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निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


वर्ण और आश्रम

Varnashram of the shastras today is not existance in practice.

- महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी आदि सभी नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि वेद प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था की सत्ता अब नहीं रही है तो भी भारतवर्ष में सबसे अधिक शोर यदि किसी बात का सुन पड़ता है तो वह ‘वर्णाश्रम’ का है। लोग मुँह से चिल्लाते अवश्य हैं परन्तु इसकी गहराई और बुराई को समझते नहीं हैं। न इन लोगों को यह पता है कि यह है क्या बला? यों ही सनातन से सुनते चले आये हैं-वही बराबर रटते चले जाते हैं। सुनिये-वर्ण और आश्रम दो चीजें हैं। जितना जोर वर्ण-व्यवस्था पर दिया जाता है यदि उसका एक चौथाई भी ‘आश्रम-व्यवस्था’ पर दिया जावे तो भारत को ‘स्वर्ग’ बनते देर न लगे, परन्तु हिन्दुओं को तो बुरी लत पड़ गई है कि हरेक बात की दुम पकड़ते हैं। जो वर्ण पीछे थे उन्हें पहिले पकड़ लिया और आश्रमों पर जरा भी श्रम न किया। भाई! ‘आश्रमों’ का नाम ही श्रम है अर्थात् मेहनत। जब तक आश्रम-व्यवस्था के लिए भगीरथ परिश्रम न किया जाएगा तब तक हिन्दुओं की बाल बराबर भी कोई उन्नति नहीं हो सकती। आश्रम का शब्दार्थ है आ=समान्तात् (चारों ओर) श्रम=परिश्रम। अर्थात् चारों ओर से चौकन्ने होकर श्रमपूर्वक जीवन बिताना। लीजिए पहिला आश्रम-ब्रह्मचर्य आश्रम। भारत में ब्रह्मचर्य की जो भयंकर दशा है वह किसी से छिपी नहीं। भारत का बच्चा-बच्चा आज अब्रह्मचर्य का अभ्यासी है। बाल विवाह उसी की एक शाखा है और वृद्ध विवाह उसी का निचोड़ है। प्रयोजन यह है कि भारत की तमाम उन्नति ‘ब्रह्मचर्य’ विनाश के कारण रुकी पड़ी है। आजकल स्कूलों और कॉलेजों के छात्र ‘ब्रह्मचर्य’ पर जरा भी ध्यान नहीं देते। घर के दूषित वातावरण में भ्रष्ट आचार और नष्ट विचार के हो रहे हैं। हाँ! इनको भी एक चिन्ता अवश्य है कि अभी से अपने नाम के पीछे शर्मा, वर्मा और सक्सेना लगा लूँ तो फलाने की तरह मैं भी बड़ी नौकरी पा जाऊँगा। इसी उम्मीद पर ये लोग सिगरेट, बीड़ी पीते-फैशन लगाते और ड्रामा खेलते हैं। पर मेरे भाई ये अंगूर खट्टे हैं। अब इन वर्ण व्यवस्था के पुछल्लों की भी पार नहीं जाती। No Vacancy का तख्ता गेट पर ही लटका है। इधर ब्रह्मचर्य नहीं पाला उधर नौकरी नहीं मिली। दीन से भी गए और दुनियाँ से भी। यदि हमारे देश में केवल ‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ की ही पूर्ण व्यवस्था हो जाय तो सहज में ही देशोन्नति का बिगुल बजने लगे। अखण्ड ब्रह्मचारी स्वामी दयानन्द ने इस मर्म को समझा था। उनकी सबसे बड़ी दया हम पर यही हुई कि ब्रह्मचर्य की जीती जागती ज्योति जगमगा दी। फिर ऐसे कराल कलिकाल में जब वाममार्गियों के भ्रष्ट विचारों का प्रचार था। बाल विवाह का प्रसार और पुराणपन्थ का प्रभाव था। देखिए-यदि सच्चे ब्रह्मचारी इस देश में पैदा हों तभी तो सच्चे ब्राह्मण, क्षत्रिय बन सकते हैं। बिना ब्रह्मचर्य के वेद विद्या पल्ले नहीं पड़ती। क्या हुआ यदि सिद्धान्त और मनोरमा रटरट कर वैय्याकरणखसूची बन गये। भाई! ब्राह्मण तो जब तक वेद न पढ़े, बन ही नहीं सकता। बतलाइये-कितने ब्राह्मण वेद जानते हैं। सौ में पाँच भी नहीं, तो भी अकड़े अकड़े फिरते हैं। यही तो इनकी महामूर्खता है। जब ब्रह्मचर्य ही न रहा तब वेदाधिगम कैसे हो और जब वेदों में पारंगत न हुये तब ब्राह्मण कैसे? क्या कभी हिजड़े भी धनुर्वेद पढ़ कर धनुषधारी हुये हैं? नहीं। तो फिर वर्ण-व्यवस्था का इतना बवण्डर क्यों उठाया है? स्वयं कानून बनाते हैं कि ‘ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः’ अर्थात् ब्रह्म (वेद और ईश्वर) को जो जाने वह ब्राह्मण होता है-और स्वयं अपने बनाए कानून को रद्दी की टोकरी में डाल कर मानते हैं कि ‘पानी पिलावे सो ब्राह्मण और वेश्या पुजावे सो क्षत्रिय’’ कहिए कैसा घोर अन्धेर है!!! वास्तव में पहले आश्रमों की व्यवस्था ठीक होनी चाहिए। इधर इन आर्य समाजियों को हम क्या कहें जो स्वामी ‘दयानन्द’ जैसे अखण्ड ब्रह्मचारी और वेदज्ञ नेता के अनुयायी हैं। ये लोग छोटी आयु में बच्चे-बच्चियों के विवाह करते और स्वामी दयानन्द की आज्ञा की कोई परवाह न करके अपने बच्चों का ‘वेदारम्भ संस्कार’ तक नहीं कराते। हाँ! कहने को बड़े संस्कार विधि को मानने वाले हैं परन्तु संस्कार कोई न करेंगे संस्कार विधि के अनुसार; और हमको बताएँगे कि नास्तिक हैं क्योंकि हमने संस्कार विधि के अनुसार अपना जीवन बिताया है। फिर ‘वानप्रस्थ’ गया चूल्हे में और ‘संन्यास’ गया मोहरी में। कितने हैं वानप्रस्थी और संन्यासी? इन्हें शर्म भी तो नहीं आती कि 50 वर्ष की आयु के बाद भी बच्चे पैदा करते चले जाते हैं और कट्टर आर्य समाजी बने, संस्कारविधि पर चमड़े की जिल्द चढ़ाए घूमते हैं। ऐसे छद्मवेशी आर्यसमाजियों को क्या हक है जो हमारे सामने एक हरफ भी बोल सकें। जो न करते हैं वेदों का स्वाध्याय एवं न पालते संस्कार विधि का कोई अध्याय और बने फिरते हैं महामहोपाध्याय!!!

अब उठो! सोते ही तुमको इक जमाना हो गया।
    इस गजब की नींद में अपना बिराना हो गया॥

वर्ण आश्रम धर्म सारा मिल गया मिट्टी में आज।
    वेद का स्वाध्याय तो अब अखबार पढ़ना हो गया॥


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