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कहानी

फंदा

बसंत त्रिपाठी


'विदर्भ के किसानों में दूरदर्शिता का अभाव है, जो उन्हें लगातार मृत्यु की ओर ढकेल रहा है। बेहद उपजाऊ जमीन को केवल कपास, दाल और सोयाबीन की फसलों तक सीमित कर देने के कारण फसल की विविधता का लोप हुआ है। इनका उत्पादन आवश्यकता से अधिक होता है, जिससे इनके बाजार मूल्य में लगातार गिरावट आई है। एक बात और देखने में आई है कि उत्पादन अधिकतर सरकारी खरीद पर निर्भर है। निजी पूँजी उत्पादन के हर स्तर पर किसान की सहायता करती है लेकिन उत्पाद की खरीद प्रक्रिया में उसे स्वतंत्र रूप से विचरण करने नहीं दिया जाता। सरकार भी अपनी विशाल मशीनरी के बावजूद भीतरी ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँचने में नाकाम रही है। सरकार की सीमाएँ स्पष्ट हैं लेकिन कृषि क्षेत्रों ने भी बाजार के बदलते ट्रेंड के अनुरूप फसल-चक्र और कृषि-पद्धति में सुधार नहीं किया।

'अपनी जरूरतों से अलग, फसल-चक्र में परिवर्तन के क्रम और उसके वैज्ञानिक परिणामों का अध्ययन किए बगैर छोटे और मझोले किसान पारंपरिक तरीके से खेती करते हैं। भूमंडलीकृत व्यवस्था के विराट संसाधनों एवं अवसरों का लाभ उठाकर वे अपनी पद्धति को दुरुस्त कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय मानकों एवं अंतरराष्ट्रीय पूँजी को स्वीकार करना होगा। सरकार और संबंधित संस्थाएँ यदि इन तथ्यों की महत्ता को सीमांत किसानों तक ले जाएँ तो किसान लाभ की स्थिति में आएँगे और आत्महत्या की संख्या में कमी आएगी। किसानों की मृत्यु का एक बड़ा कारण उनके भीतर जीवन-शक्ति का चुक जाना है। यह समस्या कृषि केंद्रित उतनी नहीं है, जितना मनःस्थिति के भीतर फैलता पराजय बोध।

'आत्महत्या में कमी के लिए सरकार को ऐसी बहुराष्ट्रीय संस्थाओं के निर्माण की दिशा में काम करना होगा जो कर्ज लेने वाले किसानों पर निगरानी रखें। वे देखें कि किसान कृषि के लिए जो कर्ज लेते हैं, उसका उपयोग कृषि-संबंधी कार्यों में करते हैं या नहीं। कृषि क्षेत्र में फल-फूल रहे महाजनों और दलालों को समाप्त किए बगैर, फसलों को सीधे अंतरराष्ट्रीय बाजारों से जोड़े बगैर और किसानों के भीतर नैतिकता और जिम्मेदारी का भाव जागृत किए बगैर आत्महत्याओं को रोकना असंभव है।'

फुल स्टॉप का बटन दबाकर मैंने अपना चश्मा कंप्यूटर टेबिल पर रखा और कुर्सी की पीठ से टिक गया। रात के दो बज रहे थे। पूरा वातावरण शांत था। रह-रहकर गुरखे की सीटी सन्नाटे को चीरती हुई दूर-दूर तक निकल जाती थी।

थर्मस फ्लास्क में रखे दूध से कॉफी का एक भरपूर कप बनाकर मैंने ए.सी. ऑफ किया और फ्लैट की टेरिस पर आ गया। मई की जलती गर्मी के घोड़े रातों को अब भी कुचल रहे थे। आस-पास केवल कूलर की आवाजें थीं। लग रहा था कि दुनिया की सारी हलचलों ने अपनी आवाज कूलर को सौंप दी है और गहरी नींद में डूब गए हैं।

मैंने मार्लबोरो सिगरेट जला ली। जबसे विश्व बैंक का यह प्रोजेक्ट मुझे मिला है, मैं यही सिगरेट पी रहा हूँ। सिगरेट के कश और कॉफी के घूँट का मजा लेते हुए मैं अपने प्रोजेक्ट से संबंधित थीसिस के अंतिम हिस्से पर फिर विचार करने लगा। सत्रह लाख के इस मेजर प्रोजेक्ट की आधी रकम यानी साढ़े आठ लाख मुझे मिल चुके थे और बचे पैसे थीसिस जमा करने के बाद मिलने वाले थे। मैंने थीसिस की भाषा और तर्क पद्धति को बिल्कुल अमेरिका की वैश्विक नीति के अनुरूप रखा था ताकि बचे पैसे लेने में कोई दिक्कत न हो।

मैं जान रहा था कि सच्चाई मेरे विश्लेषण के बिल्कुल विपरीत है, लेकिन इस भूत को अपने ऊपर फिलहाल हावी नहीं होने देना चाहता था। बचे पैसे एक बार मिल जाएँ, फिर सोचा जाएगा कि डेढ़ साल में घूम-घूमकर बटोरे गए आँकड़ों का कैसे उपयोग हो।

मैं जानता था कि खुद को बहला रहा हूँ, लेकिन ऐसा मैं अकेला ही तो नहीं हूँ। माना कि दिल्ली विश्वविद्यालय से कृषि अर्थशास्त्र में मैंने पी-एच.डी. की डिग्री ली है और कई सालों तक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ किसान आंदोलन में सक्रिय भी रहा हूँ, लेकिन उससे क्या? दरअसल डिग्री ने मुझे इंटेलेक्चुअल की भाषा दी है। इस भाषा को ग्रामीण तथ्यों से जोड़कर मैंने एक अचूक पद्धति विकसित कर ली है। एक ऐसी पद्धति, जिसमें मेरी पक्षधरता पर कोई उँगली नहीं उठा सकता। मैं जब आँकड़ों की बाजीगरी दिखाते हुए, उसके तिलिस्म से खेलते हुए अपनी बात रखता हूँ, तो अच्छे से अच्छा समाज-वैज्ञानिक भी चक्कर खा जाता है। मेरी डिग्री ही मेरा केपिटल है और इस केपिटल को मैंने आरंभ में गाँव-देहातों में घूमकर इन्वेस्ट ही किया। इन्वेस्टमेन्ट की इस तरकीब ने मेरे केपिटल की वैल्यू बढ़ा दी। अब मैं अपना स्वतंत्र व्यापार करता हूँ, इन्टेलेक्चुअल डिस्कोर्स का व्यापार। वित्तीय पूँजी के दूसरे सिपहसालारों की तरह मैं भी एक सिपहसालार हूँ, लेकिन थोड़ा अलग किस्म का।

मैं जानता था कि थीसिस के हिस्से जब इंटरनेशनल जर्नल्स में प्रकाशित होंगे तो धूम मच जाएगी। मैं सोचने लगा कि अंतरराष्ट्रीय सम्मान के अवसर पर मुझे अपनी भाषा कैसी रखनी होगी। थोड़ी देर तक मैं उस संभावित भाषण में खोया रहा, फिर दूसरी सिगरेट जला ली।

रात तेजी से भाग रही थी और हवा ठहरी हुई थी। मेरे माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं। सिगरेट की ठूँठ को मसलकर मैं स्टडी रूम में आ गया। मैंने अंतिम चैप्टर के प्रिंट लिए, फिर पूरी थीसिस को सी.डी. में सेव करके कंप्यूटर ऑफ कर दिया।

