प्रगतिशील कविता में शमशेर बहादुर सिंह की स्थिति लगभग वही है, जो रीतिकालीन कविता में केशवदास की है। हालाँकि केशव में भावपक्ष उतना प्रबल नहीं दिखाई देता, जितना कि शमशेर के यहाँ है। शमशेर 'दुरूह' हैं, 'मूड्स' के कवि हैं, 'रूमानी' हैं, 'इम्प्रेशनिष्ट चित्रकार की मनोवृति' के हैं, 'सौंदर्य के कवि' हैं, आदि न जाने कितने विशेषण उनके साथ जुड़े हैं। पर ये सारे विशेषण उनके कवि रूप पर चस्पा हैं, उनके गद्य लेखन पर आलोचकों की नजर ज्यादा नहीं गई है, कहानियाँ तो और उपेक्षित रही हैं, जबकि ऐसा दूसरे रचनाकारों के साथ नहीं हुआ, जिनकी प्रसिद्धि उनके कवि रूप में ज्यादा हुई, जयशंकर प्रसाद और अज्ञेय का नाम इस संदर्भ में खासतौर पर लिया जा सकता है। फिर शमशेर के साथ ऐसा क्यों, इस पर विचार होना चाहिए। जिसका जवाब उनकी कहानियों का विश्लेषण कर ही दिया जा सकता है।
यह सच है कि शमशेर मूलतः कवि हैं। हिंदी काव्य-जगत में उनकी कविताएँ अपनी पूर्वोक्त विशेषताओं के कारण ही समादृत हैं। उन्होंने कहानियाँ काफी कम संख्या में लिखी हैं, पर इस तर्क से उनके कहानीकार को खारिज नहीं किया जा सकता। असल में, शमशेर गद्य लिखते हुए भी अपना कवि-रूप नहीं छोड़ पाते। ऊपर दिए गए विशेषणों में दुरूहता के अलावा कविता की बाकी सारी विशेषताएँ उनके गद्य पर भी लागू होती हैं। कह सकते हैं कि जिस अधिकार से उन्होंने कविताएँ लिखीं, कहानियों के संदर्भ में वैसी मजबूती नहीं दिखती। उनकी कहानियों के एकमात्र संग्रह 'प्लाट का मोर्चा' के साथ स्केच भी संकलित किए गए हैं। ऐसा क्यों? तो इसका उत्तर भी उनकी कहानियों के शिल्प पर विचार के दौरान मिलेगा।
शमशेर के पूरे रचना-कर्म पर तुलसीदास की एक पंक्ति बहुत फबती है - 'अरथ अमित आखर अति थोरे।' यह विशेषता उनकी कविताओं में तो है ही, कहानियों में भी इसे बखूबी देखा जा सकता है और इस क्रम में सबसे पहले उनके कहानी-संग्रह 'प्लाट का मोर्चा' की भूमिका 'पाठकों से' देखना जरूरी है। शमशेर ने लिखा है, "बहुत सी चीजें नींद में होती हैं, या खुलती हैं। कुछ कहानियाँ इन्हीं चीजों की छाया हैं। कहानियाँ कविता के भाव से भी पैदा हो सकती हैं, जहाँ वह भाव किसी समस्या की उलझन होता है और उसका दर्द केवल एक सुलगता हुआ सा चित्रपट बनना चाहता है। कुछ कहानियाँ इस संग्रह में ऐसी ही हैं, शायद : जी की बात सी कहने की कोशिश, गो ये बातें खत्म तो नहीं होतीं शायद।" इसके बाद उन्होंने लिखा, "कुछ कहानियाँ ठेठ किस्म की भी हैं।" शमशेर की कहानियों को समझने की कुंजी हैं उनकी उक्त पंक्तियाँ; कथ्य और शिल्प, दोनों के स्तर पर। संग्रह की शीर्षक कहानी 'प्लाट का मोर्चा' को ही लें, जो कहानी के लिए एक 'महान' प्लाट की तलाश में निकले युवक शेवांट की कथा