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कविता

गजलें और नज्में

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


24. गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
25. गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते
26. मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
27. ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू
28. मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
29. कोई आशिक़ किसी महबूब से
30. तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है
31. तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी
32. तुम मेरे पास रहो
33. चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
34. दश्ते-तन्हाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ा हैं
35. दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
36. मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर
37. आइए हाथ उठाएँ हम भी
38. दोनों जहान तेरी मोहब्बत मे हार के
39. नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
40. न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
41. फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूँ या न करूँ
42. नज़्रे ग़ालिब
43. नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
44. तनहाई
45. फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहांताब सफ़र से
46. फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे

गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
 

गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-दर तो देखो
ऐसे नादाँ तो न थे जाँ से गुज़रने वाले
नासिहो, रहबर-ओ-राहगुज़र तो देखो
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फ़त मुझसे
एक नज़र तुम मेरा महबूबे-नज़र तो देखो
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं
देखने वालो कभी उनका जिगर तो देखो
दामने-दर्द को गुलज़ार बना रखा है
आओ एक दिन दिले-पुरख़ूँ का हुनर तो देखो
सुबह की तरह झमकता है शबे-ग़म का उफ़क़
फ़ैज ताबिंदगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो

गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते

गरानी-ए-शबे-हिज्राँ दुचंद क्या करते
इलाजे-दर्द तेरे दर्दमंद क्या करते
वहीं लगी है जो नाज़ुक मकाम थे दिल के
ये फ़र्क़ दस्ते-अदू के गज़ंद क्या करते
जगह-जगह पे थे नासेह तो कू-ब-कू दिलबर
इन्हें पसंद, उन्हें नापसंद क्या करते
हमीं ने रोक लिया पंजा-ए-जुनूँ को वरना
हमें असीर ये कोताहकमंद क्या करते
जिन्हें ख़बर थी कि शर्ते-नवागरी क्या है
वो ख़ुशनवा गिला-ए-क़ैदो-बंद क्या करते
गुलू-ए-इश्क़ को दारो-रसन पहुँच न सके
तो लौट आए तेरे सरबलंद, क्या करते

मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
 

इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा

आँखों के दरीचे में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा

मुमकिन है कोई वोम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा

शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा

इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा

माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है

हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है

ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू
 

ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू
सुकूँ की नींद तुझे भी हराम हो जाए
तेरी मसर्रते-पैहम तमाम हो जाए
तेरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाए

ग़मों से आईना-ए-दिल गुदाज़ हो तेरा
हुजूमे-यास से बेताब होके रह जाए
वफ़ूरे-दर्द से सीमाब होके रह जाए
तेरा शबाब फ़क़त ख़्वाब होके रह जाए

ग़ुरूरे-हुस्न सरापा नियाज़ हो तेरा
तवील रातों में तू भी क़रार को तरसे
तेरी निगाह किसी ग़मगुसार को तरसे
ख़िज़ाँरसीदा तमन्ना बहार को तरसे

कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्ताँ पे झुके
कि जिंसे-इज़्ज़ो-अक़ीदत से तुझको शाद करे
फ़रेबे-वादा-ए-फ़र्दा पे ए'तमाद करे
ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि तुझको याद आए

वो दिल जो तेरे लिए बे-क़रार अब भी है
वो आँख जिसको तेरा इंतज़ार अब भी है

मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं

मेरी-तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
जो मेरे-तेरे तन-बदन में लाख दिल फ़िग़ार हैं
जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी से सब क़लम नज़ार हैं

जो मेरे-तेरे शहर की हर इक गली में
मेरे-तेरे नक़्श-ए-पा के बे-निशाँ मज़ार हैं
जो मेरी-तेरी रात के सितारे ज़ख़्म ज़ख़्म हैं
जो मेरी-तेरी सुबह के गुलाब चाक चाक हैं

ये ज़ख़्म सारे बे-दवा ये चाक सारे बे-रफ़ू
किसी पे राख चाँद की किसी पे ओस का लहू

ये हैं भी या नहीं बता
ये है कि महज़ जाल है
मेरे-तुम्हारे अंकबूते-वोम का बुना हुआ

जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता, बता, बता

कोई आशिक़ किसी महबूब से
 

याद की राहगुज़र जिसपे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गईं हैं तुम्हें चलते-चलते
ख़त्म हो जाए जो दो-चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्ते-फ़रामोशी का

जिससे आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो
साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ कर देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है

गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र

दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं
जिसके परदे में मेरा माहे-रवाँ डूब सके

तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!

तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है

तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है

जुनूँ में जितनी भी गुज़री बकार गुज़री है
अगर्चे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है

हुई है हज़रते-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कू-ए-यार गुज़री है

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है

तुम मेरे पास रहो
 

तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो

जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले
मर्हमे-मुश्क लिए नश्तरे-अल्मास लिए
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले

जिस घड़ी सीनों में डूबते हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की रह तकने लगें आस लिए
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलक़ुले-मय
बहर-ए-नासूदगी मचले तो मनाए न मने
जब कोई बात बनाए न बने

जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुनसान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो

चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
 

चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शबे-तनहाई का
दौलते-लब से फिर ऐ ख़ुसरवे-शीरींदहनाँ
आज अरज़ा हो कोई हर्फ़ शनासाई का
दीदा-ओ-दिल को सँभालो कि सरे-शामे-फ़िराक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुसवाई का

दश्ते-तन्हाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ा हैं


दश्ते-तनहाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ाँ हैं
तेरी आवाज़ के साए तेरे होंठों के सराब
दश्ते-तनहाई में दूरी के ख़सो-ख़ाक़ तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुरबत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफ़क़ पार चमकती हुई क़तरा-क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

इस क़दर प्यार से, ऐ जाने जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबहे-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात

दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
 

दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं
एक-एक कर के हुए जाते हैं तारे रौशन
मेरी मंज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं

रक्से-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मैख़ाना सफ़ीराने-हरम आते हैं
कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग
वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं

और कुछ देर न गुज़रे शबे-फ़ुरक़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं

मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर


मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर
हुआ फिर से हुक्म सादिर

के वतन बदर हों हम तुम
दें गली-गली सदाएँ
करें रुख़ नगर-नगर का
के सुराग़ कोई पाएँ

किसी यारे-नामाबर का
हर एक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का

सरे-कू-ए-नाशनायाँ
हमें दिन से रात करना
कभी इससे बात करना
कभी उससे बात करना

तुम्हें क्या कहूँ के क्या है
शबे-ग़म बुरी बला है

हमें ये भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता
हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता

आइए हाथ उठाएँ हम भी
 

आइए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत, कोई ख़ुदा याद नहीं

आइए अर्ज़ गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फ़र्दां भर दे
वो जिन्हें ताबे गराँबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शबो-रोज़ को हल्का कर दे

जिनकी आँखों को रुख़े-सुब्हे का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शम्म'अ मुनव्वर कर दे
जिनके क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दे

जिनका दीं पैरवी-ए-कज़्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ़्र मिले, ज़ुर्रते-तहक़ीक़ मिले
जिनके सर मुंतज़िरे-तेग़े-जफ़ा हैं उनको
दस्ते-क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले

इश्क़ का सर्रे-निहाँ जान-तपाँ है जिससे
आज इक़रार करें और तपिश मिट जाए
हर्फ़े-हक़ दिल में खटकता है जो काँटे की तरह
आज इज़हार करें और ख़लिश मिट जाए

दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के

दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीराँ है मैकदा ख़ुमो-सागर उदास है
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुम से भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज 'फ़ैज़'
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़े-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही

गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही

दयारे-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
 

न गँवाओ नावके-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़ दाग़ लुटा दिया

मेरे चारागर को नवेद हो, सफ़े-दुश्मनाँ को ख़बर करो
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर, वो हिसाब आज चुका दिया

करो कज ज़बीं पे सरे-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमाँ न हो
कि ग़ुरूरे-इश्क़ का बाँकपन, पसे-मर्ग हमने भुला दिया

