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निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


जापान की उन्नति का मूल

सम्प्रति जो दशा भारतवर्ष की है ठीक यही दशा सन् 1850 से पूर्व जापान की थी। भारत में जिस प्रकार वर्ण व्यवस्था है। उसी प्रकार जापान में चार वर्ण माने जाते थे जिन के नाम इस प्रकार हैं- (1) कोवेत्सु (2) शीनवेत्सु (3) बामवेत्सु और (4) समुराई? इन में में ऊँच नीच का भी खूब विचार था। परस्पर एक दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखा करते थे। कोवेत्सु अपने को सूर्य से पैदा बतलाते थे एवं शीनवेत्सु चन्द्रमा से। समुराई के अर्थ हैं समर करने वाले (क्षत्रिय)। ये लोग वे हैं जो भारतवर्ष से शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध रूप में ही भाग गए थे और जापान में जा बसे थे। तब से जापान की सिविल और मिलिटरी में केवल समुराई वर्ण के लोग ही नौकरी किया किया करते थे। ये लोग अन्य वर्ण वालों को नहीं आने देते थे। इस के अतिरिक्त फौजों में लैफ्टिनेण्ट से लेकर कमाण्डर तक और डिप्टी कलेक्टर से लेकर गवर्नर तक समुराई वर्ण वाले होते थे। इन के अतिरिक्त जापान में अछूतों की तरह ईनिन, इत्ता और ह्यास्को भी थे। ये लोग भंगी और चमारों की तरह ग्राम और शहर से बाहर बसाए जाते थे। इनके मुख्य रूप से चार पेशे थे। चमड़े का व्यापार, जल्लादी, कबरें खोदना और मैला साफ़ करना-ठीक उसी तरह इनमें भी वही भेदभाव था जो आज छूत अछूतों का भारतवर्ष में है। ये परस्पर ऊँच-नीच का व्यवहार रखते थे और घृणा भी करते थे। इसी वर्ण-व्यवस्था के कारण चीनियों के हमले जापानियों पर प्रायः हुआ करते थे। फलतः सैकड़ों जापानी चीनियों के हाथों लूटे, मारे और फूँके गए। सन् 1852 में स्पेन के पादरी पहिले पहिल जापान में इस वर्ण व्यवस्था के ढंग को देख कर पहुँचे। उन्होंने जापान के अछूतों में अर्थात् ईनिन और इत्ता लोगों में ईसाई धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया। बहुत से ईसाई हो भी गये-तब ठीक हिन्दुस्तान की तरह विदेशी मुसलमान ईसाई आकर अपना-अपना उल्लू सीधा करते रहे। जगह-जगह आपसी विरोध होकर बलवे होने लगे-पशु बध भी खूब होने लगा-यहाँ तक कि इन लोगों ने गाय मारने की भी सलाह दी। ईनिन और इत्ता लोगों के बुजुर्ग बौद्ध थे, इस लिए इन्होंने गाय मारने से तो स्पष्ट इनकार कर दिया। तब ईसाइयों ने मजबूर किया कि तुम लोग ईसाई हो गए हो, कोई हर्ज नहीं है। बहुत समझाने के बाद इन लोगों ने गोबध प्रारम्भ किया। परिणाम यह हुआ कि गाय आदि पशुओं के बध के कारण जापान में हिन्दुस्तान की तरह आए दिन खूब बलवे और मारपीट होने लगी। ईसाई लोगों की यह एक राजनैतिक चाल थी, जो हिन्दुस्तान में अभी जारी है। सावधान!!!