है, अपने इसी प्रयास में वह युद्ध-भूमि तक जा पहुँचा है। जहाँ अचानक उससे अपनी एक दस वर्ष पुरानी ट्यूशन पढ़ाई छात्रा टकराती है। उसके पास अपना एक बच्चा है, जिसे युद्ध की विभीषिका के चलते वह किन्हीं सुरक्षित हाथों में सौंप जाना चाहती है। अपनी पुरानी पहचान याद दिलाते हुए लुइसा नाम की यह युवती शेवांट से बच्चा पाल लेने का आग्रह करती है। पूछताछ करने पर पता चलता है कि वह शत्रु पक्ष के गुप्तचर विभाग में कार्यरत है। यह सुनकर शेवांट के दिलो-दिमाग में द्वंद्व छिड़ जाता है, एक तरफ राष्ट्रीयता आड़े आने लगती है तो दूसरी तरफ मनुष्यता, पर अगले ही क्षण ये दोनों भाव तिरोहित हो जाते हैं और एक तीसरी भावना आ जाती है। शमशेर ने लिखा है, "दो मिनट तक हम इसी प्रकार स्तब्ध स्थिर एक-दूसरे की ओर देखते रहे। विचारों की सहस्रों फौजें मेरे मस्तिष्क में तेजी से मार्च कर रही थीं, किसी अस्पष्ट केंद्र की ओर, वह अद्भुत सरलता में दृढ़ और शांत प्रतिमा सी खड़ी मेरी ओर देख रही थी, सुंदर। तभी मैं समझ नहीं सकता क्यों मैंने एकाएक अपने आलिंगन-पाश में कसकर उसे चूम लिया। लुइसा तुम इतनी सुंदर हो, मैं नहीं जानता था।" अंततः मनुष्यता को चुनते हुए शेवांट बच्चा ले लेता है। द्वंद्व यहीं तक नहीं रुकता, कहानी का अंत भी दो विरोधी भावों के पत्रों के साथ होता है। एक, लियो के उस परिवार की ओर से आया है, जहाँ शेवांट ने उसे बच्चा पालने हेतु दे दिया था। दूसरा पत्र लुइसा का था। पहले में बच्चे के मरने की दुखद सूचना आई है और दूसरे में लुइसा द्वारा शेवांट को एक तरह से धन्यवाद दिया गया है कि बच्चे को सुरक्षित और स्वस्थ हाथों में पहुँचकर 'मेरे जीवन का एक सुखी, महान दिन आपने सफल बनाया।' देखा जाए तो यह कहानी पारंपरिक शिल्प से अलग है। शमशेर का रोमानी कवि उनकी कहानियों पर भी हावी है। इसकी घटना का ट्रीटमेंट किसी अन्य प्रभावी तरीके से किया जाता तो ज्यादा बेहतर होता। दस वर्ष बाद युद्ध की पृष्ठभूमि में शेवांट और लुइसा का मिलना कोई गंभीर संवेदना नहीं जगा पाता, ना ही दोनों के मिलने पर गुरु-शिष्या संबंध की कोई गर्माहट ही पता चलती है। शायद यह अपने किस्म की व्याववसायिकता रही होगी, क्योंकि ट्यूशन पढ़ानेवाले अध्यापकों से छात्र वैसी संवेदना महसूस नहीं करते, अथवा इसे विदेशी धरती का सांस्कृतिक असर भी कहा जा सकता है। अपने सामने अचानक उसे पाकर शेवांट उत्साहित नहीं होता, बल्कि महसूस करता है कि, 'स्त्री मर्द को जब सहसा डरा देती है तो मन में क्रोध उठता है।' वह बच्चा पालने का आग्रह भी ऐसे करती है जैसे कोई वस्तु सुरक्षित रख छोड़ना चाहती हो। शेवांट के पूछने पर कि तुम किस पक्ष के गुप्त विभाग में हो, वह अपना जवाब उसके मुँह के बिल्कुल पास आकर धीरे से