘सुश्रत’ जैसे सुप्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ में लिखा है कि ‘गोडः पाचन दीपनः’ अर्थात् गुड़ की शराब हाजमा बढ़ाती है। बात यह है कि गुड़ की हाजिम शराब को पीने वाले गौड़ लोग कहलाये। जिसके लिए मनुस्मृति जैसी पुस्तक ने भी मुक्तकंठ से निंदा की। मनुस्मृति में लिखा है-
गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा।
यथैवैका तथैवान्या न पातव्या द्विजोत्तमैः॥
अर्थात् गुड़ की बनी शराब, पिट्ठी की बनी शराब और महुवे की शराब तीनों ख़राब हैं। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य शराब न पीवें। सो उसी गुड़ की निषिद्ध शराब को पीने वाले गोत्र के गौड़ बड़े शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव बने हुए हैं। एक बात मनुस्मृति के श्लोक में पाई जानी स्वाभाविक है-क्योंकि शूद्रों के लिए तो मनुस्मृति का बनाने वाला ख़ार खाए बैठा था। मनुस्मृति है ही क्या शूद्रों के विरुद्ध द्विजों का एक षड्यन्त्र? और पुरोहित शाही का पोषक एक प्रपञ्च!!! उक्त श्लोक में लिखा है कि द्विज शराब न पीवे। बेचारा शूद क्यों पीवे? क्या धर्मशास्त्र इसीलिए है कि शूद्रों को शराब पीने की आज्ञा देवे। अब समझ में आया कि शूद्र लोग मनुस्मृति को जलाने के लिए मशाल लिए क्यों अड़े हैं। हम तो मनुस्मृति को जला देने के लिए तय्यार हैं; चाहे आर्य्यसमाजी बिगड़ें या धर्म समाजी क्योंकि हम तो वेद को ही अपना धर्मशास्त्र समझते हैं।
इसी प्रकार एक दूसरा श्लोक भी शूद्रों को शराब पीने के लिए उत्तेजित करता है।
सुरा वै मल मन्नानां पाप्मा च मल मुच्यते।
तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ बैश्यश्च न सुरां पिबेत्॥
अर्थात् शराब अन्नों का मैल है इसलिए द्विज लोग शराब न पीवें। क्यों भाई! शूद्र तो पीवे। फिर मजा यह है कि ब्राह्मण लोगों ने खुद क़ानून बनाया और आज शूद्रों को भी विस्की पीने में मात कर गए। परन्तु हैं अभी शर्मा जी। इस शर्मा की छाप ने शराब को शरबत बना दिया और मांस को सेव का गूदा। कुछ न पूछिए। द्विजों के इस पाखण्ड ने वर्ण व्यवस्था को खूब मांजा है।
(3) अब तीसरे श्रेष्ठशिरोमणि ब्राह्मण देवता का हाल सुनिए। आप बाजपेयी बने हैं। मध्यकाल में जब ब्राह्मण लोग मांस शराब के खूब अभ्यासी हो गए तो यज्ञ करके सब उसी के नाम समेटने लगे। बकरा काटा यज्ञ के नाम पर और कर दिया पेट के हवाले। शराब का छींटा दिया यज्ञाग्नि में और उड़ेल गए गले की गटर में। पाप तो हुआ ही नहीं; क्योंकि ‘वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति।’ यह भी इनका बनाया कानून है। उसी सिलसिले में ‘वाजपायी’ प्रसिद्ध हो गए। ‘वाज’ नाम अन्न का भी है। यज्ञों में अन्न की बनी हुई शराब को पीने वाले ‘वाजपायी’ कहलाते थे। वाल्मीकीय रामायण में साफ़ है-‘‘वाजयेयान् दशगुणान् तथा बहु सुवर्णकान्’’ (उत्तर काण्ड) सो बिगड़ते-बिगड़ते अब ‘बाजपेई’ बन गए। हैं ये बड़े कटु किस्से। परन्तु हमने तो सत्य लिखने की शपथ खा ली है-इसीलिए लिखेंगे जरूर, चाहे फिर कुछ भी हो। यह है इन लोगों के गोत्रों की संक्षिप्त कथा। भाइयो!
कहानी से भण्डार पूरा भरा है।