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निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


वर्ण व्यवस्था की विष बेल

वर्ण व्यवस्था एक संक्रामक रोग है। इस रोग की विष बेल जमीन से साढ़े तीन हाथ ऊपर मुँह के अन्दर जीभ के अग्रभाग पर बिना जड़ के अमर बेल की तरह फैली हुई है। अमरबेल जिस प्रकार सारे पेड़ को सुखा देती है ठीक उसी प्रकार यह वर्ण व्यवस्था की बेल सारे हिन्दू समाज को सुखाए देती है। जब कोई पूछता है। कि तुम कौन हो तो इसका उत्तर जीभ से ही देना पड़ता है। यदि कह दिया जावे कि हम ‘आर्य’ हैं या ‘हिन्दुस्तानी’ तो वर्ण व्यवस्था की बेल तुरन्त मुरझा जाती है। एक तो वैसे ही बिना जड़ की बेल है। फिर शाखा पर ही कुठाराघात हो जावे तब तो फ़क् से यह वर्ण व्यवस्था की बेल सूख जाती है। परन्तु किया क्या जावे जब देश के दौर्भाग्य ही आ जावैं। किसी ने कहा है कि-

किस्मत की बदनसीबी को सैय्याद क्या करे।
    सिर पर गिरे पहाड़ तो फ़र्याद क्या करे॥

जब हिन्दुओं ने क़सम ही खा रखी है कि हमें फिसलते-फिसलते खड़ा ही नहीं होना तो कौन इनका उद्धार कर सकता है। इस देश ने कई बार ठोकरें खायीं, यदि बुद्धिमान होता तो सम्भल जाता परन्तु यहाँ तो सारे कूवे में भाँग पड़ी है। हिन्दुओं की दशा तो ऊँट की तरह हो रही है। ऊँट से किसी ने पूछा कि तेरी गर्दन टेड़ी क्यों है। ऊँट ने जवाब दिया मेरा अङ्ग सीधा कौन है? यही हालत हिन्दुओं की है। जिस पहलू पर देखिए पूरे ऊँट की नजर आएँगे। बच्चे पैदा करना आता है लायक बनाना नहीं, धन कमाना आता है बुद्धिपूर्ण खर्च करना नहीं, विद्या पढ़ना आता है विद्या का उपयोग नहीं। इसी प्रकार ऊँच-नीच का भेद भाव आता है, संगठन, समता का सिद्धान्त समझ में नहीं आता। देश की भलाई को यदि मद्दे नजर रख कर चलते तो आज हमारे देश की यह दुर्दशा और दौर्भाग्य न होता परन्तु हिन्दू लोग अपने शुभचिन्तक को भी नहीं पहिचानते। शंकराचार्य को विष दिया एक ब्राह्मण ने, गुरुगोविन्द सिंह के लड़कों को पकड़वाया एक ब्राह्मण ने और स्वामी दयानन्द को काँच घोलकर पिलाया एक ब्राह्मण ने-क्यों! इसीलिए कि हिन्दू लोग अपने हित को भी नहीं समझते और अपने हितैषी को भी नहीं पहिचानते।

आप अपने दोष से माहिर नहीं होता कोई।
    जिस तरह बू अपने मुँह की आती है कब नाक में॥

दूसरे देश वाले मौके को खूब पहिचानते हैं और अपने देश को समृद्ध कर लेते हैं। देखिए-देहली का मुग़ल बादशाह फ़र्रुकसियर बीमार था। डॉक्टर हैमिल्टन को इलाज के लिए बुलाया गया। जब उसको फ़ीस दी जाने लगी तो उसने नहीं ली। बहुत आग्रह करने पर उसने कहा कि यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरे देश के भाइयों से आप चुंगी न लिया करें। देखिए डाक्टर हैमिल्टन ने कितनी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता से काम लिया। आज उसके देश के निवासी मालामाल हो गये हैं। इधर हिन्दुओं की क्या हालत है। कोई रायबहादुरी माँग रहा है, कोई दीवानबहादुरी और किसी को अपनी जागीर और पेंशन से ही सरोकार है। भाइयो! यह तरीके उन्नति के नहीं हैं। देखिए-

नींव में हरग़िज नहीं लगते अनार।
    नाशपाती में फलैं क्यों कर चिचार॥

आम गूलर में लगैं किस प्रकार।
    ऐसे वर्णों से ऊबें क्यों ना चमार॥

तभी तो आज चारों तरफ़ ‘अछूतोद्धार’ पर विचार हो रहा है। महात्मा गाँधी अपने जीवन का सवाल इसको बनाए हुए हैं-डॉ. अम्बेदकर तंग आकर धर्म परिवर्तन पर तुले हुए हैं तो भी महामना मालवीय जी वर्ण व्यवस्था की बेहूदा बहेंगो उठाए ही फिरते हैं। वास्तव में इन हिन्दुओं की तो बुद्धि ही क्षीण हो गई है। जड़ की पूजा करते-करते बिलकुल जड़ हो गए हैं। कबरों पर सर पटकते-पटकते बिलकुल पाषाण ही हो गए हैं। देखिए तो सही-

इष्ट देव इनके हुवे पशु पक्षी और पेर।
    मुर्दे पूजों जीवते यह देखो अन्धेर॥

नानक दुनियाँ बाबरी मुर्दे पूजें ऊत।
    आप मुये जग छाँड़ गये तिनसे माँगे पूत॥

कहिए ये लोग वर्ण व्यवस्था नहीं मानेंगे तो क्या जापान, जावा और जर्मनी वाले मानेंगे?


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