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कविता

माया बाजार

क्रिस्टिना रोसोटी

अनुवाद - सविता पाठक


सुबह और शाम
लड़कियों के कानों में गूँजता था यह शोर
“आओ-आओ बाग के ताजे फल ले लो
आओ ले लो, आओ ले लो -
सेब और वीही
नींबू और संतरे
रस से भरी चेरी
खरबूजे और रसभरी
लाल-लाल गालों जैसी नाशपाती
मस्त सिरों वाले शहतूत
जंगल में पैदा हुए क्रेनबेरी
ललमुँहा-सेब,
अनानास, ब्लैकबेरी
अखरोट, स्ट्राबेरी
पके हैं सारे साथ-साथ
गर्मी के मौसम में
सरकती सुबह में
शाम की महकती हवा में
आओ ले लो, आओ ले लो
बेल से टूटे ताजे अंगूर
भरपूर दानों से भरे अनार 
खजूर और अजब तेज
बगूगोशा और नाक
डैमसनस् और डिलबेरीज
चख के देखो, ले के देखो
मुनक्का और करौंदा
सुर्ख लाल बारबेरीज
मुँह में भर जाएँ ऐसे अंजीर
दक्षिण से आई खट्-मिट्ठी
जो जीभ पर जाए घुल और आँखों में छा जाए
आओ-आओ, जल्दी आओ”

शामों-सहर
नदी किनारे
लौरा सिर झुकाए, कान लगाए
इस गाने पर ध्यान लगाए
बैठी रहती थी
लिजी ढाँपती कान उसके
समेट लेती खुद में उसको   
सुहाने मौसम में
अपनी गुदाज बाँहों में, सावधान करते होंठों से
अपने सिहरते गालों से, काँपती उँगलियों से
लौरा ने कहा “करीब हो जाओ”
उसके सुनहरे बालों में उँगलियाँ फेरते हुए बोली -
“हमें बिल्कुल नहीं देखना चाहिए उन मायावी बौनों को
न ही खरीदने चाहिए उनके फल
किसे पता वो किस मिट्टी में हैं उगे
किसे पता उनकी जड़ों में किस हवस की प्यास है”

