प्रचलित वर्ण व्यवस्था का वेदों में अभाव
I believe in Varnashram of the Vedas which, in my opinion, is based on absolute equality of status, notwithstanding passages to the contrary in the Smrities and elsewhere.
-महात्मा गाँधी
भारतीय संस्कृति का सबसे प्राचीन आधार ग्रन्थ वेद है। वेद ही सब सभ्यताओं की जननी और व्यवस्थाओं का स्रोत है। आर्य धर्म के तो प्राण ही वेद हैं। ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ अर्थात् वेद ही सब धर्मों के मूल हैं; ऐसा सर्व सम्मत सिद्धान्त है। इसी आधार पर हम यह भी विवेचनापूर्वक खोज करना चाहते हैं कि भारत को विध्वंस करने वाली इस वर्ण व्यवस्था का भी कहीं वेदों में पता है या नहीं। यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो यह वर्ण व्यवस्था ही हिन्दुओं के लिए मरण-व्यवस्था बन रही है। कोई इसको जातपाँत का रोग कह देता है और कोई इसको बिरादरिओं की बीमारी पुकारता है। वास्तव में इसका सारा श्रेय इस वर्त्तमान वर्ण व्यवस्था को ही है। हाँ! आर्य-समाजियों ने गुण-कर्म-स्वभाव का एक नया आडम्बर खड़ा करके इस वर्ण व्यवस्था के गिरते किले को दृढ़ करने का विफल प्रयास अवश्य किया है। परन्तु कालचक्र के प्रभाव से तथा आर्य समाजियों की पोप प्रियता से गुण-कर्म-स्वभाव का जामा अब विशीर्ण प्राय हो गया है। अब आर्य समाजियों की भी वर्ण व्यवस्था उसी घोरतम रूप में उपस्थित हो चुकी है-जिसके लिए हिन्दुओं को खूब कोसा जाता था। ऐसी दशा में वर्ण व्यवस्था का बावेला मचाने वालों को समझ लेना चाहिए कि भारतवर्ष में प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जातपाँत) का हम भण्डाफोड़ करना चाहते हैं। यही प्रचलित वर्ण व्यवस्था भारतीयों के लिए एक हौआ बनी हुई है। महात्मा गाँधी ने भी लिखा है कि-The present caste system is the very antithesis of Varnashrama। सबसे बड़ी त्रुटि तो यह है कि इस प्रचलित वर्ण व्यवस्था का मूल स्वार्थी लोग वेदों में भी बताते हैं और शास्त्रों की दुहाई देकर तमाम हिन्दू जनता के मुख पर ताला लगाना चाहते हैं कि कोई भी इस वर्त्तमान विद्यातिनी वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध एक शब्द भी न बोल सके। ऐसे सभी स्वार्थी पण्डितम्मन्यों का मुखमर्दन करने के लिए हम एक बार ही बता देते हैं कि चारों वेदों में इस वर्ण व्यवस्था का कोई पता नहीं है, कोई वर्णन नहीं है और कोई चर्चा तक नहीं है। वेदों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शब्दों के साथ वर्ण शब्द का कहीं संयोग नहीं है। वेदों में आर्य वर्ण और दस्यु वर्ण यह दो ही वर्ण माने गये हैं। स्वयं स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेद के 1/4/10/8 मन्त्र को प्रमाण रूप से पेश करते हुए सिद्ध किया है कि वैदिक कालीन सभ्यता में मनुष्यों के दो ही वर्ण थे-आर्य और दस्यु। मन्त्र इस प्रकार है-
विजानीहि आर्यान् ये च दस्यवः,
बर्हिष्मते रन्धया शासत् अव्रतान्।
अर्थात्-हे मनुष्यो! तुम लोग भली प्रकार जान लो कि आर्य कौन हैं और दस्यु कौन हैं। इस मन्त्र में स्पष्ट प्रतिपादन है कि आर्य और दस्यु ये दो ही मनुष्यों के वेद प्रतिपादित भेद हैं। यहाँ कई लोग यह बहकाते हैं कि मुख्य तो दो भेद वेद में हैं ही परन्तु आर्यों के अवान्तर चार भेद हैं-जिनको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम से पुकारा जाता है। परन्तु इनकी बहकावट में वे ही लोग आ सकते हैं जिन्होंने वेदों की पंक्ति-पंक्ति का पर्यालोचन न किया हो। हमने लगातार 12 वर्ष तक वेदों का स्वाध्याय किया है। हम बताते हैं कि इनकी इस चाल का जवाब क्या है। वेद में जहाँ ‘आर्य और दस्यु’ दो भेद बताए हैं वहाँ अनेक स्थलों पर ‘उत शूद्रे उतआर्ये’ ऐसा भी आया है। इसका प्रयोजन यह है कि शूद्र और आर्य यह मनुष्यों के दो विभाग हैं। मनुस्मृति में भी आया है- अनार्यायां समुत्पन्नो ब्राह्मणातु यद्दच्छया। इत्यादि तथा स्वामी दयानन्द जी ने भी सत्यार्थ प्रकाश के 10वें समुल्लास में स्वीकार कर लिया है कि शूद्र आर्य नहीं हैं। प्रमाणार्थ उनका यह लेख पर्याप्त है-
आर्याधिष्ठिताः शूद्राः संस्कर्त्तारःस्युः अर्थात् आर्य लोगों के यहाँ शूद्र रसोई बनावें। बस सिद्ध हो गया कि आर्यों में शूद्रों की गणना नहीं है। कितना अन्धेर है। अब विचारणीय यह है कि जब आर्यों के अन्दर शूद्रों का समावेश हो ही चुका है तो फिर ये शूद्र शब्द पृथक क्यों है। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यों में शूद्र नहीं हैं। देखो मनुस्मृति में जातोऽपि अनार्यात् आर्यायां अनार्यइति निश्चयः।10/6। इस प्रकार आर्य और दस्यु यह दो वर्ण ही मनुष्यों के वेद में प्रतिपादित हैं। वेद में आया भी है आर्य वर्ण मावत् और उभौवर्णों इत्यादि जिसका स्पष्ट प्रयोजन यह है कि दो ही वर्ण मनुष्यों के होते हैं। अब इस वर्ण शब्द की छानबीन कीजिए। वर्ण का मुख्य अर्थ है रंग (Colour)। इस आधार पर भी मनुष्य के दो रंग (वर्ण) स्वयं सिद्ध हैं। काला (Black) और गोरा (White) यही दो रंग मनुष्यों में पाये जाते हैं। इस प्रकार भी चातुर्वर्ण्य की सिद्धि वेदों से नहीं होती है। यह चातुर्वर्ण्य का ढकोसला मनुस्मृति की मनमानी है।
वेदों में वर्ण व्यवस्था के प्रतिपादक तीन मन्त्र मुख्य रूप से प्रस्तुत किये जाते हैं। पहला मन्त्र इस प्रकार है-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
उरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत्॥
- यजु. 31/11
यह मन्त्र सामवेद को छोड़ कर शेष तीनों वेदों में कुछ परिवर्तनपूर्वक पाया जाता है। सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल में यह मन्त्र मिलता है। यहाँ यह बता देना भी अप्रासंगिक न होगा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल को पुरातत्वविशारद (Historians) बहुत पीछे का बना हुआ बताते हैं। अष्टाध्यायी के भाष्यकर्त्ता, प्रकाण्ड पण्डित मेजर बी.