वर्ण व्यवस्था या मरण व्यवस्था
अहा! कैसी वह सत्य सुन्दर घड़ी थी।
कि जब वेद विद्या की इज्जत बड़ी थी॥
लड़ी प्रेम की सबके दिल में पड़ी थी।
तभी सम्पदा हाथ जोड़े खड़ी थी॥
मनुष्यों में था मेल आपस में भारी।
दुखी सब के दुख से सुखों से सुखारी॥
वह रहते थे सबके सभी नर औ’ नारी।
न थी ऊँच औ’ नीच की रस्म जारी॥
मगर जब हुआ ह्रास विद्या का प्यारे।
तो प्रसरित हुए पंथ याँ न्यारे न्यारे॥
उदय हो गया चार वर्णों का भाई।
विषमता ने आ धाक अपनी जमाई॥
बने ब्राह्मण वैश्य, क्षत्रिय, नाई।
गई फूट की खुद परस्पर में खाई॥
बताने लगा एक को एक नीचा।
परस्पर के व्यवहार से हाथ खींचा॥
गई छूट आपस की सब रोटी बेटी।
समझने लगे ऐसा करने में हेटी॥
अलग दायरा सबने अपना बनाया।
बने संकुचित प्रेम सारा भुलाया॥
जलन सबे पैदा हुई छातियों में।
गए बँट हजारों ही उपजातियों में॥
कोई कानकुब्ज औ’ कोई है तिवारी।
कोई शुक्ल चौबे दुबे नाम धारी॥
कोई वाजपेयी कोई वेद पाठी।
कहीं गौड़ औ’ दाहिमा लेकें लाठी॥
कहे-हम बड़े हैं सभी हमसे छोटे।
फिर यूँ काश्मीरी कहे-सब ये खोटे॥
कहे शाक द्वीपी कहे सरयू पारी।
‘जो मुझको कहे नीच आवे अगाड़ी’॥
इसी भाँति हैं क्षत्रियों में भी जाते।
रहा फेंक है एक पै एक लातें॥
न पूछिये बनियों की जो दुर्दशा है।
चढ़ा क़ौम अपनी का सबको नशा है॥
कोई अग्रवाल औ, कोई ओसवाल है।
कोई पोरवाल औ’ कोई जैसवाल है॥
कोई है तिसैनी कोई है चौसेनी।
कोई देखो दस्सा कोई है पचैनी॥
कोई देखो पदमावती कोई जैनी।
कोई कहता विश्नोई कोई सुखैनी॥
इसी भाँति का शूद्रों में भी क़िस्सा।
पड़ा इनमें भी ऊँची नीची का हिस्सा॥
अगर एक हो उसको तो रोया जावे।
कहाँ तक विषम मैल को धोया जावे॥
कोई एक का एक छूआ न खाता।
नहीं एक को एक देखे सुहाता॥
हरेक अपनी-अपनी ही ढपली बजाता।
हरेक अपना-अपना अलग राग गाता॥
न होते शुरू में अगर वर्ण जारी।
तो शायद न होती कभी ऐसी ख़्वारी॥
बना करता है बीज से वृक्ष जग में।
यह है बात सच्ची रुकावट न मग में॥
अगर चार वर्णों को हम बीज मानें।
तो यह जातियाँ वृक्ष उसका बखानें॥
यह है बात निश्चित अगर यह न होते।
तो आजादी का आज रोना न रोते॥
नहीं फूट का बीज आपस में बोते।
नहीं हाथ से माल औ’ राज खोते॥
अगर रहते मिलकर न होती लड़ाई।
तो क्यों आके करते विदेशी चढ़ाई॥
हुई हानि इतनी कहाँ तक सुनावें।
हुए जुल्म इतने कहाँ तक गिनाएँ॥
मगर फिर भी दो चार दे दूँ मिसालें।
कृपा करके अन्दाजा उनसे लगा लें॥
यही वर्ण चारों लड़ाई के घर हैं।
इन्हीं से कटे आर्य जाती के पर हैं॥
यह यूँ तो सभी जातियों को क़हर हैं।
