गुड़ खाएँ, गुलगुलों से परहेज
I feel more than ever that if untouchability lives Hinduism dies.
- महात्मा गाँधी
आज हमारा देश अछूतों की समस्या से बेहद सताया जा रहा है। गम्भीरता पूर्वक विचारा जाए तो इस अछूतपन का मुख्य कारण प्रचलित वर्ण व्यवस्था है। अछूत माना जाने वाला व्यक्ति चाहे कितना ही विद्वान्, सदाचारी और पवित्र हो-वह इस प्रचलित वर्ण व्यवस्था को विध्वंस किए बिना नीच ही समझा जावेगा। एक चमार चमार ही रहेगा, चाहे वह संसार की सबसे बड़ी डिग्री प्राप्त कर ले, एक भंगी भंगी ही गिना जाएगा चाहे वह एक ब्राह्मण के समान अत्यन्त शुद्ध जीवन बिताता हो, एक धोबी धोबी ही माना जावेगा चाहे वह किसी फौज का अफसर ही क्यों न हो!!! यह सब क्यों-इसीलिए कि हिन्दुओं की प्रचलित वर्ण व्यवस्था किसी को पनपने रहीं देती। महान् खेद तो यह है कि हमारी सरकार में भी सारे हिन्दू कानून ‘‘मनुस्मृति’’ आदि के माने जाते हैं। सुनिए एक अंग्रेज महिला ने आर्यसमाजिओं की संस्कार विधि के अनुसार एक हिन्दू से विवाह कर लिया। कुछ अर्सों के बाद जायदाद सम्बन्धी झगड़ा खड़ा हुआ। हाईकोर्ट तक मुक़दमा चला। वहाँ फैसला दे दिया गया कि यह विवाह ही हिन्दू कानून के अनुसार नाजायज है। बेचारे आर्यसमाजी मुँह बाए रह गये। प्रयोजन यह है कि हमारे देश में सर्वत्र मनुस्मृति का प्रभुत्व है। कहने को आर्यसमाजी बहुत बनते हैं-परन्तु इनका प्रभाव देश पर इतना भी नहीं जितना उर्दू के ऊपर सफ़ेदी। हाँ! वैदिक सिद्धान्तों के कायल सभी हैं-परन्तु आर्यसमाज गेहूँ में जौ के बराबर भी नहीं है! आए दिन लाखों हिन्दू पाखाने से परिपूर्ण गंगा, जमना और नर्मदा में स्नान को दौड़ते हैं। कुरुक्षेत्र के तालाब में डूब मरते हैं-और पुष्कर के पोखर में प्रविष्ट होते हैं। न अजमेर की आर्य प्रतिनिधि सभा रोक सकती है, न पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा और न युक्तप्रान्त को आर्य प्रतिनिधि सभा। क्यों! इसीलिए के आर्यसमाज का देश पर कोई प्रभाव नहीं है। प्रभाव हो भी कैसे जब स्वयं आर्यसमाजी लोग प्रचलित वर्ण व्यवस्था के गुलाम हैं और गुण कर्म की वर्ण व्यवस्था की टट्टी की ओट में बैठ कर ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का बेसुरा और भद्दा अलाप सुनाते हैं तो कौन समझदार इनके बाड़े में घुसे? फिर आए दिन आर्यसमाज के चुनावों में भी जो खैचातानी प्रचलित वर्ण व्यवस्था के आधार पर होती है उससे तो समझदार सभी आर्यसमाजियों का सिर लज्जा के मारे झुक जाता है। बताइए आर्य समाज का प्रभाव कैसे पड़े? प्रयोजन यह है भारत में सर्वत्र प्रचलित वर्ण व्यवस्था का जोर है और परिणामस्वरूप अछूत अछूत ही रहेंगे। हाँ! यदि अछूतों ने पुराणों की सहायता से कहीं यह सिद्ध कर दिखाया कि हम लोग ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय-तब तो हमारी नेक सरकार की सहायता से कानूनन अछूतपन मिट सकेगा। ये मोटी चोटी वाले एक सौ ग्यारह नम्बरी हिन्दू तो अछूतों को त्रिकाल में भी उठने न देंगे। तो होगा क्या! अछूतों से परहेज, अछूतों को इन्सान न समझना और बेचारे अछूतों से बेगार और उन पर अत्याचार। विचित्र बात तो यह है कि सारे द्विज नाम धारी विदेशी चीनी खा जाएँगे-जो हड्डी से साफ़ की जाती है, यहाँ तक कि उसी चीनी से बने हुए मिष्टान्न का भोग अपने ठाकुर जी (भगवान्) पर लगावेंगे। चर्बी वाला घी खा जाएँगे। शराब मिश्रित दवाएँ पी जाएँगे। चमड़े लगे हुए नलों का पानी गटक करेंगे और अछूत अछूत कह कर अपनी बुद्धिहीनता का परिचय देंगे। इसी प्रकार विदेशी वस्त्रों का व्यवहार करने वाले अपने को पवित्र समझें यह भी एक मजाक है। जिस विदेशी वस्त्र के निर्माण में गाय की चर्बी लगाई जाती हो-उसी को अपने मन्दिरों में देवी देवताओं के ऊपर लपेटने वाले यदि वर्ण व्यवस्था का आडम्बर खड़ा कर सकते हैं तो यह एक महा पाखण्ड है या नहीं! एक शुद्ध सदाचारी मनुष्य के प्रवेश से तो मन्दिर भ्रष्ट हो जाता है और गाय की चर्बी से लिपे हुपे कपड़ों से मन्दिर की शोभा बढ़ जाती है यह कैसा विचित्र तर्क और बेहूदी बात है? अब जरा इन द्विजों की दशा का दिग्दर्शन कीजिए। कौन सा ऐसा कुकर्म है जो ये लोग नहीं करते हैं। जुआ खेलना, चोरी करना, डाका डालना, गोबर की पूजा करना। पेड़ों की प्रदक्षिणा करना, लड़की बेचना, पुलिस में नौकरी करना, झूठी गवाही देना, पानी पांडे बन कर पानी पिलाते फिरना, बाल विवाह कराना, झूठे पत्रे बनाना, वृद्ध विवाह रचना, कृष्ण राधिका बन कर स्वाँगों में नाचना, चरस गाँजा तम्बाकू शराब पीना, मांस खाना, दुर्गा काली के सामने निरपराध मूक पशुओं का नृशंस बध करना, स्वयं निरक्षर भट्टाचार्य रहना और किसी को विद्या न पढ़ने देना, ब्राह्मण बनकर भीख माँगना, पिण्ड दान करवाना और व्यभिचार का बाजार गरम रखना। फिर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बनने का ढोंग करना-बताइए यह निरा प्रपञ्च प्रचलित वर्ण व्यवस्था का है या नहीं! कौन है जो इन रोजाना के कारनामों से इनकार कर सके। अब भारत देश की यह दुर्दशा है और गुण कर्म की वर्ग व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था नहीं) बिना राज्य सभा के चालू नहीं हो सकती-तो क्यों नहीं प्रचलित वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करके इस निरे झूठे अभिमान को सदा के लिए जमीन में गाड़ दिया जावे? और अछूतोद्धार, दलितोद्धार, हरिजनोद्धार आदि नए-नए नामों की रचना पद्धति को एकदम बन्द कर दिया जावे? जिस दिन, नहीं नहीं-जिस क्षण भारत से वर्ण व्यवस्था मिटेगी उसी क्षण भारत से अछूतपन ऐसे भागेगा जैसे गधे के सिर पर से सींग। नहीं तो गुड़ खाएँ और गुलगुलों से परहेज वाली कहावत चालू रहेगी और भारत का बेड़ा हिन्द महासागर के अथाह जल में डूबेगा। न हिन्दू रहेंगे, न हिन्दुस्थान और न हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था। कहिए आप क्या सोच रहे हैं?