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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
पाँचवाँ भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी


47. बहुत मिला न मिला ज़िंदगी से ग़म क्या है
48. बात बस से निकल चली है
49. बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते

50. इंतिसाब
51. सोचने दो
52. मुलाक़ात
53. पास रहो
54. मौज़ू-ए-सुख़न
55. बोल.........
56. हम लोग
57. क्या करें
58. यह फ़स्ल उमीदों की हमदम
59. शीशों का मसीहा कोई नहीं
60. सुब्‍हे-आज़ादी
61. ईरानी तुलबा के नाम
62. सरे-वादि'ए-सीना
63. फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी
64. Africa Come Back- अफ़्रीका वापस आओ
65. हम जो तारीक राहों में मारे गए
66. एक मंज़र
67. ज़िंदाँ की एक शाम
68. ऐ रोशनियों के शहर
69. यहाँ से शहर को देखो

बहुत मिला न मिला ज़िंदगी से ग़म क्या है

बहुत मिला न मिला ज़िंदगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है

हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है

करे न जग में अलाव तो शे'र किस मक़सद
करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या है

अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना
न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है

सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो
बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है

लिहाज़ में कोई कुछ दूर साथ चलता है
वरना दहर में अब ख़िज़्र का भरम क्या है

बात बस से निकल चली है

बात बस से निकल चली है
दिल की हालत सँभल चली है

अब जुनूँ हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है

अश्क़ ख़ूनाब हो चले हैं
ग़म की रंगत बदल चली है

या यूँ ही बुझ रही है शम्‍एँ
या शबे-हिज़्र टल चली है

लाख पैग़ाम हो गए हैं
जब सबा एक पल चली है
जाओ अब सो रहो सितारो
दर्द की रात ढल चली है

बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते

बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते
तुम अच्छे मसीहा हो शफ़ा क्यों नहीं देते
दर्दे-शबे-हिज्राँ की जज़ा क्यों नहीं देते
खूने-दिले-वोशी का सिला क्यों नहीं देते
मिट जाएगी मखलूक़ तो इंसाफ़ करोगे
मुंसिफ़ हो तो अब हश्र उठा क्यों नहीं देते
हाँ नुक्तावरो लाओ लबो-दिल की गवाही
हाँ नग़मागरो साज़े-सदा क्यों नही देते
पैमाने-जुनूँ हाथों को शरमाएगा कब तक
दिलवालो गरेबाँ का पता क्यों नहीं देते
बरबादी-ए-दिल जब्र नहीं 'फ़ैज़' किसी का
वो दुश्मने-जाँ है तो भुला क्यों नहीं देते

इंतिसाब

आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म कि है ज़िंदगी के भरे गुलिस्ताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
क्लर्कों की अफ़्सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्टमैनों के नाम
ताँगेवालों के नाम
रेलवानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाहे-जहाँ, वालिये-मासेवा नायबुल्लाह फ़िल्अर्ज़ दहक़ाँ के नाम
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए
हाथ भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली
दूसरी मालिए के बहाने से सरकार ने काट ली
जिसकी पग ज़ोर वालों के पाँवों तले
धज्जियाँ हो गई
उन दुखी माँओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाज़ुओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों, ज़ारियों से बहलते नहीं
उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिलखिल के
मुरझा गए हैं
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बेमुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उक्ता गए हैं
बेवाओं के नाम
कटड़ियों और गलियों, मोहल्लों के नाम
जिनके नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ आ के करता है अक्सर वज़ू
जिन के सायों में करती है आह-ओ-बुका
आँचलों की हिना
चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू
तालिब इल्मों के नाम
वो जो अस्हाबे-तब्ल-ओ-अलम
के दरों पर किताब और क़लम
का तक़ाज़ा लिए, हाथ फैलाए
पहुँचे, मगर लौट कर घर न आए
वो मासूम जो भोलपन में
वहाँ अपने नन्हे चराग़ों में लौ की लगन
ले के पहुँचे जहाँ
बट रहे थे, घटा टोप, बे अंत रातों के साए
उन असीरों के नाम
जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर
जेलख़ानों की शोरीदा रातों की सर सर में
जल-जल के अंजुमनुमा हो गए हैं
आने वाले दिनों के सफ़ीरों के नाम
वो जो ख़ुशबू-ए-गुल की तरह
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गए हैं

