hindisamay head


अ+ अ-

निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


टर्की की उन्नति का मूल

भारतवर्ष की तरह टर्की भी कुछ वर्ष पूर्व पूर्ण अवनति की दशा में था। टर्की में भी शेख़, सैय्यद, मुग़ल और पठान यह चार विभाग थे-जो परस्पर एक दूसरे को नीच ऊँच समझ कर घोर घृणा करते थे। इसी प्रकार टर्की में रहने वाले निसारा, पारसी, यहूदी और ईसाइयों से भी टर्की के मुसलमान असन्तुष्ट रहा करते थे। फलस्वरूप ईसाई और मुसलमानों के बीच युद्ध छिड़ गया। हिन्दुस्तान की तरह लड़ाई के अवसर पर अन्य मजहब वालों ने मुसलमानों का साथ न दिया। इसलिए टर्की का बहुत सा भाग त्रिपोली, स्मरना, बसरा और बग़दाद विदेशी बादशाहों के हाथ में चला गया। भारत की तरह टर्की को भी बहुत बड़ी हानि हुई। सौभाग्य से वीर बाँकुर ‘मुस्तफ़ा कमालपाशा’ के दिल में देश नाश का दुःख खटकने लगा। वीर पाशा ने टर्की के नौजवानों को साथ लेकर अर्ध रात्रि के समय ख़लीफ़ा सुलतान को गिरफ्तार करके जहाज में बैठा कर टर्की से बाहर निकाल दिया। ख़लीफ़ा के महल और माल असबाब पर पूरा अधिकार कर लिया और प्रजातन्त्र के सिद्धान्त पर नयी सरकार अंगोरा में स्थापित कर दी गयी। टर्की में क्रान्ति का बिगुल बजने लगा। औरतों का बुर्का उतार कर फेंक दिया। अरबी में कुरान पढ़ना कानूनन बन्द कर दिया गया और समाज की तरह रविवार के दिन हारमोनियम, प्यानो आदि के साथ नमाज पढ़ी जाने लगी। दो सौ मसजिदों को खोद कर फेंक दिया गया। अपनी भाषा में सब धार्मिक कृत्य होने लगे। एक मनुष्य को एक स्त्री से अधिक रखने का अधिकार नहीं रहा और परस्पर ऊँचनीच एवं छूतछात के भावों को कानूनन जुर्म करार दिया। परिणाम स्वरूप टर्की में समानता, स्वतन्त्रता और संयम के सिद्धान्त प्रचलित हो गए और आज टर्की एक समुन्नत एवं समृद्ध राष्ट्र गिना जाता है। अरब बदल गया। पर्शिया और मिश्र बढ़ गया। चीन और रूस सुधर गया-और काबुल ने भी करवट बदली थी-परन्तु काबुल के दक़ियानूसी मुल्लाओं ने काबुल की किश्ती को उलट दिया। प्रयोजन यह है कि संसार के सभी राष्ट्र उन्नति की घुड़ दौड़ में बाजी मार रहे हैं। परन्तु भारत के हिन्दू उसी डेढ़ अरब वर्ष की पुरानी वर्ण व्यवस्था की दुम पकड़े हुए चिल्लपों मचा रहे हैं। न इन को स्वराज्य मिलता है न समाज सुधार का सुन्दर सुयोग। कितना आश्चर्य है कि मनुष्य मर कर अपना चोला बदल लेता है, वृक्षों की दशा बदल जाती हैं, सूर्य की स्थिति भी 12 घंटे में बदल जाती हैं और दो-दो महीने में ऋतु भी बदल जाती है-लेकिन हिन्दुओं की पेटेण्ट वर्ण व्यवस्था न जाने कौन से कानून द्वारा रजिस्टर्ड हुए हैं कि बुरी तरह हिन्दुओं की मुर्दा लाश पर चिपटी है और हड्डी तक हिलाए देती है। हिन्दू लोग तो इससे तबाह हो गये। अब वर्ण व्यवस्था की मुर्दा लाश में कोई तत्त्व बाकी नहीं रहा है। हिन्दू लोग कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था का विध्वंस हो गया तो धर्म का नाश हो जाएगा। परन्तु इसके विपरीत हम देखते हैं कि सिक्ख, बौद्ध, जैन, मुसलमान, ईसाई और राधास्वामी वर्ण व्यवस्था नहीं मानते। हिन्दुओं की अपेक्षा इन सभी लोगों की दशा ठीक है। परन्तु हिन्दू लोग जो वर्ण व्यवस्था के पूरे पृष्ठ-पोषक हैं अपनी ही करतूतों के कारण गुलाम हो गए हैं और आस्ट्रेलिया, कनाडा और अफ्रीका आदि में घुसने तक नहीं पाते। इसीलिए विदेशों में हिन्दुओं का नाम ‘कुलियों की कौम’ पड़ गया है। इन हिन्दुओं से तो पशुपक्षी भी अधिक स्वतन्त्र हैं, क्योंकि वे वर्ण व्यवस्था के गुलाम नहीं। यह देखा गया है कि पालतू तोते या बन्दर जब छूटकर अपने झुंडों में पहुँचते हैं तो सब तोते मिलकर इस गुलामी की गलमाल पहिने हुवे तोते को मार डालते हैं एवं स्वतन्त्र बन्दरों में पालतू बन्दर नहीं घुसने पाता। इसलिए पराधीनता के पाश से मुक्त होने के लिए भारतीयों को सर्व प्रथम जापान और टर्की आदि देशों की तरह अवश्य ही वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करना होगा। यहाँ तो सारे उपद्रव इसी जात-पाँत के कारण होते हैं। वर्ण व्यवस्था के कारण ही चमारों, पासियों और कोरिओं से बेगार ली जाती है। यह बेगार की घृणित प्रथा भी जातपाँत के कारण ही बद्धमूल है। जब वही चमार मुसलमान या ईसाई हो जाता है तब बिना किसी श्रम के बेगार से मुक्त हो जाते हैं; क्योंकि वर्ण व्यवस्था के पचड़े से चमार निकल गया-मानो सुखी हो गया। इस वर्ण व्यवस्था के ही कारण विदेशी यहाँ राज करते हैं और हिन्दू मुसलमान दोनों पराधीन हैं। यही फूट की जड़ है। तभी हम कहते हैं कि-

यत्र स्थिता जन्म मूला व्यवस्था,
    तत्रास्ति राज्यं परदेशजाम्।

व्यापार भाषा धनुषा विहीना,
    मद्याक्ष युक्ता पशवचरन्ति॥

(देवीदत्त)


>>पीछे>> >>आगे>>