मैं जब बेडरुम में गया, रात के सवा तीन बज रहे थे। सुनीता बिस्तर में नंग-धड़ंग लेटी थी। उसकी नाइटी जाँघ तक उठ गई थी और उस पर जीरो वाट का बल्ब अपनी दूधिया रोशनी फेंक रहा था। बल्ब की उस हल्की दूधिया रोशनी में सुनीता के जाँघ मुझे आमंत्रित कर रहे थे। मुझे याद नहीं, पिछली बार कब उसे इतनी लालसा के साथ मैंने देखा था। लेकिन मैंने संयम रखा और चुपचाप उसकी बगल में लेट गया। सोते-सोते मैंने सोचा कि सम्मान के अवसर पर सुनीता को जरूर ले जाऊँगा।

सुबह देर से उठा। सुबह मैं देर से ही उठता हूँ। मुझे कोई ऑफिस तो जाना नहीं होता, जो हड़बड़ी में उठूँ। महकती हुई सुनीता ने जब मुझे जगाया, उसके बाल गीले थे। उसके गीले और सुगंधित बालों में वही रात वाला आमंत्रण था। चटकती नींद में उसकी मादकता की घुसपैठ ने मेरी नसों में उत्तेजना भर दी।

''अमित उठो भी, ग्यारह बज रहे हैं। आज उठना नहीं है क्या?''

''उठकर कौन-सा मुझे पत्थर तोड़ना है...'' अँगड़ाई लेते हुए मैंने कहा, ''हाँ यदि अपने शरीर को तोड़ने-मरोड़ने का काम मुझे सौंप दो तो अभी उठकर काम में लग जाऊँ।''

''धीरे बोलो, बाई दूसरे कमरे में पोंछा लगा रही है...।''

''उफ् ये बाई भी... इसे भी यही वक्त मिलता है आने का, कल से कहो कि सुबह-सुबह काम करके चली जाया करे।''

सुनीता अखबारों का बंडल और चाय का कप बिस्तर पर रखकर चली गई। अखबार मेरे लिए केवल अखबार नहीं थे बल्कि हर शोधजीवी की तरह या तो आँकड़ों के स्रोत थे या फिर नए विषयों के केटलॉग। पिछले दो वर्षों से सबसे पहले मैं अखबारों में किसानों की आत्महत्या की खबरें ढूँढ़ता, फिर अखबार के मुख पृष्ठ पर पेज नंबर लिख दिया करता, जिसे सुनीता बाद में काटकर एक फाइल में लगा देती। मैं आत्महत्या की खबरों की भाषा का अलग से अध्ययन करना चाहता था। यह प्रोजेक्ट मैं साम्राज्यवाद विरोधी छवि वाले एक बड़े संस्थान के अंतर्गत पूरा करना चाहता था, इसलिए सहमति कम और असहमति को अधिक उभारने की आवश्यकता थी।

पिछले दो सालों में ऐसे दिन कम ही रहे होंगे जब आत्महत्या की खबरों से अखबार खाली हों। पिछले छह महीने में तो लगभग रोज ही। वह भी एक नहीं, दो या तीन या अधिक किसानों की आत्महत्या की खबरें। इन खबरों ने मेरी थीसिस की वैल्यू बढ़ा दी थी, ठीक वैसे ही जैसे गर्मी के दिनों में जल-केंद्रित विमर्श की वैल्यू बढ़ जाती है।

मैं अखबार के पन्ने पलटने लगा। हिंदी अखबार के एक कोने में पाँच किसानों की आत्महत्या की खबरें थीं - वर्धा में दो, अमरावती में दो एवं यवतमाल में एक। मैं खबर पढ़ने लगा। लिखा था - 'आज विदर्भ के तीन अलग-अलग जिलों में पाँच किसानों ने कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या कर ली। वर्धा जिले के आजनगाँव, तहसील हिंगनघाट के सैंतीस वर्षीय युवा किसान भीमा कालबांडे ने आज तड़के अपने खेत में जहर पी लिया। उस पर बैंक और महाजन का कुल चालीस हजार का कर्ज था। वर्धा जिले में ही समुद्रपुर गाँव के देवाजी सरोदे ने...'

'देवाजी सरोदे...' मुझ पर बिजली गिरी। मैं धड़कते दिल के साथ खबर पढ़ने लगा - 'वर्धा जिले में ही समुद्रपुर गाँव के देवाजी सरोदे ने कल रात फाँसी लगाकर अपनी जान दे दी। उस पर एक राष्ट्रीयकृत बैंक का चालीस हजार और गाँव के महाजन का बीस हजार कर्ज था...।'

मैंने हर अखबार से खबर की पुष्टि की। दो मराठी, एक हिंदी और एक अँग्रेजी अखबार में खबर थी।

हालाँकि यह कोई अनोखी खबर नहीं थी लेकिन... फिर भी... ऐसी खबर में देवाजी का नाम कैसे हो सकता है? देवाजी कैसे आत्महत्या कर सकता है? मैं सन्नाटे में था। उसका वाक्य बार-बार मेरे दिमाग की भीतरी दीवारों से टकरा-टकरा गूँज रहा था - 'साब, मेरा नाम तुम दैनिक के कोने में नहीं, बीच में देखोगे। लिखा होगा कि देवाजी गणपतराव सरोदे ने काश्तकारों के जीवन-वास्तव को बदलकर रख दिया।'

लहलहाते खेतों के बीच खरपतवार उखाड़ते हुए जब देवाजी ने चिल्लाकर मुझसे यह कहा था, मैं मड़ में बैठा सिगरेट पी रहा था। ऊपर खुला आसमान था और अक्टूबर की नर्म धूप ने खेतों के रंग को चमकदार बना दिया था। पत्ती-पत्ती देवाजी के वाक्य की ताकत को महसूस कर खुशी से झूम रही थी।

यह आठ महीने पहले की बात थी। आठ महीने में... इतनी जल्दी...! जीवन इतनी जल्दी कैसे चूक सकता है? नहीं यह कोई और होगा... लेकिन गाँव का नाम तो वही है और मराठी अखबार में तो पूरा नाम था - देवाजी गणपतराव सरोदे। हाँ, यह उसी का नाम है, उसी ने आत्महत्या कर ली। लेकिन क्यों? कैसे? मेरा दिमाग झनझनाने लगा।

'अरे, तुमने अभी तक चाय नहीं पी, अब दुबारा गर्म करनी पड़ेगी।' सुनीता ने कप उठाते हुए कहा।

'सुनीता, देवाजी ने आत्महत्या कर ली।'

'कौन देवाजी?' एक ठंडा प्रश्न। 'मैंने बताया नहीं था, पिछले साल मैं उसके साथ तीन दिन रहा था। वो वर्धा के समुद्रपुर का किसान।'

'अच्छा वो... उसने आत्महत्या कर ली।' सुनीता ने एक ठंडी प्रतिक्रिया दी और चाय का कप उठाकर चली गई। सुनीता की ऐसी प्रतिक्रिया से मुझे बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। अखबारों में छपी आत्महत्याओं की खबरों को काटकर चिपकाते-चिपकाते वह इसकी इतनी आदी को चुकी थी कि अगर उसका कोई नजदीकी रिश्तेदार किसान होता और वह आत्महत्या कर लेता तो भी उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होती, इतनी ही ठंडी...।

'लेकिन देवाजी...' मैं बार-बार इसी 'लेकिन' पर आकर ठिठक जाता। तरह-तरह के जाने-पहचाने सवाल मेरे इर्द-गिर्द नाचने लगे। उन सवालों का नृत्य इतना वीभत्स होता गया कि मेरे प्रोजेक्ट के थीसिस की पंक्ति-पंक्ति तड़प-तड़पकर दम तोड़ने लगी। मेरे भीतर भयंकर तूफान के आने के पहले की चुप्पी फैलती गई... फैलती गई... और आँखों में आठ महीने पहले का बीता हुआ काल जीवंत होता गया, सिनेमा के फ्लैश बैक की तरह...

