जुलाई के सूखे काँच-से चमकते आकाश के नीचे पिघले इंद्रधनुष की वह जीर्ण, तरल
लकीर मुहाने के पास एकदम से चौड़ी हो गई थी और फिर बिफर कर ऊँची चट्टानों से
तेज शोर मचाती हुई नीचे गिरी थी - रंगों के एक विशाल कुंड में! धुंध और धुएँ
के ऊपर सूरज की रोशनी और उस पर नाचते उसके सात रंग - 'द लिक्वीड रेन्बो'!
दूर्वा ने थरथरा कर एक पल के लिए अपनी आँखें मूँदी थी और फिर धीरे-से खोली थी
- नहीं! यह कोई सपना नही, एक जीवित, ऊष्मा भरा क्षण था, उसकी शिराओं में मीठी
आग की तरह उतर कर ताप का अमित सुख रचते हुए... वह आश्वस्ति से भर कर पत्थर के
एक चौकोर टुकड़े पर बैठ गई थी - आखिर वह आ ही गई यहाँ! पाँच रंगों की इस तरल,
मायावी दुनिया में...
पाँच साल पहले कबीर के घर से एक छोटा सूटकेस ले कर निकलते हुए उसे पता नहीं
था, उसका अगला कदम किस दिशा में होगा, मगर इस नदी के सपने को उसने अपने अनजाने
ही कपड़ों के बीच कहीं तहा कर रख लिया था - जब एक छत का बंदोबस्त हो जाएगा, इसे
खोल कर फैलाएगी खुली हवा में, धूप दिखाएगी, जीवित करेगी! अपने ऊपर बंद किए गए
दरवाजे को उसने एक बार छू कर देखा था - इन बेजान लकड़ी के टुकड़ों को उसने अपना
ठौर मान लिया था कभी! उसके सारे इंतजार और उम्मीदों को अपने में समेट कर अब
किस तरह एकदम से निर्लिप्त हो गए थे वे... अपने सपनों के साथ जीने की सजा मिल
गई थी उसे। उसे उसके यथार्थ से बेदखल कर दिया गया था! हर चीज की एक कीमत होती
है, आजादी की तो कुछ ज्यादा ही! चुकाई थी उसने, जाने क्या-क्या से! कभी नसों
में रात-दिन चहकती जिंदगी अब किसी बूढ़े पंछी की तरह देह के पिंजरे में शिथिल
हो आई थी। बार-बार उसे खुद को झिंझोर कर जगाना पड़ रहा था, कहना पड़ रहा था -
तुम अब भी हो! महसूस करो खुद को!
वह अपने में डूबी पानी में हाथ डालती है। हथेली में पानी के साथ लाल रेशे भर
आते हैं। साफ-झक तल में पीले, हरे, नीले, काले और लाल रंगों के बड़े-बड़े
चकत्ते! वह उन्हें हैरत से देखती है - नदी है या जादू!
"मैकेरेनिआ क्लाविगेरा! इन्हीं से रंगों की यह तिलस्मी दुनिया बनी है..." कहते
हुए जो शख्स उसके बगल में अचानक बेतकल्लुफी से आ बैठा था, उसे देख कर दूर्वा
जरा-सी सहम गई थी - बेहद लंबा कद, पकी हुई मिट्टी-सा गहरा बादामी रंग और
कच्चे-पक्के बालों का पॉनी टेल। कुल मिला कर एक बेहद बलिष्ठ और अराजक
व्यक्तित्व! आगंतुक ने शायद उसका सहमना और बिदक कर जरा दूर सरक जाना गौर किया
था। हँस कर थोड़ा और फैल कर बैठ गया था - रिलैक्स! आई एम हार्मलेस! उसकी बात से
दूर्वा सहज होने की कोशिश करती हुई फिर से पानी की ओर देखने लगी थी - कितनी
अद्भुत है यह नदी! इतने रंग... वाकई दुनिया की सबसे सुंदर नदी है यह - द
लिक्वीड रैनबो!
"हूँ!" वह अजनबी धीरे-से सर हिलाया था - "यह जवान दिखती नदी वास्तव में कितनी
पुरानी है - समय की तरह ही - कोई सबा अरब साल पुराने हैं इसके तल पर बिछे
पत्थर!"
सुन कर दूर्वा हैरत से अपनी आँखें फैलाती है - "फैसिनेटिंग! मगर इसमें एक भी
मछली, कोई गंदगी नहीं! बस शैंपेन-सा चमचमाता पानी और रंग भरे पौधे..."
"यह नदी तकरीबन 420 तरह के पंछियों की प्रजातियों, 10 तरह के एंफिबियन्स और 43
तरह के रेप्टाइल्स के जीने का आधार है! नदी हो और वह जीवन को ना सींचे... संभव
है क्या!" कहते हुए उस आदमी ने एक सिगार सुलगाया था - हवाना सिगार! तेज खूशबू
और गहरा मटमैला धुआँ - "मैं मजाज!"
उसके बढ़े हुए हाथ को नजरअंदाज करते हुए दूर्वा ने मुड़ कर पश्चिम की ओर देखा था
- "दूर्वा! दूर्वा सक्सेना!"
यह डोना कहाँ रह गई! डोना उसके साथ है। यहीं - कोलंबो की रहने वाली। पिछले साल
ब्राजील के कार्निवाल में मिली थी। सुनहरे मुखौटे के पीछे से झाँकती उसकी
नीली, मटमैली आँखों में जाने क्या सम्मोहन था, दूर्वा उसकी ओर खिंची चली गई
थी। भाषा, रंग, नस्ल उनके बीच नहीं आ पाई थी। डोना स्पैनिश, नेटिव और
टूटी-फूटी अँग्रेजी बोलती थी। बेहद संवेदनशील और उदार! दो आँखों में सारा दिल
लिए। हर क्षण धड़कती हुई-सी। छोटी-छोटी बातों में हँसती, रोती, उदास होती
हुई... एक्जोटिक व्यक्तित्व - यहाँ के इन सघन जंगल, पहाड और नदियों की तरह ही।
एक गझिन, हरा रहस्य! मीलों पसरा हुआ... वह जी कैसे गई इस ड्रग, गोरिल्ला
युद्ध, गृह युद्ध की हिंसक, बर्बर दुनिया में! उसकी बात सुन कर डोना के गालों
के डिंपल्स गहरे हो जाते हैं - मेरी तबियत की नर्माहट शायद काम आ गई। गेंद को
नहीं देखती - जितनी जोर से फर्श पर दे मारी जाती है उतनी ही ताकत से बाउंस बैक
करती है! कठोर होती तो टूट जाती! वह जांबोस जाति की है, काले गुलामों और यहाँ
के आदिवासियों की संतान! उसके चेहरे और त्वचा में उसके दोनों पूर्वजों की झलक
है। अद्भुत है उसका रूप! समन्वय, सौहाद्र और प्रेम से रचे गए इनसान शायद ऐसे
ही होते हैं - सुंदर और अनोखे! डोना के व्यक्तित्व में जितनी उदासी है, उतनी
ही मात्रा में हँसी और संगीत भी। जिस्म के हर पोर में जैसे लय और थिरकन भरी
हो! कब आहें भरती है, कब गुनगुनाती है, दूर्वा थाह नहीं पाती। उसके हर सवाल का
जवाब डोना के वही मुस्कराते हुए गहरे डिंपल्स होते - यह गीत-संगीत क्या है, मन
की साध, अतृप्ति, अभिलाषाएँ ही तो... जब मनुष्य रो नहीं पाता, गाता है... ये
दुनिया के उत्सव और कुछ नहीं, टूटे सपनों का मातम है!
उसकी बातें दूर्वा को किसी जोगन की याद दिलाती है। कोलंबिया की ये जोगन- जींस
के हॉट पैंट और स्पोर्ट्स ब्रा मे, चिचा पीती हुई! नशे में उसकी आँखों की धूसर
नील पुतलियों में हल्की लाली-सी घुल जाती है। एक बार उसने ही हँसते हुए कहा था
- होगा कोई गोरा चोर, प्रेम के आखेट में किसी काली औरत की देह में चुपके से
सेंध मार गया होगा! उसी की नीली आँखें सदियों से हमारी रगों में दौड़ रही हैं!
