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निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


वर्ण व्यवस्था और स्वराज्य

कहूँ क्या हिन्दुओं के दिन दिला कैसे गुजरते हैं।
    मिसाले नीम बिस्मिल ये न जीते हैं न मरते हैं॥

उठावे किस तरह कोई मरीजे नातवानी को।
    अगर बाजू पकड़ते हैं तो ये शाने उतरते हैं॥

हिन्दुओं की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। जितने भी कारण बरबादी के हो सकते हैं सभी हिन्दुओं में मौजूद हैं। उनमें सबसे मुख्य यही वर्ण व्यवस्था का झगड़ा है। यदि यह न होता तो कम से कम हिन्दू लोग संगठित तो हो जाते।

हमें भली प्रकार याद है-इसी कानपुर नगर में काँग्रेस के अधिवेशन में सभापति की हैसियत से पंजाब-केसरी लाला लाजपतराय ने ऊर्ध्ववाहु होकर घोषणा पूर्वक कहा था कि-

‘‘अय हिन्दुओ! यदि आप लोग एक दर्जन भी सच्चे ब्राह्मण मुझे बता दो-तो मैं एक महीने के अन्दर भारत में ‘स्वराज्य’ की पताका फहरा दूँ।’’

वास्तव में हममें झूठा अभिमान घर कर गया है। ब्राह्मणत्व का ढोंग करना हम लोग खूब सीख गए हैं। देखिए-जिस देश में असली घी नहीं मिल सकता, असली दूध नहीं मिल सकता, असली शहद और तेल नहीं मिल सकता, और तो और रहा पानी और हवा भी असली मिलना दुर्लभ है, उस देश में असली ब्राह्मण कहाँ रह गए हैं! न असली ब्राह्मण, न असली क्षत्रिय और न असली वर्ण-व्यवस्था। न असली धर्म समाजी और न असली आर्य समाजी। सर्वत्र नकली और फसली का दौर दौरा है।

एक बात बड़े मजे की-24 करोड़ हिन्दुओं में 7 करोड़ अछूत हैं और 8 करोड़ शूद्र हैं। इन 15 करोड़ को तो वर्ण व्यवस्था की कोई जरूरत महसूस नहीं होती। अब रहे बाकी 9 करोड़ द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) बस-इनको ‘वर्ण व्यवस्था’ की चिन्ता दिन रात सताए रहती है और इनकी असली हालत क्या है सो भी सुन लीजिए-

इनकी काहे न हो बरबादी। जो नर हैं केवल उन्मादी॥ध्रुव॥

(1)

चन्दन चन्द्र रूप दिये भाल। गल में सोहे तुलसी माल।
    लेकिन तकें पराया माल। भर रही भक्ति में जल्लादी॥

(2)

गणिका मित्र चरित्र विहीन, निशि दिन कर्म मलीन मलीन।
    बाहर हरिहर में तल्लीन। अन्दर पापी परम प्रमादी॥

(3)

बने ब्राह्मण क्षत्रिय शर्मा वर्मा, बेच रहे टिकिया गर्मा गर्मा।
    देखो! बैठे शंकर शर्मा, जड़ते देख नाल घोड़े के मेढ़क लात उठा दी॥

यह तो है दुर्दशा भारत की तिस पर ‘‘वर्णाश्रम स्वराज्य संघ’’ भी अपना सिर उठाए हैं। भला सोचिए-स्वराज्य का और वर्ण व्यवस्था का क्या सम्बन्ध। स्वराज्य के लिए चाहिए एकता और वर्ण व्यवस्था से पैदा होती है विषमता-यह आग पानी का कैसा खेल और फिर यह खेल खेलें बड़े-बड़े स्वराज्यवादी। ये वर्णाश्रम स्वराज्य संघ वाले देश को पीछे की तरफ़ घसीट रहे हैं। यह ये लोग अछूतोद्धार के विरुद्ध हैं, उन बेचारों को मन्दिरों में घुसने तक नहीं देते और प्रतिक्षण वर्ण व्यवस्था की चकाचौंध में इनको अन्धा बनाए देते हैं-तब इनको तो ‘स्वराज्य’ इस शब्दोच्चारण का भी हक़ नहीं है। देखिए-वर्ण व्यवस्था का ढोंग रचना और स्वराज्य की आशा रखना-ठीक उसी प्रकार है जैसे मेंढकों का संगठन और चक्रवर्ती साम्राज्य। हिन्दुओं की दशा तो मेंढकों की तरह हो रही है। एक को समेटते हैं तो दूसरा कूद कर बाहर हो जाता है। फलतः एक-एक हिन्दू छिन्न-भिन्न हो रहा है। अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर ब्लूम फील्ड ने अपनी पुस्तक Religion of Veda में लिखा है कि-