देती है। न तो उसमें अपना बच्चा खो जाने का डर है, न युद्ध में मारे जाने का खौफ। युद्ध के बीच यह बर्ताव शमशेर का रोमानीपन ही लगता है। यद्यपि प्रेम शमशेर की संवेदना का केंद्रबिंदु है, निजी से लेकर व्यापक मनुष्यता के स्तर तक। पर यहाँ प्रेम की उपस्थिति, मानवता के बृहत्तर आवरण के बावजूद, स्वाभाविक कम, थोपी हुआ ज्यादा लगती है। महान 'प्लाट' खोजने निकले युवक की कहानी का महान शांति के प्लाट में कायांतरण स्वाभाविक ढंग से किया जाता तो यह रचना अपनी व्यंजना में और ऊपर गई होती। पता नहीं कैसे, प्रोफेसर सूरज पालीवाल को इस कहानी से 'उसने कहा था' की याद आती है या डॉ. जी! नीरजा को इसी के कारण शमशेर 'इतने मर्मस्पर्शी ढंग से महायुद्ध के प्रभाव को चित्रित करनेवाले अज्ञेय के बाद अकेले कहानीकार' लगते हैं। क्या युद्ध की पृष्ठभूमि मात्र से?
माना कि युद्ध और प्रेम एक दूसरे की एकदम विरोधी चीजें हैं, एक जहाँ मनुष्यता का विनाश करता है, वहीं दूसरा उसे हर हाल में बचाता है। 'उसने कहा था' का लहना सिंह अपनी जान की कीमत पर प्रेम को बचाता है, जबकि शमशेर का नायक प्रेम तो करता है, बच्चे को नहीं बचा पाता, अंततः वह मर जाता है। बच्चा पाल लेने का आग्रह करते समय अंतर्द्वंद्व में पड़े नायक को लुइसा का कहना, 'केवल एक मनुष्य को जो करना चाहिए, वह तुम करो', तत्कालीन परिस्थिति में एक चलताऊ नारा सा लगता है, क्योंकि उसके इस कथन के पीछे प्रेम कम, स्वार्थ ज्यादा मालूम पड़ता है। 'उसने कहा था' की तरह इस कहानी में पूर्व के प्रेम का कोई संकेत भी नहीं है। हाँ, अंत में दिया गया गीत काफी प्रभावी है। 'प्लाट का मोर्चा' के संदर्भ में आलोचक महेश दर्पण का मानना है कि। "आकार में छोटी यह कहानी शमशेर की कला बखूबी सामने रखती है, जहाँ अनावश्यक विवरणों के लिए कोई जगह नहीं है।" (बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ-5, हिंदी कहानी की कहानी, पृष्ठ-20, संपादक - महेश दर्पण) ठीक भी है, शमशेर की कला अपनी सांकेतिकता, बिंबात्मकता एवं संक्षिप्तीकरण में जरूर बेजोड़ है, पर उनके मूलतः कवि होने की शर्त के साथ।
शमशेर के यहाँ बेहतर प्लाट की खोज प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप से कई कहानियों में दिखती है। खासतौर पर, 'तिराहा', 'रास्ता चल रहा है', 'मैं एक कहानी लेखक हूँ', 'स्मृति के अंक में', 'होटल की खिड़की से' और 'दि क्रीसेंट लॉज', इसका प्रमुख उदाहरण हैं। इसी के साथ, उक्त सारी कहानियाँ एक नए शिल्प के साथ भी उपस्थित हैं। इनमें शमशेर का कथानायक एक प्रेक्षक की तरह बैठकर, जो कुछ सामने, आस-पास दिखाई और सुनाई दे रहा है, उसका वर्णन करता जाता है और इसी प्रक्रिया में अचानक अपनी बात कहकर रचना की समाप्ति भी हो जाती है। पाठक अवाक। 