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लेख

सामाजिक क्रांति को भूलने के खतरे

अरुण कुमार त्रिपाठी


यह बहुत अच्छी बात है कि हमारी सरकार और संसद बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125 वीं जयंती के बहाने संविधान के संकल्प को याद कर रही है और 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में याद कर रही है। इस दौरान सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के सदस्यों के बीच जो बहसें हो रही हैं वे भी रोचक किंतु जनाधार और मतदाताओं को ध्यान में रखकर ज्यादा की जा रही हैं। यह सही है कि देश की एकता और अखंडता संविधान का उद्देश्य रहा है और उसे अगर हम भूल जाएँगे तो हमारे हाथ से धरती का वह टुकड़ा भी छिन जाएगा जिस पर हम अपने सपनों का देश बना पाएँ और अपने ढंग से कोई प्रयोग कर पाएँ। पर इसी के साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संविधान कोई संकीर्ण दस्तावेज नहीं है जो हमें दुनिया से अलग-अलग एक देश बनाने की राह दिखाता है। एक तो हमारा संविधान ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, आयरलैंड, अमेरिका और सोवियत संघ जैसे दुनिया के कई देशों से प्रेरित है वहीं उसमें दर्ज मौलिक अधिकार संयुक्त राष्ट्र की सार्वदेशिक मानवाधिकार की घोषणाओं पर आधारित हैं। इसलिए यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि हमारा संविधान हमें धीरे-धीरे एक कट्टर राष्ट्र बनते जाने और बाकी दुनिया से अलविदा होने की प्रेरणा नहीं देता, बल्कि वह हमें उस विश्व समुदाय का हिस्सा बनने की प्रेरणा देता है जिसके अंतरंग सदस्य बनने की यात्रा दुनिया के तमाम देशों को तय करनी है और जिस समुदाय को सभी को मिलकर लोकतांत्रिक बनाना है। दुनिया से जुड़ने की इसी भावना के तहत कभी डॉ. राम मनोहर लोहिया विश्व सरकार की कल्पना करते थे और इसी भावना से विश्व समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी तमाम संस्थाओं का गठन किया है। इसलिए हमें यह कहने मे संकोच नहीं होना चाहिए कि हमारा संविधान हमें विश्व समुदाय से अलग करने के बजाय उससे जोड़ता है। इसी भावना के तहत पंडित नेहरू ने कहा था कि जब पूरी दुनिया सो रही है तो भारत आजादी का बिहान देख रहा है। इसी भावना के तहत उनका यह भी सवाल था कि अगर भारत लड़खड़ाएगा तो दुनिया में कौन सलामत बचेगा। दरअसल भारत का प्रयोग और उसके भीतर निहित भाईचारे और अनेकता में एकता के मूल्य सिर्फ उसी के लिए जरूरी नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया के लिए जरूरी हैं। इस लिहाज से अगर नानी पालखीवाला हमारे संविधान को एक बेहद सुंदर दस्तावेज कहते हैं तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। यही भावना जब अमेरिकी लेखक पद्मश्री ग्रेनविल आस्टिन भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक - 'इंडियन कांस्टीट्यूशन-कार्नरस्टोन ऑफ ए नेशन'(1966) में भी व्यक्त करते हैं तो हमें गर्व होता है। यानी हमारा संविधान एक तरफ अपने भारतीय भू-भाग में रहने वाले विभिन्न समुदायों के बीच भाईचारा कायम करने और उन्हें बाँध कर रखने में मदद करता है, तो दूसरी तरफ वह इसे विश्व समुदाय के घनिष्ठ सदस्य के रूप में भी स्थापित करता है। बल्कि उन मूल्यों का वाहक दिखता है जिन पर खड़े होकर भविष्य में एक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व वाला विश्व बनेगा।

