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कविता

एक महाजन की खाता बही जिंदगी

संजीव निगम


एक महाजन की खाता बही जिंदगी,
कि सभी लेन-देन कर्ज सहित हो गए।
इस गुणा भाग को गिनते-गिनते हुए,
हम किताबों में जिंदा गणित हो गए।

पीढ़ियों के घने जंगलों में,
काँधे बेताल ढोते रहे
छोड़ कर क्रांतिदर्शी सपन को,
भूत में अपने खोते रहे
कल के हिसाब से चुकते-चुकाते,
अपने हाथों भविष्य के अहित हो गए।

यथार्थ की सुलगती धूप से,
वृक्ष कल्पनाओं के सूखते रहे
घरोंदे आस की चिरैया के,
तिनके-तिनके हवा में उड़ते रहे
इंद्रधनुषी मन के सपने,
सूखे आकाश से भ्रमित हो गए।

खुशी की नदियों के पानी पर,
ऊँचे अनेकों बाँध का पहरा,
हँसी के तट तरसते प्यास से,
हृदय का बाँझपन होता है गहरा,
संभावनाओं के बहते झरने सभी,
सूखकर पत्थरों में दमित हो गए।
 


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