“आओ आओ ले के जाओ”
बौने व्यापारियों की आवाज
घाटी में टकराती
उसकी आँखों को ढाँप के इतना की वो बामुश्किल ही कुछ देखे
लिजी कराही “ओह! लौरा तुमको नहीं झाँकना चाहिए उन बौनों की दुनिया में”
लौरा ने अपना चमकीला सर उस ओर घुमाया
निर्झर की तरह फुसफुसाई
“देखो न लिजी! देखो न
घाटी के नीचे उन नन्हें लोगों को
कोई टोकरी ले चिल्लाता है
कोई थामे है कई पकवानों से भरी
सुनहरी तश्तरी
कैसी होंगी वो बेलें
जहाँ के ये अंगूर रस से छलक रहे
कैसी बहती होगी गरम हवा
पकाते इन फलों को”
लिजी घबराई
“ना ना ना
नहीं अच्छी लगनी चाहिए उनकी चीजें
जहर से भरा है उनका तोहफा”
कहके ठूँस ली कानों में उँगलियाँ
और आँखों को भींच भागी
कौतुक लौरा ठहर गई
हर व्यापारी पर नजर गई
कोई है बिल्ली जैसी सूरत वाला
तो कोई है दुमवाला
कोई बहरूपिया है चूहे जैसा
तो कोई रेंगता है जैसे घोंघा
कोई फड़फड़ाता है जैसे चमगादड़
कोई है झुनझने जैसा हिलता-डुलता, अजता-बजता
उसने सुना मानो बत्तखें
बोलती हों एक साथ
सुहाने मौसम में ये आवाजें
मानो प्यार से लबरेज, करुणा से भरी हों
लौरा ने अपनी चमकती सी गर्दन उचकाई
मानो गर्वित हंसों का जोड़ा हो
मानो छुटके से झरने से उचकी लिली हो
मानो पोपलर के पेड़ों पर बरसती चाँदनी हो
मानो खदकती भाप से उबल पड़ा ढक्कन हो
जिसका धैर्य अब खत्म हो चुका हो
नम घाटी के नीचे
जहाँ भरे थे वो बौने मायावी व्यापारी
अपनी बारंबार चटखती आवाज
के साथ
आओ ले लो, आओ ले लो
जब वे पहुँचे जहाँ लौरा थी
वे वहीं थोड़ा थम से गए
एक दूसरे से सटते जैसे
एक भाई से दूसरा भाई
एक दूसरे से इशारा करते
एक ने अपनी टोकरी रखी
दूसरे ने अपनी प्लेट बढ़ाई
एक बनाने लगा ताज
सुंदर लताओं, पत्तियों और भूरे अखरोटों से
(शहरों में कहाँ बेचते हैं आदमी ऐसे)
एक उठाए फिरे फलों की टोकरी, सुस्वादिष्ट भोजन से लदी तश्तरी
आओ ले लो, आओ ले लो, अब भी लगा के आवाज
लौरा अपलक देखती, नहीं वहाँ से हिलती
खाली थी जेब उसकी, अब वो क्या करती
चपल पूँछों वाला व्यापारी भाँप गया सब हाल
शहद घोल के बातों में, फेंकने लगा फिर जाल
बिल्ली की शक्ल वाला म्याऊँ सा कुछ कह गया
चूहे से मुँह वाला बुदबुदा के रह गया
स्वागतम घोंघाबसंत ने भी कुछ ऐसा ही कहा
तोते सी आवाज वाला चहक के चिल्लाया
“प्यारे व्यापारियों की प्यारी सखी”
एक ने चिड़िया की तरह सीटी बजाई
सीधी लौरा जल्दी से बोली
“प्यारे लोगों मेरे पास नही है चवन्नी
जेब है मेरी खाली
ना है ताँबा ना है चाँदी
मेरा सारा सोना झड़ा है झाड़ियों पर
उन टँके फूलों पर
जो काँपते हैं पुरवा में”
एक साथ वो सब बोले
“तुम्हारा सिर है सोने की खान
एक सुनहरी जुल्फ के बदले, जो चाहे वो लेलो”
उसने सिर पर से एक सुनहरा बाल खींचा
आँखों से मोती जैसा आँसू टपका
फिर चूसा वो फल जो दस्ताने सा था सफेद या लाल
मीठा यूँ मानों टपका हो सीधे छत्ते से
इतना तेज जैसे मर्दों की तीखी शराब
इतना साफ रस जितना नहीं साफ बहता जल
कभी नहीं चखा था वो रस
कैसे उकताते होंगे लोग, इससे
वो चूसती गई, चूसती गई और चूसती गई
उन फलों को जिन्हें अनजाने जंगलों ने उगाया था
तब तलक वो चूसती गई जब तक
उसके होंठ भर नहीं गए
फिर फेंका खाली छिलका
लेकिन बटोरा पत्थर जैसा बीज
होश नहीं कि रात या दिन
चल दी अकेले घर को वो
दरवाजे पर लिजी मिली