अक्टूबर का पहला सप्ताह था, जब मैं वर्धा के अलग-अलग गाँवों में घूमते हुए आँकड़े इकट्ठा कर रहा था। मेरा जोर अधिकतर कृषि उत्पन्न, ऋण की उपलब्धता, बाजार तक किसानों की पहुँच, महाजनों-दलालों की भूमिका और किसानों की जीवन-शैली पर था। इन्हीं प्रश्नों का जखीरा उठाए मैं गाँव-गाँव भटक रहा था। मुझे चौदह दिन हो गए थे वर्धा जिले में घूमते हुए कि अचानक समुद्रपुर में दो किसानों की आत्महत्या की खबर ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी।

मैं जब समुद्रपुर पहुँचा, सुबह के नौ बज रहे थे। लोग अपने-अपने कामों में डूब चुके थे। पुलिस की एक जीप गाँव के भीतर खड़ी थी और दो-चार पुलिस वाले कुछ लोगों से बतिया रहे थे। वहाँ से कोई जानकारी मिल नहीं सकती थी, क्योंकि सरकार ने मानसिक नाकेबंदी कर रखी थी। सोचा कि गाँव के आस-पास चक्कर लगाता हूँ, शायद कुछ हाथ लगे। मैं धाकड़ सूत्रों के शिकार की खोज में निकल गया।

गाँव से लगे हुए लहलहाते खेत दूर-दूर तक फैले थे। सुबह ने खेतों को सबसे सुन्दर रंग में रँग दिया था। ऊपर नीले आसमान में तैरते सफेद बादलों के गुच्छों के नीचे खेतों को देखना अच्छा लग रहा था। खेतों के बीच-बीच में मेड़ अजगर की तरह चुपचाप पड़े थे और वहीं पर कहीं-कहीं एकाध किसान तंबाकू मलते या बीड़ी फूँकते दिखाई पड़ जाते। मैं एक ऐसे चेहरे की तलाश करने लगा, जिसमें विश्वास हो, जो बिना डरे-झिझके ठीक-ठीक जानकारी दे सके। शोधजीवी होकर मैंने चेहरों को पहचानने की अद्भुत महारथ हासिल कर ली थी। यही तो फील्ड वर्क का टर्निंग प्वाइंट है। पहले सही आदमी की तलाश, फिर अपने निष्कर्षों के लिए बनाए गए प्रश्नों को चालाकी से पूछना और फिर थीसिस लिखते हुए उत्तरों का संपादन करना। ताकि निष्कर्ष अनुदान देने वाली संस्था की वैचारिकी के अनुरूप हो। इस काम में मैं इतना दक्ष हो चुका था कि संस्था के अनुरूप चेहरों को खोजने में मुझे दिक्कत नहीं होती थी।

काम में डूबे किसानों के चेहरे की रेखाओं से उनके भीतर का अध्याय पढ़ने की कोशिश करता हुआ मैं खेतों के बीच से गुजर रहा था कि अचानक खेत के एक अपेक्षाकृत खाली हिस्से में मैंने एक आदमी को लेटे हुए देखा। उसके लेटने का अंदाज ही अजीब और मस्त था। दोनों हाथों और पैरों को उसने फैला रखा था और आँखें मूँदे हुए चुपचाप लेटा था, मानो अपने जिस्म से धूप को पी रहा हो। एक मटमैला पाजामा और बंडी पहना वह आदमी लाश की तरह चुप था। उसके चेहरे की रेखाओं से एक गाढ़ा विश्वास निकलकर पूरे व्यक्तित्व पर फैल गया था। कुल मिलाकर वह एक ऐसा चेहरा था, जिससे बात करके इस गाँव का दौरा सार्थक हो सकता था। मैं उसके पास बेआवाज पहुँचा और पाँच-सात मीटर की दूरी पर जाकर बैठ गया।

फील्ड वर्क की यही तो खास बात होती है कि आप अपने अभीष्ट पर अचानक हमला नहीं करते हैं। इससे वह अचकचा जाता है। बेहतर है कि उसे आब्जर्व करें। उन बिंदुओं को तलाशें, जहाँ से बात शुरू करके आप मनचाही जानकारियाँ हासिल कर सकते हैं। इसके लिए सही समय तक का इंतजार जरूरी है। इंतजार करना मुझे अच्छी तरह आता था और इंतजार करने का बढ़िया सामान भी मेरे पास था। मैंने अपनी सिगरेट जला ली।

आधे घंटे उसे देखते हुए बीत गए और तब जाकर उसने अपनी आँखें खोली। उसकी आँखों में आत्मविश्वास का गाढ़ा रंग फैला हुआ था, जिसे मेरे जैसा घाघ पारखी ही नहीं, एक राह चलता साधारण इनसान भी पढ़ सकता था। उसने अपनी विश्वास भरी आँखों से मुझे देखा, फिर करवट बदलकर अपनी फसल देखने लगा। उसकी ऐसी प्रतिक्रया मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम न थी। फील्ड वर्क का मुझे अच्छा खासा अनुभव है। आदमी चुनने में मैंने आज तक गलती नहीं की है। लेकिन किसी की ऐसी प्रतिक्रिया से मेरा सामना नहीं हुआ। दिल्ली में बड़े-बड़े सेमिनार तक में मुझे इस तरह खारिज कर देने का जोखिम वरिष्ठ से वरिष्ठ समाज-वैज्ञानिक और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ नहीं उठाते, फिर यह मामूली-सा किसान... लेकिन इसमें कोई बात तो है, जो अब तक मिले लोगों में नहीं थी। मैं उसे ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था, लेकिन वह मुझे अपनी ओर खींच रहा था।

'यह साधारण शिकार नहीं है, अमित मियाँ। घने जंगलों की खाक बरसों छानने के बाद किस्मत से ऐसा शिकार हाथ लगता है, इसलिए सबसे पहले तो तुझे ऐसे शिकार का सम्मान करना सीखना होगा। इसका शिकार वैसे ही नहीं करना, जैसे अब तक करता रहा है। जरा संभल के। यह जान ले कि अनुभवी चिड़ीमार को आज पहली बार सोने का हंस दिखा है। जरा सँभल के।' मैंने अपने आपको समझाईश दी और खामोश पहल करते हुए उसके करीब जाकर बैठ गया।

उसने फिर मुझे देखा, अबकी बार जरा गौर से, लेकिन आँखों का गाढ़ा रंग पिघल ही नहीं रहा था कि मैं शुरुआत कर सकूँ। मेरी कश्मकश को उसने ही खत्म किया - 'क्यों साब, गाँव के भीतर कोई सुराग नहीं मिल रहा है क्या?'