सोचने दो

इक ज़रा सोचने दो
इस ख़याबाँ में
जो इस लहज़ा बयाबाँ भी नहीं
कौन-सी शाख़ में फूल आए थे सब से पहले
कौन बेरंग हुई रंज-ओ-ता'ब से पहले
और अब से पहले
किस घड़ी कौन-से मौसम में यहाँ
ख़ून का क़हत पड़ा
गुल की शहरग पे कड़ा
वक़्त पड़ा
सोचने दो
इक ज़रा सोचने दो
यह भरा शहर जो अब वादिए वीराँ भी नहीं
इस में किस वक़्त कहाँ
आग लगी थी पहले
इस के सफ़बस्ता दरीचों में से किस में अव्वल
ज़ह हुई सुर्ख़ शुआओं की कमाँ
किस जगह जोत जगी थी पहले
सोचने दो
हम से इस देस का, तुम नाम-ओ-निशां पूछते हो
जिसकी तारीख़ न जुग़राफ़िया अब याद आए
और याद आए तो महबूबे-गुज़िश्ता की तरह
रू-ब-रू आने से जी घबराए
हाँ मगर जैसे कोई
ऐसे महबूब या महबूबा का दिल रखने को
आ निकलता है कभी रात बिताने के लिए
हम अब इस उम्र को आ पहुँचे हैं जब हम भी यूँ ही
दिल से मिल आते हैं बस रस्म निभाने के लिए
दिल की क्या पूछते हो
सोचने दो

 

मुलाक़ात

1

यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
अज़ीमतर है कि उसकी शाख़ों में

लाख मशा'ल-बकफ़ सितारों
के कारवाँ, घिर के खो गए हैं
हज़ार महताब उसके साए
में अपना सब नूर, रो गए हैं
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
मगर इसी रात के शजर से
यह चंद लमहों के ज़र्द पत्ते
गिरे हैं और तेरे गेसुओं में
उलझ के गुलनार हो गए हैं
इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर
बरस के, हीरे पिरो गए हैं

 

2
बहुत सियह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वो नहरे-ख़ूँ जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वो मौजे-ज़र जो तेरी नज़र है
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों
के गुलसिताँ में सुलग रहा है
(वो ग़म जो इस रात का समर है)
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नीचे हैं, और हर इक
का हमने तीशा बना लिया है

3
अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क़ातिल दुखों के तीशे
क़तार अंदर क़तार किरनों
के आतशीं हार बन गए हैं

यह ग़म जो इस रात ने दिया है
यह ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है

 

मौज़ू-ए-सुख़न

गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए महताब से रात
और मुश्ताक़ निगाहों से सुनी जाएगी
और उन हाथों से मस होंगे यह तरसे हुए हाथ
उनका आँचल है कि रूख़सार कि पैराहन है
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छाओं में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं

आज फिर हुस्नेदिल आरा की वही धज होगी
वही ख़्वाबीदा सी आँखें, वही काजल की लकीर
रंगे रुख़सार पे हल्का सा वो ग़ाज़े का गु़बार
संदली हाथ पे धुँदली-सी हिना की तहरीर

अपने अफ़्कार की, अशआर की दुनिया है यही
जाने-मज़मूं है यही, शाहिदे-माना है यही
आज तक सुर्ख़-ओ-सियह सदियों के साए के तले
आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है
मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़ आराई में
हम पे क्या गुज़रेगी, अजदाद पे क्या गुज़री है?
इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
यह हसीं खेत फटा पड़ता है जोबन जिनका
किस लिए इनमें फ़क़त भूख उगा करती है?
यह हर इक सम्त, पुर-असरार कड़ी दीवारें
जल बुझे जिनमें हज़ारों की जवानी के चराग़
यह हर इक गाम पे उन ख़्वाबों की मक़्तल गाहें
जिनेके पर-तव से चराग़ाँ हैं हज़ारों के दिमाग़

यह भी हैं, ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे।
लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से ख़ुलते हुए होंठ !
हाय उस जिस्म के कमबख़्त, दिलावेज़ ख़ुतूत !
आप ही कहिए, कहीं ऐसे भी अफ़्सूँ होंगे