एक पल की चोरी की सजा कितनी लंबी... दूर्वा! कुछ चोरियाँ कभी छिपती नहीं, खास
कर प्रेम में की गई चोरियाँ। हवा में होती है उनकी गंध। सात तालों में बंद कर
रखो, सब पर जाहिर हो जाती है...
वह हर बात को कविता बना देती है। मकई, चीनी और मधु को उबाल कर देशी शराब चीचा
बनाती हुई उस दिन डोना अपनी रौ में लगातार बोलती रही थी - जानती हो दूर्वा! यह
शराब हमारे यहाँ 1948 में बैन कर दी गई थी। गर्मी के मौसम में अगर ताजी पी गई
तो अच्छी वर्ना फर्मेंट की हुई बहुत स्ट्रोंग हो जाती है। यह लोगों को हिंसक
बनाती है और उत्तेजित भी।
उस दिन डोना के घर दूर्वा का वह पहला दिन था। डोना उसे जबर्दस्ती होटल से अपने
घर ले गई थी, सामान समेत - जानती हो, यहाँ होटलों में किसी विदेशी औरत का
अकेली रहना कितना खतरनाक है! शाम के सात बजे के बाद कभी गलियों में अकेली मत
निकलना। अपने पासपोर्ट, जरूरी कागजात तो सम्हाल कर रखे हैं ना?
डोना अनाथ बच्चों के लिए एक एनजीओ चलाती है। एक बहुत पुराने और परित्यक्त चर्च
के पिछले हिस्से में उनका ऑफिस था। साथ कुछ कमरे और लंबी बारादरियाँ।
तीस-चालीस बच्चे और कुछ अन्य कर्मचारियों में सिमटी थी उसकी दुनिया। डोना को
देख कर उसने जाना था, नीयत हो तो कितने भी सीमित साधन और सुविधा में इनसान
दूसरे के लिए बहुत कुछ कर सकता है, छोटे-से छोटे हिस्से का भी एक और हिस्सा
निकाल कर किसी को दे सकता है। देने से कभी कुछ कम नहीं होता, ये तो हमारा
जोड़ना है जो हमें किसी अर्थ में बहुत गरीब कर देता है।
डोना जैसी शख्सियत को देख कर उसे ख्याल आया था, होने को उसके पास भी सब कुछ था
मगर वह आजीवन अभाव से भरी रही। पिता की अथाह दौलत भी उनकी उदासीनता और सौतेली
माँ के हृदयहीन व्यवहार की भरपाई नहीं कर पाई। जीवन में जिस दिन प्रेम का पहला
संकेत मिला वह उसी दिन उसकी उँगली पकड़ कर अपने ऐश्वर्य की प्राणहीन दुनिया से
बाहर निकल आई... मगर वह भी बस एक मृग मरीचिका ही थी, यह बात वह बहुत बाद में
समझ पाई थी। इतनी देर से कि तब तक लौट जाने के सारे रास्ते उसके लिए बंद हो
चुके थे। वह रिश्तों की दुनिया में महज एक रिफ्युजी बन कर रह गई थी!
"आपकी दोस्त पीछे की ढलान में है, पहाड़ की दीवार से लगे रेड मकाउ (लाल तोते)
के झुंड को देख रही हैं।" उस आदमी ने जिसने अपना नाम मजाज बताया था, उसे
इधर-उधर देखते हुए देख कर कहा था।
दूर्वा उठ कर खड़ी हो गई थी - "जी! उसे पंछी बहुत पसंद हैं, मुझे भी!"
"तब तो आप पंछियों की दुनिया में ही आ गई हैं!" किनारे पर रखे अपने कैमरे को
उठाते हुए उसने कहा था - "कहते हैं, यहाँ सतरह हजार पंछियों की प्रजातियाँ पाई
जाती हैं, पूरे दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले पंछियों का लगभग आधा!"
"अच्छा!" सुन कर दूर्वा को दिलचस्प लगा था। "अपको यहाँ की हर बात आँकड़ों के
साथ मालूम है!"
"जी क्या करूँ, अपना प्रोफेशन ही ऐसा है - फोटो जर्नलिस्ट हूँ। और आप... शायद
कोई पेंटर, कवि या ऐसी ही किसी प्रजाति की... नहीं?"
बात करते हुए दोनों पिछले ढलान की ओर बढ़ने लगे थे। मजाज के सवाल से वह यकायक
चौंक कर रुक गई थी - "आपको कैसे पता... कि मैं पेंटर हूँ!"
मजाज रुका नहीं था, चलते-चलते उसकी तरफ मुड़ कर देखा भर था - "आप नदी को देख
नहीं रही थीं, आँखों से पी रही थीं, उसके साथ एकसार हो गई थीं... और आपके ये
गंदे नाखून... रंगों के धब्बों से भरे उँगली के पोर..."
सुन कर दूर्वा झेंप गई थी। कल ही आश्रम के बच्चों को एक एक्रेलिक पैंटिंग का
डेमो दिया था... ये बुरी आदत छूटती नहीं उसकी, कॉलेज के दिनों में कितनी डाँट
पड़ती थी इसके लिए! वह लगभग दौड़ते हुए मजाज के साथ हो ली थी - "हाँ! तभी तो इस
रंगों की नदी के सम्मोहन में दुनिया के दूसरे हिस्से से खिंची चली आई हूँ...
ये नदी सालों से मेरे सपनों में आ कर मुझे बुलाती रही है..." अनायास इतना कुछ
एक साथ बोलते हुए उसने महसूस नहीं किया था कब वह उससे सहज हो गई है।
मगर मजाज ने यह महसूस किया होगा तभी आत्मीयता से मुस्कराया था - "यह मुझे भी
बुलाती है, या यूँ कहे दक्षिण अमेरिका का यह पूरा हिस्सा! एमाजोन के सघन, आदिम
रेन फॉरेस्ट, पेरू, ब्राजील, वेनेजुयेला, इक्वेडोर, बोलिविआ, गुयेना...
कोलंबिया! जितनी हिंसक और खतरनाक है यह दुनिया उतनी ही सुंदर और उत्तेजक भी!
इसके पोर-पोर में नशा भरा हुआ है, सम्मोहन है। यहाँ कोई आए और इसका दीवाना ना
हो जाय यह संभव नहीं। आज पाँच साल से हर साल यहाँ आ रहा हूँ। इतनी तस्वीरें
ली, मगर अब तक इस जमीन के सौंदर्य और रहस्य को अपने कैमरे में पूरी तरह कैद
नहीं पाया! जाने क्या है जो हर बार हाथ आते-आते छूट जाता है। अजीब किस्म की
निराशा है यह, कह कर समझाना मुश्किल। शायद इसी को क्रियेटिव ऐंजाइटी कहते हैं!
यह जमीन बुलाती है, भुलाती है और बरगलाती भी है..." कहते हुए वह बेचैन हो कर
सिगार के लंबे-लंबे कश खींचता है। हवा में बेसुध करने वाली मर्दानी खुशबू फैल
जाती है। दूर्वा साँस लेने से बचने की कोशिश में और गहरी साँस लेती है, पेट के
तल में तितलियाँ तैर आती हैं...।
"मगर कब तक यह बनैला सौंदर्य, जंगल की कुँवारी दुनिया... हर साल यहाँ के लाखों
पेड़ हलाक करके ना जाने कितनी जमीन नंगी की जाती है, इसकी हरियाली पर
सीमेंट-कंक्रीट पोता जाता है। मुझे डर है, दुनिया के 20% ऑक्सीजन बना कर 'लंग
ऑफ प्लानेट' कहलाने वाले ये सदाबहार जंगल एक दिन खुद साँस-साँस को मोहताज ना
हो जाएँ!"
मजाज की बातें सुनते हुए जाने क्या अनायास घटा था उसके भीतर। लगा था, किसी को
जानने के लिए उसे पहचानना जरूरी नहीं। जैसे ये मजाज! कुछ है उसमें जो बहुत
पहचाना, आत्मीय-सा है, एक तरह से आश्वस्त करता हुआ! वह भी इस जमीन-आसमान के
अबोले दुख को समझता है।
वे अच्छे दोस्त हो सकते हैं... वह मजाज से यह बात कह नहीं पाती मगर जानती है
कि मजाज भी इस बात को महसूस कर रहा होगा। मजाज रुक कर एक उड़ते हुए हँस के जोड़े
की तस्वीर लेता है - "ब्लैक नेक्ड स्वान! जानती हैं, ये हँस मुझे क्यों इतने
प्यारे लगते हैं? बहुत वफादार होते हैं ये। जोड़ी टूटने पर अकेले जी नहीं
पाते..." ये बातें जाने उसने कैसी आवाज में कही थी। जैसे किसी गहरे खोह में
घुटी हुई हवा का एक झोंका! दूर्वा को लगा था, दर्द से उसका भी कोई पुराना
वास्ता रहा है। उसका ये भटकाव बेमानी नहीं! उसकी तरह वह भी भीतर से बंजारा
है...!