'तिराहा' में नैरेटर एक दो-मंजिली खिड़की से नीचे ताँगेवालों के मुहल्ले में देखते हुए वहाँ हो रही गतिविधियों का कोलाजनुमा वर्णन करता है - एक लड़के द्वारा पत्थर मारकर एक आदमी को चोटिल कर दिया गया है, ताँगेवाला अपने ताँगे के पहियों पर धीरे-धीरे रंग कर रहा है, अहदी बैठा हुआ ऊँघ रहा है, ऐसे में पड़ोस की एक अधेड़ औरत वहाँ आती है और सारे महौल में चैतन्यता भर जाती है। परिवेश के सामान्य वर्णन के बीच अचानक एक महत्वपूर्ण संकेत किया जाता है कि, 'घुड़सालवाले फाटक से लगकर ही एक सीढ़ी पंडितजी के मकान से नीचे उतरती है। तो मैं अपने कमरे की तरफ मुड़ा ही था कि अचानक मैंने देखा, वही कल वाली अधेड़ औरत जल्दी-जल्दी जीने की सीढ़ियों पर चढ़ गई।' कहानी खत्म, जबकि इस रचना की मुख्य घटना यही है। यूँ तो इक्के-ताँगेवालों को कथा का विषय कम ही बनाया जाता है, शमशेर इसे अपनी कथा में स्थान तो देते हैं, किंतु प्लाट रूपी मोर्चा मिल जाने के बाद वे घटनाओं के ट्रीटमेंट में शिथिल लगने लगते हैं। तिराहे के एक मकान की खिड़की से मुहल्ले का आँखों-देखा हाल सुनाने के क्रम में बिंबात्मकता तो पूरी तरह मौजूद है, पर कहानी कहाँ है, ये स्पष्ट होने से रह जाता है। मुहल्ले की एक स्त्री का पड़ोसी के घर में घुसना अनैतिक है और शमशेर ऐसे प्रेम के खिलाफ हैं। परंतु पर्दे पर आए किसी दृश्य की तरह मुख्य घटना का जिक्र केवल दो पंक्तियों में कर कहानी खत्म कर देने से ऐसा लगता है, मानो पाठक रचना नहीं, कोई सूचना पढ़ रहा है। इससे हठात प्रेमचंद-स्कूल की कहानियों के शिल्प की याद हो आती है, जहाँ कहानी का डंक उसकी पूँछ में रहता था।
'रास्ता चल रहा है' भी एक प्रेक्षक की तरह खिड़की से देखते हुए रची गई कहानी है। प्लाट की खोज जितनी इसमें है, उससे ज्यादा वह 'दि क्रीसेंट लॉज' में दिखाई देती है। कविता और संगीत का पूरा अवकाश लिए इस कहानी का नैरेटर भी मानो प्लाट के लिए जूझ रहा है कि अनुभूति को अभिव्यक्ति किस रूप में देनी चाहिए और इसी क्रम में वह लॉज में ठहरा हुआ रात के समय आस-पास के कमरों और परिवेश का स्केच सा खींचता जा रहा है। गौरतलब है कि शमशेर ने स्केच भी लिखे हैं, जो उनके इसी कहानी-संग्रह 'प्लाट का मोर्चा' में संकलित हैं। अगर उनकी कहानियाँ और स्केच एक-दूसरे में मिला दिए जाएँ तो कईयों को पहचाना मुश्किल होगा कि कौन सी कहानी है और कौन उनका स्केच। कहना चाहिए कि शमशेर की कहानियाँ और उनके स्केच परस्पर काफी नजदीक हैं और इन दोनों गद्य विधाओं पर उनके कवि-रूप की गहरी छाया है।
