अहमद अली एवं सज्जाद जहीर के नाम


[अमृतराय द्वारा लिखी गई प्रेमचंद की जीवनी ‘प्रेमचंदःकलम का सिपाही’ के सम्बन्ध में डा. वीर भारत तलवार लिखते हैं -
"1962 में जब यह किताब पहली बार छपी थी, तब यह हिन्दी साहित्य में लिखी गई पहली महत्त्वपूर्ण जीवनी थी। इससे पहले हिन्दी साहित्य में इतने व्यवस्थित ढंग से कोई जीवनी नहीं लिखी गई। यूरोपीय साहित्य में जीवनी विधा का विकास काफी हो चुका था। हिन्दी में इसकी कोई महत्त्वपूर्ण परम्परा न थी। अमृतराय ने प्रेमचंद की जीवनी लिखकर एक नए ढंग की परम्परा की नींव डाली। अच्छी और मजबूत नींव।"1
स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य में ‘प्रेमचंदः कलम का सिपाही’, ‘निराला की साहित्य साधना’, ‘आवारा मसीहा’ जैसी अनेक उत्कृष्ट जीवनियों का जो भव्य भवन दिखाई देता है, उसकी आधारशिला अमृतराय ने ही रखी थी। और, इस मजबूत आधारशिला के निर्माण में अमृतराय ने जिस आधार सामग्री का भरपूर उपयोग किया, वह उन्हीं के शब्दों में -
"जीवनी लिखने में इन चिट्ठियों से मैंने कितनी मदद ली है, यह मेरे कहने की चीज नहीं है, पढ़ने वाले खुद देखेंगे। मैं इतना ही कह सकता हूँ कि इस खजाने के बगैर अब मैं जीवनी की कल्पना भी नहीं कर सकता। लिखी वह शायद तब भी जाती लेकिन लंगड़ी होती, बेजान होती।"2
स्पष्ट है कि प्रेमचंद के अत्यन्त अव्यवस्थित जीवन के उलझे-बिखरे सूत्रों को एक माला के रूप में गूँथने के लिये अमृतराय ने उनके पत्रों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रयोग किया और तब कहीं जाकर वे ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ को एक प्रामाणिक जीवनी का स्वरूप दे पाने में सफल हो सके। इससे प्रेमचंद के पत्रों का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है।
प्रेमचंद के जीवन का एक पक्ष ऐसा भी है, जिस पर अभी तक विद्वान् प्रामाणिकता के साथ कुछ लिख पाने में सफल नहीं हो सके हैं, और वह पक्ष है प्रगतिशील लेखक संघ से उनकी सम्बद्धता और उनकी अन्तिम वैचारिक सोच।
सज्जाद जहीर ने जब डा. मुल्कराज आनन्द, डा. के.एस. भट्ट, डा. जे.सी. घोष, डा. एस. सिन्हा और मौहम्मद दीन तासीर आदि प्रगतिशील लेखकों के साथ मिलकर लंदन में ‘इन्डियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ की स्थापना की थी तो प्रेमचंद ने ‘हंस’ के जनवरी 1936 के अंक में ‘लंदन में भारतीय साहित्यकारों की एक नयी संस्था’ शीर्षक सम्पादकीय आलेख लिखकर इस प्रयास का खुले हृदय से स्वागत किया था। इसी वर्ष जनवरी में हिन्दुस्तानी एकेडेमी के चतुर्थ साहित्य सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिये प्रेमचंद इलाहाबाद गए तो वहीं उनकी सज्जाद जहीर से प्रथम भेंट हुई, जो भारत में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना का संकल्प लेकर लंदन से लौट आए थे। एकेडेमी का सम्मेलन समाप्त होने के दो दिन पश्चात् इलाहाबाद में ही 14 जनवरी 1936 को सज्जाद जहीर के आवास पर मौलवी अब्दुल हक, जोश मलीहाबादी, मुंशी दयानारायण निगम, अहमद अली आदि वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित लेखकों की एक सभा हुई जिसमें प्रेमचंद भी सम्मिलित हुए और सबने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के मैनीफेस्टो पर हस्ताक्षर करके भारत में इस आन्दोलन का विधिवत् रूप से सूत्रपात कर दिया। इसके उपरान्त 9 और 10 अप्रैल 1936 को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का प्रथम अधिवेशन लखनऊ में आयोजित हुआ जिसकी अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने जो अध्यक्षीय वक्तव्य पढ़ा था, वह उनकी वामपंथी विचारधारा का स्पष्ट प्रमाण है।
1. प्रेमचंद की जीवनी का सवाल; सामना,
2. भूमिका; चिट्ठी-पत्री, भाग-1,
इधर कुछ ऐसा दुष्चक्र भी पनप रहा है जिसमें प्रेमचंद को कट्टर हिन्दूवादी सिद्ध करने के प्रयास हो रहे हैं और उनकी उस वामपंथी विचारधारा को सिरे से नकारने का प्रयास किया जा रहा है जो उनके अन्तिम चरण के लेखन से भी स्पष्ट होती है। इसके अतिरिक्त कुछ इस प्रकार के संकेत भी प्राप्त हो रहे हैं कि ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के प्रथम अधिवेशन में पढ़े गए प्रेमचंद के वक्तव्य को भी उनकी रचना न मानकर डा. अब्दुल अलीम की रचना सिद्ध करने की चेष्टा की जा रही है। इस प्रकार के सभी प्रयासों को प्रामाणिक रूप से नकारने और प्रेमचंद की वास्तविक विचारधारा को स्पष्ट करने के लिये अहमद अली और सज्जाद जहीर के नाम लिखे गए उनके वे पत्र पर्याप्त हैं जो अभी तक भी साहित्य-संसार के समक्ष नहीं आ सके हैं।
सज्जाद जहीर ने 1959 में पहली बार प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रोशनाई’ में प्रेमचंद के तीन पत्रों के अंश प्रस्तुत करते हुए लिखा था-
"खुशकिस्मती से मुंशी प्रेमचंदजी के चंद खुतूत जो लखनऊ कान्फ्रेंस के बाद उन्होंने मुझे लिखे, मेरे पास महफूज रह गए। वे ‘नया अदब’ (लखनऊ, जनवरी-फरवरी-मार्च 1940, जिल्द नं. 1, 2, 3) में शाया कर दिए गए थे। चूँकि रजअतपरस्त हलकों ने प्रेमचंद की अंजुमन से दिलचस्पी को छिपाने और इसके साथ उनके करीबी ताल्लुक पर पर्दा डालने की कोशिश की है, इसलिये उनके तीन खतों के इक्तिबास यहाँ पर पेश किए जाते हैं।1
उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के पत्र जनवरी-फरवरी-मार्च 1940 में तो प्रकाशित अवश्य हुए लेकिन पत्रिका का नाम ‘नया अदब’ नहीं, वरन् ‘नया अदब और कलीम’ है। ध्यातव्य है कि प्रगतिशील लेखक संघ के साथ आरम्भ से ही सम्बद्ध रहे प्रसिद्ध शायर जोश मलीहाबादी के सम्पादन में उर्दू मासिक ‘कलीम’ देहली से प्रकाशित होता था। ‘कलीम’ का नाम ‘नया अदब’ के साथ क्यों और कैसे संयुक्त कर दिया गया, इस सम्बन्ध में सज्जाद जहीर लिखते हैं-
"जब जोश साहब का ‘कलीम’ बन्द हो गया तो ‘कलीम’ का नाम भी ‘नया अदब’ के साथ शामिल कर दिया गया।1
1. रोशनाई,
स्पष्ट है कि जनवरी 1940 से पूर्व ही ‘कलीम’ का प्रकाशन बन्द हो चुका था और ‘नया अदब’ का नाम ‘नया अदब और कलीम’ के रूप में परिवर्तित हो चुका था।
‘नया अदब और कलीम’ के जनवरी-फरवरी-मार्च 1940 के जिस संयुक्त अंक में प्रेमचंद के अलभ्य पत्र प्रकाशित हुए थे, उस पर स्पष्ट रूप से ‘जिल्द-2’ छपा है, जिसका सीधा-सा अर्थ यह है कि ‘नया अदब’ का प्रकाशन जनवरी 1939 से आरम्भ हुआ था। परन्तु आश्चर्यजनक रूप से अपने पूर्व उद्धृत कथन के प्रतिकूल सज्जाद जहीर लिखते हैं-
"सिब्ते हसन, मजाज और सरदार जाफरी ने अब उर्दू का एक ऐसा अदबी रिसाला जारी करने का मंसूबा बनाया जो तरक्कीपसंदी के मेयार पर पूरा उतरे और जो एक मरकजी हैसियत से तरक्कीपसंद अदब के उर्दू हिस्से की तखलीक, तंजीम और राहनुमाई में मददगार साबित हो। 1941 के शुरू से लखनऊ से ‘नया अदब’ जारी हुआ।"2
स्पष्ट है कि यहाँ सज्जाद जहीर को स्मृति विभ्रम हुआ है और उन्होंने ‘नया अदब’ के प्रारम्भ होने का उल्लेख त्रुटिपूर्ण रूप से 1941 कर दिया है, जबकि वास्तव में यह उर्दू मासिक 1939 में ही आरम्भ हो चुका था।