अपना मौजू-ए-सुख़न इनके सिवा और नहीं
तब'अ-ए-शायर का वतन इन के सिवा और नहीं

हम लोग

दिल के ऐवाँ में लिए गुमशुदा शम्मा'ओं की क़तार
नूरे-ख़ुर्शीद से सहमे हुए, उकताए हुए
हुस्ने-महबूब के सइयाल तसव्वुर की तरह
अपनी तारीकी को भींचे हुए, लिपटाए हुए
ग़ायते सूद-ओ-ज़ियाँ , सूरते आग़ाज़-ओ-मआल
वही बेसूद तजस्सुस, वही बेक़ार सवाल
मुज़महिल, सा'अते-इमरोज़ की बेरंगी से
यादे माज़ी से ग़मीं , दहशते-फर्दा से निढाल
तिश्ना अफ़्कार, जो तस्कीन नहीं पाते हैं
सोख़्ता अश्क जो आँखों में नहीं आते हैं
इक कड़ा दर्द कि जो गीत में ढलता ही नहीं
दिल के तारीक शिगाफ़ों से निकलता ही नहीं
और इक उलझी हुई मोहूम-सी दरमाँ की तलाश
दश्त-ओ-ज़िंदाँ की हवस, चाक-गिरेबाँ की तलाश

 

क्या करें

मेरी-तेरी निगाह में
जो लाख इंतज़ार हैं
जो मेरे-तेरे तन-बदन में
लाख दिलफ़िगार हैं
जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी से
सब क़लम नज़ार हैं
जो मेरे-तेरे शहर में
हर इक गली में
मेरे-तेरे नक़्शेपा के बेनिशाँ मज़ार हैं
जो मेरी-तेरी रात के
सितारे ज़ख़्म-जख़्म हैं
जो मेरी-तेरी सुबह के
गुलाब चाक-चाक हैं
यह ज़ख़्म सारे बेदवा
यह चाक सारे बेरफ़ू
किसी पे राख चाँद की
किसी पे ओस की लहू
यह है भी या नहीं बता
यह है कि महज़ जाल है
मेरे-तुम्हारे अन्कबूते-वोम का बुना हुआ
जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता
बता, बता

 

यह फ़स्ल उमीदों की हमदम
 

सब काट दो
बिस्मिल पौधों को
बे-आब सिसकते मत छोड़ो
सब नोच लो
बेकल फूलों को
शाख़ों पे बिलकते मत छोड़ो
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम
इस बार भी ग़ारत जाएगी
सब मेहनत सुबहों-शामों की
अब के भी अकारत जाएगी
खेती के कोनों खदरों में
फिर अपने लहू की खाद भरो
फिर मिट्टी सींचो अश्कों से
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो
जब फिर इक बार उजड़ना है
इक फ़स्ल पकी तो भर पाया
जब तक तो यही कुछ करना है

 

शीशों का मसीहा कोई नहीं
 

मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर
जो टूट गया, सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया, सो छूट गया
तुम नाहक़ टुकड़े चुन-चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो साग़रे दिल है जिसमें कभी
सद नाज़ से उतरा करती थी
सहबा-ए-ग़मे-जानाँ की परी
फिर दुनिया वालों ने तुमसे
यह साग़र लेकर फोड़ दिया
जो मय थी बहा दी मिट्टी में
मेहमान का शहपर तोड़ दिया
यह रंगीं रेज़े हैं शायद
उन शोख़ बिलोरी सपनों के
तुम मस्त जवानी में जिनसे
ख़िलवत को सजाया करते थे
नादारी, दफ़्तर भूख़ और ग़म
इन सपनों से टकराते रहे
बेरहम था चौमुख पथराओ
यह काँच के ढाँचे क्या करते

या शायद इन ज़र्रों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज़्ज़त का
वो जिससे तुम्हारे इज़्ज़ पे भी
शमशाद क़दों ने रश्क किया
इस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत, रहज़न भी कई
है चोर नगर, या मुफ़लिस की
गर जान बची तो आन गई
यह साग़र, शीशे, लाल-ओ-गुहर
सालिम हों तो क़ीमत पाते हैं
और टुकड़े-टुकड़े हों तो फ़कत
चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं
तुम नाहक़ शीशे चुन-चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
यादों के गिरेबानों के रफ़ू
पर दिल की गुज़र कब होती है
इक बख़िया उधेड़ा, एक सिया
यूँ उम्र बसर कब होती है
इस कारगहे हस्ती में जहाँ
यह साग़र, शीशे ढलते हैं
हर शय का बदल मिल सकता है
सब दामन पुर हो सकते हैं
जो हाथ बढ़े, यावर है यहाँ
जो आँख उठे, वो बख़्तावर
याँ धन-दौलत का अंत नहीं
हों घात में डाकू लाख मगर