शमशेर की अधिकतर कहानियाँ 'मैं' शैली यानी उत्तम पुरुष में रचित हैं। इसलिए आत्मपरक लगती हैं। उनके यहाँ 'प्रेम' और 'स्त्री' कहानी के जरूरी उपादान हैं। 'होटल की खिड़की से' में भी नैरेटर प्रेक्षक की भूमिका में है और झाँकते हुए आते-जाते लोगों का शोर, उनकी बातचीत, गीत, स्त्रियों का पहनावा, किसान, ताँगा, साइकिल, मेहतर सबका जिक्र करता है। पर पूरी कहानी में स्वयं मौजूद नहीं है। अपनी इस अनुपस्थिति और अंतर्मुखता का उसे अहसास भी है। कहानी की आखिरी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं, "मैं इन सबसे अलग बैठा सुबह-सुबह अपनी खिड़की में कुहरे भरे आसमान को देखता, क्या पा रहा? क्या समझ पा रहा? और क्यों नहीं? साधारण सा ही कारण है। कल रात मैं जगा था। क्यों? काम शेष था, बहुत सा। क्यों? मेरा मन अन्यत्र लगता रहता था, काम में नहीं पिछले सप्ताह। ऐसा क्यों? एक स्त्री!" यहाँ 'स्त्री' शब्द अपने आप में मानीखेज है। रातभर किसी स्त्री की याद में जागते रहने का मतलब अज्ञेय की तरह 'तुम कहाँ हो नारि' वाला निपट कामुकता वाला भाव नहीं है, ना ही स्त्री शमशेर के यहाँ 'कमोडिटी' है। किंतु अपने में पूरी 'सेंसुअलिटी' समोए इस एक शब्द से लेखक की ईमानदार स्वीकृति अपने काम/लेखन और सामूहिकता में खुद को उपस्थित ना पाने का एक जरूरी 'कन्फेशन' है। शमशेर के यहाँ अक्सर यह 'कन्फेशन' आत्मालोचना के रूप में तथा अपने ही सामने प्रकट होता है, साथ ही प्रेम की अनैतिकता के विरुद्ध भी। आत्मालोचना की यह प्रक्रिया उनकी 'पथ और दिशा' कहानी में भी देखी जा सकती है। इसका नैरेटर अच्छी शाम बिताने के क्रम में इधर-उधर घूम-फिरकर, दोस्तों के साथ एक परिचित के यहाँ जाकर कविता, सितार आदि का आनंद लेकर खुश-खुश लौटता है। पर घर आकर सोचने लगता है, "हम में से किसी ने भी इन सब घंटों में आज क्या अर्जन किया था? ईमानदारी की बात : क्या प्रेम? क्या सुख? क्या ज्ञान? क्या बल? क्या शांति?" हर व्यक्ति का इनमें से एक उद्देश्य हो सकता है, किंतु शमशेर का झुकाव निस्संदेह प्रेम की ओर है। यह प्रेम बिल्कुल बराबरी के स्तर का है; निश्छल। वह न केवल सामंती अथवा अनैतिक प्रेम के खिलाफ है, प्रेम की सार्वजनिकता के पक्ष में भी नहीं हैं। 'ट्रेन में' कहानी इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। एक तरफ नैरेटर है, जो कमो नाम की लड़की से प्रेम करता है, उससे मिलने जाता है। यहाँ तक कि मित्रों और ऑफिस की चिंता भी छोड़ देता है। उसकी चर्चा को दोस्तों की बैठकी का विषय नहीं बनाता, जबकि दूसरी ओर उसका लंपट मित्र है, जिसकी दो प्रेमिकाएँ हैं, एक लखनऊ में और दूसरी किसी अन्य शहर में। वह उनको लेकर जरा भी गोपनीयता नहीं बरतता। नैरेटर के शब्दों में, "मसलन, जो लखनऊ में है - वह एक खुली बातचीत की वस्तु है। उसके सब व्यवहारों को लिपिबद्ध किया जा सकता है। उसको मैंने कभी नहीं देखा, पर पहचान सकूँगा मिलने पर।" एक