वर्ण व्यवस्था और उपजातियाँ
पौराणिक काल में केवल एक ही वर्ण था। जैसा कि महाभारत में लिखा भी है-‘‘एक वर्ण मिदं पूर्व विश्वमासीद् युधिष्ठिर!’’ इसी प्रकार भागवत में आया है ‘एक वर्ण एव च’। पीछे वेदों के प्रचार होने पर आर्य और दस्यु दो वर्ण मनुष्य समाज के वेदाज्ञानुसार प्रचलित हुए। मध्ययुग में जब मनुस्मृति का महत्व विशेष रूप से बढ़ गया तब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जन्ममूलक चार वर्ण माने जाने लगे और सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय पाँचवा वर्ण बनाया गया। जिसको अछूत कहा जा सकता है। इन लोगों को नगरों और ग्रामों से बाहर बसाया गया। पश्चात् पुराणों की सृष्टि हुई और वर्णसंकर की कल्पना करके सैकड़ों उपजातियाँ हिन्दू धर्म में बन गईं। इस समय तो 8745 उपजातियाँ हैं। जिसमें दो हजार तो सिर्फ़ ब्राह्मणों में ही हैं। इसी प्रकार 950 उपजातियाँ क्षत्रियों में हैं। फिर इस पर तुर्रा यह कि इन उपजातियों में भी सूक्ष्म बीसों भेद हैं। सचमुच हिन्दू जाति तो प्याज की तरह छिलका उतरते-उतरते निराकार स्वरूप हो रही है। इतने पर भी बस नहीं है। ये सारी उपजातियाँ परस्पर रोटीबेटी का व्यवहार नहीं करतीं। फलतः विवाहों में बड़ी कठिनाई होती है। और सुनिए-72 लाख जरायम पेशा लोग तो बिलकुल अनाथों की तरह लुट रहे हैं। ये लोग अभी तक चोटी रखते हैं इसीलिए हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था के अनुसार अछूत समझे जाते हैं।
परन्तु प्रतिदिन ईसाई और मुसलमान इन्हें अपने अन्दर मिला रहे हैं। तो भी हिन्दू लोग ‘भगवान् रामचन्द्र की जय’ और आर्य समाजी लोग ‘दयानन्द की जय’ के नारे लगा कर अपने आपको धोखा दे रहे हैं। इन उपजातियों का निर्माण मुसलमानी राज्य में बहुत हुवा। जरा-जरा सी बात पर हिन्दू लोग जात बिरादरी से बाहर कर देते थे। परिणाम स्वरूप नदियों के नाम पर जैसे सारस्वत, गंगोपारी, जमना-पारी, कुछ ग्रामों के नाम पर जैसे लखनऊ के वाजपेयी, कुछ मुसलमानों के सम्पर्क से फत्तू के तिवारी, इमामखोर के शुक्ल, कुछ पशुओं के नाम से भेड़ी और बकरुवा शुल्क और कुछ पेशों के नाम से जैसे तेली, तमोली आदि। फिर ब्राह्मणों में ही गौड़, सनाढ्य, झिझोतिया, उत्कल, मैथिल, काश्मीरी और दक्षिणी न जाने कितने विभेद हैं। इतने भेद होने पर भी अरब के मुसलमान और इंग्लैंड के ईसाई शुद्ध होने के बाद प्रचलित वर्ण व्यवस्था के अनुसार किसी भी कोने में स्थान नहीं पा सकते तो क्या लण्डन का शुल्क और अदन का वाजपेयी बनाने से काम चलेगा? कदापि नहीं। तो क्या शुद्ध शुदा कन्नौजिया होंगे या सरवरिया, चन्द्रवंशी होंगे या सूर्यवंशी, अग्रवाल वैश्य होंगे या खण्डेलवाल नहीं होंगे-तो रोटी बेटी व्यवहार परस्पर न होने के कारण शुद्ध करना व्यर्थ है। भारतवर्ष में तो दो ही जाल बिछे हैं। एक तो रेलवे लाइन का