तस्वीरें लेते हुए मजाज की पसीने से भीगी हुई चौड़ी पीठ की तरफ वह अनमनी-सी
देखती रही थी - कब कहाँ कौन मिल जाता है... दोपहर का सूरज माथे पर है, उमस
अपने चरम पर। नदी की सतह से भाप-सा उड़ रहा है। सी लेवेल पर यह जगह बहुत गर्म
है। मगर जैसे-जैसे ऊपर जाते हैं, तापमान गिरता जाता है। अजीब लगता है नदियों
की गर्म भाप उड़ती वादियों में खड़े हिम आच्छादित पर्वतों को देखना। विसंगतियाँ
अद्भुत सौंदर्य रचती है जीवन में!
"कितनी अनोखी है यह दुनिया, कितनी विस्मयकारी... देख-सुन कर चकित रह जाता
हूँ..." उसकी सोच से अनजान मजाज जैसे खुद से ही बात करता है - "ये मासूम-से
परिंदे... इनके बारे में जान कर समझ आता है, कुदरत के डी एन ए में ही हिंसा
है, एक जन्मजात घृणा! कभी थमेगी कैसे! निर्माण के साथ ध्वंस का अमर बेल सृष्टि
की देह में शिरा, उपशिरा, कोशिकाओं की तरह अनवरत फैलता रहता है... कभी खुद को
ही महसूस कर देखिए... और फिर जैसे जागते हुए-सा उसकी ओर मुड़ता है - "एक
छोटी-सी गीत गाने वाली गार्डन चिड़िया होती है चिकाडीस! गौरैया से भी छोटी।
खुशरंग और नाजुक! मगर यह शीत ऋतु में अपने कोटरों में सोते चमगादड़ों को बेरहमी
से चोंच मार-मार कर लहूलुहान करती हैं और फिर उन्हें बाहर ला कर खाती हैं! इसी
तरह अर्जेंटिना के समंदर पर मँडराने वाले 'सीगल' भी व्हेलों को पानी की सतह पर
नोच-नोच कर खाते दिख जाते हैं! फिर वे शाम की सुनहरी धूप में अपने सफेद, लंबे
डैने भिगो कर समुद्र, आकाश और हवा का प्रेम गीत गाते हैं, मौसम की भीगी देह पर
नीली उदासी का रुमान रचते हैं..." बात के अंत तक आते-आते मजाज की आवाज में
गहरा तंज घिर आया था। सुनते हुए दूर्वा ने अपने जिस्म में अनायास उग आते
काँटों को महसूस किया था। ओह! कितना भयानक होता होगा यह सब कुछ! उसने सामने की
एक झाड़ी में चहकती हुई चिड़ियों को डरी हुई आँखों से देखा था - क्या ये भी वैसी
ही निर्मम हत्यारिन हो सकती हैं! दूसरे ही क्षण उसने अपनी आँखें फेर ली थी -
किसी की फितरत उसके चेहरे पर कहाँ लिखी होती है...!
मजाज ने दूर्वा के चेहरे पर फैली दहशत को देखा था और फिर शायद बात बदलने के
लिए सहज हो कर बोला था - "आप डर गईं! नहीं, मैं इन बेजुबानों को बदनाम नहीं
करना चाहता। रात के दूसरे हिस्से में हमेशा सबेरा होता है... हिंसा के साथ दया
और घृणा के साथ प्रेम... ये बात और है कि इनकी मात्रा में अक्सर संतुलन नहीं
होता। जानती हैं, हिंदुस्तान के हॉर्न बिलस जो देखने में टौकान और वुड पेकर के
बीच का कोई पंछी लगता है, अपनी मादा को अंडे देने के समय पेड़ के कोटर में रख
उसका मुँह मिट्टी, पंछियों के बीट और तिनकों से बंद कर देता है। इसके बाद वह
तब तक अपने परिवार को कोटर के मुँह पर बने छोटे सुराखों से खाना ला कर खिलाता
रहता है जब तक उनके बच्चे उड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।"
उसकी बात सुनते हुए दूर्वा के भीतर अनायास एक गुबार-सा उठा था - "ये प्रेम
है?" "अब आप जो कहें... "मजाज ने अपने कंधे उचकाए थे - "सुरक्षा के लिए और...
" "और...?" इस बार पूछते हुए उसकी देह की सारी शिराएँ झनझनाने लगी थी। वह
जानती है नर के इस व्यवहार के पीछे का मनोविज्ञान! क्या पंछी, क्या मनुष्य!
मजाज ने उसकी सोच को अनायास शब्द दिया था - "अपनी मादा को बेवफाई करने से
रोकने के लिए भी..."
"तो वफा ऐसे वसूली जाती है..." दूर्वा की आवाज बुदबुदाहट में तब्दील हो गई थी।
कैसी अभिशप्त है वह! स्वर्ग के इस हिस्से में खड़ी हो कर भी उसे इस समय अपना
नरक याद आ रहा था - कोठी की ऊँची दीवारें, बरामदे में रात-दिन गुर्राते ग्रेट
डैन कुत्ते और कबीर की वे हिकारत भरी आँखें... उसका मन, चाहना, न चाहना कभी
किसी के लिए कोई मुद्दा नहीं रहा। सब पर पहरा, सब पर राशन - साँसों पर, सपनों
पर... खिड़की की सलाखों के पीछे का टुकड़ा-टुकड़ा आकाश उसकी साँसों में फाँस डाल
देता था। अक्सर वह खुद से कहती - उसे सारा आकाश चाहिए! मगर कबीर हर रात उसके
सीने पर सवार हो कर कहता - "बहुत हो गया तुम्हारा पागलपन! अब अपनी औकात में
रहो!" क्या है उसकी औकात! वह ईजेल पर चढ़ी अपनी अधूरी पेंटिंग्स से पूछती।
रंगों के गूँगे धब्बे स्तब्ध पड़े रहते।
कई बार कबीर किसी पपी की तरह उसका सर सहलाते हुए कहता, "काश अपने इस पागलपन
में वैन गो की तरह तुम भी कुछ अच्छा रच पाती!" सुन कर उसके भीतर कुछ सड़ने
लगता। उसकी जान ले लेने की अपनी हत्यारी इच्छा के बीच लफ्जों में पर्याप्त
नर्माहट घोल कर वह कहती, "मुझे दुनिया देखनी है कबीर! किसी पैकेज टूर पर नहीं!
हिप्पियों की तरह! बंजारों की तरह! बस झोला उठा कर चल पड़ेंगे, जिधर आँख जाएगी!
"अच्छा!" कबीर होंठों ही होंठों में मुस्कराता। "हाँ!" वह अपनी उछाह में कहती
जाती - "समंदर पर होती बारिश देखेंगे, पूरे चाँद की रातों में ताजमहल... सुना
है, अनारकली अब भी अपने सलीम के लिए शाही दरबार में रक्स करती हुकूमत को
ललकारती फिरती है! आधी रात छनाके से टूट कर बिखरते उसके घुँघरू की आवाज से सोए
परिंदे जाग जाते हैं..." उसकी उजली आँखों की ओर देखते हुए कबीर के होंठ परिहास
में अब पूरी तरह फैल जाते - "तुम वास्तव में पागल हो!"
कबीर के जाने के देर बाद तक वह अपनी रंग से लिथड़ी हथेलियों के छापे आईने पर
डालती हुई उसके शब्द दोहराती रहती - "तुम वास्तव में पागल हो मिस दूर्वा!
कैनवास पर मचे ये रंगों के दंगे दरअसल तुम्हारे भीतर का उन्माद है...! तुम
बिना सरहदों की एक दुनिया चाहती हो... यहाँ हर बात की एक हद होती है!"