समझदारी की फटकार लिए
“प्यारी तुमको नहीं फिरना चाहिए इतनी देर
देर शाम नहीं भली, लड़कियों के लिए
नहीं भटकना चाहिए घाटी में
बौने व्यापारियों की तलाश में
क्या तुमको याद है जिनी
कैसे वो चाँदनी रात में उन्हें मिली
ले लिए तमाम उपहार उसने
खाया उनका फल और पहने उन फूलों के हार उसने
जो टूटे थे उन मड़ुओं से, जिन्हें गुनगुने मौसम ने खिलाया
लेकिन अक्सर चाँदनी रातों में
उसको फिर से प्यास लगती
उनको फिर से पाने की आस जगती
दिन-रात भटकती
कोई न मिलता, भटक-भटक के सूख गई
पहली बर्फ गिरी, वो भी जर्द हुई
नहीं उगी जरा सी घास
जहाँ सोई है वो आज
बरसों पहले मैंने उगाया था डेजी वहाँ
वो भी नहीं खिला वहाँ
नहीं घूमना चाहिए यूँ तुमको”
“चुप कर ना” उसको चूम के लौरा बोली
“मेरी बहना चुप कर
मैंने जी भर खाया, खूब खाया
तब भी मेरा मन न भर पाया
कल रात खरीदूँगी मैं और...
छोड़ ये दुख
मैं लाऊँगी पुलम कल
बस अभी डाल के टूटे
ऐसे चेरी जो देखा न हो
सोच न पाओगी वो अंजीर
जिनको मैंने चखा है
क्या खरबूजे रस-रसीले
तश्तरी पर वो पकवानों का ढेर
मेरी पकड़ में कहाँ आते
मखमल अभी झरा नहीं वो नाशपाती
रस से गीला वो अंगूर, बीज का जिसमें पता नहीं
घाटी की खुशबू से लबरेज
जहाँ भी वो उगते हैं बहारों पर वो पलते हैं
किनारे जिनके झूलती लिली
शक्कर मीठा उनमें भरा
...
सुनहरे सिर आपस में जुड़े
मानो दो कबूतर एक घोंसला
एक दूसरे के परों में उलझे
वो यूँ सोई बिस्तर पर
मानो एक शाख पर दो फूल खिले
मानो ताजी बर्फ के दो कतरे झड़े
मानो बादशाह के छड़ी की दोतरफा मूँठ
दोनों ओर सोने से जड़ी
चाँद-तारे झाँकते हैं उनके लिए
हवा गुनगुनाती है उनके लिए
मोटा कोचकोचवा उड़ना भूल गया
चमगादड़ बार-बार इधर-उधर भटकना भूल गया
वो लिपटी थी गालों से गाल सटाए, छाती से छाती चिपकाए
एक घोंसले में गुँथी हुई

