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कविता

मुनिया

अखिलेश कुमार दुबे


सुर्ख लाल गालों, उलझे बालों
और अपने बहुत कम अंतर वाले
भाई-बहनों को सँभालती मुनिया
स्कूल के घंटे की आवाज सुनकर
मुश्किल से रोक पाती है अपने आँसू।

घर के पास से गुजरती,
सर्पीली पगडंडियों से
अपनी पीठ पर स्कूल का बस्ता लादे
जाते गाँव के हम उम्र बच्चों को देखकर
खो जाती है दूर आसमान में ।
उसे, सपने आते हैं रंग-बिरंगी किताबें और शरारत करते, छोटे-छोटे बच्चों के।
सपनों में फूल सी हल्की
आकाश नापती, अपनी दुश्वारियों से पस्त
दूर उड़ आती है घर से बहुत।

तभी उसकी पैदाइश को कोसती उसकी माँ,
उसके सिरहाने नजर आती है।
मुनिया अपनी जिम्मेदारियों का बोझ लिए,
उठ खड़ी होती है,
ढूँढ़ते हुए अपने बचपन के निशान।


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