लोग कहते हैं, कलाकार समय की नब्ज पकड़ता है। समझता है मौन की भाषा! हवा, धूप,
जल में समाहित अमूर्त जीवन को मूर्त रूप देता है, प्राण प्रतिष्ठा करता है
प्रकृति के सारे पवित्र तत्वों में - ठीक किसी पुजारी की तरह! मगर... वह तो बस
पागल है! ना बसंत उसके वश में है ना पतझड़ उसकी जद में। सिर्फ ढेर-से रंग हैं
और हैं कुछ अबूझ इच्छाएँ - शृष्टि को प्यार की नर्म उँगलियों से रचने की,
इंद्रधनुष में बुनने की... ठीक दुनिया के एक कोने में बहने वाली इस नदी की तरह
- 'द लिक्वीड रेन्बो'!
अपने अतीत में डूब कर वह अपने आस-पास से एकदम असंपृक्त हो आई थी, जाने कितनी
देर तक के लिए। मजाज ने शायद उसे जगाने की कोशिश की थी - "अच्छा ये नदियाँ
जानती हैं, समंदर इनकी पहचान लील जाएगा, फिर भी उसी की तरफ क्यों दौड़ती जाती
है! देखिए इस नदी को, दुनिया की सबसे अनोखी नदी है, मगर अपने सारे रंगों के
साथ बेतहाशा भाग रही है, उसे खुद को खो देना है। खत्म कर देना है गुआयाबेरो
नदी की बाँहों में... एक आत्महंता दौड़!" बातों के बीच मजाज उसकी ओर लौट आया था
- "आप औरतें भी कुछ-कुछ ऐसी होती हैं - इन नदियों की तरह... किसी दूसरे में
होना आप लोगों के लिए अपने होने से ज्यादा जरूरी क्यों होता है!"
"आपने ठीक समझा!" दूर्वा ने खुद को सहेजा था - "औरतें इन नदियों की तरह होती
हैं, मगर वे अपनी पहचान खोने के लिए नहीं, दूसरों को पूर्ण करने के लिए खुद को
देती हैं। उसका ना होना हर होने को अर्थ देता है, इस श्रृष्टि के डीएनए में वह
है, क्या करें, उसका अधूरा रहना दुनिया के मुकम्मल होने के लिए बहुत जरूरी
है।"
"आप हिंदुस्तान से हैं ना? हूँ... ये फलसफा और कहाँ!" मजाज के चेहरे पर दोपहर
का सूरज पिघल रहा है। कॉटन की खाकी शर्ट कंधे पर तरबतर। उसकी देह से उठती
सिगार और पसीने की गंध हवा को अलस बना रही है। दूर्वा अनमन हो उठती है - ऐसी
ही एक दोपहर, काजीरंगा का हरहराता जंगल और वह फॉरेस्ट डिपार्टमेंट का छोटा-सा
डाक बंगला... शादी के बाद वे पहली बार बाहर निकले थे, हनीमूननुमा उस यात्रा
पर। बँसवाड़ी में छिप कर निरंतर बोलता घुग्घू, गर्म, तेज हवा में उड़ते सूखे
पत्ते और नींद, आलस्य में ऊँघता सारा जंगल... वह दोपहर अपनी उमस, एकांत और
आदिम, वन्य इच्छाओं के साथ आज भी उसके भीतर जीवित रह गई है, जाने क्यों! एक
गहरे धँसा काँटा जो रह-रह कर कसक उठता है।
खुद से परे होने की कोशिश में वह कुछ दूर नदी में बने दो विशाल कुंडों के बीच
की छोटी-सी पत्थर की पुलिया पर जा खड़ी होती है। चारों तरफ से रंगीन पानी रेशमी
पर्दे की तरह लहराते हुई नीचे गिर रहा है। नीचे पानी की सतह पर धूप में दमकते
लाखों सतरंगी बुलबुले और झाग। तेज पछाड़ की धमक और गूँज... गुफा की दीवारों पर
धूप की काँपती, उड़ती चमकदार तितलियाँ। वह इस पूरे परिदृश्य को अपने भीतर
समेटने के लिए एक बार फिर अपनी आँखें बंद करती है - यह उसकी दुनिया है, हजारों
जाने-अनजाने रंगों की दुनिया... लाल, पीला, हरा, नीला, काही, बासंती,
सुनहरा... प्रकृति की कलापी में घुले हुए रंगों का मेला! इस जादुई नदी के बीच
जाने कितने सारे विशाल गड्ढे हैं जिन्हें 'जाएंट केटेल' कहा जाता है। इनमें जब
सख्त पत्थर के टुकड़े गिरते हैं और बहाव के साथ तेज गति से घूमते हैं तो ये
गड्ढे और गहरे होते जाते हैं। कुदरत के यह अनोखे खेल... वह हर क्षण हैरान हो
रही है। उसे यहाँ की दूसरी नदियाँ - मैगडालेना, काउका, गुआविआरे... भी देखनी
है। उसने यहाँ आने के लिए महीनों इंतजार किया! कुदरत की यह होली ग्रीष्म ऋतु
में ही शुरू होती है जब सूरज की गर्म किरणें 'माकारेनिआ क्लाविजेरा' नामक पौधे
को सुखा देती है और नदी का तल तरह-तरह के रंगों से रँग जाता है, खास कर लाल
रंग! इतने तेज बहाव में कैसे ये सूखे पौधे पत्थरों से इस तरह चिपके रह जाते
होंगे! जिजीविषा! और क्या... हजार मौत के बाद भी जीवन इसी लिए तो बना हुआ है!
"अब अपने ध्यान से बाहर निकलो जोगन, जल समाधि लेने का विचार है क्या?" जाने कब
डोना लौट आई थी और अब मजाज के बगल में खड़ी उसे देखते हुए मुस्करा रही थी।
"काश!" डुर्वा झेंपी-सी मुस्कराती है - "और तुम! मुझे लगा पंछियों के घोंसले
में तुम भी जा कर बस गई! तब की गई अब आ रही हो! कहाँ थी?"
"बसने का मन तो था मगर बदमाश तोतों ने चोंच मार-मार कर भगा दिया। वे इनसानों
पर भरोसा नहीं करते..."
"करे भी क्यों!" मजाज ने दूसरा सिगार सुलगा लिया था - "इनसान उनके छोटे-से
आशियाने में भी सेंध लगाने पहुँच जाते हैं! कितना बड़ा पेट है उनका कि सारी
दुनिया निगल कर भी भरता नहीं!"
"पोचरों ने एक-एक घोंसला नोंच डाला है! हजारों एक्जॉटिक पंछियों की तस्करी हर
साल होती है। आलू-प्याज की तरह इन बेजुबानों को बोरियों में ठूस कर ले जाते
हैं। रास्ते में ही आधे से अधिक दम तोड़ देते हैं!" बताते हुए डोना के चेहरे की
मुस्कराहट खो गई थी। यह टॉपिक उसे हमेशा संजीदा कर देती है।
दूर्वा पुलिया से बाहर निकल आई थी - "काश हम यहाँ कैंप लगा सकते! रातें यहाँ
खूबसूरत होती होगी ना!"