डी. वसु (प्रयाग) ने यह सिद्ध करके दिखा दिया है कि इस मण्डल की रचना अर्वाचीन है। जितने भी पाश्चात्य स्कॉलर हुए हैं सभी ने ऋग्वेद के 9 मण्डलों को ही सर्व प्राचीन (The oldest book) माना है। फिर एक बात विचारणीय यह भी है कि जब वेद ईश्वरीय वाणी है तो यजुर्वेद और अथर्ववेद में यह मन्त्र कुछ परिवर्तन के साथ क्यों पाया जाता है। क्या यह परिवर्तन ऋषि (ब्राह्मण) कृत है या प्रभु (ब्रह्म) कृत? जब अर्थ में कोई भेद नहीं तो ईश्वरीय वाणी में इस प्रकार का घोटाला करने से क्या मतलब? मालूम ऐसा होता है कि जब मुगलकाल में वेद आदि ग्रन्थ जलाए गए और उस समय के पूज्य ब्राह्मणों ने वेद कंठस्थ कर लिए तब इन वेदों के अनेक पाठभेद हो गये जो बिल्कुल स्वाभाविक है। ऐसी दशा में वेदों के बिल्कुल विशुद्ध मौलिक स्वरूप का पता पाना दुरूह है। इसलिए वर्ण व्यवस्था के परमपोषक इस मन्त्र का भी शुद्ध रूप लुप्तप्राय है। यह जो स्वरूप मिलता है वह ब्राह्मणों की स्मृति का शेष है। इस मन्त्र में ब्राह्मण आदि चार शब्दों का समावेश तो अवश्य है-परन्तु ये वर्ण हैं या समाज शरीर के अवयव, यह बात बुद्धि से सोचने की वस्तु है। यदि इस मन्त्र का ही वास्तविक रूप समझ लिया जाय तो वर्ण व्यवस्था की समस्या हल हो जाय। देखिए-सारे शरीर के चार विभाग किये गये-सिर, हाथ, पैर और पेट। इसी प्रकार सारे मनुष्य समुदाय के चार विभाग किये गये-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। जिस प्रकार सिर से हाथ नीच नहीं और पैर से पेट नीच नहीं इसी प्रकार ब्राह्मण से क्षत्रिय नीच नहीं और शूद्र से वैश्य नीच नहीं। ये तो मनुष्य समाज रूपी शरीर के चार अवयव (हिस्से) हो गये। इसी को दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि मनुष्यों के मुख्य चार विभाग हैं जो कर्म-विभाग (Division of labour) के सिद्धान्त के आधार पर हैं। कर्म विभाग या श्रम विभाग में कोई नीच-ऊँच का प्रश्न नहीं है। सभी की उपादेयता (Utility) समान रूप से अनिवार्य है। इसके लिए वर्ण व्यवस्था का प्रतिपादक दूसरा मन्त्र जो प्रस्तुत किया जाता है, वह यह है-
ब्रह्मणे ब्राह्मणं, क्षत्रायराजन्यं, मरुद्भ्यो वैश्यं, तपसे शूद्रम्
तमसे तस्कर, नारकाय वीरहणं, पाप्मने क्लीबं, आक्रयाय
अयोगूं, कामाग पुंश्चलूं, अतिक्रुष्टाय मागधम्॥
- यजु. 30।5॥
इस मन्त्र का वास्तविक अभिप्राय समझने के लिए इससे पहला मन्त्र विशेष रूप से मननीय है। मन्त्र इस प्रकार है-
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः।
सवितारं नृचक्षसम्॥
- यजु. 30/4
इस मन्त्र में परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है कि हम ऐसे राजा को चाहते हैं जो हमारे कर्मों (Duties) को यथा नियम विभक्त कर दे। और फिर राज्य में होने वाले सभी आवश्यक पेशों की चर्चा इस अध्याय में की गयी है। उसी सिलसिले में ब्राह्मणे ब्राह्मणं आदि बताया है। अर्थात् वेद ज्ञान के प्रचार के लिए ब्राह्मण का कर्म, राज्य रक्षा के लिए क्षत्रिय का कार्य, प्रजाओं के साधारण व्यवहार के लिए वैश्य का कार्य और विशेषकर कष्ट साध्य तापस कार्यों के लिए शूद्र का कर्म है। अभी यह मन्त्र अधूरा हुआ। आगे भी इसी प्रकार पेशों का वर्णन है, जिनमें तस्कर, क्लीब और पुश्चलू भी हैं-परन्तु सर्व तो मुख्य चार कर्म विभक्त करके इन्हीं के अन्तर्गत सबका समावेश है। वे वर्ण नहीं हैं; नहीं तो (नपुंसक) क्लीब भी वर्ण हो जाएगा। इसी को कर्म-विभाग या श्रम विभाग (Division of labour) का सिद्धान्त कहते हैं। आज कल योरप में भी माना जाता है कि-
Four Ms make the monarchy as
Missionary, Military, Merchants & Menials.