दूसरी बात यह हुई कि सन् 1857 में हिन्दुस्तान में गदर हो गया और भारत तबाही की हालत में आ गया। इन दोनों का प्रभाव जापानियों पर विशेष रूप से पड़ा। जापानी लोग इन चालों को समझ गए। जगह-जगह बड़ी-बड़ी सभाएँ होने लगी। इन सभाओं में एक स्वर से जापान के वीर नेताओं ने आवाज उठाई कि जब तक इस व्यवस्था को मिटा कर तमाम कौमों को एक न कर दिया जाएगा-तब तक जापान आगे न बढ़ेगा। सचमुच जापान का सौभाग्य सितारा चमक उठा। जापान 286 राजाओं और सैकड़ों जातियों में विभक्त था। पहिले पहिल मत्ता प्रान्त के स्वदेश भक्त राजा ने अपना राज्य टोकियो के महाराजा मैकडो को सौंप दिया और एक काठ का मकान बना कर साधारण प्रजा की तरह टोकियो में रहने लगा। इसी भाँति थोड़े ही समय में सब राजाओं ने अपना राजपाट, लाव लश्कर मैकडो के सुपुर्द कर दिया। अब पहिले पहिल आज्ञा जो बुद्धिमान जापान नरेश मैकडो ने सन् 1868 में निकाली वह यह थी कि अछूतों की बस्तियाँ तोड़ दी जावें और ईनिन इत्ता लोगों को ऊँचे माने जाने वाले लोगों के बीच में बसाया जावे एवं जो इनसे छूतछात करे, उसको राज्य की ओर से कठोर दण्ड मिले। बस-इस आज्ञा के निकलते ही जापान में प्रचलित वर्ण व्यवस्था टूट गयी। फलतः कोबेत्सु, शीनवेत्सु बामवेत्सु और समुराई, एवं ह्यास्को, ईनिन इत्ता यह कृत्रिम वर्ण-विभाग टूट गये और जापान एक ‘जापानी क़ौम’ का पवित्र देश बन गया। इसके बाद सन् 1868 में ही जापान के दूरदर्शी नरेश मैकडो ने तुरन्त राजाज्ञा द्वारा समस्त जापान में अनिवार्य शिक्षा प्रचलित कर दी।