सुबह-सवेरे
जब मुर्गें ने चेताया  
मधुमक्खियों की भन-भन खूब व्यस्त खूब मीठी
लौरा के साथ लिजी जगी
शहद निकाला, दूध काढ़ा
घर सँवारा, घर सजाया
आटा साना
रोटी सेंकी
फिर मथा छाछ को
मक्खन काढ़ा
मुर्गी को डाला दाना, बैठी फिर लिए कढ़ाई और सिलाई,
आपस में यूँ बतियाती जैसे चाहिए लड़कियों को बतियाना
लिजी अपना दिल खोल कर
लेकिन लौरा गुम ख्यालों में
एक भरी हुई, एक भीतर से कुछ खाली
एक सुबहों की रोशन किरणों के साथ गाती
एक रात के लिए तड़पती जाती    
आहिस्ता-आहिस्ता शाम हो आई
वो घड़े लिए नदी किनारे पहुँच गईं
लिजी शांत
लौरा लौ सी थरथराती
उन्होंने छलछलाता पानी गहरे से खींचा
लिजी ने बैंगनी और सुनहरे पत्तों को तोड़ लिया
वापस की ओर मुँह करके कहा - सूरज डूबते
वो केकड़े उछलने लगते हैं
लौट चलो लौरा, किसी और लड़की के पाँव उस ओर न पड़े
न जिद्दी गिलहरी की तरह आगे-पीछे उछलें
सारे जानवर और चिड़िया सो गए
लेकिन लौरा भटकती रही यूँ ही
कहा कि किनारे ढालू हैं
कहा कि वक्त अभी नहीं हुआ
अभी ओस हवा में नहीं गिरी, ठंडी हवा नहीं बही
आवाज आती रही उसके कानों तक लेकिन कहाँ से आ रही उसे पता नहीं
आओ ले लो, आओ ले लो
वही दुहराता गीत
वही शक्कर-मीठे शब्द
लेकिन वो धूर्त व्यापारी की नजरों से दूर नहीं थी
घाटी में विचरते, दौड़ते-खेलते, लुढ़कते-पुढ़कते
उनका झुंड वाकिफ था उससे
लिजी गिड़गिड़ाई “ओ लौरा! आ जाओ
मैं उनकी आवाजें सुन रही हूँ, लेकिन देखूँगी नहीं
तुम न भटको इस जंगल में
संग मेरे घर चलो
तारे उगे चाँद भी तिरछा हुआ
जुगनुओं ने भी जला दी अपनी बत्ती
चलो रात अँधेरी होने से पहले लौट चले
गर्मी का ये मौसम है, बादल न घेर ले
बुझा न दे वो दिए, हमें भिगो के निचोड़ न ले
भटके रास्ता तो क्या होगा”
लौरा वहीं जम गई
यह जान के कि बहन ही सिर्फ सुन रही
व्यापारियों की आवाज
“आओ ले लो, आओ ले लो”
क्या न लेना था उसे वो सुंदर फल
क्या नहीं रहा उसमें पहले जैसा बल
क्या हो चली वो बहरी अंधी...
उसके जीवन की जड़ें पूरी उखड़ गईं
दिल का दर्द उसने भीतर थाम लिया
किसी बुझती रोशनी की फाँक को थामे
घिसटते पाँव छलकते घड़े समेत, किसी तरह घर पहुँची
बिस्तर पर पड़ी
एकदम खामोश जब तक लिजी सो न गई
फिर उठ बैठी एक तड़प के साथ
दाँतों को भींचा, भीतर की उस आग को खींचा
और रोई
यूँ जैसे कलेजा निकल गया
दिनों-दिन, रातों-रात
लौरा गुमसुम, टकटकी लगाए देखती
गम बढ़ता रहा, दर्द बढ़ता रहा
उसको कभी वो व्यापारियों की आवाज
नहीं दी सुनाई
“आओ आओ, ले लो, ले लो”
उसने फिर कभी नहीं किया पीछा, बौने व्यापारियों का
उनके रसीले फलों के लिए घाटी में
लेकिन जब दोपहर पिघल के चमक उठी
उसके बाल हो गए जर्द और सफेद
वो यूँ सिमट गई जैसे पूरा जगमग चाँद सिमटे
तेजी से और आग उसकी जल बुझे
एक दिन पत्थर वाले बीज की याद आई
उसने दीवार के पास, दक्षिण की ओर उसे लगाया
आँसू से उसको सींचा, सोचा फूट पड़ेगा कोई पौधा
इंतजार किया अँखुआने का
लेकिन व्यर्थ रहा हर प्रयत्न
वो कभी न अँखुआया
सूरज की ताप न पाया
न नमी छन के आई उस तक
वो खरबूजों के सपने यूँ देखती
जैसे सेहरा में गुम कोई
रेत की लहरों को कोई, नखलिस्तान समझे
फिर रेत उड़ाती हवा उसे और जलाए
नहीं करती अब वो झाड़ू-बुहारू
न तो चुगाती, ना चारा देती
न तो शहद बटोरती, न आटा गूँथती
न ही जल भरती
चूल्हे के पास बस निराश
बैठी रहती बगैर कुछ खाए
लिजी से रहा न गया
वो बहन जिसका उसे था बहुत ख्याल
उसकी तकलीफ कैसे अब बाँटे
ध्यान गया बौने व्यापारियों के शोर पर
“आओ ले लो, हमारे बाग के फल”
नदी के उस ओर घाटी में
उसे बौने व्यापारियों की आवाज आती थी
दर्द का बोझा लौरा सह नहीं सकी थी
वो तड़पी की वो फल लाए जिससे बहन को मिले सुकून
लेकिन भीतर ही डरी हुई कहीं ये बहुत महँगा न पड़े
ख्याल आया मर चुकी जेनी का
जिसने दुल्हन जैसे सुखों के ख्वाब पाले
लेकिन हुई बीमार और मर गई
भरी जवानी में
जाड़े के उस मौसम में
जब बर्फ का पहला गीत होता
धरती पर वो छन-छन गिरता

