अकबर, सिकन्दर और नौवली
वर्ण व्यवस्था की व्यथा से पीड़ित भारत वर्ष कैसे-कैसे सुवर्ण समय खो चुका है। देखिए-एक बार अकबर बादशाह ने बीरबल से कहा कि मैं हिन्दू धर्म को पसन्द करता हूँ, मुझे हिन्दू बना लो। बीरबल इस युक्तियुक्त बात को सुनकर सन्न रह गया; क्योंकि उसके दिमाग़ में हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था अड़ी हुई थी। मन ही मन सोचता रहा। एक दिन बादशाह की सवारी यमुना के पास से निकल रही थी। बीरबल को मजाक सूझा। एक गधी को पकड़ कर यमुना के तट पर ले गया और खूब मल-मल कर स्नान कराने लगा। इस विचित्र कार्य को देखकर अकबर पूछने लगा कि यह क्या हो रहा है। बीरबल ने उत्तर दिया कि इस गधी को स्नान कराकर गाय बना रहा हूँ। बादशाह ने हँसकर कहा कि कहीं गधी से गाय हो सकती है। बस-बीरबल ने मौका समझ कर झट उत्तर दे दिया ‘‘तब मुसलमान भी हिन्दू कैसे हो सकता है?’ बादशाह चुपचाप चला गया। बीरबल के इस मजाक ने भारत का तख़्ता पलट दिया। यदि अकबर हिन्दू हो जाता तो भारत को औरंगजेबी अत्याचारों का सामना न करना पड़ता और नादिरशाही जमाना न देखना पड़ता। परन्तु भारत ने तो वर्ण व्यवस्था का महान् विध्वंस भुगता था। आज के दक़ियानूसी हिन्दुओं की वही मनोवृत्ति है। आज भी गाय गधी वाली युक्ति भारत के कोने-कोने में पुराण पन्थी लोग दे रहे हैं। इन अल्पज्ञों को पता नहीं है कि यह युक्ति तर्क शास्त्र के ही विरुद्ध है। देखिए-गाय और गधी की जाति भिन्न है परन्तु मुसलमान और हिन्दू की जाति भिन्न नहीं है। मुसलमान और हिन्दू दोनों मनुष्य जाति के हैं। फिर गाय गधी का दृष्टान्त कैसे लागू हो सकता है। प्रयोजन यह है कि बारम्बार कहने पर भी वर्ण-व्यवस्था के पोषक बीरबल आदि हिन्दुओं ने अकबर को हिन्दू नहीं बनाया। तो भी अकबर हिन्दू प्रेमी रहा और दोनों कौमों के साथ समान भाव से निष्पक्ष व्यवहार करता था। परन्तु पश्चात् औरंगजेब की पक्षपातिनी पद्धति ने हिन्दुओं को खूब पद दलित किया और वर्ण व्यवस्था का कड़वा नींबू खूब चुसाया।
इसी प्रकार 16वीं शताब्दी में सिकन्दर नामी एक बादशाह जो ला मजहब था, काश्मीर पर चढ़ आया और वहाँ के हिन्दुओं पर अपना अधिकार कर लिया। कुछ काल बाद वह काश्मीर के ब्राह्मणों को देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उनसे हिन्दू धर्म में दीक्षा लेने के लिए कहा। उस समय भी वर्ण व्यवस्था के पोषक उन मूर्ख ब्राह्मणों ने उसकी हार्दिक इच्छा को अनसुना करके टाल दिया। पश्चात् सिकन्दर बादशाह ने मौन तो धारण कर लिया परन्तु हृदय में उसने प्रतिज्ञा कर ली कि कल सूर्योदय होते ही पहिले पहिल जिसका मुख देखूँगा-उसी के मजहब को स्वीकार कर लूँगा। यह बात बुलबुलशाह नामी फकीर को किसी प्रकार ज्ञात हो गयी। फलतः वह सुबह होते ही राजमहलों में पहुँच गया और बादशाह सिकन्दर ने स्वभावतः बुलबुलशाह नामी मुसलमान फ़कीर के दर्शन कर लिये और उसी दिन उसने घोषणा करवा दी कि आज से मैं मुसलमान हो गया हूँ। अब मैं सच्चे मजहब वाला हूँ। ला मजहब नहीं रहा हूँ। इतना होने पर भी उसके बाल बच्चे हिन्दू धर्म की तरफ़ ही झुके रहे। सौभाग्य से सिकन्दर की एक स्वरूपवती युवती कन्या भी थी। उसका विवाह भी वह किसी हिन्दू ब्राह्मण के साथ करना चाहता था। खोजने पर सोहाभट्ट नामक एक ब्राह्मण तय्यार हो गया। सिकन्दर ने अपनी कन्या का विवाह सोहाभट्ट से कर तो दिया-परन्तु वर्ण व्यवस्था के ठेकेदारों ने बड़ा कोहराम मचा दिया। धर्म की दुहाई, शास्त्रों की दुहाई और ब्राह्मणत्व की दुहाई देने लगे। सिकन्दर ने उसको अपना मन्त्री बना लिया और ब्राह्मणों से अनेक बार प्रार्थना की- इन दोनों के विवाह को आप लोग हिन्दू शास्त्रों के अनुसार