के लिए प्रेम का मतलब पूरी निजता, अनन्यता और एकनिष्ठता है, जबकि दूसरा उसे बाजारू, सामंती ढंग से लेता है। कभी न मिलने के बावजूद उसकी प्रेमिका को पहचान लेने का आशय ही है कि मित्र ने उससे जुड़ी हर बात कहकहे लगाकर, चटखारे ले-लेकर दोस्तों के बीच सार्वजनिक की होगी। शमशेर प्रेम के इस नजरिए के सख्त खिलाफ हैं। इसी प्रकार की एक और छोटी, पर उम्दा कहानी है 'नन्ही बाई'। रचनाकार ने कहीं भी नन्ही बाई के व्यवसाय का जिक्र नहीं किया है, पर उसके व्यवहार से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह वेश्या रही होगी। तभी कहानी में व्यावसायिकता के विरुद्ध प्रेम के आयाम पता चलते हैं और दिखती है एक ईमानदार स्वीकारोक्ति कि नन्ही जब भी किसी सुंदर, सीधे और हयादार लगनेवाले व्यक्ति से मिलती है, उसकी हो जाती है। पर शमशेर की अन्य कहानियों की तरह नन्ही बाई' का डंक भी अंत में ही है, जहाँ वह 'कन्फेस' करती है। लेखक के अनुसार, 'और अभी इससे कुछ ही दिन पहले मैं जिस दूसरे मेहमान के सपनों में उलझी हुई थी, आज उसका रंगीन जाल कहाँ? उसका भी मैं कहाँ अपने अंदर मिला सकी थी; वही मुझे अपने आप में खींच ले गया! और फिर उससे पहले, और चंद रोज पहले... वह हुस्न जो बराबर मुझे खीचता रहा! कितनी मैं सिर्फ-सिर्फ अपनी थी?' कहानी में यह बेलौस स्वीकारोक्ति शमशेर को अपनी पूरी गंभीरता के साथ प्रेम और उसकी ईमानदारी पक्ष में खड़ा करती है। यह बात अलग है कि कहानी वहाँ खत्म कर दी गई, जहाँ से उसे शुरू होना चाहिए।
शमशेर के यहाँ सौंदर्य खोजने और उसे महसूसने की तीव्र बेचैनी दिखई देती है। सौंदर्य भी आधा-अधूरा नहीं, अपने पूरेपन के साथ। उनकी कहानियाँ इसी सौंदर्य की तड़प का अहसास कराती हैं, जिसे प्रकारांतर से प्लाट की खोज भी कहा गया है। यही कारण है कि उनकी गद्य-रचनाओं में संगीत, कला एवं प्रेम के दर्शन जितनी गहराई से होते हैं, सामाजिक यथार्थ उतनी मात्रा में नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती लेखकों यथा प्रेमचंद, जैनेंद्र आदि के साथ-साथ नागार्जुन, रांगेय राघव जैसे समकालीन रचनाकारों को नहीं पढ़ा होगा, जो लगातार अपनी कहानियों में सामंती रूढ़ियों के विरुद्ध सामाजिक-यथार्थ को वाणी दे रहे थे। इसके बावजूद शमशेर स्वयं अपनी कहानियों को 'ठेठ किस्म' तक की और 'जी की बात सी कहने की कोशिश' कह रहे थे तो इन आग्रहों के पीछे उनका सौंदर्य का आग्रही कवि-मन ही बोल रहा था। सब-कुछ जानते हुए उन्होंने प्रेम और सौंदर्य का मोर्चा ही सँभाला। यही कारण है कि उनकी जो कहानियाँ कोई गंभीर उद्देश्य लेकर चली हैं, अंततः वे भी 'प्रेम' के आह्वान पर आकर ठहर गई हैं। 