लौरा झूल रही थी मौत और जीवन से
लगता मानो मौत अब आई की तब आई
तब लिजी ने और नहीं किया इंतजार
अच्छा या बुरा, जो हो, अब हो
चाँदी का सिक्का जेब में रख के
लौरा को चूमा
साँझ का सुरमई अँधेरा और नदी की कलकल
पहली बार उसने पहचानी, अपने भीतर की धड़कन
हर व्यापारी खुश हो गया
जब देखा उन्होंने उसे झाँकते
उस तक वो जा पहुँचे
उड़ते, दौड़ते, कूदते-फाँदते
फूल के कुप्पा, हुंकार मारते
कूकते, चहचाहते, तालियाँ बजाते
टिटकारियाँ मारते, भकोसते, खिलखिलाते

झाड़ते-बुहारते, काटते-छाँटते
सिर उठाते अपनी शान बनाए
शक्ल बदल के
चेहरा सजा के
बिल्ली की तरह और चूहे की तरह
रटेल और चमगादड़ की तरह
घोंघे की सी दुम वाला घिसट रहा था जल्दी-जल्दी
तोते जैसे आवाज वाला टाँय-टाँय करता और सीटी बजाता
लस्टम-पस्टम, अबड़-तबड़
बातें करता बकर-बकर
कबूतर की तरह पंख फड़फड़ाता
मछली की तरह गलफड़े फुलाता
करीब आया और चूमा
भींच के उसको गले लगाया
पकवानों के ढेर लगाए
फलों का टोकरा आगे बढ़ाया
“देखो हमारे सेब
अमरूद और आम
नजर तो डालो इस चेरी पर
चख तो लो नाशपाती को   
खटमिट्ठी और खजूर
अंगूर जरा सा तो लो
धूप में पके बगूगोशे
डालियों पर लटके पुलम
मुँह में डालो और चूसो मन भर
अनार और अंजीर   

दिल में जिनी का ख्याल करके लिजी बोली - “अच्छे लोगों
मुझे खूब सारा दे दो
हाथ जेब में डाला,
मुट्ठी भर-सिक्का उछाला
“आओ ना, साथ बैठो
इज्जत बख्शो, खाओ ना साथ हमारे”
बड़ी ही अदा से उन्होंने कहा
आओ बैठो हमारे साथ
मान बढ़ाओ, खा के हमारे साथ
उन्होंने लरजते हुए कहा
“हमारा भोज तो बस अभी शुरू हुआ है
अभी तो रात बाकी है
हल्की गर्म मोती की बूँदों सी ओस
तारों से भरी
ऐसे फलों को कहाँ कोई आदमी रख सकता है
उनका तो आधा सत्व चला जाएगा
आधी तो उनकी नमी निकल जाएगी
आओ बैठो साथ हमारे
मौका दो मेहमान-नवाजी का
“शुक्रिया” लिजी ने कहा - “लेकिन घर पर कोई
कर रहा अकेले मेरा इंतजार
न करो और देर
नहीं बेचना अगर तुम्हे
अपने ये रस-रसीले
वापस कर दो मेरा चाँदी का सिक्का”
वे सारे उस पर उबल पड़े
सारी नरमी, सारी शराफत
अब तक जो थी बिखरी हुई
पल भर में हवा हुई
गुर्राते और घुघुआते
घमंडी होने का आरोप लगाते