नियमित करा दीजिए। परन्तु वहाँ तो हिन्दुओं का मुख्य धर्म शास्त्र ‘मनुस्मृति’ माना जाता था। भला मनुस्मृति हिन्दुओं को संगठित कैसे होने देती। इसको जबतक भस्मसात् न किया जाएगा भारत उठकर खड़ा ही नहीं हो सकता। जब स्वामी दयानन्द जैसे कट्टर सुधारक भी मनुस्मृति के मोह को न छोड़ सके तब और कौन इसकी पकड़ से भारत को मुक्त करेगा? बस, मनुस्मृति के मानने वाले ब्राह्मणों की मूर्खता के कारण सोहाभट्ट कट्टर मुसलमान बन गया। मन्त्री तो वह था ही-उसने सिकन्दर को सलाह दी कि काश्मीर मुसलमानों के लिए है, काफ़िर हिन्दुओं के लिए नहीं। फिर क्या था-बादशाह ने मनमानी करने की आज्ञा दे दी। सोहाभट्ट ने डट कर हिन्दुओं के मन्दिर तुड़वाये। सोने चाँदी की देव मूर्तियों को पिघलवा कर उनके सिक्के ढलवा लिए। यहाँ तक ही हो जाता तो बस था-सोहाभट्ट ने मुसलमान सैनिकों द्वारा सैकड़ों ब्राह्मणों को पकड़वाया और झेलम नदी के किनारे ‘बट-मजार’ नामक चबूतरे पर खड़ा किया। जिन्होंने इसलाम को स्वीकार कर लिया उनको तो छोड़ दिया गया, बाकी ब्राह्मणों को बोरों में भरवा कर झेलम नदी के गहरे पानी में डुबवा दिया गया। यह स्थान आज तक बना हुआ है। काश्मीर जाने वाले इस स्थान को देखकर खून के आँसू बहाते हैं। यह स्थान ‘बट मंजार’ नाम से प्रसिद्ध है। बट का अर्थ है ब्राह्मण और मजार कहते हैं कब्र को-अर्थात् ब्राह्मणों की कब्र। कहिए इस पिशाचिनी वर्ण व्यवस्था ने क्या-क्या गुल नहीं खिलाए। यदि मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करते हुए ब्राह्मण लोग सोहाभट्ट को अपना लेते तो आज काश्मीर जैसी स्वर्ग भूमि में 95 प्रतिशत म्लेच्छ (मुसलमान) क्यों होते? काश्मीर के ब्राह्मण पाण्डे के बाण्डे क्यों बनाए जाते? पे की जगह बे हो गया। बस-एक अक्षर के बल पर गोरक्षक से गोभक्षक बन गए। फलतः आज सारा काश्मीर मुसलमानों से भरा है। सौभाग्य से गो हत्या काश्मीर में नहीं होने पाती। यह एक ग़नीमत है-नहीं तो वर्ण व्यवस्था के पोषक उन अदूरदर्शी ब्राह्मणों की कृपा से काश्मीर में सबसे अधिक गोहत्या होती; क्योंकि काश्मीर के सौ में सौ ब्राह्मण भी मांस भक्षी हैं। तो भी कौन उनका ब्राह्मणत्व छीन सकता है?
और सुनिए-भारतवर्ष की वर्ण व्यवस्था और छुआछूत का पता पाकर योरप के पादरी लोगों ने बड़ी प्रसन्नता मानी। कई सौ वर्ष पूर्व पुर्त्तगाल से डी रौवर्ट नौवली नाम का एक पादरी मद्रास प्रान्त में पहुँचा। आते ही उसने कपड़े रँग कर संन्यासी का भेष धारण किया। उस कपटी संन्यासी की वेषभूषा को देखकर लगभग 300 ब्राह्मण उस पादरी के पिछलगुवे बन गये। यह भी तो एक मूर्खता थी कि अनजाने ही किसी के पीछे लग जाना। उस कपट-पादरी ने सबको पानी पिलाया। अब उसने एक विराट सभा का आयोजन किया-जिसमें सभी पेशों के लोग अधिक संख्या में उपस्थित थे। तब उस कपट-संन्यासी ने उठ कर कहा कि मैं वास्तव में पादरी हूँ-मेरा नाम नावली है। ये सभी लोग मेरे चेले हैं और इन्होंने मेरे हाथ से पानी पी लिया है। बस-विराट् सभा में गड़बड़ पड़ गई। अन्त में वहाँ के पण्डितों ने व्यवस्था दे दी कि अब ये लोग पुनः हिन्दू धर्म में सम्मिलित नहीं हो सकते। बेचारे सारे यों ही ईसा मसीह की भेड़ों में शामिल कर दिए गये। उन्होंने बड़ी प्रार्थनाएँ कीं-परन्तु एक न सुनी गई। उनकी बिरादरी वालों ने जात से निकाल दिया। हुक्का पानी बन्द कर दिया। यह है वर्ण व्यवस्था का विकराल कृत्य-जिसने भारत का गारत कर दिया है। वास्तव में वर्ण व्यवस्था न होती तो आज मद्रास में आर्य धर्म की ध्वजा फहराती होती। कौन बुद्धिमान् है जो ऐसी घटनाओं के बाद भी वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करने के लिए कमर न कसेगा?