"खूबसूरत नहीं, डरावनी! सारे रंगों में स्याही घुल जाती है, हवा चुड़ैल की तरह
खिलखिलाती फिरती है, लहरें बहसी जानवर की तरह चिंघारती है!" कह कर डोना कुछ
देर खुद ही हँसती रही थी फिर गंभीर हो कर बोली थी - "नहीं! केनो क्रिसटेलस में
कैंपिंग की इजाजत नहीं। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए खराब मौसमों में इधर
सैलानियों को भी आने नहीं दिया जाता।"
"बहरहाल! यहाँ तक का सफर भी कम रोचक नहीं। विलाविसेन्सिओ से एक कारगो प्लेन से
माकारेना फिर बोट से यहाँ। मगर दिक्कत यह है कि सिर्फ रविवार को आता है यह
कारगो जहाज और शुक्रवार को लौट जाता है। आप लोग भी ऐसे ही आए होंगे!" एक विशाल
पीले चोंच वाले टौकान पंछी पर अपना लेंस फोकस करते हुए मजाज ने कहा था। इस समय
सूरज उसके सामने दूर तक उतर आया था और एक सुनहरे फ्रेम में उसका पूरा जिस्म
घिर गया था।
दूर्वा डोना के बगल में बैठ गई थी - "सूरज पीला पड़ रहा है, दिन अपने ढलान पर
है..." कहते-कहते वह रुक गई थी। उसे दो दिन पहले देखी डोना की वे भयातुर आँखें
याद हो आई थीं जो मोमबत्ती की पीली रोशनी में थरथराती हुई काँच की तरह
पारदर्शी और तरल दिख रही थीं। उस दिन रात की प्रार्थना के बाद जब अनाथाश्रम के
सारे बच्चे सो गए थे, डोना उसे चर्च के दक्षिण वाले हिस्से में ले गई थी। टूटे
खंडहरों के बीच कुछ कमरे साबुत थे जिनमें खंडित मूर्तियों के साथ तरह-तरह के
सामान भरे हुए थे। इधर बिजली नहीं थी। आसमान में कृष्ण पक्ष का फीका चाँद था
और डोना के हाथ में मोमबत्ती। दीवारों पर पड़ती पीली रोशनी में नाचती परछाइयों
के बीच डोना कितनी अजीब लग रही थी, किसी देहातीत स्वप्न या धूसर रुह की तरह -
"मुझे रातें डराती हैं दूर्वा! भयानक परछाइयाँ मुझे घेर लेती हैं। सारे इनसानी
चेहरे जानवरों में तब्दील हो जाते हैं... वे मुझे घेर कर मेरे जिस्म को
भँभोरते हैं... कहते-कहते उसकी आँखें फैल जाती हैं - तुम नहीं जानती, दिन के
उजाले में सारे जानवर इनसानी मुखौटों में छिपे रहते हैं मगर जब अँधेरे का आसेब
जमीन पर उतरता है, सारे शैतान एक-एक कर जग जाते हैं और फिर शुरू होता है
प्रेतात्माओं का खेल..." सुनते हुए दूर्वा के रोंगटे खड़े हो गए थे। उसने बढ़ कर
डोना की बाँह थाम ली थी।
डोना ने उसे बताया था, बचपन में उसके सौतेले बाप ने लगातार उसका बलात्कार किया
था। वह किसी गुरिल्ले दल का सदस्य था। उसकी माँ का इस्तेमाल भी उस दल के
द्वारा ड्रग आदि पहुँचाने के लिए किया जाता था। वे खूँखार माफिया रात-दिन की
लड़ाई के बाद थोड़ी नींद, भोजन और देह के तकाजे में अपने-अपने आस्ताने की ओर
लौटते थे। बंधुआ मजदूर-सी ये औरतें उनका खाना बनाने, गंदे कपड़े धोने और जिस्म
की भूख मिटाने के काम आती थीं। वे इनसान भी हैं, इस सवाल ने कभी किसी को
परेशान नहीं किया।
यहाँ की लाखों औरतों की तरह ही डोना और उसकी माँ का भी हाल था - हर तरह से
सताई और बेबस! बेजान सामान की तरह यहाँ-वहाँ फेंकी जाती हुई। डोना को याद है,
कई बार उसकी माँ की आँखों के सामने ही उसका सौतेला बाप उसे कमरे में घसीट लेता
था। उसकी माँ उसे बचाने आती थी और बेरहमी से पिटती थी। उसके बाद सारी रात
माँ-बेटी एक-दूसरे से लिपट कर रोती थीं। डोना को आज भी गहरी रातों में अपनी
देह पर माँ के खुरदरे हाथों का स्पर्श अनुभव होता है। वह उसके जीवन का सबसे
बड़ा सुख था! कहते हुए डोना रोते-रोते मुस्कराने लगती थी। तब उसका चेहरा कितना
अजीब लगता था! कुछ हद तक डरावना!
"एक दिन मेरे सौतेले बाप ने मुझे एक देह की मंडी में बेच दिया था, सिर्फ इसलिए
कि उस दिन उसके पास शराब के लिए पैसे नहीं थे। तब मैं ग्यारह साल की थी..."
डोना के गहरे साँवले चेहरे पर पत्थर बनती धूसर नील आँखों में उस समय कुछ नहीं
था, एक अजीब-सा सन्नाटा, किसी मरघट की तरह। वह देखती है और सिहरती है। "एक
आबनूसी देह का विशाल दैत्य मुझे खींच कर ले जा रहा था और मेरी माँ चुपचाप देख
रही थी। उस समय उनकी आँखें किसी जिबह की जाती हुई जानवर की तरह थी - लाल और
डबडबाई हुईं! मेरे सौतेले बाप ने पीट कर उस दिन उनका बायाँ हाथ तोड़ दिया था।
तेज बुखार में जल रही थी वह। हिलने-डुलने में भी असमर्थ! माँ की आँखों पर नजर
पड़ते ही मैं चीखते-चीखते एकदम से चुप हो गई थी - मैं इससे अधिक दुख उन्हें दे
नहीं सकती थी, इसलिए अपना आतंक, दर्द सीने में भींच लिया था! डोना की तेज
साँसों से एक समय मोमबत्ती बुझ गई थी। नीले अंधकार में देर तक बची रह गई थी
धुएँ की गंध और डोना की घुटी-घुटी हिचकियाँ - "मुझे मेरी माँ के पास जाना है
दूर्वा... मैं उन्हें रोज ढूँढ़ती हूँ।" डोना की थरथराती देह को अपने शरीर से
लगाए उस दिन वह उस टूटे हुए प्राचीन चर्च के अहाते में जाने कब तक खड़ी रही थी।
अनाथाश्रम के भीतर कोई छोटी बच्ची रह-रह कर नींद में रो उठती - माँ... तो ठहरे
हुए सन्नाटे में दरार-सी पड़ जाती।
"औरतों का जीवन तो दुख का होता ही है, मगर काली औरतों के दुखों का तो कोई अंत
ही नहीं। ऊपर से गुलाम! उन्हें रौंदना, कुचलना, भोगना हर गोरे के अख्तियार में
था। दस-बारह साल की एक काली बच्ची बलात्कार या वेश्यावृत्ति के लिए बूढ़ी मानी
जाती, ना जाने कितनी बार वे गर्भवती होती और कितनी बार उनका हमल गिराया जाता।
कोलंबिया में 1850 में दास प्रथा कानूनी रूप से खत्म किया गया... दूर्वा की
बात सुन कर डोना हँसती है - "सब कहने की बात है! स्कूल की किताबों में पढ़ाई
जाने वाली! सच तो यह है कि गोरे आज भी मालिक हैं और हम गुलाम! इनसान का पहनावा
बदला है, फितरत नहीं! डोना की बातें सुनते हुए दूर्वा को चार्ल्स डिकेन्स,
विलियम ब्लेक की रचनाओं में पढ़ी गुलाम बच्चों की तकलीफें याद आती हैं। ये
बच्चे दुनिया के हर कोने में पाए जाते हैं - ब्राजील के रेड लाइट एरिया में,
थाईलैंड के बाजारों में, कोलकाता की गलियों में, गोवा के समुद्र तटों पर...
कहीं सैलानियों की मालिश कर रहे हैं, कहीं अपंग करके भीख मँगवाए जा रहे हैं तो
कहीं ईंट-पत्थर ढो रहे हैं। बंधुआ मजदूर, सेक्स वर्कर, भिखारी... कुछ दिन पहले
ब्राजील के व्यापारियों ने उनकी दुकान और बाजार का सौंदर्य खराब करने के जुर्म
में फुटपाथ पर सोने वाले अनाथ, भिखारी बच्चों को गोली से भुनवा दिया था।
डोना की संस्था का बूढ़ा चपरासी मैल्कम शाम को रम के नशे में गिटार बजा कर गाता
है - "नो ले पेक ए ला नेगरा..." (डोंट बीट द ब्लैक वुमन) कार्टाजेना-कोलंबिया
का सोलहवीं सदी का एक गीत - प्रसिद्ध गायक जो एरोयो का गाया हुआ। जो एरोयो इसी
प्रदेश से था। गीत में जाने कैसा दर्द था। पूरी तरह ना समझ कर भी दूर्वा का मन
भर आता था। संगीत शब्दों से परे जा कर संवेदना को छूता है, वह भाषा का मोहताज
नहीं - अनपढ़ मैल्कम की इस बात से वह इनकार नहीं कर पाती।
कोलंबिया के संगीत में स्पैनिश, कोलंबिया, अफ्रिकन और यहाँ के आदिवासी संगीत
का प्रभाव है। बढ़ते हुए नशे के साथ अपने आँसू पोंछते हुए मैल्कम उसे बताता -
"कोलंबिया इसी तरह का एक संगीत है जिसमें गीत के साथ नाचते हुए, गुलाम किस तरह
जजीरों में जकड़ कर रखे जाते थे, का वर्णन किया जाता है। तुम देखोगी तो
तुम्हारी आँखें फट कर आँसू बहेंगे सिनोरिटा! ओह! आजादी! इससे बड़ी कोई नियामत
नहीं!" रम की पूरी बोतल खत्म कर मैल्कम घोड़ों के अस्तबल में सूखी घास की ढेर
पर लुढ़क जाता। सुन कर दूर्वा अपने भीतर एक बहुत बड़ा अँधेरा समेट कर चुपचाप उठ
आती है - आजादी...!