उसके इस अप्रत्याशित प्रश्न ने मुझे चौंका दिया। मैं हड़बड़ा गया - 'सुराग... नहीं... नहीं... तुम गलत समझ रहे हो। मैं तो बस यूँ ही इधर...' अपने वाक्य को मैंने अधूरा छोड़ दिया क्योंकि इस वाक्य पर मुझे विश्वास नहीं रह गया था।

वह मुस्कुराने लगा।

जंगली बिल्ली और हिरण की आँखों के भाव को मिला देने से जो भाव बनेगा, वही उसकी आँखों में था। एक क्रूर किस्म की नरमी, एक खौफनाक किस्म का प्रेम, मानो हिरण चारों ओर से घिरकर अब आक्रमण का निश्चय कर रहा हो।

'तो तुम किसी दैनिक के पत्रकार नहीं हो।'

'नहीं-नहीं, मैं तो अपने रिसर्च के सिलसिले में घूम रहा हूँ।'

'अच्छा... तो तुम कांट्रेक्टर हो। तुम्हारी पगार मासिक नहीं, सालाना बनती है। क्यों साब... कितने में लिया है, यह कांट्रेक्ट...?'

प्रोजेक्ट को कांट्रेक्ट कहकर उसने मुझ पर सीधा हमला किया था, अचूक हमला। मेरे पास जवाब नहीं था, मैं चुप लगा गया। उसकी और मेरी चुप्पी के बीच सुबह की नर्म धूप, ठंडी हवा और कामकाजी पंछियों की आवाजें फैलती गई। अचानक मुझे लगने लगा कि एक मेरे अलावा सभी लोग अपने काम में डूबे हैं या डूबने की तैयारी में हैं। न चाहते हुए भी यह भाव मुझ पर हावी होता गया। होठों में दबी दूसरी सिगरेट सुलगाने की मेरी हिम्मत ही न हुई।

फिर अचानक वह हो-हो करके हँसने लगा। मुझे उसकी हँसी से उतनी चिढ़ नहीं हो रही थी, जितनी अपनी विवशता से। अपने फील्ड वर्क को लेकर मैं अब तक मुगालते में था।

'साब, गाँव के भीतर जाओ। वहाँ पुलिस तुमको आत्महत्या करने वालों के बारे में कुछ बताएगी। उनकी घरवालियों से पूछो, वे भी रोते-धोते कुछ न कुछ बताएँगी ही। बाप तो दोनों में से एक ही का जिंदा है, वह भी कर्ज की रकम की कुछ मालूमात देगा। मरने वालों के बच्चों और परिवार का जिकर कर देना... हो गया तुम्हारा कांट्रेक्ट पूरा। फिर दूसरी आत्महत्याओं का इंतजार करना। वैसे आजकल तुम लोगों को बहुत दौड़भाग करनी पड़ रही है न। क्या करें साब, कभी-कभी तो तुम लोगों को दौड़ाने का मौका मिलता है, वरना जिंदगी भर तो हम ही दौड़ते रहते हैं।'

मैं अब सँभलने लगा था, संयत होने लगा था। मैं इतना कमजोर प्यादा भी नहीं था कि पहली बाजी में ही समर्पण कर दूँ। मैंने कहा - 'गलती तुम्हारी नहीं है। तुम लोगों का पाला ऐसे पत्रकारों से पड़ता रहता होगा क्योंकि इधर विदर्भ के किसान तो विश्व की कृषक नीति के केंद्र में हैं। इसलिए तुमने मुझे भी उसी कैटेगरी का समझ लिया। मैं तुमसे कुछ पूछना नहीं चाहता हूँ। मैं तुम लोगों के साथ रहकर ऑब्जर्व करना चाहता हूँ। तुम्हारी जीवन-शैली की भीतरी परतों की स्टडी करना चाहता हूँ, ताकि विदर्भ के किसानों के जीवन, उनकी सफलता और असफलता के बारे में कोई ठोस बात कह सकूँ। तुम यदि परमिशन दो तो मैं एक-दो दिन यहीं रहूँगा, तुम्हारे साथ। यकीन जानो, मैं तुम पर बोझ नहीं बनूँगा और न ही तुम्हारे काम में दखल दूँगा। तुम अपना काम करते रहना और मैं देखने का अपना काम करता रहूँगा।'

उसकी आँखों का रंग पिघलने लगा और मैंने अपने अदृश्य हाथों से अपनी पीठ थपथपाई। वह गौर से मुझे देखने लगा। कुछ पल बाद 'जैसी तुम्हारी मर्जी' कहता हुआ फसल के बीच धँस गया।

समुद्रपुर की फिजा में उस दिन अजनबी गाड़ियों की आवाजें घुलती-मिलती रहीं। दिन में दो बार आने वाली बस से कुछ अनचीन्हे चेहरे उतरते, फिर अगले घंटे वे बस-स्टैंड पर खड़े दिखाई पड़ते। बस-स्टॉप पर कुछ नई चीजों की माँग सुनाई पड़ती। फिर वे चेहरे गाँव-देहात में चलने वाली टैक्सियों पर सवार होकर चले जाते। पुलिस की गाड़ी, जन-प्रतिनिधियों की अकर्मण्य सक्रियता धूल उड़ाती हुई आती और अपने पीछे धुँधली सड़क छोड़कर फरार हो जाती।

लेकिन मैं इन सबसे अलग मेड़ पर बैठकर अपनी रणनीति बनाता रहा। इस बीच उसने खरपतवार के खिलाफ मोर्चा खोल लिया था।

दोपहर हम फिर साथ थे। साथ तो हम सुबह से ही थे लेकिन हमारा साथ होना न होने के बराबर था। वह अपने काम में उलझा रहा था और मैं अपनी उधेड़बुन में। उसने अपना एल्यूमिनियम का बड़ा-सा डब्बा खोला। गीला बेसन और ज्वारी की मोटी-मोटी रोटियाँ। हम दोनों ने खाना खाया। हमारे बीच की चुप्पी अब तक पूरी तरह नहीं टूटी थी। इस बार भी पहल उसी ने की -

'मेरा नाम देवाजी गणपतराव सरोदे है। और तुम्हारा?'

'अमित मिश्रा।

'बम्हन हो।' एक हल्की व्यंग्य मिश्रित मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आई। थोड़ी देर वह चुप रहा, फिर पूछा - 'ये जो आत्महत्याएँ हो रही है, उसके बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? तुम तो संशोधन कर रहे हो। बहुत कुछ जानते होगे।'

कुछ भी कहकर मैं उसे बिदकाना नहीं चाहता था, सो बड़ी चालाकी से अपने आपको बचाते हुए कहा - 'आत्महत्याएँ तो तुम्हारे बीच से हो रही है। तुम मुझसे बेहतर जानते और समझते हो।'

'हमारे जानने और न जानने से क्या फर्क पड़ता है। फर्क तो इससे पड़ता है कि सरकार क्या मान रही है।'

'सरकार के लिए तो तुम लोग केवल पुतले हो। फसल उगाने वाले चलते-फिरते, हाड़-माँस के पुतले। जब तक तुम लोग क्या चाहते हो, इसकी घोषणा न करो, सरकार मजे से चलती रहेगी।'

'सरकार और हमारे बीच दलालों की भी तो कमी नहीं है।'

'क्या ये दलाल आज अचानक धरती पर उग आए हैं या इसके पहले भी थे?'