कब लूट-झपट से हस्ती की
दूकानें ख़ाली होती हैं
याँ परबत-परबत हीरे हैं
याँ सागर-सागर मोती हैं

कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर
परदे लटकाए फिरते हैं
हर परबत को, हर सागर को
नीलाम चढ़ाए फिरते हैं
कुछ वो भी है जो लड़-भिड़ कर
यह पर्दे नोच गिराते हैं
हस्ती के उठाईगीरों की
चालें उलझाए जाते हैं

इन दोनों में रन पड़ता है
नित बस्ती-बस्ती, नगर-नगर
हर बस्ते घर के सीने में
हर चलती राह के माथे पर

यह कालिक भरते फिरते हैं
वो जोत जगाते रहते हैं
यह आग लगाते फिरते हैं
वो आग बुझाते फिरते हैं

सब साग़र,शीशे, लाल-ओ-गुहर
इस बाज़ी में बह जाते हैं
उट्ठो, सब ख़ाली हाथों को
उस रन से बुलावे आते हैं

 

सुब्‍हे-आज़ादी

यह दाग़-दाग़ उजाला, यह शब गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका यह वो सहर तो नहीं
यह वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शबे-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीनःए-ग़मे-दिल

जवाँ लहू की पुरअसरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
पुकारती रहीं बाँहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़े-सहर की लगन

बहुत क़रीं था हसीनाने-नूर का दामन
सुबुक-सुबुक थी तमन्ना, दबी-दबी थी थकन
सुना है, हो भी चुका है फ़िराक़े जु़लमत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाले-मंज़िल-ओ-गाम

बदल चुका है बहुत अहले-दर्द का दस्तूर
निशाते-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाबे- हिज्र हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिजराँ का कुछ असर ही नहीं

कहाँ से आई निगारे-सबा किधर को गई
अभी चिराग़े-सरे-रह को कुछ ख़बर ही नहीं

अभी गरानिए-शब में कमी नहीं आई
निजाते-दीदा-वो-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

 

ईरानी तुलबा के नाम
(जो अम्न और आज़ादी की जद्द-ओ-जेहद में काम आए)

यह कौन सख़ी हैं
जिनके लहू की
अशर्फियाँ, छन-छन, छन-छन
धरती की पैहम प्यासी
कश्कोल में ढलती जाती हैं
कश्कोल को भरती जाती हैं
यह कौन जवाँ हैं अरज़े-अजम!
यह लख लुट
जिनके जिस्मों की
भरपूर जवानी का कुंदन
यूँ ख़ाक़ में रेज़ा-रेज़ा है
यूँ कूचा-कूचा बिखरा है
ऐ अरज़े अजम! ऐ अरज़े अजम
क्यूँ नोच के हँस-हँस फेंक दिए
इन आँखों ने अपने नीलम
इन होंटों ने अपने मरजाँ
इन हाथों की बेकल चाँदी
किस काम आई, किस हाथ लगी?
ऐ पूछने वाले परदेसी!
यह तिफ़्ल-ओ-जवाँ
उस नूर के नौरस मोती हैं
उस आग की कच्ची कलियाँ हैं
जिस मीठे नूर और कड़वी आग
से ज़ुल्म की अंधी रात में फूटा
सुबहे-बग़ावत का गुलशन
और सुबह हुई मन-मन, तन-तन
उस जिस्मों का सोना-चाँदी
उन चेहरों के नीलम, मरजाँ
जगमग-जगमग, रख़्शां-रख़्शां
जो देखना चाहे परदेसी
पास आए देखे जी भर कर
यह ज़ीस्त की रानी का झूमर
यह अमन की देवी का कंगन

 

सरे-वादि'ए-सीना


फिर बर्क़े फ़रोज़ाँ है सरे वादि'ए सीना
फिर रंग पे है शोल'अ-ए-रूख़सारे हक़ीक़त
पैग़ामे-अजल दावते-दीदारे-हक़ीक़त
ऐ दीदःए-बीना
अब वक़्त है दीदार का दम है कि नहीं है
अब क़ातिले जाँ चारागरे कुल्फ़ते ग़म है
गुलज़ारे-इरम परतवे-सहराये-अदम है
पिंदारे-जुनूँ
हौसलए राहे-अदम है कि नहीं है
फिर बर्क़ फ़रोज़ाँ है सरे वादि'ए सीना, ऐ दीदाए बीना
फिर दिल को मुसफ़्फ़ा करो, इस लौह पे शायद
माबैने-मन-ओ-तू नया पैमाँ कोई उतरे
अब रस्मे-सितम हिकमते-ख़ासाने-ज़मीं है
ताईदे-सितम मसलहते-मुफ़्तिए-दीं है
अब सदियों के इक़रारे-इतायत को बदलने
लाज़िम है कि इनकार का फ़रमाँ कोई उतरे