इन सबका आधारभूत सिद्धान्त श्रम विभाग या कर्म-विभाग है। इतना और स्मरण रखना चाहिए कि उक्त मन्त्र द्वारा वेद की यह भी साथ-साथ आज्ञा है कि राजा को ही यह अधिकार है कि इस कर्मविभाग को न्यायपूर्वक प्रचलित करे। स्वामी दयानन्द ने भी वर्तमान वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था सिद्ध करते हुए यह लिखा है कि गुण कर्म स्वभावानुकूल यह कर्म विभाग (वर्ग-व्यवस्था) राजा ही व्यवस्थित रूप से कर सकता है। ऐसी दशा में आर्यसमाज का वर्ण व्यवस्था के लिए ढोल पीटना निरा ढोंग और दम्भ नहीं तो क्या है। वास्तविक दशा तो यह है कि हिन्दुओं का यह घातक रोग आर्यसमाजियों की नस नस में घुसा हुआ है, क्योंकि आर्यसमाजी हैं तो बने हिन्दुओं में से ही-तो फिर सहसा कैसे उन्हें इस राजरोग से मुक्ति प्राप्त हो सकती है? अस्तु! यहाँ तक हमने संक्षेप से यह प्रतिपादन करने का प्रयत्न किया है कि वर्ण-व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप-जो वेदोक्त है-वह कर्म-विभाग है और इसका नियन्त्रण (Control) राजा ही कर सकता है। इसलिए एक गुलाम देश का निवासी वर्ण-व्यवस्था का ढोंग रचकर अपने पैरों पर कुठाराघात ही कर सकता है, और कुछ नहीं। फलतः हमारा देश रसातल को चला जा रहा है और हिन्दू लोग वर्ण-व्यवस्था की बेहूदी बिलबिलाहट मचाए हुए हैं। इसीलिए न दलितोद्धार होता है और न देशोद्धार। हो भी कैसे जब हिन्दू लोग जन्म से ही अपना पैतृक अधिकार जमाए हुए दलितों को दाल की तरह दलने के लिए दनदना रहे हैं। अब हम तीसरा मन्त्र प्रस्तुत करते हैं जो वर्ण व्यवस्था के पोषक प्रायः पेश किया करते हैं। मन्त्र इस प्रकार है-
प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु नस्कृधि।
प्रियं विश्येषु शूद्रेष मय धेहि रुचारुचम्॥
इस मन्त्र में राजा परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा है कि मेरे शूद्र आदि सभी जनों का मंगल सदा होवे। और मेरी शोभा इसी से होवे। इसमें राजा ने अपने को सब से अलग कर लिया और अपने अधीन देव आदि जनों का कल्याण और मंगल चाहा है। इससे स्पष्ट यह सिद्ध होता है कि राजा ही इन कार्य-विभाग को व्यवस्थित कर सकता है। फिर एक ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि इस मन्त्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि शब्द नहीं हैं। इससे यह पता लगता है कि ब्राह्मण आदि शब्दों पर ही कोई बात नहीं है। विद्यासमिति, राजसमिति, अर्थसमिति और सेवासमिति ही राज्य कार्य के चार मुख्य कर्म विभाग हैं। जिनमें विद्यासमिति का अध्यक्ष तो राजा नहीं होता था। कोई देव, विद्वान, वेदज्ञ ही विद्यासमिति का सभापति होता है। शेष तीन समितियों का अध्यक्ष राजा स्वयं होता था। तभी वेद में आया है-
त्रीणि राजाना विदथे पुरुणि परि
विश्वानि भूषथः सदांसि।
देखिए-वर्ण-व्यवस्था शब्द का अर्थ ही यह है कि कोई वर्णों की व्यवस्था करता है। जैसे पण्डितों से व्यवस्था लेना। इसी प्रकार राजा से व्यवस्था लेकर काम चलता है। तभी रघुवंश 5/17 में रघुराजा को वर्णाश्रम का गुरु बताया है। देखिए-
वर्णाश्रमाणां गुरवे स वर्णी, विचक्षणः प्रस्तुतमाचचक्षे॥