वह फिर चुप। थोड़ी देर बाद बोला -

'बात तुम्हारी बरोबर है, साब। दलाल तो पहले भी थे। लेकिन उनके पास की ताकत से ज्यादा ताकत हमारे पास थी, जीने की ताकत। और चीजों पर उनकी पकड़ भी इतनी मजबूत नहीं थी। पहले हम कर्ज उनसे लेते थे और फसल अपनी उगाते थे। कर्ज हम अब भी उनसे ही लेते हैं, बैंकों में भी मुँह मार लिया करते हैं लेकिन फसल अपनी नहीं उगा पाते। अब तो हम उन बीजों को बोते हैं जो बाजार में सरकार भेजती है। हमारी फसल और हमारे बीज दोनों की बाजार में अब कोई कीमत नहीं रह गई है। ये कपास देख रहे हो न! सफेदी फलों से झाँकने लगी है। पहले इसे देखकर हमारे पुरखे नाचने लगते थे। बैल-बंडी दुरुस्त करने लगते थे। लेकिन अब इन्हें देखकर हमको कोई उत्साह नहीं होता। क्या कीमत रह गई है इनकी बाजार में? इस साल का कपास दीवाली तक सरकार की मंडियों में ठूँस दो तो होली तक पैसा मिलेगा, वह भी पहले से बहुत कम। सरकार के हाकिम कहते हैं, पैदावार बढ़ाओ। पैदावार बढ़ाते हैं तो कीमत कम कर देते हैं। आखिर हारा हुआ काश्तकार रोज-रोज मरने से एक बार मरने का रास्ता चुन लेता है। बोलो, क्या गलत करता है?'

'तो इन आत्महत्याओं का तुम समर्थन करते हो?' मैंने अपना दाँव चलाया।

'समर्थन काहे का, साब। गरीबी का दुख है, मरकर छुटकारा मिल जाता है...' थोड़ी देर तक वह चुप रहा, कुछ सोचता रहा, फिर बोला - 'संभाजी और मैं साथ ही में पढ़ते थे, दोनों एक साथ दसवीं फेल हुए, यहीं गाँव के स्कूल में। बड़ा साथ रहा उसका। वो बबूल का पेड़ देख रहे हो न, उसके बाद का छह एकड़ उसी का है। बड़ा मजबूत था। पटेल से पंद्रा हजार का कर्ज लिया था। कहता था, पटेल यदि जोर-जबरदस्ती करेगा तो साले को उसी के घर में पटकी दूँगा। बैंक का पचास हजार का कर्ज था। बैंक वाले आते तो पहले से ही लड़ने को तैयार। कहता, साले पुलिस बुलाओ, पता तो चले लोगों को कि तुम लोग वसूली कैसे करते हो। यहीं परसों रात हमने साथ में महुआ पी। पीने के बाद वो रोने लगा। बोलने लगा कि मैं अब लड़ते-लड़ते हार गया हूँ। आखिर कब तक लड़ूँगा। इस फसल को बेचकर धेला भी हाथ न आएगा। उधर बैंक वाले परेशान कर रहे हैं। सोचता हूँ, शेती बेच दूँ। मैंने पूछा कि काश्तकारी नहीं करेगा तो फिर क्या करेगा? बोलने लगा कि यहीं गाँव में मजूरी करूँगा, तेरे खेत में मजूरी करूँगा, काम देगा न...। और कल सुबह जहर पी गया। मैंने सोचा भी नहीं था कि वो ऐसा करेगा। पीकर रोना-हँसना तो चलता है... लेकिन साब, वो भी कमजोर निकला। साला छोड़ के चला गया... अब मैं क्या उसकी मय्यत में रोने जाता... कल से पड़ा हूँ यहीं पर। घरवाली भी मुझे जानती है, इसलिए वापिस लौटने की जबरदस्ती नहीं की, बस डब्बा भेज दिया...।'

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि देवाजी दुखी है या गुस्से में है। जब मैंने सिगरेट पीने के लिए पैकेट निकाला तो उसने पैकेट छीन ली और एक सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगा। सफेद परी-सी सिगरेट को उसने आँख भर देखा, फिर धुआँ गिटकने लगा। हाँ, उसे 'गिटकना' ही कहा जाएगा, क्योंकि जिस तरह वह सिगरेट पी रहा था, कश लेना तो उसे कतई नहीं कहा जाएगा। एक अजीब-सा उज्जड़पन था उसमें, जिस पर प्यार भी आता था और डर भी लगता था।

'लेकिन साब, तुम लोग देखना, काश्तकार जब इससे बाहर आएगा तो बड़े-बड़ों की हवा निकल जाएगी। अभी तो वह जाल में फँसा है, दम तोड़ रहा है... लेकिन मैं कहता हूँ, मरना ही क्यों? मरना ही है तो साले दो-चार का गला दबा के मरो। मरने के बाद कौन-सा फाँसी पर चढ़ने का डर है। सरकार कहती है, कर्ज लो। लो, जी भर के कर्ज लो। सरकार का पैसा लो और वापस करने से मना कर दो। फसल उगाओ और सरकार को मत बेचो। पड़ा रहने दो घर में। सब मिल जाओ। जब सरकार को गन्ना नहीं मिलेगा, कपास नहीं मिलेगा, सोयाबीन और चावल नहीं मिलेगा तो वो बौखला जाएगी। तब देखते हैं कि सरकार क्या करेगी? और करेगी तो साली आर-पार की लड़ाई होगी। तब मर भी जाएँगे तो चिंता नहीं। सरकार कहती है, मोबाइल लो, ट्रेक्टर लो, बीमा कराओ, पेट्नीसाईट वापरो। वापरो, जी भर के वापरो। उसके हाथ में पुलिस है, सेना है, कचेहरी है तो हमारे हाथ में हल की मूठ है, जमीन से फसल उगाने का नुस्खा है। कचेहरी क्या करेगी, यदि हम मूठ ही न थामें। जब सरकार का बाप बाहर से डंडा करेगा। तब वो तड़पेगी और हम मजा लेंगे...।'

देवाजी के नथुने फड़क रहे थे। सरकारी प्रचार-तंत्र में फँसा वह एक आक्रमक किसान था और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उसने अपनी तड़प के स्रोत जान लिए थे। फिर वह अचानक उठा और कपास के पौधों के बीच जाकर उकड़ूँ बैठ गया।

कपास के फलों से झाँकती सफेदी के बीच मटमैले सफेद कपड़े पहने वह भी धूसर कपास की तरह लग रहा था। मैं मेड़ पर ही बैठा रह गया। उसक पास जाने की हिम्मत न हुई।

शाम को सूरज ने अपने धूप के कपड़े उतारकर तपे लोहे के रंग के कपड़े पहन लिए थे और पश्चिम दिशा में रोशनी के कतरे को बचाने की मुहिम में डटा था। फिर धीरे-धीरे अँधेरे का आभास बढ़ने लगा तो उसने हथियार डाल दिए। देवाजी मेरे पास आया और कहा कि अब घर चलते हैं।

