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निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


वर्ण व्यवस्था के दो सन्तरी

प्रचलित वर्ण-व्यवस्था की रक्षा के लिए खासी मोर्चाबन्दी से काम लिया गया है। मनुस्मृति का निर्माण करने वाले ब्राह्मणों के मस्तिष्क की महिमा तो हम किए बिना नहीं रहेंगे। ऐसी जबरदस्त क़िलेबन्दी की है कि बड़े-से-बड़े सुधारक माथा फोड़कर मर मिटे, लेकिन आज भी मनुस्मृति का साम्राज्य सर्वत्र छाया हुआ है। आश्चर्य तो तब होता है जब स्वामी दयानन्द जैसे वेदों के परम भक्त, प्रकाण्ड पण्डित और प्रभावशाली विद्वान् भी अपने सत्यार्थप्रकाश आदि क्रान्तिकारी ग्रन्थों में वेदों की अपेक्षा मनुस्मृति को ही अधिक उद्धृत कर गए। फलतः सत्यार्थप्रकाश की क़ीमत प्रतिदिन घटती जाती है। यदि सत्यार्थप्रकाश में से मनुस्मृति के श्लोक निकाल दिए जावें तो फिर उसमें रहता ही क्या है; क्योंकि वेदों के प्रमाण तो यत्र-तत्र नाममात्र ही उपलब्ध होते हैं। चाहिए तो यह था कि स्वामी दयानन्द जैसे वेदों के अद्वितीय विश्वासी पंडित थे वैसे ही वेदों के प्रमाण पद-पद पर प्रस्तुत करते हुवे वेदों के आधार पर वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा करते-परन्तु खेद है कि स्वामी दयानन्द मनुस्मृति का मोह छोड़ न सके। यदि वे प्रयत्न करते तो वैदिक धर्म की नींव वेदों पर प्रतिष्ठित कर जाते-परन्तु मनुस्मृति की मादकता ने मोह लिया और वेदों के मंत्र बेचारे यों ही पड़े-पड़े सड़ रहे हैं-कोई पूछने वाला नहीं है। उदाहणार्थ-

यज्ञोपवीत (उपनयन) के विषय को लीजिए। वेदों में अनेक मन्त्र यज्ञोपवीत (जनेऊ) विषयक मिलते हैं-परन्तु स्वामी दयानन्द ने पारस्कर के ‘यज्ञोपवतीतं परमं पवित्रं’ आदि प्रचलित श्लोक को ही मन्त्र मान कर अपनी संकलित संस्कार विधि में अङ्कित कर दिया और साथ ही मनुस्मृति के साथ ढकोसले को यज्ञोपवीत के गले मढ़ लिया। जैसे बसन्त ऋतु में ब्राह्मण का यज्ञोपवीत 5 वर्ष की आयु में हो, ग्रीष्म ऋतु में क्षत्रिय का 6 में, और शरद ऋतु में वैश्य का 8 में। लीजिए-शूद्र बेचारा बिना जनेऊ के ही रहा। हो भी कैसे जब कोई ऋतु ही शेष न रही। कुदरत को ही शूद्रों के विरुद्ध कर डाला। जब जनेऊ का ही जिक्र नहीं, तो विद्या कैसे पढ़े। जब विद्या ही न पढ़ेगा तो ब्राह्मण कैसे बनेगा। देखा न आपने कैसा जाल बिछाया गया है। और लिख दिया-‘शूद्रो ब्राह्मणतामेति’। क्या खूब ठग विद्या है!

बात यह है कि वेदों में जहाँ यज्ञोपवीत की आज्ञा है वहाँ मनुष्य मात्र के लिए है। कोई भेदभाव नहीं है। परन्तु वर्ण व्यवस्था के ठेकेदारों को यह कब सह्य था कि वेद के उच्च सिद्धान्त व्यवहार में आ सकें। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था की रक्षा के लिए उन लोगों ने पहिला सन्तरी तो जनेऊ को बनाया। आज भारत के कोने-कोने में कोलाहल हो रहा है कि देखो! आर्य्य समाजी लोग चमारों को भी जनेऊ पहिना रहे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जनेऊ पहिनाने में आर्य समाजियों ने वर्ण व्यवस्था के प्रतिपादक स्वामी दयानन्द की भी कोई परवाह नहीं की है; क्योंकि स्वामी दयानन्द की आज्ञानुसार एक 30 वर्ष का चमार जनेऊ नहीं पहिन सकता, परन्तु कुछ क्रान्तिकारी आर्य्य पण्डितों ने स्वामी दयानन्द को ताख़ पर रख दिया और समय की गति विधि को देखकर जनेऊ का जादू सबके ऊपर चढ़ा ही दिया। फलतः हिन्दुओं की ‘वर्ण-व्यवस्था’ ख़तरे में पड़ी है। इसलिए-