इस प्रकार वेदों में वर्तमान वर्ण-व्यवस्था का कोई स्थान नहीं सिद्ध हो पाया। अब विचारणीय यह है कि फिर स्वामी दयानन्द जैसे वेदों के प्रकाण्ड पण्डित ने वर्ण व्यवस्था को क्यों स्वीकार कर लिया। बात यह है कि स्वामी दयानन्द ने वर्तमान वर्ण-व्यवस्था का तो जोरदार खण्डन किया है और वैदिक (कर्म-विभाग) वर्ण व्यवस्था का ही प्रतिपादन किया है-जिसकी चर्चा हमने पूर्व के पृष्ठों में संक्षेप से की है-परन्तु उन्होंने प्राचीनता के प्रवाह में बहकर ‘वर्ण व्यवस्था’ शब्द का खण्डन नहीं किया-यही उनकी एक भ्रमोत्पादक स्थिति हो गयी है। देखिए-स्वामीजी ने सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में इस बात की पुष्टि में कि एक शूद्र कुलोत्पन्न मनुष्य भी ब्राह्मण हो सकता है-दो ही प्रमाण प्रस्तुत किये हैं; एक तो मनुस्मृति का ‘शूद्रो ब्राह्मणतामेति’ इत्यादि श्लोक तथा दूसरा आपस्तम्ब सूत्र का निम्न प्रमाण-
धर्म चर्यया जघन्यो वर्णः
पूर्व पूर्व वर्ण मापद्यते-जाति परिवृत्तौ॥
अर्थात्-धर्माचरण से नीचे वर्ण भी उच्च वर्ण को प्राप्त हो जाता है। इस प्रमाण में ‘जाति परिवृत्तौ’ का अर्थ स्वामी दयानन्द ने नहीं किया। क्यों! इसका उत्तर आज तक किसी ने हमारे समक्ष स्पष्ट नहीं दिया। बात यह है कि ‘जातिपरिवृत्तौ’ का अर्थ है-दूसरे जन्म में; क्योंकि इस प्रमाण में वर्ण और जाति दोनों शब्द आए हैं। वर्ण का अर्थ तो ब्राह्मण क्षत्रिय आदि हो गया और जाति का अर्थ जन्म है ही। देखिए-
समान प्रसवात्मिका जातिः इस सूत्र के अनुसार जाति पैदायशी होती है। अब बताइए स्वामी जी के पेश किये हुए प्रमाण में क्या बल रहा? फिर मनुस्मृति का श्लोक तो बिल्कुल प्रपंच है, क्योंकि सारी मनुस्मृति जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था की परितोषक है। मनुस्मृति का निर्माण ही जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था के आधार पर है। देखिए-
उत्कृष्टां जातिमश्नुते, श्रुतं देशं च जातिं च, एवं
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते।
इत्यादि वचनों में सर्वत्र जाति शब्द का व्यवहार है, वर्ण नहीं। प्रयोजन यह है कि वर्ण-व्यवस्था का सारा प्रपंच मनुस्मति ने खड़ा किया है। यदि वेदों की कर्म-विभाग पद्धति प्रचलित होती तो यह सब आडम्बर न होता-परन्तु जब तक स्वराज्य न होगा वैदिक कर्म विभाग (वर्ग-व्यवस्था) की स्थापना सम्भव नहीं और जब तक वर्तमान जन्म-मूलक वर्ण-व्यवस्था रहेगी तब तक स्वराज्य की स्थापना सम्भव नहीं। इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष में फँसे हुए भारतवासी अपना अमूल्य समय वृथा गँवा रहे हैं और सुधार प्रिय आर्य समाज भी व्यर्थ ही वर्ण व्यवस्था का बवंडर खड़ा किये हैं। कल्याण इसी में है कि इस वेद विरुद्ध वर्ण व्यवस्था का विध्वंस एक स्वर से कर दिया जाय और श्रेष्ठकर्म-सम्पन्न दलितों, यवनों और म्लेच्छों के साथ मिलकर एक विशाल आर्य जाति (Aryan Nation) का निर्माण किया जाय! यही वेदाज्ञा है-
विजानीहि आर्यान, ये च दस्यवः।
तभी हम कहा करते हैं कि-
रास्ता सीधा पड़ा है इसमें कुछ खटका नहीं।
आज तक इस राह में रहबर कोई भटका नहीं॥
सबै भूमि गोपाल की या में अटक कहाँ।
जाके मन में अटक है, सो ही अटक रहा॥