देहाती होने का तमगा पहनाते
जोर जोर चिल्ला के
यूँ घूरा मानो खा जाएँगे
पूँछ पटका
उसे धकियाया
कुहनी से उसे कुहनियाया
नाखून से उसे चिकोटा
भौंकते, गुर्राते, फुसफुसाते और गरियाते
उसके कपड़े डाले फाड़,
कस के उसके बाल उखाड़े
पटक के उसको वहीं गिराया
हाथों को पकड़ा, मुँह में जबरन
अपने फल का रस गिराया
जर्द हुई लिजी उठी वहाँ से
जैसे बाढ़ के बाद बची हो कोई लिली
जैसे जिद्दी ज्वार के अनगिनत थपेड़े खा के
खड़ा हो नीला चट्टान
जैसे कोई बंद हो बोतल
भरी हो जिसमें आग,
विशाल भयावह समुद्र में हो वो अकेले
जैसे संतरे के फूलों से लदे पेड़ को
बर्रे और ततैये ने चूस के छोड़ा हो
जैसे कि कोई अजेय शहर
के गुंबद को पागलों ने रौंद डाला हो
बांधे बनिया बाजार नहीं लगती
भले ही बौनों ने उसे बांधा, खींचा
नोचा-खसोटा,
गरियाया और उकसाया
लिजी जरा सी नहीं हुई टस से मस
नहीं खोला अपने होंठो को
वो उसके मुँह पर लसियाते रहे
मन ही मन वो खुश थे
चेहरे पर उसके उन्होंने फैला दी थी लार
कैसे बुरे थे वो
उसके विरोध से थक हार के
उछाल के ऊपर सिक्का, लात मार के फलों पर
न मालूम उन्होंने कौन सा रास्ता पकड़ा
न तो कोई चीज छोड़ी न ही कोई दिया पता
कई जमीन में हो गए गुम
कई गायब हो गए जंगल में 
कुछ उड़ गए आँधी में चुपचाप
दर्द से आहत थरथर काँपती
लिजी घर को हो ली
नहीं होश की दिन है या रात
नदी किनारे लड़खड़ाते, काँटे और झाड़ी में उलझते-उलझते
उलझे धागे, चटखी लकड़ी
जेब में रखा सिक्का उछला
मानो कोई गीत बजा
वो दौड़ी, तेजी से दौड़ी
मानो जादूगरों ने उसका पीछा हो किया
करने को पहले से बुरा
लेकिन कोई एक भी बौना नहीं था उसके पीछे
दिल हो चुका था उसका शांत
पाँवों में थी हवा की रफ्तार
भीतर से एक खुशी भी थी
हर साँस जल्दी से आगे बढ़ने को कहती

बागीचे में वो चिल्लाई “लौरा
क्या तुमने मुझे याद किया?
आओ! मुझे चूमो
न देखो, मेरी हालत
गले लगाओ, मुझको चूमो, मेरे भीतर का रस लेलो
जो मैं लाई हूँ व्यापारियों से
मुझ पर है बिखरा व्यापारियों के फलों का रस
मुझे ओढ़ो, मुझे बिछाओ, आओ आज मुझमें समा जाओ
लौरा जितना मुझसे ले सकती हो ले लो
तुम्हारी खातिर मैं गई घाटी लाँघ
मिल के आई उन शातिर व्यापारियों से”
लौरा कुर्सी से उठी
बाँहें अपनी हवा में फैला दी
उसके बालों को भींचा
“लिजी-लिजी क्या तुमने मेरी खातिर,
चखा वो मना किया गया फल
तब तो तुम्हारी भी रोशनी हो जाएगी खत्म
मेरी तरह तुम भी जल्दी जाओगी ढल
मैंने जो किया वापस नहीं आ सकता
मैं तो थी बर्बाद, तुमने खुद को क्यों किया बर्बाद
क्यों लगाई खुद में, व्यापारियों की शापित प्यास”
वो लिपट गई बहन से
उसे चूमती गई, चूमती गई और चूमती गई
आँसुओं की धार बह निकली
जिसने फूँकी जान सूख चुकी पलकों में,
वो बरसने लगी बारिश की तरह
जैसे गहरी उमस के बाद भीग रही हो धरती
दर्द और डर से थर-थर काँपती
वो चूमती रही और चूमती रही, अपने प्यासे होंठो से
उसके होंठ लगे जलने
भीतर तक फैला जीवन रस
वो टूट पड़ी इस निर्झर पर
भीतर का सोता फूटा
सारे बंधन, उसने गिरवी धरे
हाथों को आजाद किया
और छाती को पीटा
उसके बाल यूँ थे मानो कोई मशालें
हो हाथ में किसी तेज धावक के
या फिर घोड़े के बाल हों, बेधड़क उड़ते
या फिर कोई गिद्ध हो
जो सामना करता हो सीधे सूरज का
वो यूँ थी जैसे पिंजरे से तुरंत आजाद चिड़िया
या आजाद सेना का झंडा
उसके नसों में एक आग फैली थी लेकिन दिल तक आकर ठिठक गई
वहाँ एक दूसरी आग से आकर जुड़ गई
फिर आग मध्यम हुई
उसका दिल किसी अनाम के लिए कड़वाहट से भर गया
अरे पगली ये क्या किया
मेरे लिए खुद की आत्मा तक को भुला दिया
नहीं सह पाई नैतिकता के इस हमले को