जाल और दूसरा वर्ण व्यवस्था के जंजाल का जाल। रेलवे का जाल तो समझ में आता है, लेकिन वर्ण व्यवस्था का जाल तो शरद् ऋतु के आकाश में तारों की तरह विस्तृत हो रहा है। इस जाल का जादू लड़के-लड़कियों के विवाह समय पूरे जोर पर आ जाता है। प्रचलित वर्ण व्यवस्था के ही कारण सन्तानों के विवाह समय लेन-देन की विनाशकारी कुप्रथा चल निकली है। कहीं दहेज है, कहीं ठहरौनी और रिश्वत भी चलती है। हिन्दुओं के विवाह समय सबसे बड़ा सिद्धान्त रह रहता है कि चाहे वेदों की आज्ञा का उल्लंघन हो जावे, चाहे लड़के-लड़कियों का जीवन नष्ट हो जावे, चाहे रोगी के साथ लड़की चली जावे-लेकिन प्रचलित वर्ण-व्यवस्था (जात-पाँत) न टूटने पावे। वास्तव में वर्ण व्यवस्था मनुष्यों के लिए बनाई गई थी, न कि मनुष्य वर्ण व्यवस्था के लिए। यहाँ तो ‘वर्ण व्यवस्था’ की रक्षा मनुष्यों के विनाश पर की जा रही है। कैसा घाटे का सौदा है। देखिए-मनुष्य के लिए भोजन हैं, परनतु जब उसी भोजन से मनुष्य के शरीर को हानि होने लगती है तो भोजन छोड़ दिया जाता है और तभी आरोग्यता प्राप्त होती है। इसी भाँति मनुष्य समाज के लिए वर्ण व्यवस्था बनाई गई थी। अब जब प्रत्यक्ष रूप में उससे हानि हो रही है, और हानि भी बड़ी भारी, यहाँ तक कि वर्ण व्यवस्था देश को मृत्यु की ओर ले जा रही है-तब भी इस पिशाचिनी वर्ण व्यवस्था का विध्वंस न करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? आज इसी वर्ण व्यवस्था के कारण एक चौथाई हिन्दू मिट गए हैं अर्थात् 32 करोड़ के 24 करोड़ ही रह गए, जिनमें 7 करोड़ अछूत कहे जाते हैं। यही कारण है कि इन 24 करोड़ पर 1 लाख 20 हजार विदेशी राज्य कर रहे हैं। तो भी हिन्दू लोग कहते हैं कि-
नासेह! कर न नसीहत मुझे दिल मेरा घबरावे है।
मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन, जो मुझे समझावे है॥
पंजाब में गुरु नानक ने समझाया, युक्तप्रान्त में दादू और कबीर ने समझाया, बंगाल में राजा राममोहनराय ने समझाया, दक्षिण में रामानुजाचार्य्य ने समझाया और गुजरात में महात्मा गाँधी ने समझाया-परन्तु आज तक हिन्दुओं की समझ में नहीं आया। देखिए-जापान ने वर्ण व्यवस्था मिटा कर अपनी एक कौम (Nation) बना ली। परन्तु हम लोग अभी तक कक्कड़, चोपड़ा, भल्ला, नेवटिया, अहूजा, आलूवालिया, ओसवाल, जायसवाल, अग्रवाल, पंचौली, पाठक, और पाण्डे बने हुए हैं। कहते हैं कि ये गोत्र हैं-परन्तु इन नासमझों को पता नहीं कि गोत्र तो केवल 7 हैं। जिनको सप्तऋषि कहते हैं। पश्चात् ऋषियों के स्थान पर न जाने कौन-कौन गोत्र गिना बैठे! देखो भाइयो! मद्रास में प्रतिदिन एक हजार हिन्दू ईसाई हो रहे हैं। आसाम में 36 फ़ीसदी मुसलमान हो गए हैं जहाँ 40 वर्ष पूर्व एक भी न था। इसी प्रकार बंगाल में 60 फ़ीसदी हो गए। क्या अब भी घोर निद्रा को छोड़कर वर्ण व्यवस्था का विध्वंस न करोगे?