'स्वागत-भाषण' ऐसी ही रचना है। नैरेटर को किन्हीं श्रीमती अमुक के स्वागत में स्वागताध्यक्षा का भाषण तैयार करना है, जिन्हें वह हल्के-फुल्के रूप में जानता है, 'मैंने उनको, एक ऊँची सुशिक्षिता, पंजाबी अच्छी लीडरानी के अतिरिक्त कुछ भी जाना है? खद्दर की भक्त। सीधा और सादा चरित्र, शायद।' पर एक खीझ तारी है नैरेटर के मन में, क्योंकि बसंत की छुट्ठी यानी त्यौहार के दिन भी काम करने की मजबूरी है। वह न लिखने के बहाने भी खोजता है कि जरूरत पड़ने पर कह सके, 'मुझे बुखार आ गया था', 'कुछ खबर नहीं रही', 'सोता रहा' आदि-आदि, पर सच्चाई यह है कि भाषण लिखना ही पड़ेगा। पर बहुत सारी चीजों पर सोचते-सोचते लेखक कहानी का मूल विषय छोड़ ही देता है। दार्शनिक ढंग से एक के बाद एक विचारों का वेग आने-जाने लगता है, यहाँ तक कि कहानी कविता का शिल्प ओढ़ने लगती है। मित्रता से लेकर कविता, कला, सौंदर्य, वासना, ईश्वर, विज्ञान, स्वतंत्रता, ध्यान, तप और प्रेम तक कितने ही विषय निकलते जाते हैं। लगता है स्वागत-भाषण लिखने के बजाए नैरेटर ने स्वयं भाषण देने की मुद्रा अपना ली है, वह भी कविता की भाषा में। यहाँ भी ठहराव होता है, 'प्रेम' पर ही आकर, 'वह लड़की! उसकी पीली छाया ऊपर उड़ती जा रही है। फिर भी मेरी दृष्टि-पथ में है। रम्मा। वह सलोनी मधुर वदनी। मेरी प्रेयसी थी वह।' प्रेमिका के ही रूप में 'रम्मा' नामक लड़की का जिक्र उनकी 'मैं एक कहानी लेखक हूँ' में भी आया है। गौरतलब है कि उक्त दोनों कहानियों में प्रेम अथवा प्रेमिका का जिक्र कहानीकार के अकेलेपन के बरक्स आया है। हम जानते हैं कि ये दोनों विशेषताएँ शमशेर की कविता में खूब मिलती हैं। कहना चाहिए उनके यहाँ कविता की जो शक्ति है, कहानी में वही कमजोरी मालूम पड़ती है। न तो उनका मन संघर्ष में रमता है और ना ही वे रचना में ज्यादा तनाव अथवा पीड़ा को जगह देते हैं। उनकी सारी कहानियों में जब भी तनाव और पीड़ा की स्थितियाँ मुखर होने लगती हैं, शमशेर उसे मोड़ दे देते हैं। बहरहाल, उनके यहाँ कथ्य की संक्षिप्तता, सामाजिक-यथार्थ की कमी और कविता, कला तथा संगीत के तत्वों की प्रधानता के बावजूद शमशेर की कहानी मानवीय संभावनाओं के वृहत्तर पक्ष की अभिव्यक्ति है, इसे नकारा नहीं जा सकता।
संदर्भ-ग्रंथ
1. शमशेर बहादुर की कुछ गद्य रचनाएँ - सं. मलयज, संभावना प्रकाशन, हापुड़, 1980
2. आधुनिक हिंदी साहित्य : मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन - जवरीमल्ल पारख, अनामिका प्रकाशन, दिल्ली, 2007
3. बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ-5, (हिंदी कहानी की कहानी) पृष्ठ-20, संपादक - महेश दर्पण
4. आलोचना (त्रैमासिक) सहस्राब्दी अंक चालीस, शमशेर बहादुर सिंह पर केंद्रित, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, जनवरी-मार्च, 2011