मगर ख़ास कर शूद्रों को जहर हैं॥
रखी ब्राह्मणों पै महर की नजर है।
करें आड़ इसकी में अपनी गुजर है॥
परशुराम की बात सब जानते हैं।
जो क्षत्रियों के नाश की ठानते हैं॥
किया एक क्षत्रिय ने अपराध भारी।
तो गुस्सा सभी क्षत्रियों पर उतारी॥
परशुराम थे ब्राह्मण यानी ऊँचे।
इसी से किए नष्ट क्षत्री समूचे॥
इसी ही तरह राम की लो कहानी।
जो थे वीर क्षत्री सदाचारी ज्ञानी॥
अयोध्या थी जिनकी सुभग राजधानी।
पिये शेर बकरी जहाँ घाट पानी॥
उन्हीं राम ने शूद्र शम्बूक को मारा।
कि बेदर्दी से शीश उसका उतारा॥
था अपराध इतना ही वह था तपस्वी।
अहिंसक सदाचारी ज्ञानी मनस्वी॥
मगर शूद्र था बस यही इक जलन थी।
थी क़ीमत नहीं इसलिए उसके तन की॥
कहा-‘‘शूद्र को ना तपस्या का हक़ है’’
इसी से लिया काट सर बेधड़क है॥
कहो राम ने न्याय कैसा किया था।
भगत शूद्र से कैसा बदला लिया था॥
इसी भाँति की कर्ण की लो कहानी।
जो अत्यन्त बलवान था स्वाभिमानी॥
मगर सूत का पुत्र था वर्ण हीना।
इसी से नहीं द्रोपदी ब्याह कीना॥
कहा-‘इसको हर्गिज नहीं मैं बरूँगी।’
‘‘कभी सूत सुत से न शादी करूँगी॥’’
किया कैसा अपमान ज्ञानी करण का।
था उसके लिए प्रश्न जीवन मरण का॥
कहाँ तक मैं इतिहास इसका सुनाऊँ।
बहुत सा समय चाहिए सबको गाऊँ॥
हमें तो यहाँ बस दिखाना यही है।
कि वर्णों का कोई ठिकाना नहीं है॥
यह है हिन्दू जाती के दुख की निशानी।
बढ़े इससे ज़्यादा कुटिल औ, गुमानी॥
हरेक ने अलग ही अलग तानी।
दिया योग्यता कर्म पर फेर पानी॥
सुना है कि था वर्ण पहले करम पर।
न था जन्म से कोई था शुभ मरम पर॥
हर इक दृढ़ व्रती था बशर निज धरम पर।
न था काले या गोरे के कुछ चरम पर॥
पता है नहीं कौन था ऐसा टायम।
जो थे वर्ण गुण कर्म के बल पर कायम॥
अगर थे भी तो भी हुई क्या भलाई।
या नाहक में यूँ ही व्यवस्था चलाई॥
सिवा इसके हर इक बना बेवफ़ा है।
कहो न्याय से औ’ हुआ क्या नफ़ा है॥
चहे जन्म से मानो चाहे करम से।
नहीं कुछ भलाई अगर पूछो हमसे॥
है जब से गया जन्म से वर्ण माना।
न तब से रहा कुछ दुखों का ठिकाना॥
है अफ़सोस दो शब्द जिनको न आते।
वे भी ‘इण्डिया’ में हैं पण्डित कहाते॥
करें रात दिन में काम बाबर्ची वाला।
उन्हें भी तो ब्राह्मण कहा जाता आला॥
इसी ही तरह के हैं ठाकुर औ’ लाला।
गया है अक़ल का निकल के दिवाला॥
चहे शूद्र कितना ही विद्वान् होवे।
रहे नीच अपनी यूँ ही आयु खोवे॥
कहो-क्यों न फिर दुर्दशा ऐसी होवे।
भारत माँ पराधीन हो क्यों न रोवे॥
है अफ़सोस खाईं हजारों ही ठोकर।
मगर फिर भी जागे नहीं हाय! सोकर!!