ध्यातव्य है कि ‘रोशनाई’ का जानकी प्रसाद शर्मा द्वारा किया हुआ हिन्दी अनुवाद इसी शीर्षक से सन् 2000 में प्रकाशित हो चुका है। खेद का विषय है कि सज्जाद जहीर के नाम लिखे और ‘नया अदब और कलीम’ में 1940 में ही प्रकाशित हो चुके प्रेमचंद के पत्र तो क्या, ‘रोशनाई’ में प्रस्तुत तीन पत्रों के अंश भी इसके उपरान्त प्रकाशित होने वाले संकलनों ‘चिट्ठी-पत्री’ (1962, सं. अमृतराय-मदन गोपाल), ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (1968, सं. मदन गोपाल), ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ (1988, सं. डा. कमल किशोर गोयनका), ‘प्रेमचंद रचनावली’ (प्रथम संस्करण 1996, मुख्य सम्पादक प्रो. जाबिर हुसैन); और ‘रोशनाई’ का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित होने के उपरान्त प्रकाशित होने वाले संकलनों ‘कुल्लियाते प्रेमचंद भाग-17’ (2001, सं. मदन गोपाल), ‘प्रेमचंद रचनावली’ (द्वितीय संस्करण 2006, मुख्य सम्पादक प्रो. जाबिर हुसैन) और ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (2007, सं. डा. कमल किशोर गोयनका) में सम्मिलित करके प्रकाशित करा देने का कोई प्रयास नहीं किया जा सका। इससे सज्जाद जहीर के पूर्व उद्धृत कथन की प्रामाणिक रूप से पुष्टि हो जाती है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व और स्वतन्त्रता के उपरान्त देश में वामपंथी विचारधारा के कार्यकर्ताओं तक को जिस प्रकार पकड़-पकड़कर जेलों में ठूँसा गया और अपनी विचारधारा की पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं को इधर-उधर छिपाने के लिये समस्त वामपंथी महानुभाव जिस प्रकार के प्रयास करते थे, उसके कारण ‘नया अदब और कलीम’ के सम्बन्धित अंक का मिल पाना असम्भव सा प्रतीत होने लगा था। ध्यातव्य है कि लखनऊ में एक बार बाढ़ आ जाने के कारण सज्जाद जहीर के घर में भी कई-कई फिट पानी भर गया था, अतः उनके संग्रह में भी इसका मिल पाना सम्भव नहीं रह गया था। कई प्रोफेसरों और पुस्तकालयों से इसके सम्बन्ध में जिज्ञासा की परन्तु कहीं से भी सकारात्मक उत्तर न मिल सका। ऐसी निराशा, हताशा और गताशा की स्थिति में एक बार दिल्ली में ‘अजय भवन’ जाकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव शमीम फैजी साहब से मिला तो उन्होंने भी अनभिज्ञता प्रकट करते हुए कहा कि इसके सम्बन्ध में यदि बता सकते हैं तो केवल सैयद तकी हैदर, जो कि अरुणा आसफ अली मार्ग पर शशिभूषण, पूर्व सांसद द्वारा संचालित इंस्टीट्यूट फार सोशलिस्ट एजूकेशन के उपाध्यक्ष हैं। सैयद तकी हैदर साहब से भेंट करके अपना मंतव्य प्रकट किया तो उन्होंने अत्यन्त सौजन्यतापूर्वक मुझे ‘नया अदब और कलीम’ के जनवरी-फरवरी-मार्च 1940 के संयुक्त अंक में पृष्ठ संख्या 17 से 25 तक प्रकाशित एक अहमद अली के नाम और सात सज्जाद जहीर के नाम लिखे गए प्रेमचंद के 8 पत्रों की फोटोकापी तत्काल उपलब्ध करा दी। प्रेमचंद के ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा अलभ्य पत्र सैयद तकी हैदर साहब की उदारता के अभाव में साहित्य-संसार के समक्ष नहीं आ सकते थे, जिन्हें ‘प्रेमचंद के गैर मतबूआ खुतूत’ शीर्षक से प्रकाशित करते हुए ‘नया अदब और कलीम’ में निम्नांकित सम्पादकीय टिप्पणी भी प्रकाशित हुई थी –
1. रोशनाई,
2. रोशनाई,
"प्रेमचंद ने ये खत सैयद सज्जाद जहीर साहब को अंजुमन तरक्कीपसन्द मुसन्निफीन के सिलसिले में लिखे थे। प्रेमचंद को तरक्कीपसन्द अदब की तहरीक से बड़ी दिलचस्पी थी और उन्होंने इस तहरीक के अगराज व मकासिद का असर बहुत जल्द कबूल कर लिया था। चुनाँचे उनके आखिरी अफसाने उनके तरक्कीपसन्द रुजहानात का पता देते हैं। उन्होंने इस तहरीक को कामयाब बनाने की भी हर मुमकिन कोशिश की लेकिन अफसोस है कि उम्र ने वफा न की और अभी यह तहरीक शुरू हुई थी कि प्रेमचंद इस दुनिया से चल बसे। अंजुमन तरक्कीपसन्द मुसन्निफीन की पहली कान्फ्रेंस की सदारत भी प्रेमचंद ही ने की थी चुनाँचे इन खतों में इसकी तरफ इशारा भी है। प्रेमचंद खुलूस और मुहब्बत के पुतले थे लेकिन सदाकत और साफगोई को हाथ से न जाने देते थे। ये बातें इन खतों में भी पाई जाती हैं। हम इन खतों के लिये सज्जाद जहीर से ज्यादा रजिया सज्जाद जहीर के ममनून हैं।"
आशा की जानी चाहिए कि इन अलभ्य पत्रों के आलोक में प्रेमचंद की विचारधारा का सम्यक् एवं यथार्थपरक मूल्यांकन करने का कोई सार्थक प्रयास अवश्य किया जा सकेगा।]
अहमद अली1
पत्रांक 1
बनारस
27 फरवरी 1936
बिरादरम,
तस्लीम,
"शम्मू"2 मिले, पढ़ गया। कबूतरबाजों की इस्तिलाहें (पारिभाषिक शब्दावली) और उनकी बाजारी गुफ्तगू आपने खूब लिखी है, लेकिन हिन्दी में तो एक बाकायदा ग्लासरी लिखनी पड़ेगी। मद्रास का जाँगलू देहली के मुहावरे क्या समझे। आप अपना हिन्दी मजमूआ मुझे जरूर भेजें, मैं उस पर जरूर लिखूँगा। शम्मू खाँ में कोई जान डालने वाली चीज न निकली, हाँ उस तबके के दो आदमियों के मजाक और दिफा (सुरुचि और प्रतिरक्षा) का नक्शा खिंच गया। उसके साथ ही कोई इमोशन पर करने वाली बात भी होती तो किस्सा बेहतर हो जाता। मैं तो 20 फरवरी को बवक्त तीन बजे सेपहर (तीसरे पहर) मिस्टर सज्जाद जहीर के दौलतखाने पर हाजिर हुआ था। मैंने उन्हें लिखा भी था कि अनकरीब (शीघ्र) इलाहाबाद में आपसे मिलूँगा तब अपनी स्कीम के मुताल्लिक कुछ गुफ्तगू होगी। मगर हजरत मिले ही नहीं। शायद लखनऊ गए हुए थे। आपके मकान का मुझे पता न था। मैं तो समझ रहा था कि आप लखनऊ में हैं मगर अब मालूम हुआ कि आप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में आ गए हैं। क्यों नहीं मिस्टर रघुपति सहाय3 को अपनी स्कीम में ले लेते। उनके मशवरे से मुझे फायदा होगा हालाँकि अमल के ऐतबार से उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं।
दुआगो
प्रेमचंद
1. अहमद अली (1910-1994) - 1932 से 1946 तक लखनऊ, इलाहाबाद आदि विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के व्याख्याता रहे। 1944 से 1947 तक प्रेजीडेंसी कालेज, कोलकाता में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष रहे। देश विभाजन के उपरान्त नेशनल सैन्ट्रल यूनिवर्सिटी, नानकिंग, चीन में व्याख्याता रहे, फिर पाकिस्तान जाकर 1948 में विदेश प्रचार के निदेशक रहे। 1950 में पाकिस्तान विदेश सेवा में कार्यरत हो गए। सज्जाद जहीर के साथ प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में सहयोगी। ‘अंगारे’ के एक कहानीकार।
2. अहमद अली की एक कहानी का शीर्षक।
3. रघुपति सहाय (1896-1982) -1919 में सिविल सर्विस छोड़कर देश कार्य में जुट गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक अंग्रेजी के व्याख्याता रहे और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। फिराक गोरखपुरी के उपनाम से उर्दू के सुप्रतिष्ठित शायर। पद्म भूषण, ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी सम्मानों से विभूषित।
सज्जाद जहीर
पत्रांक 2
बनारस
15 मार्च (1936)
डीयर सज्जाद जहीर,
तुम्हारा 4 तारीख का खत मिला। मैं देहली गया हुआ था। 11 को लौटा हूँ तब यह खत देखा। हमने देहली में एक हिन्दोस्तानी सभा कायम की है जिसमें उर्दू और हिन्दी के अहले अदब (साहित्यकार) बाहम तबादलए-खयालात (पारस्परिक विचार विनिमय) कर सकें। सियासी मुदब्बिरों (राजनीतिज्ञों) ने जो काम खराब कर दिया है उसे अदीबों को पूरा करना पड़ेगा, अगर सही किस्म के अदीब पैदा हो जायँ। किसी तरह आपस की यह मुनाफिरत (घृणा) तो पैदा1 हो। अलीगढ़ के डा. अलीम साहब2 भी तशरीफ रखते थे। उनकी तजवीज (प्रस्ताव) थी कि तरक्कीपसन्द मुसन्निफीन को हिन्दोस्तानी सभा में या इसको उसमें शामिल कर दिया जाय। लेकिन अकसर लोग इस खयाल से मुत्तफिक (सहमत) न हो सके। खैर हिन्दोस्तानी सभा कायम हुई है और उर्दू-हिन्दी के मुसन्निफीन (लेखकों) में कुछ बदगुमानी (भ्रम) का इजाला (निवारण) हो जाय, तो कोशिश नाकाम न रहेगी।
आपने लखनऊ में अंजुमन की शाख कायम करने की कोशिश की है। बहुत बेहतर। लखनऊ है तो एक खास किस्म के अदीबों का अड्डा। लेकिन खैर, कोशिश करना हमारा काम है। पहले हम खुद तो वाजे तौर पर (स्पष्ट रूप से) समझ लें कि हम लिटरेचर को किस तरफ ले जाना चाहते हैं, जभी हम दूसरों को रास्ता दिखा सकते हैं। जब हमें तबलीग (प्रचार) करना है तो उसके लिए असलहे से मुसल्लेह (शस्त्र-सुसज्जित) होना पड़ेगा।