हमारी भी सम्मति है कि जब तक हमारे देश में एक भी ईसाई या मुसलमान है तब तक प्रत्येक भारतीय के सिर पर चोटी, गुले में जनेऊ और कमर में कटारी अवश्य होनी चाहिए।

वर्ण व्यवस्था का दूसरा सन्तरी जातिनाम अर्थात् जन्म जाति सूचक नाम के पीछे पुछल्ला है। इन पुछल्लों ने भारतीयों के घर-घर में वर्ण व्यवस्था को पुष्ट कर रखा है। चाहे आर्य्यसमाजी हो या पुराण समाजी, सभी इस पुछल्ला पाखण्ड की पकड़ में हैं। आश्चर्य्य तो तब होता है जब स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों में कहीं भी इस पुछल्ला महामारी के विरुद्ध एक पंक्ति भी ढूँढ़े नहीं मिलती है। क्या स्वामी दयानन्द को ज्ञात नहीं था कि देश में प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जातपाँत) का पूरा जोर है? फिर उन्होंने इन पुछल्लों का पाखण्ड मिटाने के लिए क्यों नहीं लिखा? वास्तव में बात यह है कि स्वामी दयानन्द भी वैदिक वर्ण-व्यवस्था की स्थापना में इतने लवलीन हुए कि इस आवश्यक दृष्टिकोण को अछूता ही रख गये। साथ ही नामकरण संस्कार के प्रकरण में एक पंक्ति ऐसी लिख गये कि जन्म जाति मानने वालों को पूरा सहारा मिल गया। यद्यपि स्वामी दयानन्द का अभिप्राय वहाँ वह नहीं है जो स्वार्थी लोग लेते हैं; क्योंकि जब स्वामी दयानन्द ने यजुर्वेद भाष्य में यह घोषणा स्पष्ट रूप से कर दी है कि हमारे ग्रन्थों में जो मनुस्मृति और पास्कर गृह्यसूत्र आदि के प्रमाण हैं वे उन ग्रन्थों के मत दर्शाने के लिए हैं। मेरा मत तो वेदोक्त है। इसीलिए सत्यार्थप्रकाश के तीसरे समुल्लास में स्वामी जी ने किसी के यह पूछने पर कि तुम्हारा मत क्या है लिखा है कि-‘‘हमारा मत वेद है। वेद में जो करने और छोड़ने की शिक्षा की है उसका हम यथावत् करना छोड़ना मानते हैं। जिसलिए वेद ही हमको मान्य है इसलिए हमारा मत वेद है। ऐसा ही मान कर सब मनुष्यों और विशेष रूप से आर्यों को ऐक्य मत्य होकर रहना चाहिए।’’ इतना लिखने के बाद भी स्वामी जी पर मनुस्मृति का बोझ लादना नितान्त स्वार्थ का नमूना है।

देखिए-स्वामी जी ने कहीं संस्कार विधि में पारस्कर के अनुसार गौण रूप से यह लिख दिया है कि ब्राह्मण हो तो देवशर्मा, क्षत्रिय देववर्मा, वैश्य देवगुप्त और शूद्र देवदास ऐसा नाम रखें, बस स्वार्थियों की बन आई है। इसका प्रयोजन तो सिर्फ़ इतना है कि यह शर्मा वर्मा यदि प्रयुक्त हो सकता है तो समस्त नामों में अर्थात् देव और शर्मा का समास जहाँ हो जावे वहीं इसका। प्रयोग हो। परन्तु हो क्या रहा है। हजारीलाल शर्मा (एक अढ़तिया), बनवारीलाल शर्मा (एक हलवाई) और छोटेलाल शर्मा (एक सट्टेबाज) ऐसे नामों के पीछे शर्मा का प्रयोग स्वामी दयानन्द का सर्वथा इष्ट न था। परन्तु यहाँ तो चलती का नाम गाड़ी हो रहा है। एक बात और ध्यान देने योग्य है। स्वामी दयानन्द ने मनुस्मृति का मत दिखाते हुए देवदास लिख तो दिया-परन्तु फुटनोट (टिप्पणी) में लिख दिया है ‘दासान्त’ नाम नहीं रखने चाहिए। अब बताइए इस परस्पर विरोधी लेख का सारांश क्या यह नहीं हुआ कि देवदास आदि नाम भी नहीं रखना चाहिए; क्योंकि दास का अर्थ गुलाम है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के इन दोनों सन्तरियों का सदुपयोग जब तक न हो सके तब तक इनका बहिष्कार ही भारत के कल्याण के लिए अभीष्ट है। हाँ! नवीन आर्य्य-राष्ट्रीय पद्धति के अनुसार जनेऊ और उपनामों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।


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