भारत की अवनति का मूल
एक हम हैं कि लिया अपनी भी सूरत को बिगाड़।
एक वह हैं जिन्हें तसवीर बना आती है॥
वर्ण व्यवस्था का महारोग भारत की एक ख़ास सौगात है। वैसे तो कर्म-विभाग की वर्ण व्यवस्था की तरह कहीं यह महामारी नहीं पाई जाती है। संसार के उन्नतिशील देशों में-जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, चीन और अमेरिका आदि महादेशों में इस संगठन विघातिनी वर्ण व्यवस्था का कोई पता नहीं है। वे लोग अपने-अपने देशों के पवित्र नामों के साथ गौरव पूर्वक पुकारे जाते हैं। जैसे जापानी, चीनी, जर्मन, इटालियन, अमेरिकन आदि। भारत की भाँति वर्ण व्यवस्था के बखेड़े में वे लोग नहीं पड़े हुए हैं। कई लोग यह कहा करते हैं कि योरप आदि देशों में भी ग़रीब, अमीर, विद्वान् और अशिक्षितों के भेद मौजूद हैं और अलग-अलग श्रेणियाँ बनी हुई हैं जो प्रायः लड़ती रहती हैं। किन्तु वे भूल जाते हैं कि योरप आदि में वहाँ का कोई अमीर से अमीर या विद्वान से विद्वान् मनुष्य-किसी भी गरीब या अशिक्षित के हाथ से भोजन करने में परहेज नहीं करता, न उसको छूकर अपने को अपवित्र मानता है। इसी प्रकार गरीब से गरीब मनुष्य के साथ एक अमीर अपनी कन्या का विवाह करने या अपने पुत्र के साथ उसकी कन्या का विवाह करने में संकोच नहीं करता। वास्तव में छुआछूत और रोटीबेटी का परहेज ही भारत में प्रचलित वर्ण व्यवस्था का मुख्य स्वरूप है। संसार के अन्य किसी सभ्य देश में इसका नामोनिशान नहीं पाया जाता। योरप और अमरीका प्रभृति देशों में इस तरह की मिसालें मौजूद हैं कि जिन में जूता गाँठने वालों और लकड़ी चीरने वालों के लड़के अपनी योग्यता के अनुसार प्राइम-मिनिस्टर (मुख्य सचिव), राष्ट्रपति और बिशप (पुरोहित) तक हो गए और उनसे किसी प्रकार का भी किसी ने परहेज नहीं किया। परन्तु भारतवर्ष की दशा तो विचित्र है। यदि दो अपरिचित व्यक्ति यहाँ आपस में प्रथम मिलते और बातचीत करते हैं तो उनका सबसे पहिला सवाल होता है कि तुम कौन हो। यदि वह बतादे कि मैं डाक्टर हूँ तो काम न चलेगा, यदि वह बतादे वकील हूँ तब भी काम न चलेगा, यदि वह बतादे कि दुकानदार हूँ तो भी मामला हल न होगा, यदि वह कहे कि मैं फौज में कैप्टेन हूँ तो भी समस्या त्रिशंकु की तरह अधबीच ही लटकती रहेगी। यद्यपि ‘तुम कौन हो।’ इस प्रश्न का उत्तर हो चुका-तो भी वह पूछेगा कि तुम्हारी जाति क्या है। अब यदि आप कन्नौजिए हैं तो झट कह दीजिए-अन्यथा कलवार का जायसवाल, बढ़ई का जाङ्गिड़ा ब्राह्मण और लोहार का विश्वकर्मा नाम बता कर अपना पिंड छुड़ा लीलिए। बेचारे धोबी सोलंकी बने हैं, भंगी बाल्मीकि बने हैं और कहार कश्यप बने हुए हैं। बेचारे अपने बुजुर्गों के देश में चोरों की तरह निवास करते हैं। हम ऐसे सैकड़ों पढ़े लिखे बाबुओं को जानते हैं जो अपनी असलियत को छिपाए हुए शर्मा वर्मा से काम चला रहे हैं। बेचारे करें भी क्या। बदकिस्मती से यह देश इतना भ्रष्ट हो गया है कि इन तिलक छापधारी पुरोहितों के मारे कोई पूरी साँस लेकर जी भी तो नहीं सकता है?