मेरी सदारत की बात। मैं इसका अहल (योग्य) नहीं। इज्ज (विनय) से नहीं कहता, मैं अपने में कमजोरी पाता हूँ। मिस्टर कन्हैयालाल मुंशी3 मुझसे बहुत बेहतर होंगे। या डाक्टर जाकिर हुसैन1। पंडित जवाहरलाल तो बहुत मसरूफ होंगे वरना वे निहायत मौजूँ (उपयुक्त) होते। इस मौके पर सभी सियासियात (राजनीति) के नशे में होंगे, अदबियात (साहित्य) से शायद ही किसी को दिलचस्पी हो लेकिन हमें तो कुछ न कुछ करना है। अगर मिस्टर जवाहरलाल ने कुछ दिलचस्पी का इजहार किया, तो जलसा कामयाब होगा।
मेरे पास इस वक्त भी सदारत के दो पैगाम हैं। एक लाहौर के हिन्दी सम्मेलन का, दूसरा हैदराबाद दक्कन के हिन्दी प्रचार सभा का। मैं इनकार कर रहा हूँ लेकिन वे लोग इसरार (आग्रह) कर रहे हैं। कहाँ-कहाँ प्रेसाइड करूँगा। अगर हमारी अंजुमन में कोई बाहर का आदमी सदर हो तो ज्यादा मौजूँ है। मजबूरी दरजे मैं तो हूँ ही। कुछ रो-गा लूँगा।
और क्या लिखूँ। तुम जरा पंडित अमरनाथ झा2 को तो आजमाओ, उन्हें उर्दू अदब से दिलचस्पी है और शायद वे सदारत मंजूर कर लें।
1. प्रेमचंद सम्भवतः इस स्थान पर ‘नापैद’ या ‘पैदा न’ हो लिखना चाहते होंगे और शीघ्रता में ‘पैदा’ हो लिख गए होंगे। (‘नया अदब और करीम’ की सम्पादकीय टिप्पणी)
2. डा. अब्दुल अलीम (1905-1976) - लखनऊ विश्वविद्यालय के अरबी भाषा विभाग में व्याख्याता थे, जो उन दिनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में थे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उपकुलपति रहे। तरक्की उर्दू बोर्ड के भी अध्यक्ष रहे।
3. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (1887-1971)-1937 में बम्बई सरकार में गृहमंत्री, 1952 में केन्द्र सरकार में खाद्य मंत्री, 1953 से 1958 तक उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे। 1938 में भारतीय विद्या भवन, मुम्बई की स्थापना की। संविधान सभा के सदस्य रहे।
मुखलिस
प्रेमचंद
यह खत लिख चुकने के बाद मुझे खयाल आया, ऐसी सोसाइटी के लिए बहुत सी शाखों की क्या जरूरत! वह तो एक मरकजी (केन्द्रीय) अंजुमन होनी चाहिए, बजिन्सहू (ठीक) इस तरह जैसे हिन्दुस्तानी एकेडेमी। ज्यादा से ज्यादा प्राविनशियल शाखें खोली जा सकती हैं ताकि दूसरी हिन्दोस्तानी जबानों के अदीब शरीक हों। उर्दू के लिए तो लखनऊ या इलाहाबाद। हिन्दी के लिए भी इन दोनों में से कोई शहर। अगर हिन्दी और उर्दू के लिए एक ही मुत्तेहदा (संयुक्त) एसोसिएशन हो, तो और भी बेहतर।
1. डा. जाकिर हुसैन (1897-1969) -1920 में अलीगढ़ में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना में सहयोगी। 1926 में जर्मनी से अर्थशास्त्र में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त उसी वर्ष जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उपकुलपति रहे। 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़ के उपकुलपति रहे। 1957 से 1962 तक बिहार के राज्यपाल, 1962 से 1967 तक उपराष्ट्रपति और 1967 से 1969 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। ‘अब्बू खाँ की बकरी’ शीर्षक कहानी संकलन विशेष रूप से प्रसिद्ध हुआ।
2. पं. अमरनाथ झा - महामहोपाध्याय पं. गंगानाथ झा के परम सुयोग्य सुपुत्र। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष रहने के उपरान्त वहीं उपकुलपति रहे। पीछे चलकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग तथा बिहार लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष रहे।
पत्रांक 3
बनारस
18 मार्च 1936
बिरादरम,
मेरा खत पहुँच गया होगा इसलिए मैंने आपके तार का जवाब न दिया। रात मिस्टर कन्हैयालाल मुंशी का एक तार आया है कि 4 अप्रैल को वर्धा में आल इण्डिया लिटरेरी कान्फ्रेंस हो रही है। महात्माजी इस तारीख को वर्धा में होंगे और उनके आरजी कयाम (अस्थायी निवास) का फायदा उठाकर फिर तारीख मुकर्रर (निर्धारित) की गयी है। मेरा शरीक होना जरूरी है। इसलिए मैं तो लखनऊ आ भी न सकूँगा। मेरा खयाल है कि अभी हमें किसी जलसे की फिक्र न करना चाहिए। कुछ दिन खमोशी से काम करने के बाद जलसे का एहतेमाम (आयोजन) किया जायेगा। अभी तो गिने गिनाये अहबाब (मित्र) जमा होंगे और हमारा मंशा फौत (इच्छा नष्ट) हो जायेगा।
मुखलिस
प्रेमचंद
पत्रांक 4
बनारस
19 मार्च 1936
डीयर सज्जाद जहीर,
तुम्हारा खत अभी मिला। मैं तुम्हें एक खत शायद कल लिख चुका हूँ जिसमें मैंने वर्धा में होने वाली आल इण्डिया कान्फ्रेंस का जिक्र किया है जो 4 अप्रैल को होने वाली है। वहाँ से मुझको लखनऊ आना है क्योंकि पण्डित जवाहरलाल की तकरीर (भाषण) का जो तर्जुमा होगा उसके लिए ऐसी जबान की जरूरत है जो कामन लेंगुएज हो। अगर हमारे लिए कोई लायक सदर नहीं मिल रहा है तो मुझी को रख लीजिए। मुश्किल यही है कि मुझे एक पूरी तकरीर लिखनी पड़ेगी। हाँ, अब मुझे जो एतराज मकामी (स्थानीय) कमेटियों के मुताल्लिक था, वह दूर हो गया। बेशक मकामी कमेटियों से मुस्तकिल और जिन्दा (स्थायी एवं जाग्रत) दिलचस्पी कायम रहेगी। देहली की हिन्दोस्तानी सभा का मकसद सिर्फ इत्तेहाद (एकता) और एक मुश्तरक जबान (साँझी भाषा) की तहरीक (आन्दोलन) को कायम रखना है। हमारा मकसद वसीअतर (अधिक विस्तृत) है। मेरी तकरीर में आप किन मसाइल (समस्याओं) पर बहस (चर्चा) चाहते हैं, इसका कुछ इशारा तो कीजिए। मैं तो डरता हूँ मेरी तकरीर जरूरत से ज्यादा दिलशिकन (हृदयविदारक) न हो। आज ही लिख दो ताकि मैं वर्धा जाने के कब्ल (पूर्व) उसे तैयार कर लूँ। वर्धा से आने पर पण्डितजी की तकरीर के तर्जुमे में मसरूफ हो जाऊँगा और तकरीर लिखने का मौका न मिलेगा। मिस्टर अहमद अली ने जो एक मजमून पढ़ा था उसकी नकल या असल भी भेजना और उनसे भी तकरीर के मौजूआत (विषयों) पर राय लेना।
वस्सलाम।
मुखलिस
प्रेमचंद
पत्रांक 5
बनारस
26 मार्च 1936
डीयर सज्जाद जहीर,
खत और खुतबा (उद्बोधन) दोनों मिल गये। मशकूर हूँ। मैं अब वर्धा नहीं जा रहा हूँ क्योंकि आल इण्डिया अदबी कान्फ्रेंस जो वहाँ 3-4 अप्रैल को होने जा रही थी, अब मुल्तवी (स्थगित) हो गयी है। इसलिए मैं सदारत के लिए इनकार की जरूरत नहीं देखता। आप इसका ऐलान कर सकते हैं। मेरा खुतबा मुख्तसर (संक्षिप्त) होगा। मगर शायद मैं इतनी जल्द न लिख सकूँ कि उसे शाया (प्रकाशित) किया जा सके। इसकी जरूरत भी क्या है। पढ़ने के बाद शाया कर दिया जायगा।
मुखलिस
प्रेमचंद
1. यह पत्र मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया था लेकिन इसका मूल अंग्रेजी पाठ सम्प्रति उपलब्ध नहीं है।
2. महात्मा गांधी ने नागपुर में हिन्दी साहित्य परिषद का अधिवेशन आयोजित किया था, जहाँ पहली बार हिन्दी-हिन्दुस्तानी की बहस छिड़ी और गांधीजी की कार्यप्रणाली के कारण हिन्दी और उर्दू का पारस्परिक विवाद विकसित हुआ।
पत्रांक 61
दफ्तर हंस, बनारस
17 अप्रैल 1936
माई डीयर सज्जाद जहीर,
लाहौर से आज ही पलटा हूँ। तुम जानते होगे कि हम लोग 24-25 अप्रैल को महात्माजी की सदारत में नागपुर में एक आल इण्डिया लिटरेरी जलसा करने वाले हैं।2 उर्दू के लेखक भी मदऊ (आमंत्रित) किए गए हैं लेकिन मुझे उनके आने का कुछ ज्यादा यकीन नहीं है। मैंने मौलाना अब्दुल हक साहब1 से नागपुर आने की जाती तौर पर (व्यक्तिगत रूप से) दरख्वास्त की है लेकिन मुझे शुबहा (सन्देह) है कि लाहौर के सफर के बाद (मैं उनसे लाहौर में मिला था) वे नागपुर पहुँचने की तकलीफ उठाएँगे।
क्या तुम 23 अप्रैल को मेरे साथ नागपुर चल सकते हो?