सुनो कि शायद यह नूर सैक़ल
है इस सहीफ़े का हरफ़े-अव्वल
जो हर कस-ओ-नाकसे-ज़मीं पर
दिले गदायाने अजमईं पर
उतर रहा है फ़लक से अब तक
सुनो कि इस हर्फ़े-लमयज़ल के
हमीं तुम्हीं बंदगाने-बेबस
अलीम भी हैं ख़बीर भी हैं
सुनो कि हम बेज़बान-ओ-बेकस
बशीर भी हैं नज़ीर भी हैं
हर इक उलुल अम्र को सदा दो
कि अपनी फ़र्दे-अमल सँभाले
उठेगा जब जम्मे सर फ़रोशाँ
पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले, कोई न होगा कि जो बचा ले
जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी, यहीं अज़ाब-ओ-सवाब होगा
यहीं से उट्ठेगा शोरे-महशर, यहीं पे रोज़े-हिसाब होगा

 

फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी

मत रो बच्चे
रो-रो के अभी
तेरी अम्मी की आँख लगी है
मत रो बच्चे
कुछ ही पहले
तेरे अब्बा ने
अपने ग़म से रुख़सत ली है
मत रो बच्चे
तेरा भाई
अपने ख़्वाब की तितली के पीछे
दूर कहीं परदेस गया है
मत रो बच्चे
तेरी बाजी का
डोला पराए देस गया है
मत रो बच्चे
तेरे आँगन में
मुर्दा सूरज नहला के गए हैं
चंद्रमा दफ़्ना के गए हैं
मत रो बच्चे
अम्मी, अब्बा, बाजी, भाई
चाँद और सूरज
रोएगा तो और भी तुझ को रुलवाएँगे
तू मुस्काएगा तो शायद
सारे इक दिन भेस बदल कर
तुझसे खेलने लौट आएँगे

Africa Comes Back
(एक रजज़)

 

आ जाओ, मैंने सुन ली तेरे ढोल की तरंग
आ जाओ, मस्त हो गई मेरे लहू की ताल
आ जाओ अफ़्रीका
आ जाओ, मैंने धूल से माथा उठा लिया
आ जाओ, मैंने छील दी आँखों से ग़म की छाल
आ जाओ, मैंने दर्द से बाजू़ छुड़ा लिया
आ जाओ, मैंने नोच दिया बेकसी का जाल
आ जाओ अफ़्रीक़ा
पंजे में हथकड़ी की कड़ी बन गई है गुर्ज़
गर्दन का तौक़ तोड़ के ढाली है मैंने ढाल
आ जाओ अफ़्रीक़ा
जलते हैं हर कछार में भालों के मृग नैन
दुश्मने-लहू से रात की कालिक हुई है लाल
आ जाओ अफ़्रीक़ा
धरती धड़क रही है मेरे साथ अफ़्रीक़ा
दरिया थिरक रहा है तो, बन दे रहा है ताल
मैं अफ़्रीक़ा हूँ, धार लिया मैंने तेरा रूप
मैं तू हूँ, मेरी चाल है तेरे बबर की चाल
आ जाओ अफ़्रीक़ा
आओ बबर की चाल
आ जाओ अफ़्रीक़ा


हम जो तारीक राहों में मारे गए
( ईथल और जूलियस रोज़न्बर्ग के ख़ुतूत से मुतास्सिर होकर)


तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम
दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शम्म'ओं की हसरत में हम
नीमतारीक राहों में मारे गए

सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे होंटों की लाली लपकती रही
तेरी ज़ुल्फ़ों की मस्ती बरसती रही
तेरे हाथों की चाँदी चमक़ती रही

जब धुली तेरी राहों में शामे-सितम
हम चले आए, लाए जहाँ तक क़दम
लब पे हर्फ़े-ग़जल, दिल में क़दीले-ग़म

अपना ग़म था गवाही तेरे हुस्न की
देख क़ायम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक राहों में मारे गए