हम साथ-साथ लौट रहे थे और हमारे आगे-पीछे अँधेरा भी पृथ्वी पर लौट आया था।

समुद्रपुर एक बड़ा गाँव था। वर्धा से केवल चालीस किलामीटर दूर। गलियाँ सीमेंट की थीं और उसके किनारों से गँदला पानी बह रहा था। जगह-जगह हैंडपंप लगे हुए थे। बिजली के खंभे सिर उठाए खड़े थे और पीली रोशनी अँधेरे की जाली से छनकर घरों की खपरैल छतों पर गिर रही थी। गाँव के बीचों-बीच हनुमान का एक मंदिर था, जिसके दालान में बैठे हुए प्रौढ़ बातचीत में डूबे थे। गलियों के थोड़े अँधेरे हिस्से में कैशौर्य और जवानी की सीमा-रेखा पर खड़े नवयुवक दबी-जुबान में हँसी-ठट्ठा कर रहे थे। परसों हुई मौत के चिह्न अभी गाँव के कपाल से पुँछे नहीं थे, इसका आभास मुझे गाँव की गलियों में धँसते हुए हो रहा था। उच्चारित शब्दों के भीतर की चुप्पी को मैं सुन पा रहा था। घर के भीतर से उठते शोर में भी चुप्पी खामोश नहीं हो गई थी।

देवाजी के पीछे-पीछे चलते हुए मैं उसके घर पहुँचा और मेरा सामना उसकी घरवाली की अजनबी नजरों से हुआ। देवाजी ने उससे कहा कि ये साब बाहर गाँव से आए हैं और दो-तीन दिन हमारे साथ रहेंगे। अजनबी नजरों की अजनबीयत तो मिट गई लेकिन आश्चर्य से लिपटा हुआ प्रश्न उसके चेहरे पर तैरता रहा। घर के आँगन में रस्सी के दो खटिये बिछाकर वह भीतर चली गई। थोड़ी देर बाद उसने चाय के दो कप हमें पकड़ा दिए और कुएँ से पानी खींचने लगी।

'संभाजी का घर कौन-सा है?' चाय पीते-पीते मैंने पूछा।

'यहीं, इसी गली का आखिरी मकान।'

'तुम जाओगे नहीं वहाँ...?'

'नहीं। थोड़ी देर वह चुप रहा फिर बोला - 'जाकर क्या करूँगा?'

देवाजी की बातों में कहीं कोई झोल नहीं था, जहाँ मैं शब्दों को धँसा सकूँ। आखिरकार गाँव का एक चक्कर लगा आने की बात कहकर मैं उठा।

समुद्रपुर बहुसंख्यक कुनबियों का गाँव था। अपने रूप-रंग में बहुत समृद्ध तो नहीं, लेकिन बहुत पिछड़ा हुआ भी नहीं। मैं उसी ओर चलने लगा जिधर संभाजी का घर था।

गली के उस आखिरी मकान के सामने मायूसी थी। उस ओर चलते हुए मेरी चाल सहज ही धीमी हो गई। भीतर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैंने, मानो रेंगते हुए, दरवाजे को पार किया। हल्की आवाजें घर के भीतर से निकलकर गली में फैल गई थीं। घर रो-धोकर शांत हो गया था। मैं गली तो पार कर गया लेकिन समझ में नही आ रहा था कि किस ओर चलूँ। मैं बस चल रहा था और चलते-चलते गाँव की सीमा पर डटे अंतिम बिजली के खंभे को भी पार कर गया।

एक अजीब-सा आतंक वहाँ पसरा था। पीली रोशनी का एहसास और उसके ठीक बाद चाँदनी से धुला हुआ दूर-दूर तक फैला अँधेरा। मैं अँधेरे और उजाले की सीमा रेखा पर खड़ा था। वहाँ से पलट कर मैंने गाँव को देखा। लगा, जैसे किसी ने ज्वालामुखी को पॉलीथिन में बंद कर रखा है।

गाँव में हुई दूसरी आत्महत्या के दरवाजे से गुजरने का खयाल मैंने छोड़ दिया।

बहुत देर तक इधर-उधर से समुद्रपुर को देखने के बाद जब मैं लौटा, देवाजी परेशान खटिए पर बैठा था। मुझे देखते ही उछलकर खड़ा हो गया - 'कहाँ। चले गए थे, साब, पूरे गाँव के तीन चक्कर लगा आया हूँ।'

मैंने कलाई में बँधी घड़ी पर नजर डाली। नौ बज रहे थे। सचमुच नौ बज रहे थे। यानी मैं लगभग दो-ढाई घंटे इधर-उधर घूमता रहा था।

'कुछ नहीं, बस इधर-उधर घूम रहा था।' मैंने माफी माँगने के लहजे में कहा।

'साब, ये तुम्हारा शेहर नहीं है, चम्-चम् चमचमाता हुआ। यह गाँव है, गाँव। यहाँ साँप, बिच्छू घूमते रहते हैं। एकाध ने भी काट लिया तो दवाखाना जाने से पहले ही शांत हो जाओगे या रातभर छटपटाते रहोगे। दिन में जी भर कर घूमना अभी आराम ही करो।' उसकी उस उलाहनापूर्ण चिंता में उसकी घरवाली भी शामिल थी।

मैं हाथ-मुँह धोकर जब कपड़े बदल रहा था तो तीन लोग पूछकर जा चुके थे कि मैं लौटा या नहीं।

उस दिन मैं खाना खाकर जल्दी ही सो गया।

सुबह जरा देर से नींद खुली और मैंने देखा कि उसकी चार वर्षीय बेटी मेरे पैताने से दूर खड़ी मुझे आश्चर्य भरी निगाहों से देख रही है। मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट लौटी तो याद आया, पिछले चौबीस घंटे में मैं पहली बार मुस्कुरा रहा हूँ। मैंने उसे इशारे से पास बुलाया तो वह बेधड़क चली आई। फूली-फूली फ्राक पहने वह बड़ी प्यारी लग रही थी। उसके मुँह से दूध की गंध उठ रही थी और फ्राक के रंग उड़ने-उड़ने को थे।

'क्या नाम है तुम्हाला?' मैंने तोतली जुबान में पूछते हुए उसे उठाकर पेट पर बैठा लिया।

'लछमी और तुम्हारा?' उसकी जुबान साफ थी सो मैंने भी साफ जुबान में उत्तर दिया - 'अमित'।

'अमित काका, तुमि रात में आले ना। मला बाबा बोले कि तुमि इतक्या मोठा-मोठा किताब लिहता। पन कसीला मोठा किताब लिहता? पढ़ने में खूबच त्रास होता।' हिंदी और मराठी का एक नमकीन-सा झरना उसके मुँह से फूटा।

'मैं किताब लिखता नहीं, बेटा, पढ़ता हूँ, और मुझे भी त्रास होता है।'

'अरे साब, अब तक बिस्तर में ही हो। यदि साथ चलना है तो जल्दी तैयार हो जाओ। इस लड़की के मुँह लगोगे तो रात हो जाएगी, लेकिन बात खत्म नहीं होगी।'

'बड़ी प्यारी बेटी है देवाजी।'

देवाजी मुस्कुराया। मुझे उसकी मुस्कुराहट अच्छी लगी। मुस्कुराते हुए वह सचमुच बहुत अच्छा लग रहा था।

थोड़ी देर बाद मैं उसके साथ फिर खेत में था। वह अपने काम में और मैं अपने काम में। मैं घूम-घूमकर लोगों की बॉडी लेंग्वेज की स्टडी कर रहा था। देवाजी सही था। किसान काम तो कर रहे थे लेकिन उनमें उत्साह नहीं था। दूसरे किसान औसत से भी कम पढ़े-लिखे थे लेकिन उस जहरीली फिजा को कहीं भीतर ही भीतर महसूस कर रहे थे। वे धीरे-धीरे मौत के दलदल में धँस रहे थे। उनमें से कब कोई दूसरा अगले दिन न दिखे, कहना मुश्किल था।