भाई, इन्कार न करना, इससे हमारे मकासिद (उद्देश्यों) का भी थोड़ा बहुत प्रोपेगैन्डा हो जायगा।
पी.ई.एन. का एक खत भेज रहा हूँ। मादाम सोफिया वाडिया2 लखनऊ के जलसे की एक रिपोर्ट चाहती हैं। मेहरबानी करके उन्हें भेज दो। वे एक मजहबी खातून (धार्मिक महिला) हैं। मैं भी उन्हें जवाब लिख रहा हूँ।
रिपोर्ट उनके पास जरूर भेज दो। उसे वे अपने माहाना रिसाले (मासिक पत्रिका) पी.ई.एन. में छापेंगी।
जवाब का इन्तजार रहेगा।
तुम्हारा
प्रेमचंद
पत्रांक 7
बनारस
10 मई 1936
डीयर सज्जाद जहीर,
तुम्हारा खत मिला, शुक्रिया। मैं एक दिन के लिए जरा गोरखपुर चला गया था और वहाँ देर हो गई। मैंने यहाँ एक ब्रांच कायम करने की कोशिश की है। तुम उसके मुताल्लिक जितना लिटरेचर हो, वह सब भेज दो तो मैं यहाँ के ‘लेखकों’ को एक दिन जमा करके बातचीत करूँ। बनारस कदामतपरस्ती (रूढ़िवाद) का अड्डा है और हमें शायद मुखालफत (विरोध) का भी सामना करना पड़े। लेकिन दो-चार भले आदमी तो मिल ही जाएँगे जो हमारे साथ इश्तराक (सहयोग) कर सकें। अगर मेरी स्पीच1 की एक उर्दू कापी भी भेज दो और उसका तर्जुमा अंग्रेजी में हो गया हो और छप भी गया हो तो उसकी चन्द कापियाँ और मैनीफेस्टो की चन्द कापियाँ और मैम्बरी के फार्म की चन्द पर्तें और लखनऊ कान्फ्रेंस की कार्रवाई की रिपोर्ट वगैरह, तो मुझे यकीन है कि यहाँ शाख खुल जायेगी। फिर मैं पटना भी जाऊँगा और वहाँ भी एक शाख कायम करने की कोशिश करूँगा। आज बाबू सम्पूर्णानन्द2 से इसी के मुताल्लिक कुछ बातें हुईं। वे भी मुझी को आगे करना चाहते हैं। मैं चाहता था कि वे पेशकदमी (पहल) करते, मगर शायद उन्हें मसरूफियतें (व्यस्तताएँ) बहुत हैं। बाबू जयप्रकाश नारायण साहब3 से भी बातें हुईं। उन्होंने प्रोग्रेसिव अदबी हफ्तावार (साहित्यिक साप्ताहिक) हिन्दी में शाया करने की सलाह दी, जिसकी उन्होंने काफी जरूरत बताई। जरूरत तो मैं भी समझता हूँ लेकिन सवाल पैसे का है। अगर हम कई शाखें हिन्दी वालों की कायम कर लें तो मुमकिन है माहवार या हफ्तावार अखबार चल सके। अंग्रेजी मैगजीन का मसला भी सामने है ही। मैं समझता हूँ, हर एक जबान में एक प्रोग्रेसिव परचा चल सकता है, जरा मुस्तैदी की जरूरत है। मैं तो यूँ भी बुरी तरह फँसा हुआ हूँ। फिक्रे मआश (जीविका की चिन्ता) भी करनी पड़ती है और फिजूल का बहुत सा लिटरेरी काम करना पड़ता है। अगर हममें से कोई ‘होल टाइम’ (पूरा वक्त देने वाला) काम करने वाला निकल आये तो यह मरहला (लक्ष्य) बड़ी आसानी से तय हो जाये। तुम्हें भी कानून ने गिरफ्त कर रखा है। खैर, इन हालात में जो कुछ मुमकिन है वही किया जा सकता है।
1. मौलवी अब्दुल हक (1870-1961) - अंजुमन तरक्की उर्दू के संस्थापक सचिव, जो इस अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे। देश विभाजन के उपरान्त पाकिस्तान चले गए और वहाँ भी अंजुमन तरक्की उर्दू की स्थापना की। बाबा-ए-उर्दू के नाम से विख्यात। अनेक पुस्तकों के लेखक व सम्पादक। उर्दू-अंग्रेजी शब्दकोश भी तैयार किया। ‘उर्दू की नश्वोनुमा में सूफिया-ए-कराम का हिस्सा’ शीर्षक पुस्तक विशेष रूप से प्रसिद्ध। रचनाएँ अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित।
2. सोफिया वाडिया (1901-1986) - 1933 में अन्तर्राष्ट्रीय पी ई एन (पोएट्स एडीटर्स नाविलिस्ट्स) के भारतीय केन्द्र की संस्थापक। मार्च 1930 से ‘आर्यन पथ’ नामक अंग्रेजी पत्रिका का सम्पादन किया और 1933 से अंग्रेजी पत्रिका ‘इंडियन पी ई एन’ का सम्पादन किया। थियोसोफिकल विचारधारा से गहरा जुड़ाव।
तुम्हारा ‘बीमार4 तो मुझे अभी तक नहीं मिला। मिस्टर अहमद अली साहब क्या इलाहाबाद में हैं? उन्हें दो माह की छुट्टी है। वे अगर पहाड़ जाने की धुन में न हों तो कई शहरों में दौरे कर सकते हैं और आगे के लिए उन्हें तैयार कर सकते हैं। ‘बीमार’ अभी तक न भेजा हो तो अब भेज दो।
यह खबर बहुत मसर्रतनाक (आनन्ददायक) है कि बंगाल और महाराष्ट्र में कुछ लोग तैयार हैं। हाँ, वहाँ सूबेजाती (प्रान्तीय) कान्फ्रेंसें हो जायें तो अच्छा ही है और अगला जलसा पूना में ही होना चाहिये क्योंकि दूसरे मौके पर राइटरों का पहुँचना मुश्किल हो जाता है। फाकामस्तों की जमात जो ठहरी। वहाँ तो एक पंथ दो काज हो जायेगा।
हिन्दी वाले प्दमितपवतपजल बवउचसमग से मजबूर हैं मगर गालिबन (सम्भवतः) यह खयाल तो नहीं है कि यह तहरीक उर्दू वालों ने उन्हें फँसाने के लिए की है। अभी तक उनकी समझ में इसका मतलब ही नहीं आया है। जब तक उन्हें जमा करके समझाया न जायेगा, यूँ ही तारीकी (अंधेरे) में पड़े रहेंगे। एक नौजवान हिन्दी एडीटर ने, जो देहली के एक सिनेमा अखबार के एडीटर हैं, हमारे जलसे पर यह ऐतराज किया है कि इस जलसे की सदारत तो किसी नौजवान को करनी चाहिये थी, प्रेमचंद जैसे बूढ़े आदमी इसके सदर क्यों हुए। उस अहमक को यह मालूम नहीं कि यहाँ वही जवान है जिसमें प्रोग्रेसिव (तरक्कीपसन्द) रूह हो। जिसमें ऐसी रूह नहीं, वह जवान होकर भी मुर्दा है।
नागपुर में मौलवी अब्दुल हक साहब भी तशरीफ लाये थे, उनसे दो रोज खूब बातें हुईं। मौलाना इस सिनो साल (आयु) में बड़े जिन्दादिल बुजुर्ग हैं।
और क्या लिखूँ, वह सब लिटरेचर और ‘बीमार’ का नुस्खा भेजिए। क्या बताऊँ, मैं ज्यादा वक्त निकाल सकता तो कानपुर क्या, हर एक शहर में अपनी शाखें कायम कर देता। मगर यहाँ तो प्रूफ और खुतूतनवीसी (पत्रलेखन) से ही फुर्सत नहीं मिलती।
हाँ, चोरी हुई मगर तशफ्फी (सन्तोष) इस खयाल से करने की कोशिश कर रहा हूँ कि मुझे एक हजार रुपये अपने पास रखने का क्या हक था?
मुखलिस
प्रेमचंद
1. प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में पढ़ा गया अध्यक्षीय वक्तव्य।
2. डा. सम्पूर्णानन्द (1890-1969) - अध्यापन कार्य छोड़कर वाराणसी के ज्ञानमण्डल और काशी विद्यापीठ से सम्बद्ध रहे। तदुपरान्त स्वतंत्रता संग्राम में जुट गए और कई बार जेल यात्रा की। 1926 में उ.प्र. एसेम्बली के सदस्य बने और 1937 में शिक्षा मंत्री। 1955 में उ.प्र. के मुख्यमंत्री बने और फिर राजस्थान के राज्यपाल रहे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन से मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त।
3. जयप्रकाश नारायण (1902-1979) असहयोग आन्दोलन के दौरान 1921 में पढ़ाई छोड़कर देश कार्य में लगे। आल इंडिया सोशलिस्ट पार्टी, पटना के तत्कालीन महासचिव। स्वतंत्रता के उपरान्त समग्र क्रान्ति के प्रणेता, जिनके नेतृत्व में हुए व्यापक जन-आन्दोलन के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी थी। 1977 में हुए आम चुनाव में इनके नेतृत्व में ही जनता पार्टी की सरकार अस्तित्व में आई।
4. सज्जाद जहीर के लिखे हुए नाटक का शीर्षक।
पत्रांक 8
सरस्वती प्रेस, बनारस कैंट
12 जून 1936
डीयर जहीर,
भई माफ करना, तुम्हारे खत का जवाब जल्द न दे सका और न इलाहाबाद आ ही सका। मैंने अपनी तकरीर का तर्जुमा हिन्दी में करा लिया है और उसे जुलाई के ‘हंस’1 में निकाल रहा हूँ। अभी मदरसे और यूनिवर्सिटी बन्द हैं, इसलिए यहाँ एसोसिएशन की शाख शायद अगस्त से पहले न खुल सकेगी। आजकल तो इलाहाबाद में सन्नाटा होगा। ‘बीमार’ मैं पढ़ गया। बीमार तुम्हारा हीरो है मगर कहीं उसका कैरेक्टर जाहिर नहीं हुआ इसके सिवा कि वह बीमार है और एक अजीज (मित्र) के घर बोझ की तरह पड़ा हुआ है। वह अगर इस सोसाइटी के उसूल (सिद्धांत) और बरताव का कायल नहीं, अपनी सोसाइटी अलग बनाना चाहता है, अस्रे नौ (नवयुग) का पैगामबर (सन्देशवाहक) है तो उसका कुछ अमली इजहार (व्यावहारिक अभिव्यक्ति) तो उसे करना चाहिए। महज जबानी इश्तिराकियत (साम्यवाद) से क्या हासिल। मैं ऐसे कितने नौजवानों को जानता हूँ जो मजलिसे अहबाब (मित्रों की सभा) में सोशलिस्ट और कम्यूनिस्ट सब कुछ हैं मगर जब जवाँमर्दी दिखाने का मौका आता है तो हरमसरा (अन्तःपुर) में रूपोश (छुप) हो जाते हैं। बीमार को इस तरह नाजिर (दर्शक) के सामने आना चाहिए कि उससे हमदर्दी हो। मौजूदा हालत में तो अजीज ही से हमदर्दी होती और सलीमा2 ही बेइन्साफी पर माइल (आमादा) नजर आती है। जबान शुस्ता (परिमार्जित) है और मियाँ-बीवी का मुकालमा (वार्तालाप) बिल्कुल फितरी (स्वावभाविक)। मेरी तकरीर का अंग्रेजी तर्जुमा जो कर रहे थे?