नारसाई अगर अपनी तक़दीर थी
तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी
किसको शिकवा है गो शौक के सिलसिले

हिज्र की क़त्लगाहों से सब जा मिले
क़त्लगाहों से चुन कर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफ़िले
जिनकी राहे तलब से हमारे क़दम
मुख़्तसर कर चले दर्द के फ़ासिले

कर चले जिनकी ख़ातिर जहाँगीर हम
जाँ गँवा कर तेरी दिलबरी का भरम
हम जो तारीक राहों में मारे गए

 

एक मंज़र

एक मंज़र
बाम-ओ-दर ख़ामुशी के बोझ से चूर
आसमानों से जू-ए-दर्द रवाँ
चाँद का दुख भरा फ़सानःए-नूर
शाहेराहों की ख़ाक़ में ग़ल्ताँ

ख़्वाबगाहों में नील तारीकी
मुज़्महिल लय रबाबे-हस्ती की
हल्के-हल्के सुरों में नौहा-कुनां


ज़िंदाँ की एक शाम

शाम के पेच-ओ-ख़म2 सितारों से
ज़ीना-ज़ीना उतर रही है रात
यूँ सबा पास से गुज़रती है
जैसे कह दी किसी ने प्यार की बात
सहरे-ज़िन्दाँ के बेवतन अश्जार
सरनिगूँ महव है बनाने में
दामने-आसमाँ पे नक़्शो-निगार
शाने-बाम पर दमकता है
मेहरबाँ चाँदनी का दस्ते-जमील
ख़ाक़ में घुल गई है आबे-नजूम
नूर में घुल गया है, अर्श का नील
सब्ज़ गोशों में नील-गूँ साए
लहलहाते हैं जिस तरह दिल में
मौजे-दर्द-फ़िराक़े-यार आए
दिल से पैहम ख़याल कहता है
इतनी शीरीं है ज़िंदगी इस पल
ज़ुल्म का ज़हर घोलने वाले
कामराँ हो सकेंगे आज न कल
जलवागाहे-विसाल की शम्म'एँ
वो बुझा भी चुके अगर तो क्या
चाँद को गुल करें तो हम जानें


ऐ रोशनियों के शहर

सब्ज़ा-सब्ज़ा सूख रही हैं फीकी, ज़र्द दोपहर
दीवारों को चाट रहा है तनहाई का ज़हर
दूर उफ़ुक़ तक घटती-बढ़ती, उठती-गिरती रहती है
कोहर की सूरत बेरौनक़ दर्दों की गँदली लहर
बसता है इस कोहर के पीछे रोशनियों का शहर
ऐ रोशनियों के शहर
कौन कहे किस सम्त है तेरी रोशनियों की राह
हर जानिब बेनूर खड़ी है हिज्र की शहर पनाह
थक कर हर सू बैठ रही है शौक़ की माँद सिपाह
आज मेरा दिल फ़िक्र में है
ऐ रोशनियों के शहर
शब ख़ूँ से मुँह फेर न जाए अरमानों की रौ
ख़ैर हो तेरी लैलाओं की, उन सब से कह दो
आज की शब जब दिए जलाएँ ऊँची रखें लौ


यहाँ से शहर को देखो

यहाँ ये शहर को देखो तो हल्क़ा दर हल्क़ा
खिंची है जेल की सूरत हर एक सम्त फ़सील
हर एक राह गुज़र गर्दिशे-असीरां है
न संगे-मील, न मंज़िल, न मुख़लिसी की सबील
जो कोई तेज़ चले रह तो पूछता है ख़याल
कि टोकने कोई ललकार क्यों नहीं आई?
जो कोई हाथ हिलाए तो वोम को है सवाल
कोई छनक, कोई झंकार क्यों नहीं आई ?
यहाँ से शहर को देखो तो सारी ख़िल्क़त में
न कोई साहिबे-तम्कीं, न कोई वालि-ए-होश
हर एक मर्दे जवाँ, मुज्रिमे-रसन-बगुलू
हर इक हसीना-ए-राना, कनीज हल्क़ा बग़ोश
जो साए दूर चराग़ो के गिर्द लरज़ाँ हैं
न जाने महफ़िले ग़म है कि बज़्मे-जाम-ओ-सुबू
जो रंग हर दर-ओ-दीवार पर परीशाँ हैं
यहाँ से कुछ नहीं खुलता यह फूल हैं कि लहू

 


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