जैसे शहर का घंटाघर बिखर जाता है
भूकंप में,
जैसे जहाज का मस्तूल टूट जाता बिजली के हमले में
वो हुई जैसे आँधी में टूटा पेड़
हाल हुआ उसका जैसे
समंदर में डूबती उतराती, टूटी जलकुंभी
वो हुई निढाल, सुख भी अतीत, दुख भी अतीत
यह जीवन है मृत्यु,
या मौत के बाद जीवन
झूलती रही हो बेहोशी में
पूरी रात लिजी करती रही उसकी देखभाल
गिनती रही उसकी हर नब्ज और साँस
करती रही महसूस उसकी साँसों को
भिगोती रही होंठ छिड़कती रही पानी
अपने आँसुओं से
लेकिन जब पौ फटे चिड़िया ने पर खोले, चूँ-चूँ करके बोला
घसियारे ने जब सुनहरा हंसिया ले, पाँव बढ़ाया
उस वक्त जब घास ओस से नम थी
हवा मदमस्त
और कलियाँ खिलने को थी
लौरा उठी, मानो पनीले के पास लिली ने पट खोले
मानो कोई स्वप्न से उठी
वैसे ही निश्छल हँसी
लगाया लिजी को गले लेकिन दो-तीन बार नहीं
सुनहरे बाल लहराते एक भी सफेद नहीं
साँसें महकीं बसंत की तरह
और आँखों में रोशनी नाच उठी
दिन हफ्ते महीने साल
वो जब बन गई गृहस्थिनें
हो गए उनके बच्चे
दिल हो गए उनके माँओं जैसे
जिंदगी कोमल दुनिया में आई
लौरा सब बच्चों को सुनाती
अपने जीवन की गाथा
वो प्यारे दिन अब न लौटेंगे
वो बताती उन्हें, उन मायावी-व्यापारियों के बारे में
उन दुष्ट फलों के व्यापारियों के बारे में
जिनके फल शहद सरीखे मीठे
लेकिन असल में जहर
(ऐसी चीज कहाँ बेचते हैं आदमी शहरों में) 
उन्हें बताती कैसे उसकी बहन खड़ी हुई मुश्किल में
कैसे काटा उसने जहर को

फिर नन्हें हाथों में हाथ धर
प्यार से रहने को कहती -
बहन जैसा कोई दोस्त नहीं
सुख हो या दुख हो
मुश्किल भरे रास्तों पर
हौसला वो बढ़ाती है
खींच लाती है मुश्किलों से
थाम के रखती है तब तक,
जब तक तुम खुद से नहीं खड़े हुए


(यह कविता ‘गोब्लिन मार्केट’ शीर्षक से अप्रैल 1859 में लिखी गई थी और 1862 में प्रकाशित हुई थी।)
 


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