मुखलिस
प्रेमचंद
1. हिन्दी मासिक जो बनारस से मुंशी प्रेमचंद के सम्पादन में मार्च 1930 से प्रकाशित होना आरम्भ हुआ था।
2. ‘अजीज’ और ‘सलीमा’ सज्जाद जहीर के नाटक ‘बीमार’ के दो पात्र हैं।
पं. देवीदत्त शुक्ल के नाम

[पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के उपरान्त ‘सरस्वती’ के सम्पादन का गुरुतर दायित्व पं. देवीदत्त शुक्ल ने ही सँभाला था, जिन्होंने निरन्तर 27 वर्षों तक इस प्रतिष्ठित पत्रिका का सम्पादन कुशलता के साथ किया। प्रेमचंद और ‘सरस्वती’ के पारस्परिक सम्बन्ध किसी परिचय की अपेक्षा नहीं रखते, अतः स्वाभाविक रूप से उनका पत्राचार पं. देवीदत्त शुक्ल के साथ भी हुआ।
सौभाग्य से पं. देवीदत्त शुक्ल के नाम लिखे गए प्रेमचंद के पाँच पत्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के संग्रह में सुरक्षित रह गए, जो ‘सम्मेलन-पत्रिका’ के पौष-ज्येष्ठ 1903-04 (शक), तदनुसार जनवरी-जून 1982 के ‘पत्र-विशेषांक’ में पृष्ठ संख्या 103-5पर प्रकाशित होकर सार्वजनिक हो गए थे। आश्चर्य की बात है कि प्रेमचंद के इन पत्रों की ओर साहित्य संसार की दृष्टि नहीं जा पाई और ये पत्र डा. कमल किशोर गोयनका के सम्पादन में प्रकाशित ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ (1988) एवं ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (2007); मदन गोपाल के सम्पादन में प्रकाशित ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (2001) तथा डा. जाबिर हुसैन के सम्पादन में प्रकाशित ‘प्रेमचंद रचनावली’-भाग 19 (2006) में सम्मिलित नहीं किए जा सके।]
पत्रांक 9
भार्गव पुस्तकालय,
गायघाट, बनारस सिटी
1-9-1926
श्रीमान् संपादक
सरस्वती
प्रयाग
प्रिय शुक्ल जी।
‘काया कल्प’ और ‘प्रेम-प्रतिमा’ की एक एक प्रति सेवा में भेज रहा हूँ और आशा करता हूँ कि निकट के किसी अंक में इनकी आलोचना कराने की कृपा करेंगे।
उपाध्याय जी का लेख तो अभी चखा जा रहा। क्या सचमुच उन्होंने किताब ही लिख डाली है क्या? खैर, अगर रबिन्द्र बाबू उसी पाप के अपराधी हैं जिसका मैं हूँ तो मुझे कुछ संतोष है।
एक कहानी आपके लिये लिख रहा हूँ।
भवदीय
धनपतराय
पत्रांक 10
2ए भ्मूमजज त्वंक
स्नबादवू
28-2-29
प्रिय देवीदत्त जी,
वंदे।
यह मुझ पर क्या ख़फगी है कि विशेषांक की कापी मेरे पास नहीं भेजी गई? इतने दिनों तक उसकी प्रतीक्षा करके तब यह तकाजा कर रहा हूँ। क्षमा कीजिएगा।
सेवक
धनपतराय
पत्रांक 11
लखनऊ
23-6-31
प्रिय शुक्ल जी।
वंदे।
क्या ‘गबन’ की आलोचना ‘सरस्वती’ में न निकालियेगा। अब तो लगभग दो महीने हो गए। मुझे तो आशा थी पहले ही महीने में आलोचना हो जायगी। पर दिन गुजरते चले जाते हैं। हिन्दी लेखकों के लिये यों ही क्या कम बाधाएँ हैं फिर आप लोग भी हतोत्साह करने लगे।
आशा है आप प्रसन्न हैं।
भवदीय
धनपतराय
पत्रांक 12
Lucknow
ता. 21-7-1931 ई.
प्रिय बंधुवर
वंदे।
फिर याददिहानी कर रहा हूँ। जरा फिर खटखटाइए।
मेरी कहानियों की एक बृहद आलोचना किसी सज्जन ने कलकत्ता के स्पइमतजल में की थी। उसके अनुवाद का एक अंश ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ सेवा में भेजता हूँ। यदि स्वीकार करेंगे तो कृपा होगी। मगर बहुत इन्तजार न कराइएगा।
आपके यहाँ तो साहित्य सम्मेलन के विषय पर झगड़ा खूब चल रहा है।
भवदीय
धनपतराय
पत्रांक 13
जागरण-कार्यालय
सरस्वती प्रेस, काशी
सं. 1276 12-12-1932 ई.
प्रिय देवीदत्त जी
वंदे।
आशा है ‘कर्मभूमि’ और अन्य पुस्तकों की आलोचना ‘सरस्वती’ में अबकी निकलेगी। किसी योग्य आलोचक को दीजिएगा।
मैंने अपनी पुस्तकों का एक पृष्ठ का विज्ञापन बनाकर ‘सरस्वती’ के लिए भेजा था। पहुँचा होगा। कृपया उसे ‘सरस्वती’ में दें। जो छप रहा है उसमें कई पुस्तकें नहीं हैं और न आकर्षक है। आशा है, आप प्रसन्न हैं।
भवदीय
धनपतराय
प्रेमचंद-महताबराय पत्राचार

[प्रेमचंद, उनके छोटे भाई महताबराय, उनके चचेरे भाई बलदेव लाल और प्रसिद्ध शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने साझे में सरस्वती प्रेस स्थापित किया था। प्रेस में निरन्तर घाटा होने के कारण साझेदारों में मनमुटाव हुआ और स्वाभाविक रूप से प्रेमचंद और महताबराय के मध्य भी विवाद की स्थिति उत्पन्न हुई। अमृतराय ने ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ में इस विवाद के सम्बन्ध में पर्याप्त विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया है। और इस विवरण में प्रेमचंद-महताबराय के मध्य हुए पत्राचार से चार ऐसे पत्रों के उद्धरण भी दिए हैं जो कि ‘चिट्ठी-पत्री’ में प्रकाशित नहीं हैं। ध्यातव्य है कि ‘प्रेमचंदःकलम का सिपाही’ और ‘चिट्ठी-पत्री’ इन दोनों पुस्तकों के प्रथम संस्करण 1962 में प्रकाशित हुए थे।
प्रेस को लेकर हुए इस विवाद की दृष्टि से प्रेमचंद-महताबराय पत्राचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। महताबराय से प्रेमचंद के पत्र प्राप्त करने में पहली बार मदन गोपाल ही सफल हो सके थे, लेकिन इस सम्बन्ध में स्वयं उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया विवरण भ्रामक है। 1965 में पहली बार प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘कलम का मजदूर प्रेमचंद’ में मदन गोपाल ने लिखा था -
"प्रेमचंद के सौतेले भाई महताबराय ने भी मुझे छः पत्र दिए।"1
जब मदन गोपाल ने मात्र अपने संग्रह में उपलब्ध प्रेमचंद के पत्रों का संकलन उर्दू में ‘प्रेमचंद के खुतूत’ शीर्षक से 1968 में प्रकाशित कराया तो उसमें अपनी भूमिका में लिखा -
"प्रेमचंद के करीबी रिश्तेदारों से भी राब्ता कायम किया गया। उनके सौतेले भाई महताबराय ने मुझे सात खत दिये।"2
2001 में ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में प्रेमचंद के पत्र प्रकाशित कराते समय मदन गोपाल ने लिखा -
"प्रेमचंद ने सौतेले भाई महताबराय के साथ प्रेस में शिरकत की थी। उसमें घाटा रहा और बदमजगी भी पैदा हुई। महताबराय ने बताया कि कुछ लोग आए थे और प्रेमचंद के खुतूत ले गए। (कौन थे? अब कहाँ हैं? मालूम नहीं।) मगर जो खुतूत बाकी हैं उन्हें वे इसलिये नहीं दे सकते क्योंकि ‘भाई साहब को मैंने मूर्ति के तौर रखा है मगर इन खुतूत में वे गिर गए हैं।’ बहुत मिन्नत समाजत के बाद उन्होंने दस खुतूत मुझे दिये, बाकी संभाल कर रख छोड़े। दस साल बाद अमृतराय ने उनको हासिल किया, मगर ‘चिट्ठी-पत्री’ में शाया नहीं किया। ये खुतूत जवाहरलाल नेहरू म्यूजियम में महफूज हैं। इन्हें पहली बार यहाँ शाया किया जा रहा है। खतों की हालत खस्ता है, न तारीख है और न पूरा खत।"3
1. कलम का मजदूर प्रेमचंद,
2. प्रेमचंद के खुतूत,
3. कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-17,
और 2004 में ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-24 प्रकाशित कराते समय मदन गोपाल ने लिखा -
"महताबराय को लिखे प्रेमचंद के खुतूत अदबी मौजू पर तो नहीं हैं मगर उन्होंने प्रेमचंद के साथ सरस्वती प्रेस में शिरकत (की) थी। उनके खतो किताबत से प्रेमचंद की इक्तिसादी हालत पर रोशनी पड़ती है। मैं महताबराय से तीन बार मिला। एक बार तो वे मुझे अपनी साइकिल पर बिठाकर लमही भी ले गये। उन्होंने मुझे मुत्तिला किया कि मेरी मुलाकात से कब्ल कुछ और लोग भी उनसे प्रेमचंद के खुतूत ले गये थे जिनके पते उनके पास नहीं थे। जो खुतूत उनके पास बच रहे थे वे उन्हें देने को इसलिये तैयार नहीं थे क्योंकि उन खुतूत में भी (प्रेमचंद) उस चोटी से गिर गये जिस पर उन्होंने बिठा रखा था। उन खुतूत को वे अवाम के सामने नहीं रखना चाहेंगे। बहुत मिन्नत समाजत के बाद आठ-दस खुतूत उन्होंने मुझे दिये। कई साल बाद उन्होंने दस-बारह खुतूत को अमृत राय के हवाले किया। अब ये दिल्ली के नेहरू लाइब्रेरी में हैं।"1
1. कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-24,
उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि महताबराय से प्राप्त हुए पत्रों की संख्या मदन गोपाल कभी 6, कभी 7, कभी 10 और कभी 8-10 बताते हैं। इसके अतिरिक्त वे यह सूचना भी देते हैं कि महताबराय के पास जो पत्र बचे रह गए थे वे उनसे अमृत राय ले गए परन्तु उन्होंने ‘चिट्ठी-पत्री’ में उन पत्रों को प्रकाशित नहीं कराया। ध्यातव्य है कि मदन गोपाल के मात्र अपने संग्रह के पत्र उन्हीं के सम्पादन में प्रकाशित ‘प्रेमचंद के खुतूत’ शीर्षक संकलन में प्रकाशित हुए थे, जिसमें प्रेमचंद द्वारा महताबराय के नाम लिखे गए केवल सात पत्र ही प्रकाशित हैं। इसके प्रतिकूल ‘चिट्ठी-पत्री’ में महताबराय के नाम लिखे गए प्रेमचंद के नौ पत्र प्रकाशित हैं। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अमृत राय ने पीछे चलकर महताबराय से जो पत्र प्राप्त किए उनमें से मात्र दो पत्र ही उन्होंने ‘चिट्ठी-पत्री’ में प्रकाशित कराए और शेष पत्र सम्भवतः इसी कारण से, जैसा कि महताबराय ने मदन गोपाल से कहा था कि इनमें प्रेमचंद अपने उच्च स्थान से गिर गए हैं, इन पत्रों को प्रकाशित कराना उचित नहीं समझा होगा।
महताबराय के नाम लिखे गए प्रेमचंद के दो पत्र (दिनांकित 3 अगस्त 1925 और 6 सितम्बर 1925) डा. कमल किशोर गोयनका ने 1988 में ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ शीर्षक संकलन में प्रकाशित करा दिए थे, जिनका स्रोत क्या है यह कुछ ज्ञात नहीं होता।
मदन गोपाल ने जब 2001 में ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में प्रेमचंद के पत्र प्रकाशित कराए तो उसमें ‘चिट्ठी-पत्री’ में पत्रांक 137 तथा ‘प्रेमचंद के खुतूत’ में पृ.169 पर प्रकाशित प्रेमचंद का जून 1925 का पत्र प्रकाशित नहीं कराया और ‘चिट्ठी-पत्री’ में प्रकाशित पत्रांक 139 (दिनांकित 1 अक्टूबर 1920) को दो भिन्न-भिन्न तिथियों - 1 अक्टूबर 1920 तथा 10 अक्टूबर 1920 (पत्रांक 176 तथा 180) के रूप में दो बार प्रकाशित करा दिया। अस्तु!