इसी आजादी के लिए तो वह छोड़ आई थी एक अमीर पति, अपना अजन्मा बच्चा! जिस बच्चे
की चाह उसके हृदय को मथ डालती थी, उसके आने का समय उसके मुताबिक तब तक आया
नहीं था। एक गुलाम अपने बच्चे को क्या दे सकता है विरासत में, बेबसी और घुटन
के सिवाय! वह अपने बच्चे के लिए ताजी हवा और आकाश के संधान में निकली थी। जब
तक उसकी तलाश खत्म नहीं होती, इस बच्चे को रुकना पड़ेगा... रुको मेरे बच्चे...
माँ जल्द तुम्हें लेने आएगी... अक्सर अपने ख्यालों में दूर्वा दो छोटी-छोटी
गुलाबी हथेलियों को अपने गाल से सटा कर सिसकते हुए कहती है। वक्त किसी के लिए
ठहरता नहीं, मगर सही वक्त के लिए उसे तो ठहरना ही पड़ेगा! उम्र की सलवटों को वह
अपने जिस्म पर गहराते हुए देख रही है। समय उसके भीतर से रोज कुछ ना कुछ खोद कर
ले जा रहा है, वह छीज रही है रेशा-रेशा।
"हर जगह तुम समाधि लगा कर बैठ जाती हो दूर्वा! सोचने की बीमारी है तुम्हें!"
डोना उसके हाथ में सिल्वर फॉयल में मुड़ा बड़ा-सा क्लब सैंडविच थमाती है। "इसमें
तो चिकन होगा ना... तुम्हें बताया था, नॉन वेज नहीं खाती!" दूर्वा ने डोना को
सैंडविच लौटा दिया था। "ओह सॉरी! फिर तुम यह सलाद खा लो, सिर्फ लेटस, चेरी
टमाटर, मोजारेला चीज और ऑलिव!" "बढिया!" दूर्वा ने उसके हाथ से सलाद का दोना
ले लिया था, साथ में गेहूँ और तिल का भूरा, खुरदरा ब्रेड - "सलाद में इतना
सारा सलाद ऑयेल मुझे पसंद नहीं, जितना फायबर मिलता है उतना ही फैट!"
"तो आप शाकाहारी हैं! क्यों!" मजाज अपना सैंडविच कुतरते हुए उसके बगल में आ
बैठा था - यु ब्राहमिन?"
"इसलिए नहीं! एक बार किसी ने कहा था, जब तक आप कत्ल किए हुए बेजुबान जानवरों
का मांस खाते हैं तब तक खुद को अहिंसक नहीं कह सकते। वह बात मेरे दिल को लग
गई।"
"हूँ" उसकी बात सुनकर मजाज सोच में डूब गया था। फिर बहुत देर बाद बोला था -
"बेजुबान जानवरों की क्या कहें, यहाँ तो बेकसूर इनसानों का खून पानी की तरह
बहता है और हम अहिंसक होने की खुशफहमी में जीते हैं। जानती हैं, मेरे पिता
इराक के एक कुर्द सिपाही थे। माँ एक जर्मन नर्स। युद्ध के दौरान रेड क्रॉस के
साथ इराक गई थी... बाद में माँ ने बहुत चाहा था, पिताजी उनके साथ जर्मनी चले
आएँ, मगर वे नहीं माने थे। आजादी उनके लिए दुनिया की सबसे जरूरी चीज थी।
हजारों साल से खानाबदोशों की यह जाति अपनी इज्जत, नस्ल और जमीन के लिए लड़े जा
रही हैं, कभी शिया मुसलमानों की हैसियत से, कभी सुन्नी तो कभी यहूदी या ईसाई
के रूप में।"
"जी जानती हूँ थोड़ा बहुत इन लोगों के बारे में। बहादुर होते हैं। अच्छे सिपाही
भी। हिंदुस्तान के कर्नाटक राज्य में कूर्ग एक छोटी-सी जगह है। वहाँ इस जाति
के लोग पाए जाते हैं। कहा जाता है कि इनके पूर्वज अरब देशों से आए। कूर्ग
रेजीमेंट के सिपाही अपने शौर्य और वीरता के लिए जाने जाते हैं।"
"वाकई!" मजाज ने हैरत से उसकी बात सुनी थी - "सचमुच यह दुनिया बहुत छोटी है!"
"और गोल भी!" दूर्वा अपना सलाद खत्म करते हुए मुस्कराई थी - "आप अपनी माँ के
बारे में बता रहे थे।" "जी! जंग के दौरान मेरे पिता के मारे जाने के बाद मेरी
माँ किसी तरह इराक से भाग आई थी। तब मैं उनके पेट में था।"
"अच्छा! तो फिर आप वहाँ कभी नहीं गए?" मजाज की बात सुनते हुए अब डोना भी
उत्सुक हो उठी थी। "नहीं, गया था! मेरी माँ ने मुझे मरने से पहले अपनी कसम दी
थी मगर मैं क्या करता, मेरा खानाबदोश खून मुझे बुला रहा था, लहू की महक, जंग
की भेरी मुझे पागल कर रही थी।
फोटो जर्नलिस्ट की हैसियत से गया और कई साल भटकता रहा। आईएसआई का मजहबी जुनून,
हिंसा, बर्बरता का तांडव और खूनी खेल देखा। मासूम और मजलूमों की लाश पर वे
इस्लामी राज्य की नींव रखना चाहते हैं। यही दीन है उनका! दो सालों में मेरे
कैमरे का लेंस खून से तरबतर हो गया। जिधर देखो लाश, जिधर देखो खून... जमीन पर
सड़ते जिस्म और आकाश पर चील-कौओं का हुजूम! मुझे ऊपर वाले का नाम सुन कर दहशत
होने लगी थी। अल्ला-हो अकबर के नारे के साथ बच्चों, बूढ़ों, औरतों की चीखें,
सड़क पर इधर-उधर लुढ़कते इनसानों के कटे हुए सर... कुर्द, ईसाई, सुन्नियों की
जलती हुए बस्तियाँ, बाजारों में पिंजरों में बंद सरे आम बिकती औरतें, हारे हुए
कुर्द सिपाहियों का गला काटा जाना तो कभी जिंदा जलाया जाना... मैं बीमार हो
गया! यह कैसी आजादी, किसकी आजादी! भाग आया वहाँ से।
बहुत आत्म मंथन के बाद समझा, आजादी चाहिए मुझे मेरे खून में बहते जुनून से,
हवस से, दरिंदगी से। लड़ाई! लड़ाई! लड़ाई! किस लिए?- जमीन के लिए! अहंकार के लिए!
हवस के लिए... सब कुछ हथिया लेने के चक्कर में हमने अपना रहा-सहा भी खो दिया
है। अपनी कमजोरियों के हाथों गुलाम बन कर रह गए हैं। अपनी कैद में हैं!
लगातार बोलते हुए मजाज एकदम से चुप हो गया था जैसे थक गया हो, फिर रुक-रुक कर
बोला था - अब लड़ाई बस खुद से है। खुद को हराना है, खुद से जीतना है। इसी में
लगा हूँ रात-दिन..."
उसकी ओर देखते हुए डोना की आँखें वाष्पित हो उठी थीं - सारी दुनिया का दर्द
एक-सा है। सुख अलग-अलग होते होंगे... अनमनी-सी वह धीरे-धीरे गुनगुनाती है-
"आजादी! आजादी! किस-किस से आजादी... इससे आजादी, उससे आजादी, खुद से आजादी..."