रहे रास्ते में वही काँटे बोकर।
कि जिससे हुआ क़ौम का हाल अबतर॥
यह निश्चित है गर वर्ण क़ायम रहेंगे।
हमेशा सहे दुख औ’ आगे सहेंगे॥
मैं कहता हूँ सबसे इसे नोट करलो।
यह है सत्य बिल्कुल हृदय बीच रखलो॥
जो चाहो भला सबको इन्सान जानो।
किसी को नहीं ब्राह्मण शूद्र मानो॥
सभी को तुम सन्तान प्रभु की बखानो।
हैं सब भाई-भाई यही दिल में ठानो॥
बनो सबके सेवक यही फ़र्ज आला।
करो स्वार्थ का मुँह सभी मिल के काला॥
नहीं सेवा कुछ शूद्र का ही करम है।
मनुषमात्र का करना सेवा धरम है॥
नहीं शूद्र कोई करत जिसका सेवा।
इसे जो करेगा वह पाएगा मेवा॥
अगर शूद्र का है करम सेवा करना।
तो इस दृष्टि से हैं सभी शूद्र वरना-
बताओ-कि सेवा से है कौन ख़ाली।
या यूँ ही टिकट दे रखा सबको जाली॥
कोई करता बल से कोई करता धन से।
कोई ज्ञान से कोई करता बदन से॥
है सबका तरीक़ा अलग सबकी ताक़त।
जुदा है सभी की नजर और लियाक़त॥
न समझो मैं हूँ ऊँचा औ’ यह है नीचा।
उजड़ जाएगा इससे सारा बग़ीचा॥
गई इससे लुट सारी रत्नों की थैली।
इसी से ही जग में छुआछूत फैली॥
इसी से रही आज रुपया की धेली।
गए अन्य कौमों के बन चेला चेली॥
इसी से नहीं संगठन है तुम्हारा।
सदा फूट की बहती रहती है धारा॥
जो हो चोर ज्वारी या हिंसक शराबी।
चुग़लखोर व्यभिचारी हो या कबाबी॥
वही नीच है ऐसा सिद्धान्त धारो।
जहाँ तक हो उसकी ख़राबी सुधारो॥
यह सब त्रुटियाँ हैं दुखों की निशानी।
समाज और बल को सदा इससे हानी॥
पहुँचती है इसमें नहीं कोई शक है।
इन्हें दूर करना सदा सबका हक़ है॥
मगर वर्ण से ऊँचा नीचा न मानो।
भले औ’ बुरे कर्म से वैसा जानो॥
मगर यह हमेशा रखो ध्यान में तुम।
कि भूलो न ईश्वर को अभिमान में तुम॥
नहीं कोई भी ग़लतियों से बरी है।
कि यह भूल हिस्से में सबके पड़ी है॥
अगर भूल या ग़लतियाँ हो किसी से।
तो दो दूर करने का मौक़ा खुशी से॥
न माने तो उसको उचित दंड दीजे।
व्यवस्था व्यवस्थित इसी भाँति कीजे॥
विला हीलो हुज्जत इसे मान लीजे।
यह नुस्ख़ा है ‘गोपाल’ का छान पीजे॥
विषम रोग कट जाएँगे सब तुम्हारे।
सभी गीत फिर गाएँगे यह तुम्हारे॥
‘‘कि विद्याओं का देश भारत गुरु है।’’
‘‘हुआ ज्ञान का बस यहीं से शुरू है॥’’
-सिद्धगोपाल आर्यकवि
(अजीतमल, इटावा-निवासी)
इस पुस्तक के प्रथम संस्करण में यह विज्ञापन प्रकाशित हुआ था :
श्री दयानन्द भारती विद्यालय
अजीतगंज-कानपुर की पाँच-विशेषताएँ
1. इस विद्यालय में निःशुल्क शिक्षा दी जाती है। यद्यपि भोजन व्यय के लिए पाँच रुपया मासिक लेने का नियम हैं-तो भी निर्धन विद्यार्थियों को भोजन आदि भी विद्यालय की ओर से दिया जाता है।
2. सब विद्यार्थियों के साथ समान बर्ताव किया जाता है। प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जातपाँत) के आधार पर कोई ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं रखा जाता है।
3. विद्याध्ययन के अतिरिक्त कुछ शिल्प की शिक्षा भी दी जाती है-ताकि विद्यार्थी गण स्वावलम्बी बन सकें।
4. विद्यालय का पाठ्यक्रम इस प्रकार का रखा गया है कि पाँच वर्ष में विद्यार्थी ‘धर्म-विशारद’ परीक्षा के साथ संस्कृत में प्रथमा और केवल अंग्रेजी में मैट्रिक पास कर ले; क्योंकि इस विद्यालय का मुख्य उद्देश्य धार्मिक, सदाचारी और स्वावलम्बी उपदेशक व प्रचारक उत्पन्न करना है! इसीलिए मैट्रिक या प्रथमा में वे ही छात्र सम्मिलित हो सकते हैं जो पहिले ‘धर्म-विशारद’ का ‘प्रमाण-पत्र’ प्राप्त कर लें।
5. चौथी कक्षा उत्तीर्ण अविवाहित विद्यार्थी जिनकी आयु 10 से 16 वर्ष तक हो, प्रविष्ट किए जाते हैं-परन्तु मिडिल या प्रथमा पास विद्यार्थियों को तरजीह दी जाती है।
विशेष जानने के लिए जवाबी पत्र व्यवहार करना चाहिए।
डॉ. फकीरेराम I.M.D. संस्थापक
श्री दयानन्द भारती विद्यालय, मेस्टन रोड, कानपुर
(यह पुस्तक उपलब्ध कराने के लिए हम ‘संवेद’ के संपादक किशन कालजयी के आभारी हैं। - संपादक, हिंदी समय)