At present time there are nearly 2000 castes of Brahmans alone; The kshartiyas split up into 950 casts. The Vaishyas even into more. There is Hindustani proverb eight Brahmans and nine kitchens.

अन्त में वह बड़े जोरदार शब्दों में लिखता है कि प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जात-पाँत) ने हिन्दुस्तान की राष्ट्रीयता को मिट्टी में मिला दिया है। देखिए-

This has checked the development of India into a nation. They have made possible the spectacle of a country of nearly three hundred millions of inhabitants governed by the skill of sixty thousand civilian foreigners. (शोक!)

एक तो वैसे ही हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों के झगड़े हिन्दुस्तान को तबाह किए देते हैं-फिर हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था तो गजब ढाये देती है। इनका तो अटल सिद्धान्त यह है कि चाहे स्वराज्य मिले या न मिले-हमें तो वर्ण व्यवस्था चाहिए। उधर जापानियों की स्वदेश भक्ति उच्चशिखर पर पहुँची हुई है। एक बार एक अमेरिकन प्रोफ़ेसर जापान में एक स्कूल में पहुँचा। उसने जापानी लड़कों से पूछा कि तुम्हारा धर्मगुरु कौन है? जापानी लड़कों ने जवाब दिया-गौतम बुद्ध। उसने पूछा कि तुम्हारा अभीष्ट देव कौन है? जापानी लड़के बोले-‘कनफ्यूशस’। उसने कहा- अच्छा! यदि जापान पर अमेरिका की फौज धावा बोल दे और अमेरिकन फौज के सेनापति गौतम बुद्ध हों तो तुम क्या करोगे? यह सुनते ही सब स्वदेश भक्त जापानी लड़के बोल उठे- हम गौतम बुद्ध का सिर गर्दन से उतार देंगे। अमेरिकन प्रोफेसर हैरान हो गया। उसने मन ही मन जापानी छात्रों के स्वाधीन्य स्नेह की सराहना की। इसी प्रकार जब जापानियों का रूस के साथ घोर युद्ध हो रहा था-बारूदख़ाने के अफ़सर ने खबर दी कि बन्दूक की गोलियों पर पीतल की कील लगाने के लिए पीतल नहीं रहा है। उस समय बुद्धिमान् जापानी जनता ने एक स्वर से कहा कि गौतम बुद्ध की पीतल की मूर्तियाँ जो घर-घर में रखी हुई हैं-पिघला कर बन्दूकों में पीतल की कीलें लगा दी जावें। जापानी लोग समझते थे कि यदि हमारी स्वाधीनता अक्षुण्ण रही तो हम फिर गौतम बुद्ध की हजारों मूर्तियाँ बना लेंगे, और यदि हम पराधीन हो गए तो इन पीतल के गौतम बुद्ध को रख कर क्या करेंगे। हमारी स्वाधीनता में जो बाधक होगा वह हमारा धर्मगुरु नहीं रह सकता। काश! यही सच्ची भावना हिन्दुओं की बन जावे-तो आज भारत में स्वराज्य हो जावे। हजारों देवी देवताओं के मन्दिर बने हैं; सैकड़ों तीर्थस्थान बने हैं और अनेकों धर्माचार्य महन्त बने हैं। यदि ये सब भारत की स्वाधीनता में साधक नहीं हैं तो इनको तुरन्त पञ्चम अन्यथासिद्ध की तरह पकड़ कर अरब सागर में डुबा देना चाहिए। तभी हम दावे के साथ कह सकेंगे कि-

आएँगे बौर रसालन में, फिर कोकिल बाग में बिहरेंगे।
    एक दिना नहिं एक दिना-वे भारत के दिन फेर फिरेंगे॥
    बोलो! भारत माता की जय!! वन्दे मातरम्!!!


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