मदन गोपाल ने नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय, नई दिल्ली के संग्रह से खोजकर ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 के पत्रांक 331 के अन्तर्गत प्रेमचंद-महताबराय पत्राचार के २० पत्र, जिनमें से दस पत्र प्रेमचंद के लिखे हुए और दस पत्र महताबराय के लिखे हुए हैं, पहली बार उर्दू में प्रकाशित कराए। इनके अतिरिक्त पत्रांक 295 पर आनुमानिक रूप से सितम्बर 1925 में लिखा हुआ पत्र और पत्रांक 332 पर बिना तिथि का पत्र भी प्रकाशित कराए हैं, जो प्रेमचंद द्वारा महताबराय को लिखे गए थे। ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ में इन पत्रों का जो पाठ प्रकाशित है, वह अत्यधिक विकृत होने के कारण अमान्य हो जाता है। अतः नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय, नई दिल्ली से इन पत्रों की मूल प्रति की प्रतिलिपि प्राप्त करके इनका प्रामाणिक पाठ पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा है। एक पत्र के अतिरिक्त अन्य किसी पत्र पर दिनांक का निर्देश प्राप्त नहीं है, अतः पत्रों के कथ्य के आधार पर ही इनको क्रम देने का प्रयास किया गया है। इन पत्रों के देवनागरी लिप्यन्तरण में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के फारसी विभाग में रीडर एवं विभागाध्यक्ष डा. सैयद हसन अब्बास से जो अहैतुकी सहायता प्राप्त हुई है, उसके लिए मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ।
प्रेमचंद की मानसिक संरचना की दबी-छिपी परतें उघाड़ने वाले ये दुर्लभ पत्र प्रेमचंद के जीवन का अध्ययन करने वाले शोधार्थियों के लिये अवश्य ही उपादेय सिद्ध होंगे, इसमें सन्देह नहीं।]
पत्रांक 14
सेवा-उपवन,
काशी
मि................
जनाब भाई साहब,
खत मिला। मैं प्रेस में चलकर रुपये वसूल करने में मदद जरूर दूँगा और रुपये वसूल हो जायेंगे। मगर प्रेस में जब तक कोई नया इन्तजाम काम का मुस्तकिल बन्दोबस्त नहीं हो जाता तब तक बनारस के काम के भरोसे मेरा शरीक (सम्मिलित) होना यही मानी रखता है कि किसी तरह रोटी-दाल खाऊँ और प्रेस दौड़ा करुँ। उस रोज भी जब आपने मुझे लिखा था कि भार्गव के साथ ऐसा बन्दोबस्त हो रहा है और तुमको तर्जुमे का काम भी मिल जायगा जिससे 40-50 की आमदनी हो जायगी। मुझे उसी की लालच थी और प्रेस से जो दस-बीस बच रहते। आखिर आपने एक महीना तो देख लिया कि यहाँ की क्या कैफियत (दशा) है और ऐसी हालत में जबकि काम किताबी और जॉब आपके पास पहले से ही मौजूद था। एक ऐसी भी किताब थी जिसका प्रूफ प्रेस ही में देखकर छपना थी। उसके चाहे तीन फार्म रोज छाप दिया जाता। भार्गव के साथ कोई मामला तय होता नहीं मालूम होता और उनके यहाँ काम यूँ करने में प्रेस को कोई फायदा नहीं। काम करने वाले बढ़ गए मगर अभी काम कराने वाले नहीं बढ़े। यूँ तो जब तक मैं बनारस में हूँ आप जो हुक्म देंगे उसे करने के लिए हमेशा तैयार हूँ।
खादिम
महताबराय
पत्रांक 15
मैं परसों फिर भार्गव1 से मिला था। वह काम करने को मुस्तैद हैं। जो किताबें हमारे प्रेस में छपेंगी अपना खर्च निकालकर हमारा और उनका आधा साझा रहेगा। कोर्स की किताबें भी लगाई जायँगी। किस्सा, कहानी, उपन्यास वगैरह सब। मैं दो फार्म का काम रोजाना करूँगा। टाइप आते ही काम शुरू होगा। तुम्हारे लिये इस वक्त प्रेस फिर खुला है। अगर दो फार्म काम रोजाना हो और 15 रुपये फार्म रेट हो तो शायद नफे में 200 रुपये माहवार मिल जायँ। हम तीनों आदमी मौजूद रहेंगे, काम करेंगे, नफा तकसीम करेंगे। अगर तुम्हें इस वक्त मुनासिब मालूम हो तो तुम रघुपति सहाय का हिस्सा भी ले लेना, 1 रुपया माहवार सूद पर। मेरी निगरानी में काम होगा तो किसी को शिकायत का मौका न रहेगा। 30 रुपया रोजाना काम किया जाय तो माहवार 24 दिन में 720 और ट्रेडिल के 80 मिलकर 800 का काम हो सकता है। कम से कम 700 का तो हो ही जायगा। खर्च माहवार 400। किराया मकान। सूद 8 आना, घिसाई वगैरह 150 । साढ़े पाँच सौ निकालकर डेढ़ सौ खालिस नफा हो सकता है। मुझे उम्मीद है 2000 के हिस्से के 30 माहवार फायदा होगा। 4000 पर 60। इसके अलावा तुम्हें बंगला, उर्दू, अंग्रेजी वगैरह से तर्जुमा करने का काम काफी मिल जायगा जिससे 100 का औसत पड़ जायगा। नौकरी आजकल मिलनी मुश्किल है। मगर मैं सिर्फ तुम्हारे बेहतरी के खयाल से लिख रहा हूँ। ईश्वर के लिये कहीं यह मत समझना कि मैं तुम्हें मुगालता देकर तुम्हारे रुपये हजम करना चाहता हूँ। मैं तुम्हारे व सूद के दो हजार रुपये दूँगा अगर तुम कहीं और जाने का इरादा पक्का कर लोगे। या 20 रुपये माहवार सूद तावक्ते अदायगी। नन्द किशोर1 को तो मैंने बाजार की खराबी का जिक्र करके बेहौसला कर दिया।
(धनपतराय)
1. भार्गव पुस्तकालय, वाराणसी के स्वामी।
पत्रांक 16
भार्गव कल आये थे। एक किताब जो जगमोहन वर्मा जी2 की लिखी हुई पड़ी हुई थी, मैंने ले ली है। भार्गव ने कागज भेजने का वादा किया है। वे लिखा-पढ़ी करके 8 आना के कागज पर लिखने को भी कहते थे। अब मुझे दुलारे लाल3 ने फिर बुलाया है। वह इतवार को आने वाला था। नहीं आया है। वहाँ भी कुछ न कुछ काम मिलने की उम्मीद है। सामान आने के बाद मैं दौड़ धूप करके काम लाऊँगा। तुम अच्छा काम दोगे। उतना ही अच्छा जितना और लोग देते हैं तो कोई दिक्कत न होगी। मैंने एक महीने में कोई काम लेने की कोशिश ही नहीं की और अब भी वर्मा जी की किताब प्रेस में देते डर रहा हूँ। किसी तरह वक्त टाल रहा हूँ। बदनामी का खयाल था वरना मैंने दो महीने के लिये प्रेस को बन्द कर देने का इरादा किया था। बिहारी लाल टाइप वाला मर गया है। देखूँ उसके आर्डर में क्या देर है। कल सरजू मिस्त्री के यहाँ पुराने टाइप भेज दिये हैं। तर्जुमे का काम क्यों नहीं करते? कोई बंगला किताब ले लो या अंग्रेजी किताब ले लो। मैं तो बंगला नहीं जानता, अंग्रेजी भी मैं कहाँ जानूँ। तुम्हें कौन सी किताब ज्यादा आसान मालूम होगी? कोई किताब तैयार करके मुझे दो और मैं उसके छपने का इन्तजाम करूँ तो अलबत्ता कह सकते हो। आओ घर में बैठे रहने से तो कोई फायदा ही नहीं है। अगर रुपये जल्द वसूल हो जायँगे तो कुछ न कुछ मिल ही जायगा। बहरहाल यह तो मुनासिब नहीं मालूम होता कि और लोग जब काम का मुस्तकिल बन्दोबस्त (स्थायी प्रबन्ध) कर लें या खाना पकाकर रख दें तो तुम खाने पहुँच जाओगे। कुछ लकड़ी, पानी, ईंधन तुम भी जमा करो। जो मुनासिब है वह मैंने कह दी। अब तुम्हारी खुशी। जब सारा इन्तजाम हो गया और मैं खूब परेशान होकर मुस्तकिल इन्तजाम कर ही चुका तो फिर तुम जाकर क्या करोगे। हाँ अगर तुमने कोई बेहतर काम पा लिया हो तो मुझे यहाँ क्या करना। जाओ।
तुम्हारा
धनपत राय