दूर्वा सामने बहती हुई रंगों की उदास नदी को चुपचाप देखती है। आकाश का इस्पाती
नील उसमें घुल रहा है। शाम उतर रही है धीमे पाँव। बीस किलोमीटर चौड़ी, सौ किलो
मीटर लंबी एक नदी! जीवित जादू, पिघला तिलस्म! "अच्छा, ये नदियाँ गत-आगत समय की
कितनी कहानियों, हादसों की गवाह है! काल के साथ निरंतर बह रही हैं। सोचो कभी
ये बोले तो! बीत गए समय की कितनी बातें, साजिश, गुनाह उजागर हो जाएँगे...
नहीं?" उसने मुड़ कर मजाज को देखा था। मजाज कुछ दूरी पर एक बौने, छतनार पेड़ में
चहचहाते पंछियों के झुंड की ओर देख रहा था। उधर से नजरें हटाए बिना उसने अनमन
भाव से कहा था - "हाँ! अगर एक दिन ये सारा जंगल, आकाश, धरती सचमुच बोल पड़े
तो...! जानती हैं, एक अनुमान के अनुसार एमाजॉन के गहरे जंगलों के भीतर आज भी
पचास से ज्यादा आदि मानवों के कबीले हैं जिनका हमारी तथाकथित सभ्य दुनिया से
कोई संपर्क नहीं।"
"अच्छा है, नहीं है!" डोना ने आवेश में भर कर कहा था - " होता तो आज वे भी
नहीं होते! दूर्वा! सन 1500 में जो नब्बे लाख आदिवासी उन जंगलों में थे,
उन्नीसवीं सदी आते-आते सिर्फ दस लाख रह गए और आज की तारीख में, विश्वास करोगी,
मात्र ढाई लाख!"
"ये खत्म होने का ही समय है डोना! सिर्फ इन जंगलों से ही नहीं, सभ्य देशों और
शहरों से भी! कई देशों से कई समुदाय गायब कर दिए गए, मानचित्र से कई जमीन के
टुकड़े, गाँव, खेत, हरियाली... अब इस धरती के आदि मानव या तो गुलाम हैं या
देशद्रोही, गद्दार, नक्सलवादी! बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े, दैत्याकार
मशीनें धरती पुत्रों के जंगल, पहाड़, आकाश उखाड़ कर ले जा रहे हैं और दुनिया की
सारी ताकतें, हथियार इन मासूमों के खिलाफ गोलबंद हो कर खड़े हैं। अजीब लड़ाई है
- भूखे, नंगों और निहत्थे मजलूमों के साथ तोप और बंदूकों की। पूरी दुनिया में
अकाल पड़ जाय, मंदी आ जाय मगर हथियार के कारखाने कभी बंद नहीं होते, उनके
मुनाफे में कोई कमी नहीं आती... देखा है इथियोपिआ के कंकाल जैसे भूखे बच्चों
को! और बागी लोग? नंगे पाँव अपने कमजोर कंधों पर भारी बंदूकें उठा कर एक-दूसरे
के पीछे दौड़ रहे हैं! आजादी के चक्कर में महाशक्तियों के गुलाम बन गए हैं,
उन्हें पता ही नहीं! वही - आजादी!" पहली बार जाने किस रौ में दूर्वा लगातार
बोलती चली गई थी। उसके चुप होने के बाद देर तक वहाँ खामोशी पसरी रही थी। उधर
जंगलों में पंछियों की आवाजें तेज हो रही थीं, पानी में बहता इंद्रधनुष फीका
पड़ गया था। दिन डूबने में अब ज्यादा समय नहीं था।
महौल को हल्का करने के लिए ही शायद मजाज अपने कपड़े झाड़ते हुए उठ खड़ा हुआ था -
इधर कुदरत की शान देखो! इन जंगलों में ही नहीं, इस जमीन के भीतर भी हरियाली ही
हरियाली है - एमराल्ड - पन्ने का सबसे बड़ भंडार इस देश में है, लगभग सत्तर से
नब्बे प्रतिशत! दुनिया का सबसे नायाब पन्ना!"
"और इसके लिए मार-काट भी कम नहीं! ड्रग, औरत और पन्ने के खदानों पर वर्चस्व के
लिए लड़ाई! लिबरल और कन्सर्वेटिव के बीच भी सालों से गृहयुद्ध। यह देश आंतरिक
कलह में चिथड़ा-चिथड़ा हो गया है! खैर छोड़ो! तुम्हें पन्ने से जुड़ी एक लोक कथा
सुनाती हूँ। बहुत दिलचस्प!" डोना दूर्वा के सथ-साथ चलने लगी थी - "एक स्त्री
फुरा और एक पुरुष टेना को ईश्वर एरेस ने धरती को आबाद करने के लिए पृथ्वी लोक
में भेजा था। उनको अमरता का वरदान मिला हुआ था। एरेस ने दोनों को एक-दूसरे के
प्रति वफादार रहने की हिदायत दी थी। मगर फुरा नहीं रह सकी। क्रोध में आ कर
भगवान एरेस ने उनसे अमरता का वरदान वापस ले लिया। इसके बाद जल्द ही बूढ़े हो कर
फुरा और टेना मर गए। अब भगवान को उन पर दया आई और उन्हें तूफानों और साँपों से
सुरक्षित दो विशाल शिला खंडों में तब्दील कर दिया। कहते हैं इन शिला खंडों के
भीतर फुरा की आँखों से बहे आँसू पन्ना बन कर जम गए! ये दो 840 और 500 मीटर
ऊँचे विशाल पत्थर आज भी मीरेनो नदी की घाटी में दूर से देखे जा सकते हैं!"
कहानी सुन कर दूर्वा खो-सी गई थी - "पन्ना के चमकते हरे टुकड़े... फुरा के
आँसू... ओह! कितना रुमान होता है न इन लोक कथाओं में!"
"यहाँ जितने फूल उतने ही काँटे... फुरा के आँसू आज भी कहाँ थमे हैं..." डोना
अपनी ही कहानी में खोई-सी थी - "इस जमीन की शिराओं में बहाने वाला खून हरा है,
बह रहा है जमाने से! दुनिया समझ कर समझना नहीं चाहती। जंगल उजाड़ कर तमाम
हरियाली निचोड़ रही है, पन्ने खोद कर धरती की कोख सूनी कर रही है...! एक आकाश
बचा है, उस में भी छेद ही छेद!"
मजाज अपने कैमरे आदि बैग में डालते हुए एक बार फिर प्रसंग बदला था - "यहाँ आते
हुए मैं कोकोरा वैली पहले गया था। आरमेनिआ शहर से सालेनटो शहर तक बस की कुछ
मिनटों की यात्रा फिर वहाँ से कोकोरा वैली। धुंध और उमस का अजब मौसम वहाँ -
गहरी मटमैली धुंध में डूबे वैक्स पाम के 60-60 मीटर ऊँचे दैत्याकार पेड़...
रातों में शहर भुतहा लगता है। गैस लाइट में गीली-गीली चमकती सड़कों पर रातों को
अकेले चलते हुए लगता है, वैक्स पाम के लंबे साए आपका पीछा कर रहे हैं। जिस्म
में काँटे उग आते हैं!"