लेकिन देवाजी... देवाजी गुजरी सदी का घिघियाता हुआ किसान नहीं था, जो पाटिल की देहरी पर उकड़ूँ बैठा जुहार करे और उसके रहमो-करम पर पले। उसके बाप-दादों ने यही किया था। पारंपरिक तरीके से खेती, भजन-कीर्तन, त्योहार, साहूकारों से कर्ज और फसल बेचकर चुकारा। जिंदगी एक बँधी-बँधाई पटरी पर दौड़ रही थी। वर्षा अच्छी हुई तो भगवान मेहरबान... सूखा पड़ा, महामारी फैली और गाँव के गाँव साफ तो शिकायत भगवान से और पाटिल के दरबार में फिर से जी हुजूरी।

फिर अचानक देश विकास के अदृश्य घोड़े पर सवार हो गया। छोटे और मझोले किसानों के भीतर अचानक महत्वपूर्ण होने की लहरें उठने लगीं। उनके सपनों में भागते घोड़े की अयाल हिलने लगी। बड़े जमींदारों-पाटिलों की सरकार-परस्त साझीदारी के बावजूद दुनिया का बाजार समझ चुका था कि इन छोटे और मझोले किसान की जमीन हड़पना ज्यादा आसान है क्योंकि बड़े किसान और जमींदार अपने सुरक्षित जीवन के कारण ज्यादा घाघ तरीके से खरीद-फरोख्त करते हैं। फिर वे गिनती में इतने थोड़े हैं कि बेहतर ग्राहक होने के बावजूद उनके भरोसे अधिक माल खपाया नहीं जा सकता। कर्ज लेकर अदा न करने के लाख तरीके उन्हें आते हैं। उनकी तुलना में छोटे किसान आसान टारगेट हैं। सबसे बड़ी बात कि बाजार को दोनों ओर से फायदा था। यदि किसान मर जाएँ तो उनकी घरवालियाँ जमीन बेचेंगी ही, जिसका अंतिम खरीददार वही होगा। आखिर कब तक वे बटाई पर खेती करती रहेंगी? और किसानी चल निकली तो बाजार के माल खपेंगे।

बस, फिर क्या था... सरकार और दुनिया के आका अचानक किसानों के प्रति अपनी मुलायम दृष्टि के साथ नमूदार हुए। कर्ज, बीज, खाद, फसल की आसान खरीद, बेहतर जीवन का स्वप्न, बीमा योजनाएँ। और मझोले किसानों का युवा ब्रिगेड इस जाल में फँस गया। मध्यवर्ती और पिछड़ी जातियों के ये किसान सरकारी-गैर सरकारी फरमानों को सच मानकर बैंकों-महाजनों के नए चक्रवात में फँसते गए और जब सच्चाई का पता लगा तो बहुत देर हो चुकी थी।

देवाजी के साथ मैं पूरे तीन दिन रहा और ये बातें उसने मुझे टुकड़े-टुकड़े में, ठेठ घावरानी लहजे में बताई। मैं उसकी समझ पर चमत्कृत था। गाँव में रहते हुए अपने अनुभवों के आधार पर चीजों को इतनी बारीकी से समझना आसान नहीं था। देवाजी सारी स्थितियों को जानता था और दूसरे किसानों की तरह के स्वप्न देखता हुआ एक छोटा किसान था। फर्क केवल इतना कि मरने की जगह मारने की एक उद्धत आकांक्षा उसकी आक्रामकता की तह में साँस लेती रहती थी। उसका तेवर जब चढ़ा हेाता तो उसकी पत्नी और आठ वर्षीय बड़ा बेटा उससे कतराते थे। बच-बचकर रहते थे। ऐसे क्षणों में केवल लक्ष्मी ही उसके पास आ सकती थी।

हल्के भूरे बाल, गोल बड़ी आँखें, नाक में फुल्ली और फूले हुए गाल... लक्ष्मी थी ही ऐसी कि अजनबी को भी उस पर प्यार आ जाए। जब 'बाबा-बाबा' कहती हुई वह देवाजी की गोद में चढ़ जाती तो उसका भाव बदल जाता। लगता ही नहीं कि यह वही देवाजी है, जिसकी आँखों में अभी-अभी जंगली बिल्ली की-सी हिंसक आकांक्षाएँ तैर रही थीं।

देवाजी से मुलाकात की अंतिम रात... आँगन में हम खटिये पर लेटे थे। रात काफी खुली हुई थी, पूरे चाँद की रात... लेकिन बिलकुल चुप-चुप। आवाज के नाम पर दूरदर्शन द्वारा प्रसारित कार्यक्रमों की आवाजें उस उजली रात में फैल गई थीं। एड्स, कंडोम, ग्राम-सुधार, पेयजल, सर्वशिक्षा अभियान, टेलीविजन, फ्रीज, कपड़ों-जूतों के नाम और इस्तेमाल की ढेरों उपयोगिताएँ... सब मिलकर जैसे एक वस्तु में बदल गए थे और उन्हें खरीदने की विनम्र राजाज्ञाएँ बार-बार प्रसारित की जा रही थीं। इन्हीं विज्ञापनों के बीच कोई धार्मिक सीरियल डी.डी. नेशनल से प्रसारित हो रहा था।

लक्ष्मी देवाजी के हाथ को तकिया बनाकर सो गई थी। और वह आसमान को घूरे जा रहा था।

'कांट्रेक्टर बाबू...' देवाजी परसों से मुझे यही कह रहा था और मैंने भी कोई खास आपत्ति नहीं जताई, 'सच-सच बताओ, अपनी बही वगैरा देखकर, क्या तुमको लगता है कि हालात बरोबर हो जाएँगे? कर्ज की मियाद खतम होते-होते जिंदगी खतम हो जाती है। अपने बच्चों को कर्ज की किश्त के अलावा हम कुछ भी नहीं दे पाते। खेतों में फसल पकनी शुरू हुई कि पाटिल की दौड़-भाग भी शुरू हो जाती है। सरकार को भी शेती में अब कोई मुनाफा नहीं दिख रहा है। शहरी लोग फारम हाऊस के लिए जमीन खरीद रहे हैं। हम काश्तकार हैं लेकिन खेत-मजूरी की राह में ढकेले जा रहे हैं। सरकार अब विदेशों से धान्य मँगाने लगी है। बताओ, एक काश्तकार, काश्तकारी छोड़ के कैसे जिएगा?'

अँधेरे के जल में बुलबुलों की तरह देवाजी की आवाज उठती रही। उस निरभ्र आकाश में किसी के पास उसके सवालों का जवाब नहीं था। मैं सोचता रह गया कि दुनिया जिस तेजी से बदल रही है। उसके चक्के में किसानों की साँसें अटकी हैं। जरा-सा बदलाव का नाटक और... और यह पूरा मंजर श्मशान। मुझे देवाजी हताश नहीं लग रहा था लग रहा था कि तूफान अपनी ताकत तौल रहा है!