1. वाराणसी के प्रकाशन संस्थान नन्दकिशोर एण्ड ब्रदर्स के स्वामी।
2. नागरी प्रचारिणी सभा के ‘हिन्दी शब्द सागर’ के सहायक सम्पादक। कुछ अनूदित पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं। जिस पुस्तक की चर्चा की गई है वह भार्गव पुस्तकालय, बनारस से 1926 में प्रकाशित उपन्यास ‘लोकवृत्ति’ था।
3. लखनऊ के गंगा पुस्तकमाला कार्यालय के स्वामी दुलारे लाल भार्गव।
पत्रांक 17
मैंने तुमसे बार-बार काम की तफसील (विवरण) लिखने को कहा। फार्म का नमूना तक लिख दिया। लेकिन तुमने न माना। जब साझे का काम है तो हर एक हिस्सेदार हिसाब देखने के लिये इसरार कर सकता है। दो साल तक की तनख्वाहों की जाँच कौन कर सकता है। न वे आदमी हैं, और हैं भी तो याद किसकी इतनी जबरदस्त है। तुम्हारा कितना निकलता है यह हिसाब से न मालूम होगा। जो कुछ तुम बतला दोगे वही ठीक है। 300 पिछले साल के हैं, इमसाल (इस वर्ष) के जितने निकलें उतना बतला दो। जूँ जूँ रुपये वसूल होते जायँगे, और देने के साथ तुम्हारा देना भी चुकता होता जाएगा। मैंने तुमसे कई माह हुए कहा था कि अगर तुम्हारी तनख्वाह भी नहीं निकलती तो तुम प्रेस में कुफ्ल (ताला) डाल कर चले जाओ। काश! तुमने उस वक्त मेरी बात मान ली होती तो इस वक्त तनख्वाह क्यों इतनी ज्यादा पड़ती। खैर, अब पिछली बातों का रोना क्या। तुमने भी नुकसान उठाया, मैंने भी नुकसान उठाया। अब प्रेस में न टाइप है कि किसी का काम कर सकूँ, न साख है कि किसी से काम माँग सकूँ। इधर रघुपति सहाय अपने रुपये का तकाजा करेंगे और कर रहे हैं। जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ। तुम जो कुछ बतला दो वही मान लूँगा। सारा काम चौपट हो गया।
धनपतराय
पत्रांक 181
बिरादरम,
तुमने प्रेस के लेने-देने की जो फर्द दी थी उसमें जो गलतियाँ थीं वे तुम्हें दिखाता हूँ। तुमने पाने की मदों में राम प्रसाद पांडे के 50 और गोविंद शुक्ल के 45 और दुर्गा मैडिकल हाल के 25 फिजूल दिखाए हैं क्योंकि ये रकमें वसूल होनी ही नहीं हैं। ख्वामख्वाह गिनती बढ़ाने से क्या फायदा। कान्ता प्रसाद विश्वनाथ के 28 और छुन्नू लाल के 4 रुपये, ये भी फिजूल हैं कि तुम वसूल कर चुके हो। राजा मोती चंद से 200 पाना लिखा। हालाँकि कागज का बिल जो 186 का है निकालकर शुक्ल के... बचते हैं। देने में मकान का पुराना किराया, नये मकान का 4 माह किराया, मजदूरों की तनख्वाह, मैनेजर की तनख्वाह का... जिक्र न था। इसलिये अब नया हिसाब यूँ है -
Govind Sukul 45-0
Durga Hall 25-0
R. Pande 50-0
K.P. & Vis. 28-0
Chunnu Lal 4-8
R. Mati Chand 75-0 Less than estimated
----------------
227-8 (bad account)
2160-8
227-8
----------
1933-0 कुल पाना
1736
-----------
197-0
अब देने का हिसाब देखो-
Bihari Lal 200-0
Nand Kishore 312-0 तुमने 100 रुपये दिखाए। 186 रुपया कागज का बिल
है और 26 पोस्टकार्ड के दाम।
Harihar Nath 200-0
Mother 50-0
Shiva Nand 53-0
Old House Rest 200-0
New House Rent 72-0
Pay for August 325-0
---------------
Manager’s Pay 324-0
...............................
1. यह पत्र स्थान-स्थान पर खंडित है। जो शब्द लुप्त हो गये हैं उनके स्थान पर ... अंकित कर दिया गया है।
अब कुल पाना 197-0 है। अगर और रकमें पूरी पूरी वसूल हों तब तो आना है। लेकिन मुझे खौफ है शिवमंगल से रुपया लेना मुश्किल हो जायगा और दूसरी रकमों से भी दस बीस रुपया भी घट ही जायगा। इस तरह 197 में शायद 97 बच रहें तो बच रहें वरना लेना देना बराबर। बस प्रेस की सारी कमाई 445 रुपये है जो मनमोदक का दाम है।
प्रेस का काम मुश्किल है इसे मैं मानता हूँ और तुम्हें इल्जाम नहीं देता। मैं भी शायद इससे अच्छा इन्तजाम न कर सकूँ, लेकिन चूँकि तुमने बाबू शिव प्रसाद गुप्त1 से कहा है कि भाई साहब ने अपना प्रेस छीन लिया इसलिये मैं यह दिखा देना चाहता हूँ कि तुम्हारे इन्तजाम में उसकी क्या हालत थी। तुम जो हालत समझे बैठे हो वह नहीं है। साल दो साल में तुम्हारे और हमारे दोनों के रुपये डूब जाते। तुम्हें सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, यह मैं मानता हूँ। लेकिन यह नुकसान रोकने का कोई इन्तजाम करना मुनासिब था या नहीं? कामयाबी होगी या न होगी ईश्वर जाने। लेकिन एक बार कोशिश करके अगर मैं तुम्हारे और अपने रुपये बचा सकूँ तो क्या बुरी बात है। कल शिव प्रसाद ने इस तरह सबके सामने कह दिया कि उन्होंने महताबराय से प्रेस छीन लिया कि मुझे निहायत शर्मिन्दा होना पड़ा। उनसे मैं क्या कहता। भाई, मैंने प्रेस छीन नहीं लिया बल्कि वही काम करने की कोशिश की जो बदइन्तजामिया सीरदारों के साथ कोर्ट ऑफ वार्ड करती है। और कुछ नहीं। बस अब भी इस.... करूँ। मगर.... होता या नहीं... खत का जवाब देने की जरूरत... क्योंकि मैंने कोई ऐतराज नहीं किया है।
तुम्हारा
धनपतराय
1. शिवप्रसाद गुप्त (1883-1944)-काशी के सुप्रसिद्ध समाजसेवी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय महामना मालवीय जी के सहयोगी। 1916 में ज्ञानमण्डल की स्थापना। 1920 में बनारस से दैनिक ‘आज’ का प्रकाशन आरम्भ किया।। प्रेस एक्ट की पाबन्दियों के कारण 1930 में भूमिगत पत्र ‘रणभेरी’ निकाला। 1921 में अपने भाई हरप्रसाद की स्मृति में काशी विद्यापीठ और 1936 में भारत माता मन्दिर की स्थापना की। ‘राष्ट्ररत्न’ की उपाधि से विभूषित।
पत्रांक 19
9 * 5 * 25 = 1125
@ - / 8 / 2 * 5 * 20 = 200
--------------
1325
कल तुमने जो हिसाब दिया था उसमें कुल पाना 2240 दिखाया था। आज इसमें से 624 और घटा दिया। पुराने मकान का 200 और बाकी रह गया। 824 इसमें से निकाल दो तो कुल 1416 रह जाते हैं। इसमें ‘स्वदेश’1 के 108 रुपये गायब हैं। गोविन्द शुक्ल के गायब हैं यानी 153 और निकाल दो। कुल 1263 बच रहते हैं। सूद 25 महीने का 8 आने के हिसाब से 1325 होता है। गोया तुमने 8 आने का सूद भी नहीं दिया। अब तक तुम्हारे हिसाब का परत देखकर यह समझा था शायद 10 आने सूद का परता पड़ेगा। अब मालूम हुआ कि वह धोखा था। गोया इस वक्त तक अगर तुम्हारी बतलाई हुई सब रकमें वसूल हो जायँ तो मुश्किल से 6 आने का परता पड़ेगा। तुम मुझसे 1 रुपया माँगते हो। क्या मेरे प्रेस के हाथ में लेते ही हुन बरस जायगा। इससे तो यही बेहतर है कि प्रेस बेच दिया जाय। आज चलकर मैं इसका स्टाक लेता हूँ और बेचने की फिक्र करता हूँ। जो कुछ मिल जाय वही गनीमत है। तुम्हारे हाथ में तो शायद साल दो साल में इसकी हस्ती ही मिट जाती। तुम भी चलो और प्रेस को बेचने की फिक्र करो। जो कुछ बाजार दाम लग जायगा वह मैं दे दूँगा। कल तुमने हिसाब में 624 की बड़ी रकम न दिखाई क्यों?