देखिए-इस वर्ण व्यवस्था का झगड़ा समाप्त भी तो नहीं होने पाता। कायस्थों को कोई वर्मा मानता है और शूद्र। गड़रियों को कोई पाल क्षत्रिय मानता है और कोई शूद्र। इसी प्रकार सुनारों को कोई वैश्य बताता है कोई क्षत्रिय। दर्जी (सूचीकार क्षत्रिय) सुई पकड़ने के कारण, भड़भूँजा (भुर्जी क्षत्रिय) कड़छुला धारण करने के कारण और घसियारा (वन्य क्षत्रिय) खुर्पी पकड़ने के कारण बनाए जा रहे हैं। जायसवाल (वैश्य), अहीर (यादव क्षत्रिय) और कलाल हैहय क्षत्रि अभी तब अधबीच में हैं। यह सब क्यों? इसका एक ही जवाब है कि भारत की वर्ण व्यवस्था के यह सब कुफल हैं। तभी तो स्वामी दयानन्द ने लिखा था कि प्रचलित वर्ण व्यवस्था भारतीयों के लिए मरण व्यवस्था हो रही है। यही गुलामी की भावना उत्पन्न कर रही है, इससे समानता का भाव लुप्त हो गया है और अपनी-अपनी उच्चता का घमंड इतना अधिक बढ़ गया है कि जिसकी कोई सीमा नहीं रही है। बहुधा भारत में इसी वर्ण-व्यवस्था की आड़ में उपद्रव खड़े होते रहते हैं। सम्प्रति भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। सत्तर हजार बेचारी निरपराध गौवें नित्य प्रति ब्राह्ममुहूर्त में मारी जाती हैं-तब भैंसों, बकरी, भेड़, मछली, मुर्गों और कबूतरों को कौन गिनावे। आश्चर्य तो यह है कि अपने को ब्राह्मण कहलवाने वाले भी इन बेचारे मूक प्राणियों को अपने पेट में पालने से नहीं झिझकते। ऐसी दशा में ‘वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः’ की विडम्बना करना वर्ण व्यवस्था के प्रति एक मजाक नहीं तो क्या है। आज इस प्रचलित वर्ण व्यवस्था के कारण भारत के नर नारी गुलाम बने हैं। एक ब्राह्मण अपने को क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों से श्रेष्ठ बतलाता है एवं इन तीनों वर्णों को वह नीच दृष्टि से देखता है। इसी प्रकार क्षत्रिय वैश्यों और शूद्रों को नीच समझता है और वैश्य शूद्र को दबाता है। अब रहे शूद्र। इन्होंने अछूतों को अपना गुलाम मान लिया है। शूद्रों को भी तसल्ली है कि हम से भी नीच 7 करोड़ अछूत हैं। अछूतों में भंगी नीच, परन्तु भंगी कहता है कि खटिक नीच, खटिक कहता है पासी नीच, पासी कहता है धानुक नीच, इस परम्परा कहीं समाप्त नहीं होती-फलतः भारतवर्ष द्रुतगति से नीचे ही नीचे जल-प्रपात की तरह गिरता जा रहा है। भारतीयों में अन्दर ही अन्दर कलहाग्नि धधक रही है। न जाने कब वर्ण व्यवस्था का ज्वालामुखी फूटेगा और छुआछूत का भूकम्प... बरसों से यही अवस्था देश की हो रही है। जब-जब वर्ण व्यवस्था का जोर बढ़ा-शत्रुओं ने भारत को आकर खूब लूटा खसोटा। यह हमारा प्यारा पवित्र भारत देश सोने की चिड़िया कहलाता था; जिसमें इतना धन, धान्य उत्पन्न होता था कि स्वयं खा पीकर सारे संसार को खिला पिला दे। जिस की उन्नति हिमालय के शिखर से भी ऊँची मानी जाती थी। जिस देश में वीर शिरोमणि भीष्म पितामह जैसे बाल ब्रह्मचारी उत्पन्न होकर अपने तेज से संसार को विस्मित कर चुके, मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे राजा, स्थितप्रज्ञ श्रीकृष्ण जैसे योगी; व्यास, वसिष्ठ, कपिल कणाद जैसे उद्भट विद्वान; भगवान् गौतम बुद्ध जैसे अखण्ड ब्रह्मचारी और आदर्श सुधारक उत्पन्न हुए, आज वही हमारा प्यारा भारत देश वर्ण व्यवस्था के बखेड़े में पड़ा हुआ मटियामेट हो रहा है। फिर प्राकृतिक दृष्टि से भी भारत बड़ा सौभाग्यशाली है। जिस पवित्र भारतवर्ष का क्षेत्रफल 18 लाख वर्गमील है, जिस की रक्षा में एक ओर हिमालय पहाड़ अपनी बर्फ़ीली चट्टानों को चमका रहा है और दूसरी ओर हिन्द-महासागर अपनी उत्तुङ्ग तरङ्गों से भारत की पवित्र कोखों को प्रक्षालित कर रहा है आज उसी भारतवर्ष को विदेशियों ने आकर अपने बुद्धि बल से गुलाम बना लिया है। यदि आज यह वर्ण व्यवस्था न होती तो भारतीयों का संघ बल तो इतना महान् होता कि संसार की कोई शक्ति इस की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकती, परन्तु शोक! महान् शोक!!! आज इस वर्ण व्यवस्था ने भारत को अन्धा, बहिरा, लूला, लँगड़ा, कोढ़ी और अपाहिज आदि बना दिया है। यदि हिम्मत कर के भारतीय लोग इस महामारी को मार कर भगा सकेंगे तब तो संगठित होकर 33 करोड़ बने रहेंगे नहीं तो समय आ रहा है जब यह हिन्दुस्तान सचमुच इंगलिस्तान या अरबिस्तान बन जाएगा।
तभी हम कहा करते हैं-
जुल्म से भाई हमारे सैकड़ों,
नित मुसल्माँ और ईसाई हो रहे।
जुल्म होते हैं धरम के नाम पर,
कौम के मिटने के ये आसार हैं॥