अनिवार्य शिक्षा के कार्य में जापान के कुबेर फ्रूबूजावा और हीटो ने प्रचुर धन राशि उदारता और प्रसन्नता पूर्वक प्रदान की। आज तक जापानी लोग इन दोनों महानुभावों को आदर पूर्वक स्मरण करते हैं। इन दोनों ने जापान की उन्नति में अपने करोड़ों रुपए व्यय कर दिए। आज भारत निवासी वर्ण व्यवस्था के बखेड़े में खंड-खंड हो रहे हैं। क्या भारतीय लोग अब भी उन्नति का मार्ग जापान की सच्ची कथा को पढ़कर समझेंगे? जापानी लोगों ने अछूतोद्धार करके अपनी शक्ति को दुगुना कर लिया। यदि ईनिन और इत्ता लोगों को जापानी लोग अपने अन्दर न मिला लेते तो ईसाई लोग अपनी शक्ति बढ़ा लेते परन्तु बुद्धिमान् और दूरदर्शी जापानियों ने समय की गतिविधि को समझा और खूब समझा। देखिए इन्हीं ईनिन और इत्ता लोगों में से एक बहादुर ने जापान के चार चाँद लगा दिये। सन् 1900 में जापान उन्नति करने लगा और सर्व प्रथम कैप्टन तनामा को दूत बनाकर मास्को (रूस) भेजा। तनामा बहुत ऊँचे क़द का आदमी था। साथ ही कुरूप भी था परन्तु मिलनसार और बुद्धिमान् प्रथम कोटि का था। वह मास्को में रूस के मिलिटरी अफ़सरों के साथ जुआ खेलने लगा और जान बूझकर हार जाता था। उसी धन से रूसी अफ़सर अपनी स्त्रियों के लिए हीरे और मणिओं के हार खरीदा करते थे। रूस की स्त्रियाँ तनामा को वर्दी पहिने जब देखतीं थीं तब उस पर मोहित हो जाती थीं। इस प्रकार बहुत स्त्रियों के साथ कैप्टन तनामा का पवित्र प्रेम हो गया। उन्हीं दिनों रूस की सरकार ने परम प्रसिद्ध पोर्ट आर्थर का क़िला बनवाया। उस क़िले में जापानी मजदूर काम करते थे-जो पढ़े लिखे और समझदार थे। इन्होंने सलाह करके क़िले को कच्चा चिन दिया। दूसरी ओर सरकार ने पोर्ट आर्थर में लड़ाई लड़ने के लिए चक्रव्यूह का एक नक़्शा गुप्त रूप से बनवाया और अपने दूत के पास जो जापान में रहता था भेज दिया। इस नक़्शे की नकल कैप्टन तनामा ने बुद्धिमत्तापूर्वक करवा ली और अपनी सरकार के पास जापान में तुरन्त भेज दिया। जब रूस के जापानी दूत को ज्ञात हुआ कि गुप्त नक़्शे की नकल जापान में पहले ही पहुँच गयी है तो उसने अपनी रूसी सरकार को बड़ी डाँट बताई और पूछा कि यह नक़्शा कैसे यहाँ पहुँचा। तब दूसरा नक़्शा तैयार किया गया। वह भी बुद्धिमान् तनामा ने किसी प्रकार हाथ में कर लिया। परन्तु यह भी छिपा नहीं रहा कि दूसरे नक़्शे की नकल भी जापान में पहुँच गयी। तब कैप्टन तनामा पर सबने सन्देह किया। अतएव रूस के जर्नल एब्लोन्स्की आदि अफसरों ने गुप्त कमेटी की और खूब विचार परामर्श के बाद एलोन्सकाया नाम वाली एक नर्तकी को भेजा जो तनामा के चरित्र को भ्रष्ट करके सब भेद लेवे। पहिले तो वह नर्तकी न गयी परन्तु खूब लोभ लालच और धमकी देने के बाद वह कैप्टेन तनामा के बँगले पर गई और उस को अपने साथ विवाह करने के लिए मजबूर किया। परन्तु देश भक्त तनामा तय्यार न हुवा। तनामा को धन का भी लोभ दिया गया-परन्तु उसने देश की स्वाधीनता को अक्षुण्ण रखने के लिए सब को तृणवत् समझ कर त्याग दिया, क्योंकि वह नर्तकी सब रहस्यों को जानने के लिए भेजी गई थी। अन्ततोगत्वा तीसरा नक़्शा तय्यार किया गया और बुद्धिमान् तनामा ने उसको भी प्राप्त कर लिया और तदनुसार जापान के अफ़सरों को लिख दिया कि डबल पलटनें एक महीना पूर्व तैनात कर दो हमारी जीत होगी। फौरन जापान की पलटनें रूसी पलटनों के आने के पूर्व ही भेज दी गईं और इधर कैप्टन तनामा को रूसिओं ने गिरफ़्तार कर लिया और गोली से उड़ा देने की आशा रूस के राजा निकोलन ने निकाल दी। वीर कैप्टेन तनामा आज्ञा सुनते ही तुरन्त अपने कोट के बटन पकड़ कर छाती खोल खड़ा हो गया। निदान उस स्वदेश सेवक तनामा ने स्वामी श्रद्धानन्द की तरह छाती पर गोलियाँ खाकर स्वदेश के लिए स्वर्ग का मार्ग स्वीकार कर लिया। इस घटना से जापानी लोगों में गहरी देश भक्ति का पता पाया जाता है। ऐसी-ऐसी घटनाएँ तो अनेक हैं परन्तु इस पुस्तक के लिए यह घटना प्रासंगिक है। अगर जापान में वर्ण व्यवस्था का पाखण्ड प्रचलित रहता और जापान की अछूत मानी जाने वाली जाति ईनिन और इत्ता की सत्ता बनी रहती तो जापान आज खंड-खंड होकर वर्ण व्यवस्था का घोर दंड भोगता होता। फिर कैप्टन तनामा जैसा अछूत कही जाने वाली इत्ता जाति का सरदार कैसे जापानियों का प्राण प्यारा बन पाता? न जापान से वर्ण व्यवस्था का प्रयाण होता और न जापानियों में से अछूतपन का प्लेग निकल पाता। जापानियों ने वीर तनामा को पाया। वर्ण व्यवस्था को विध्वंस करके। फलतः 1805 में जो भयंकर प्रसिद्ध लड़ाई पोर्ट आर्थर पर हुई उसमें जापान विजयी रहा। इस विजय की प्राप्ति में ईनिन और इत्ता आदि अछूत कही जाने वाली क़ौमों ने ही विशेष वीरता दिखाई। आज जापान में उस विध्वंसकारी वर्ण-व्यवस्था का नामोनिशान नहीं है और जापान एक महान शक्तिशाली राष्ट्र है। सब प्रकार की उन्नति जापान में हो रही है। क्या भारत निवासी अपने पड़ोसी जापान निवासियों से शिक्षा लेंगे कि वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करके भी कैसे दुनियाँ में उन्नति हो सकती है। जापान से वर्ण व्यवस्था तो भाग गई-लेकिन Four Ms make the monarchey अर्थात् मिशनरी, मिलिटरी, मरचैन्ट, और मीनियल्स का वैदिक कर्म-विभाग (वर्ग-व्यवस्था) आज जापान में स्वतः प्रचलित हो गया है। इसी प्रकार यदि भारत-वर्ष प्रचलित वर्ण व्यवस्था का विध्वंस कर दे तो समय आने पर स्वतः ‘वैदिक वर्ग व्यवस्था’ कायम हो जाएगी। इसकी चिन्ता न करनी पड़ेगी। सावधान!!!

वेद में भी लिखा है-

क्षत्राय त्वं, श्रवसे त्वं, महीया इष्टये वंत, अर्थमिव त्वं-इत्यै।

(ऋग्वेद 1/11/3/6)

अर्थात् यह चार प्रकार की प्रवृत्ति ही वैदिक वर्ग-व्यवस्था है। इस मन्त्र में शूद्र के लिए ‘महीया’ आया है जिसका अर्थ पूज्य होता है।


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