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कविता

जी भर रोया एक

बुद्धिनाथ मिश्र


रोज एक परिजन को खोया
पाकर लंबी उमर आज मैं
जी भर रोया।

जिनके साथ उठा-बैठा
पर्वत-शिखरों पर
उनको आया सुला
दहकते अंगारों पर
जो था मुझे जगाता
सारी रात हँसाकर
वह है खुद लहरों पर सोया।

एक-एक कर तजे सभी
सम्मोहन घर का
रहा देखता मैं निरीह
सुग्गा पिंजर का
हुआ अचंभित फूल देखकर
टूट गया वह धागा
जिसमें हार पिरोया।

किसके-किसके नाम
दीप लहरों पर भेजूँ
टूटे-बिखरे शीशे
कितने चित्र सहेजूँ
जिसने चंदा बनने का
एहसास कराया
बादल बनकर वही भिगोया।

 


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