उधर एक हर्फ़ कि कुश्तनी, यहाँ लाख उज़्र था गुफ़्तनी
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया

जो रुके तो कोहे-गराँ थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गए
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया

फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूँ या न करूँ

फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूँ या न करूँ
ज़िक्रे-मुर्गाने-गिरफ़्तार करूँ या न करूँ
क़िस्सा-ए-साज़िशे-अग़यार कहूँ या न कहूँ
शिकवा-ए-यारे-तरहदार करूँ या न करूँ
जाने क्या वज़ा है अब रस्मे-वफ़ा की ऐ दिल
वज़ा-ए-दैरीना पे इसरार करूँ या न करूँ
जाने किस रंग में तफ़सीर करें अहले-हवस
मदहे-ज़ुल्फो-लबो-रुख़सार करूँ या न करूँ
यूँ बहार आई है इमसाल कि गुलशन में सबा
पूछती है गुज़र इस बार करूँ या न करूँ
गोया इस सोच में है दिल में लहू भर के गुलाब
दामनो-जेब को गुलनार करूँ या न करूँ
है फ़क़त मुर्ग़े-ग़ज़लख़्वाँ कि जिसे फ़िक्र नहीं
मोतदिल गर्मी-ए-गुफ़्तार करूँ या न करूँ

नज़्रे ग़ालिब
 

किसी गुमाँ पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं
फिर आज कू-ए-बुताँ का इरादा रखते हैं
बहार आएगी जब आएगी, यह शर्त नहीं
कि तश्नागकम रहें गर्चा बादा रखते हैं
तेरी नज़र का गिला क्या जो है गिला दिल को
तो हमसे है कि तमन्ना ज़ियादा रखते हैं

नहीं शराब से रंगी तो ग़र्क़े-ख़ूँ हैं के हम
ख़याले-वजहे-क़मीसो-लबादा रखते हैं
ग़मे-जहाँ हो, ग़मे-यार हो कि तीरे-सितम
जो आए, आए कि हम दिल कुशादा रखते हैं
जवाबे-वाइज़े-चाबुक-ज़बाँ में 'फ़ैज़' हमें
यही बहुत है जो दो हर्फ़े-सादा रखते हैं

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं

जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जाँ सरे-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं

टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं

चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगाएँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं

तनहाई
 

फिर कोई आया दिले-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार;
लड़खड़ाने लगे एवानों में ख़्वाबीदा चिराग़;
सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुँधला दिए क़दमों के सुराग़

गुल करो शम्‍एँ', बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़
अपने बेख़्वाब किवाड़ों को मुकफ़्फ़ल कर लो

अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा

फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहांताब सफ़र से

फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहाँ-ताब सफ़र से
फिर नूरे-सहर दस्तो-गरेबाँ है सहर से
फिर आग भड़कने लगी हर साज़े-तरब में
फिर शोले लपकने लगे हर दीदा-ए-तर से
फिर निकला है दीवाना कोई फूँक के घर को
कुछ कहती है हर राह हर इक राहगुज़र से
वो रंग है इमसाल गुलिस्ताँ की फ़ज़ा का
ओझल हुई दीवारे-क़फ़स हद्दे-नज़र से
साग़र तो खनकते हैं शराब आए न आए
बादल तो गरजते हैं घटा बरसे न बरसे
पापोश की क्या फ़िक्र है, दस्तार सँभालो
पायाब है जो मौज गुज़र जाएगी सर से

फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे

फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे
जाने किस-किस को आज रो बैठे
थी मगर इतनी रायगाँ भी न थी
आज कुछ ज़िंदगी से खो बैठे
तेरे दर तक पहुँच के लौट आए
इश्क़ की आबरू डुबो बैठे
सारी दुनिया से दूर हो आए
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे
न गयी तेरी बेरुखी न गई
हम तेरी आरज़ू भी खो बैठे
'फ़ैज़' होता रहे जो होना है
शे'र लिखते रहा करो बैठे



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