लेकिन जब भी हम आंबेडकर को संविधान निर्माता के रूप में याद करते हैं तो एक तो हमारा उद्देश्य उन्हें कृतज्ञता जताने के साथ देवता बनाने और उनकी मूर्ति पूजा का होता है और अन्य महत्वपूर्ण लोगों के योगदान को भुला देने का होता है। दूसरी तरफ जब हम अपने-अपने आंबेडकर का झगड़ा करते हैं तो इस बात को भी दरकिनार कर देना चाहते हैं कि उनका उद्देश्य इस संविधान के माध्यम से भारत में एक शांतिपूर्ण सामाजिक क्रांति करनी थी। उस सामाजिक क्रांति का रास्ता हमारे संविधान के भाग-तीन और भाग-चार यानी मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों में सुझाया गया है। हालाँकि संविधान का भाग-चार बाध्यकारी नहीं है लेकिन संविधान के भाग-तीन के साथ मिलकर पढ़े जाने पर इस अहसास से कोई बच नहीं सकता कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भविष्य को देखते हुए अपने संविधान में एक विशाल समाज की प्रगति का पूरा खाका खींच दिया था। अब अगर उस रास्ते पर चलने में हमारे पाँव डगमगाने लगें तो वे क्या करें या संविधान क्या करे? जब हमारी सरकार के मंत्री यह कहते हैं कि 'उद्देश्यिका संविधान की आत्मा है' तो वे अधूरी बात कहते हैं। दरअसल वह संविधान का एक मंत्र है जिसमें संविधान का सार ध्वनित होता है। लेकिन संविधान की आत्मा तो भाग-तीन और भाग-चार में ही बसती है। बाकी हिस्से इस आत्मा को पिजड़े में बंद करने और उस पर शासन करने के लिए बनाए गए हैं। यही वे दो हिस्से हैं जो भूमिविहीन, जातिगत सम्मान से हीन और किसी शिक्षा-दीक्षा से रहित एक भारतीय नागरिक को यह हक देता है कि वह भारत सरकार जैसे ताकतवर राज्य के सामने अपने मौलिक अधिकारों का ध्वज लेकर मजबूती से खड़ा हो सके। वरना भारतीय राज्य का एक सिपाही किसी को भी अपने डंडे से ध्वस्त कर सकता है। संविधान का यही हिस्सा जब कहता है कि हम सब राज्य के सामने बराबर हैं, चाहे हमारा कोई भी धर्म है या कोई भी जाति, लिंग, भाषा या जन्म स्थान है, तब इसका मतलब सिर्फ उसे मान लेना नहीं होता बल्कि उस सपने को साकार करना होता है। साकार करने का वह रास्ता महज नागरिकों और समुदायों को आजादी ही नहीं देता बल्कि जाति और धर्म की उन संस्थाओं को बदलने की प्रेरणा भी देता है जो भेदभाव करती हैं या उस पर आधारित हैं। यानी यह एक सामाजिक क्रांति का आह्वान करता है। संविधान का भाग-चार आर्थिक लोकतंत्र का खाका तैयार करता है। वह उस समय के समाजवादी देशों जैसे कि सोवियत संघ या चीन की तरह से समाजवादी अर्थव्यवस्था को नकल करने की बात नहीं करता क्योंकि उनके साथ एक प्रकार की राजनीतिक तानाशाही का ढाँचा जुड़ा हुआ था जो कि हमारी व्यवस्था के अनुकूल नहीं था। इस बारे में संविधान सभा में बहस करते हुए आंबेडकर ने कहा था कि आर्थिक लोकतंत्र हासिल करने के तमाम तरीके हैं। इसीलिए हमने नीति निदेशक तत्वों में उस भाषा का प्रयोग नहीं किया है जो ज्यादा सख्त और जमी हुई हो। इसका उद्देश्य यह है कि अलग अलग सोच के लोग जनता को आर्थिक लोकतंत्र तरफ जाने के लिए अलग-अलग तरह से प्रेरित कर सकते हैं।

आज हमारे नेताओं और राजनीतिक दलों की दिक्कत यह है कि वे संविधान में दिए गए लचीलेपन का लाभ उठाकर आपस में एकजुट होकर काम करने के बजाय भ्रम फैलाकर जनता को बाँटने में लगे हुए हैं। वे धर्मनिरपेक्षता पर बहस करें, समाजवाद पर बहस करें अच्छी बात है। लेकिन उनकी इस बहस का मकसद भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने या इसे महज पूँजीपतियों का लोकतंत्र बना देने का नहीं होना चाहिए। यह सही है कि जो मूल संविधान बना उसकी उद्देश्यिका में यह दोनों शब्द नहीं थे और उन्हें भारतीय लोकतंत्र और संविधान के लिए सबसे बदनाम समय आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया। लेकिन जब जनता पार्टी की सरकार आई तो 44वें संशोधन के माध्यम से 42वें संशोधन को पूरी तरह पलट दिया गया। लेकिन हैरानी की बात है कि जनता पार्टी की सरकार ने न तो धर्मनिरपेक्षता शब्द हटाया और न ही समाजवाद। जबकि उस सरकार में एक घटक के रूप में जनसंघ भी शामिल था। इतना ही नहीं 42वें संशोधन के माध्यम से संपत्ति के मौलिक अधिकार को भी हटा दिया गया था लेकिन 44वें संशोधन के माध्यम से उसे वापस नहीं लाया गया। हालाँकि यह शब्द संविधान में कहीं परिभाषित नहीं हैं। लेकिन संविधान के भाग-तीन और चार की भावना इन्हीं के अनुरूप है। अगर यह शब्द न भी लाए गए होते तो भी हमारा संविधान न तो बहुसंख्यकों को यह हक देता है कि वे अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार छीन लें और न ही इस देश को किसी एक धर्म के आधार पर शासित होने की इजाजत देता है। आज अभिव्यक्ति के अधिकार सर्वाधिक सक्रिय हैं और उसी पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं। जाहिर सी बात है कि यह महज मतभिन्नता का मामला नहीं है बल्कि उद्देश्य भिन्नता का मामला भी है। इसीलिए इस देश में संविधान के उद्देश्यों के अनुरूप एक ऐसी सामाजिक क्रांति की दरकार है जहाँ कम से कम देश के राजनीतिक दल और सामाजिक संस्थाएँ इक्कीसवीं सदी में रहकर सोचें और पूर्व आधुनिक और मध्ययुगीन सोच से बाहर निकलें।


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