आधी रात बीत चुकी थी। अक्टूबर की हल्की ठंड पृथ्वी पर उतरने लगी थी। हम दोनों चुपचाप खुले आसमान के नीचे पड़े थे। इस बीच टी.वी. की सारी आवाजें बुझ चुकी थीं। केवल उठे हुए बिजली के खंभे सूने में पीली रोशनी फेंकते हुए खड़े थे। उजली चाँदनी में यह रोशनी भी मटमैली हो गई-सी लगती थी। उसकी घरवाली ने लक्ष्मी को अंदर ले जाकर सुला दिया था और हमसे बार-बार भीतर आ जाने का आग्रह कर रही थी, लेकिन नींद न उसकी आँखों में थी और न ही मेरी आँखों में। हमारी नजरें आकाश में चहल-कदमी करते चाँद पर टिकी थीं।

आखिरकार मैंने उठते हुए कहा -

'सब ठीक हो जाएगा, देवाजी, चिंता मत करो। चलो, अब सोते हैं। सुबह मुझे लौटना है।'

देवाजी गहरी उदासी के साथ उठा और चुपचाप भीतर चला गया। मैं थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा। इन तीन दिनों में पहली बार मैंने गौर से उसका घर देखा। खपरैल की छत और उस पर बेपरवाह फैली हुई लौकी, तोरई और सेम की बेलें। खुला हुआ बड़ा-सा आँगन, जिसके एक कोने पर कुआँ, और दूसरा कोना मवेशियों के लिए छप्पर से छाया हुआ। अन्दर दो कमरे, रसोई घर अलग, जिसके एक कोने में विठोबा की तस्वीर रखी है और उसके सामने जलता हुआ एक दीया, जो अब बुझने-बुझने को है। कुल मिलाकर जीने के लिए काफी सामान मौजूद है। लेकिन संभाजी के घर में भी तो यही सब कुछ था, फिर उसने क्यों आत्महत्या कर ली? क्या मौत की ये भयानकताएँ सपने देखने और टूटने के घर्षण से जन्म ले रही हैं? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आखिरकार अपने भ्रम और प्रश्न को वहीं, उस खुले और उजले आँगन में ठिठुरने के लिए छोड़कर मैं भीतर आ गया।

वह पूरी रात करवटों में गुजर गई। लग रहा था, पूरा गाँव जहरीली गैस के चैंबर में धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है। रस्सी की खटिया में संगीन उग आए थे। उन्हीं संगीनों के ऊपर बिलबिलाते हुए मैंने भयंकर सपना देखा-सपने में एक भीड़ थी। सूटेड-बूटेड आला-अफसरों की भीड़। उनके हाथों में कोल्डड्रिंक्स और पोटेटो चिप्स के पैकेट थे। भीड़ के बीचों-बीच एक गोलाकार घेरा था, जहाँ देवाजी जमीन पर पड़ा था। दो भयंकर साँड़ नथूना फुलाए, हुँकारते हुए आते और उसे सींगों से उठाकर आसमान की ओर उछाल देते। वह जितना ऊपर उछलता, लोग पागलों की तरह खुश होकर चिल्लाते। वे अपनी मुठ्ठियाँ हवा में उछालते और पेप्सी का एक घूँट गिटक लेते। देवाजी छटपटाता हुआ जमीन पर गिरता... यह उठना और गिरना लगातार चलता रहा... और अब देवाजी घिसटते हुए, भागने की कोशिश कर रहा था... भीड़ ने उसे पकड़कर सीधा खड़ा कर दिया... फिर एक जहीन से दिखने वाले आदमी ने पुचकारते हुए अचानक उसके हलक में हाथ डाला और स्वरतंत्रियों की खींचकर बाहर निकाल दिया... फिर लोग उसे जूते से कुचलने लगे... कुचलने लगे...।

'कांट्रेक्टर बाबू, उठना नहीं है क्या?' देवाजी मुझे कोंच रहा था।

मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। आँखों के भीतर चल रही फिल्म की बिजली अचानक गुल हो गई थी। वहाँ एक जीता-जागता घर मुस्कुरा रहा था।

आज मुझे वापस लौटना था। मैं जल्दी-जल्दी तैयार हो गया। देवाजी गाँव के बाहर बस-स्टॉप तक मुझे छोड़ने आया। मैंने सिगरेट सुलगाई तो उसने भी एक सिगरेट सुलगाई। फिर धुआँ छोड़ते हुए बोला - 'कांट्रेक्टर बाबू, मेरी ओर से चिंता मत करो। मुझे अपने बीवी-बच्चों से बहुत प्यार है। कर्ज में मैं भी डूबा हुआ हूँ लेकिन बहुत सख्त जान हूँ, बिल्कूल मांगुर मच्छी जैसा...' वह फिर हँसने लगा।

मैं उसे बस देखता रहा, देखता रहा। फिर बस आ गई। बस में चढ़ने के बाद मैंने खिड़की से हाथ हिलाया, लेकिन देवाजी तब तक मुड़कर खेतों की ओर जा चुका था।

और इन आठ महीनों में, न जाने क्यों, देवाजी के घर देखा हुआ सपना, बराबर मेरी नींद में आता-जाता रहा। मेरी इच्छा और सुविधा का ख्याल किए बगैर, वह जब-तब मेरी नींद में धमक जाता और अपनी पूरी उपस्थिति के बाद अंतर्धान होता। मैं हड़बड़ाकर उठता... फिर वही बेचैनी, वही प्यास, वही छटपटाइट...।

सुबह से सुनीता तीन बार चाय के ठंडे कप ले जा चुकी थी। यह नई बात नहीं थी। मैं जब काम में डूबा होता, वह अक्सर ही ऐसा करती। लेकिन मैं काम में कहाँ डूबा था। मैं तो चिंता में डूबा हुआ था, स्मृतियों में डूबा हुआ था। सपना आज खुली आँखों में जाग रहा था। मैं खुद उस आदमी का चेहरा देखना चाहता था, जिसने देवाजी को पुचकारते हुए उसके हलक में हाथ डालकर स्वर-तंत्रियों को खींच लिया था। सपने का कैमरा जैसे ही उसके चेहरे की ओर बढ़ता, मेरी नींद उचट जाती, किसी थर्ड क्लास सस्पेंस फिल्म की तरह। लेकिन आज मैं खुली आँखों से सपना देख रहा था, सो नींद उचटने का सवाल ही नहीं था।

...देवाजी का लहूलुहान उछलता हुआ शरीर बार-बार जमीन पर गिरता... फिर भागने की कोशिश कर रहे देवाजी को लोगों ने जकड़ लिया... फिर उस संभ्रांत से आदमी ने हमेशा की तरह स्वर-तंत्रियों को खींचकर बाहर कर दिया और लोग उसे जूते से कुचलने लगे... नहीं, अब मैं जूतों की ओर नहीं जाऊँगा... यहीं पर गड़बड़ी होती है... सपने का कैमरा जूतों पर फोकस होता है और वह संभ्रांत आदमी बड़ी सफाई के साथ गायब हो जाता है... लेकिन इस बार मैं सावधान हूँ और उस पर अपनी नजरें गड़ाए हुए हूँ... कैमरा ऊपर हो रहा है... पूरी तरह उस संभ्रांत चेहरे पर स्थिर...।

और... और... क्या वह... सचमुच... मैं था...?

हाँ, वह... यकीनन... मैं ही था... मैं ही था...!


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हिंदी समय में बसंत त्रिपाठी की रचनाएँ