वैसे तो गमले में फूले
नागफनी भी चैत महीने
किंतु सुवासित छुअन कहाँ से
लाए वह चैती गुलाब की।
कुछ ना कुछ तो जादू-टोना
हुआ हमारे गाँव-नगर पर
सब के सब भागते जा रहे
आँख मूँद अनजान डगर पर
पेड़ों पर पालते मछलियाँ
जलधारों में तोते-मैने,
सड़कों पर उतरे सवाल, पर
बंद खिड़कियाँ हैं जवाब की।
एक ओर हय-शावक गरजे
तरजे लालकिले के अंदर
और दूसरी ओर गीर के शेर
हिनहिनाते मजबूरन
जैसे रंगभवक के रसिए
जैसे डोमिन के मनबसिए
संसद के बिसखपरों से हैं
मात हुई नस्लें नवाब की।
शिकमी है वाचालों के घर
वीरों का सिंहासन जब तक
वंशीतट हो मौन, रहेगा
शंखों का अनुशासन तब तक
सोचो, फिर सोचो, फिर सोचो
दिन क्यों लगते रात सरीखे
ले कुदाल पलटाओ कीचड़
मरे हुए राजा-तलाब की।