"आप सड़क मार्ग से भी जा सकते हैं। यह अनुभव भी सुखद होता है। नदी के
किनारे-किनारे अद्भुत दृश्य। पूरे रास्ते में कैंप के लिए जगह, लॉज, केबिन्स,
भाड़े पर घोड़े... गाँव की जिंदगी की झलक और उनका अनुभव। आपने तंदूरी ट्रौट तो
जरूर खाया होगा, इस इलाके की खास डेलिकेसी है।" मजाज की बातों से डोना का
ध्यान बँट गया था। बात करते-करते वह मजाज के साथ आगे बढ़ गई थी।
दूर्वा को लग रहा था, इस जगह से जाते हुए उसके भीतर का कोई अदृश्य कोना भीतर
ही भीतर खींच रहा है। वह अपने आप का एक बहुत बड़ा हिस्सा यहाँ छोड़े जा रही है
और अब पूरी उम्र उसकी याद में उदास रहेगी। दोपहर का वह 'समर रेन'- उजली धूप
में आकाश से बरसती पारे की वे चमकदार बूँदें... क्षितिज पर आर-पार फैला
इंद्रधनुष और भाप छोड़ती जमीन... दिन में गर्मी और उमस के बढ़ जाने पर अक्सर
यहाँ हल्की बारिश हो जाती है। उसके बाद पूरा जंगल निखर आता है, हर तरफ चमकीला
और रंगीन! पंछी की तेज चहक के साथ पूरा जंगल एकदम से गूँजने लगता है।
कुछ दृश्यों को सिर्फ जिया जा सकता है, किसी शब्द या रंगों में उनकी
अभिव्यक्ति संभव नहीं। दूर्वा को लगता है, जिन्हें वह कैनवास पर उतार नहीं
पाई, वही उसकी बेहतरीन पैंटिंग्स हैं! कहते हैं, चित्रकारी खुशी देती है मगर
उन तस्वीरों का क्या जिन्हें एक कलाकार अपनी एक-एक पीड़ा से गुजरते हुए सिरजता
है! कलापी में घुले रंगों में कितना तेल होता है और कितने आँसू... वह मजाज और
डोना के पीछे अनमन चलती रहती है। भीतर जाने कैसा द्वंद्व है -
गुलामी दुख देती है मगर आजादी की खुशी की भी एक सीमा होती है। एक हद के बाद
लगता है, आसपास बाँधने, रोकने, घेरने वाली कोई बाँह नहीं, अपनी प्रतीक्षा में
कोई घर जाग नहीं रहा! बहुत निरर्थक लगता है अपना होना... इस तरह के होने या ना
होने में क्या फर्क है! आज कल वह अक्सर सोचती है। अजनबी शहरों से गिरती शाम या
उतरती रात गुजरते हुए किसी घर की रोशन खिड़कियों या चिमनी से उठते धुएँ को देख
कर मन में अजीब-सी कसक उठती है - काश उसे भी कहीं लौटना होता!
वह आगे चलती डोना की लंबी, सतर काया की तरफ देखती है - किस पत्थर और आग से बनी
है यह औरत! भीतर एक-एक नस तड़का हुआ है मगर हिम्मत से खड़ी है। पीड़ित औरतों,
बच्चों के लिए सालों से लड़ रही है, एक पूरे हिंसक समाज से, व्यवस्था से। इस
देश के चरम दक्षिण पंथियों ने महिलाओं के प्रदर्शन, धरने पर रोक लगा दिया।
अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वाली महिला एक्टिविस्टों का अपहरण, बलात्कार,
हत्या- क्या नहीं हुआ। डोना के दफ्तर और अनाथाश्रम पर भी जाने कितनी बार हमले
हुए। दो बार मरते-मरते बची मगर उसकी हिम्मत और तेवर में कोई फर्क नहीं आया।
कहती है हारने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है और जीतने के लिए सब कुछ। डोना को
देख कर उसे आश्वासन मिलता है - नहीं सब कुछ खत्म नहीं हुआ है अभी। उम्मीद की
एक बूँद रोशनी जिंदा है, डोना - डोना जैसी औरतें जिंदा हैं! वे दुनिया की
गंदगी बुहार कर मजलूमों, बेकसों के लिए एक महफूज जगह बनाने में लगी हैं। उनकी
यह कोशिश बड़ी बात है। हार या जीत नहीं।
आगे चलते हुए अचानक डोना रुक कर पीछे मुड़ी थी - "कहाँ खोई हो दूर्वा? हमें देर
हो रही है, लौटना है! परसों इंडिया का प्लेन पकड़ना है कि नहीं तुम को?"
"ओह! आप परसों अपने देश लौट रही हैं!" डोना की बात सुन कर मजाज भी चलते-चलते
ठिठक गया था। दूर्वा कुछ बोल नहीं पाई थी, अपनी मुट्ठी में एक जलते-बुझते
जुगनू को अनायास भर कर चुपचाप उनके साथ हो ली थी। पीछे नदी 'लिक्वीड रेन्बो'
उतरती रात के अँधेरे में जाने कब चुपके से स्याह पड़ गई थी।
एलडोराडो इंटरनेशनल एयरपोर्ट, बोगोटा में इमिग्रेशन चेक पार करने के बाद उसे
मजाज मिल गया था। देख कर जाने क्यों उसे हैरत नहीं हुई थी। उसकी मनःस्थिति भी
इन दिनों उसकी तरह हो रही होगी।
मकारेना से लौटने के दूसरे दिन ही डोना की हत्या हो गई थी। साथ ही उसके पूरे
अनाथाश्रम को तहस-नहस कर दिया गया था। पाँच बच्चे और दो औरतें भी मरी थीं। उस
समय संयोग से दूर्वा सफर की तैयारी में शॉपिंग पर निकली थी। खबर सुन कर सीधे
अस्पताल पहुँची थी। वहाँ देखा था, डोना आखिरी साँसें ले रही है। उसे हिचकियाँ
आ रही थीं। पाँच गोलियाँ लगने के बाद उसका बच पाना नामुमकिन था। खून से भीगी
पट्टियों के बीच बस उसकी आँखें ही दिख रही थी - दो नीले सितारे, धीरे-धीरे
बुझते हुए! उसे देख कर अचानक जागी-सी थी डोना - दूर्वा! मेरी आखिरी ख्वाहिश
पूछो..." जवाब में वह चुपचाप रोती रही थी। कुछ कह नहीं पाई थी। वहाँ खड़ी नर्स
ने उसे पहले ही बता दिया था डोना मर रही है। कुछ देर गहरी-गहरी साँस लेते हुए
वह पड़ी रही थी और फिर कहा था - "मुझे अपनी माँ से मिलना है दूर्वा! प्लीज!
"तुमने अपने साथ यह क्यों होने दिया डोना! तुम जानती थी..." हिचकियों के बीच
बहुत मुश्किल से वह ये कुछ शब्द कह पाई थी। जवाब में डोना ने डूबती आवाज में
शायद कहा था - "आजादी..." बगल में खड़े उसके एक मित्र ने अपनी जलती हुई सिगरेट
उसके होंठों से लगा दी थी। इससे पहले वह बार-बार सिगरेट माँगती रही थी - बस एक
कस... डोना ने एक गहरा कस खींचा था मगर धुआँ वापस छोड़ नहीं पाई थी। उसकी आँखें
एक पल के लिए उजली हो कर एकदम से बुझ गई थीं। अब वहाँ बस जर्द नीला रंग और
गहरा धुआँ था...
"मैंने बहुत सोचा ये दो दिन दूर्वा। अपने डर से भाग कर इससे पीछा नहीं छूटेगा।
कोई कितनी भी दूर निकल जाय, अपने आप से छूट पाता है क्या! मुझे सामना करना
होगा - अपना सामना! तो लौट रहा हूँ उसी बारूद और लाशों के देश में। उन्हीं के
बीच शायद खुद को जीत पाऊँ!" मजाज थका-सा धीरे-धीरे बोल रहा था।
मगर उसके शब्द जैसे दूर्वा तक पहुँचे नहीं थे। वह खड़ी-खड़ी बुदबुदाती रही थी,
जैसे खुद से ही मुखातिब हो - "मुझे तो अपनी जिंदगी में बस 'हाँ ना' कहने का हक
चाहिए था मगर..."
"मेरी फ्लाइट का समय हो गया है दूर्वा... अब चलूँगा!" उसकी तरफ थोड़ी देर तक
देखने के बाद मजाज ने अपना केबिन बैग उठा लिया था। दूर्वा कुछ बोल नहीं पाई
थी। चुपचाप उसे जाते हुए खोई-खोई नजरों से देखती रही थी और फिर जाने क्यों
अचानक पीछे से पुकार कर बोली थी - "क्या हम फिर कभी मिलेंगे मजाज?" उसका सवाल
सुन कर चलते हुए मजाज एक पल के लिए ठिठका था और फिर बिना मुड़े कहा था - "खुदा
ने रखा तो... जरूर!" सुन कर दूर्वा ने एक लंबी साँस ली थी और अपने भीतर के
शून्य में अभी-अभी अंखुआ आए एक नन्हें-से इंतजार के पौधे को सहेज कर उठ खड़ी
हुई थी। उसके प्लेन की बोर्डिंग की घोषणा होने लगी थी। अब उसे भी चल देना
होगा... पता नहीं कहाँ के लिए! इतने वर्षों के सफर में एक घर की तलाश में वह
अपने घर से बहुत दूर निकल आई है, अब लौटते हुए समझ आ रहा था।