(धनपतराय)
1. गोरखपुर से पं. दशरथ प्रसाद द्विवेदी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाला हिन्दी साप्ताहिक पत्र।
2. काशी से बालचन्द्र अष्ठाना के सम्पादन में प्रकाशित होने वाला हिन्दी साप्ताहिक पत्र।
3. यह राशि 404/6 होती है। घटाने में त्रुटि हुई है।
पत्रांक 20
7-9-25
भाई साहब किब्ला,
हमारा हिसाब हस्बे जैल (निम्नांकित) है। मैंने कुल 25 महीने प्रेस में काम किया है जिसमें कुल 876/- रुपया लिया है। 60 के हिसाब से हमारा 1500/- होता है। इस तरह हमारा 624/- निकलता है। ‘भूत’2 का 175/10 प्रेस को मिल चुका है। और कुल छपाई वगैरह ‘भूत’ की बाजार दर से 20/- हफ्ता हुआ। कुल 29 नम्बर हमारे यहाँ से निकले हैं। यानी प्रेस का 580/- ‘भूत’ की छपाई का हुआ जिसमें से 175/10 निकाल दिया जाय जो प्रेस को मिल चुका है तो 403/63 रुपया बच गया जो मेरी तनख्वाह में से काट लिया जाय।
मेरी बकाया तनख्वाह 624/-0-
‘भूत’ का खर्च 403/6
बकाया 221-10-01
221-10 मुझे मेरी तनख्वाह के मिलने चाहिए। इसके अलावा जो प्रेस में बचेगा उसमें से जितना औसत मेरे हिस्से का हुआ वह और मेरा 1950 का एक रुपये के हिसाब से सूद।
खादिम
महताबराय 2
पत्रांक 21
जो कुछ भी प्रेस का सच्चा हिसाब यही है और ठीक है। चाहे प्रेस की हालत कुछ भी हो। कल तक तो आपने हर बातें मान कर कहा कि तुम्हारे रुपये का सूद एक रुपया देता रहूँगा। मगर आज आप बदल गये। मैं अपने हिसाब के बाबत धोखे में था कि पार साल मैंने अपनी तनख्वाह की बचत अपनेबंचपजंस में जोड़ दिया था और इस साल का जो मेरा निकलता वह मेरा होता। बाजार में जब बेचना ही है तो जो दाम लगे मैं ही क्यों न देकर ले लूँ, आप ही क्यों लेंगे। मैं तो यह चाहता हूँ कि जो कुछ आप प्रेस के चलते हुए समझौता कर लें ज्यादा मुनासिब है। प्रेस के बिकते ही अगर प्रेस दूसरों के हाथ में गया तो जो रुपया बकाया है वह नहीं मिलता। हमारे या आपके पास रहने पर अलबत्ता मिल सकेगा। पहले मैं भी यही चाहता था जब आपने लिखा था कि प्रेस फरोख्त (विक्रय) कर दिया जाय, कि बाजार में जो उसकी कीमत लगे वह मैं देकर प्रेस अपना कर लूँ। मगर सिर्फ इस खयाल से कि सब हिस्सेदार कहेंगे कि रुपया डूब गया, इस खयाल को तर्क करके मैंने रुपया कर्ज लेकर बाबू बलदेव लाल व बाबू रघुपति सहाय को लौटाने पर तैयार हुआ कि जिसमें उन लोगों को शिकायत का मौका न रह जाये। मगर सब बातों के जान लेने पर मेरी हिम्मत नहीं पड़ी कि रुपया लौटाऊँ इसलिये भी यही जो आप कहते हैं। जो बाजार में कीमत लगे उसमें से सबका बाकी देकर सब लोग तकसीम कर लें। और प्रेस मैं लूँ क्योंकि मैं बेरोजगार हूँ।
1. यह राशि 220-10 होती है। घटाने में त्रुटि हुई है।
2. जब महताबराय ने इस पत्र की प्रतिलिपि प्रेमचंद को प्रेषित की थी तो उसका पाठ निम्नांकित था -
Copy of my Letter D/- 7.9.1925
भाई साहब किब्ला,
हमारा हिसाब हस्बे जैल है। मैं कुल 25 महीने प्रेस में काम किया है जिसमें कुल 876 रुपया लिया है। 60 के हिसाब से हमारा 1500 हुआ। इस तरह हमारा 624 निकलता है। ‘भूत’ का 175/10 प्रेस को मिल चुका है और कुल छपाई ‘भूत’ बाजार दर से 20/- हफ्ता होता है। कुल 29 नम्बर हमारे यहाँ छपा यानी प्रेस का 580/- ‘भूत’ की छपाई का हुआ जिसमें से 175/10 निकाल दिया जाय जो प्रेस को मिल चुका है तो 403/6 बच गया जो मेरी तनख्वाह से काट लिया जाय।
मेरी तनख्वाह 624/-
‘भूत’ का खर्च 403/6
221-10-0
221-10 मुझे मेरी तनख्वाह के मिलना चाहिए। इसके अलावा जो प्रेस में बचेगा उसमें से जितना औसत मेरे हिस्से का हो वह। आज से 1 सितम्बर से 1950/- रुपये का एक रुपये के दर से सूद।
महताबराय
पत्रांक 22
मैं नहीं बदल गया। तुम बदल गए। क्योंकि तुमने भी हिसाब मेरे सामने नहीं रखा। प्रेस तुम लो या मैं लूँ जो ज्यादा से ज्यादा कीमत दे वही इसके लेने का इख्तियार (अधिकार) रखता है। अगर मैं सबसे ज्यादा दूँगा मैं लूँगा, तुम दोगे तुम लोगे, कोई तीसरा देगा तीसरा लेगा। अगर तुम बेरोजगार हो तो मैं कौन बारोजगार हूँ। तुम तो जवान आदमी हो, कलकत्ता-बम्बई की हवा खा सकते हो। मैं तो इस काबिल भी नहीं हूँ। खैर, बतलाओ कि तुम प्रेस की ज्यादा से ज्यादा क्या कीमत दे सकते हो। अगर मैं उससे ज्यादा दूँगा तो मैं लूँगा, वरना तुम।
धनपतराय
पत्रांक 23
आप ही बताइए आप क्या देंगे। अगर मैं पहले बता दूँ तो क्या मुझे और बढ़ने का हक होगा? क्या हमारी और आपकी पर बोली पर खात्मा है कि और लोगों की भी राय ली जायगी?
महताबराय
पत्रांक 24
हाँ हाँ बोली है। आखिरी वक्त तक सबको बढ़ने का इख्तियार है। तुम जो कुछ कहो उससे मैं बढूँ, फिर तुम बढ़ना फिर मैं बढूँगा, फिर तुम बढ़ना। बस जहाँ तक कोई आगे न बढ़ सके वहीं तक खात्मा है।
(धनपतराय)
पत्रांक 25
क्या मेरे रुपयों का भी सूद नहीं जोड़ा गया? आखिर उसी में से तो मुझे भी सूद मिलना चाहिए। क्या अब तक मैं शरीक नहीं था? मैं एक रुपया सैकड़े से कम पर रुपया नहीं दे सकता। क्योंकि यही रकम है जो इस वक्त मुझे परवरिश के लिये रहेंगे। सूद माहवारी चाहिए। तीन महीने के बाद आप हमारा रुपया लौटा दें।
महताबराय
पत्रांक 26
खैर, जब तक हम तुम्हारे रुपये नहीं लौटाते हैं तब तक 1 रुपया सैकड़ा देंगे। प्रेस की कुंजी वगैरह ले लो और चलकर चार्ज दे दो। आदमियों का मुकाबला करा दो। आदमियों की कोई तनख्वाह बाकी नहीं है, यह तय होना चाहिए। और जो कुछ लेना-देना जो इस हिसाब में दर्ज नहीं है निकलेगा वह तुम्हारे रुपये में से मुजरा होगा। हाँ, तुमसे पहले दरयाफ्त कर लिया जायगा।
धनपतराय
पत्रांक 27
यही सही। वसूल होने पर ही मेरी तनख्वाह के कुल रुपये जो निकले हमको दिया जाय और हमारा असल 1950 भी, मुझे कोई इन्कार नहीं। लड़खड़ प्रेस गए। कापियाँ आ जाती हैं तो देख लीजिए।
(महताबराय)
पत्रांक 28
कापियाँ नाहक मँगवाते हो, मैं उन्हें नहीं देखना चाहता। देखता तो जब हिसाब की तरह हिसाब रखा जाता। तुमने क्या हिसाब रखा है। मुलाजिमों को जो तनख्वाहें दी हैं क्या उनके दस्तखत लिए हैं। बिलों की फाइल कहीं है? क्या-क्या काम रोजाना हुआ है इसकी तफसील कहीं है? जब हिसाब ही नहीं तो देखूँ क्या? इसे हिसाब नहीं कहते कि फलाँ से मिला और फलाँ को दिया गया। क्या सबूत है। (यह वाक्य लिखकर काट दिया है।)
लड़खड़ को मत दौड़ाओ। प्रेस के मैनेजर के हिसाब की जाँच खुदा भी नहीं कर सकता। जो कुछ वह कहे वही ठीक, बाकी सब गलत।
धनपतराय
पत्रांक 29
भाई साहब किब्ला,
आदाब
आपका खत मिला। मेरी सारी गलती है इसमें शक नहीं। मैंने हर तरह से अपना नुकसान किया। बेवकूफी न करता तो मैं आज इस तरह मुतफक्किर (चिन्तित) न होता। बलदेव भैया को रुपये और रघुपति सहाय को रुपये देने पर मैं उसी वक्त तैयार हुआ था जब आपने तहरीर किया (लिखा) था कि उन लोगों का सख्त तकाजा है। वरना मैं खुद अपना रुपया आपसे चाहता था और अब भी यही चाहता हूँ। रुपया मेरे पास है मगर मैं कुल बातें जान लेने पर किसी को लौटाने पर राजी नहीं हूँ। अब मेरी तबीयत भी घबरा गई है। आप शौक से प्रेस चलाइए और मुझे हर महीने जो आपने तहरीर किया है 2250 का 1 रुपया के हिसाब से सूद देते जाइये जब तक कि आप रुपये न दे सकें। मुझे प्रेस से कोई मतलब नहीं। मैंने जो रुपये का बन्दोबस्त किया है उसमें से दो हजार लेकर दवाखाना चलाऊँगा।
‘भूत’ का काम हमेशा फुरसत के वक्त हुआ है। इसलिये क्या उसके लिये मुझे बाजार भाव ही देना होगा? मुझे जैसा आप कहिए मंजूर है। प्रेस में देख लीजिए ‘भूत’ का कितना रुपया खर्च हुआ है। उसको काटकर जितना चाहिए ले लीजिए। मैंने खुद 28 नम्बर निकाले हैं जिसमें 8 पेज जंदकपदह उंजजमत था और 8 पेज कम्पोज होता था। लिहाजा बाजार भाव से 16/- फी नम्बर खर्च हुआ। चाहिए तो जितना ंबजनंस खर्च लगा है वह लेना। मगर जब आप न मानेंगे तो बाजार भाव ही सही। कल मैं अपनी तनख्वाह का हिसाब करूँगा कि कितना लिया है कितना बाकी है और उसी के साथ ‘भूत’ का भी हिसाब करूँगा। जितना निकलेगा उतना आप मेरी तनख्वाह में मुजरा कर लें, मुझे कोई उज्र (आपत्ति) न होगा। इसलिये कि वाकई मैंने आपकी सलाह लिए बगैर ही उसको छापना शुरू कर दिया था। दुलारे को मैं खुद ही अपने दवाखाने में ले जाऊँगा। और लोगों को जिसको आप चाहिये निकाल दीजिए। मुझे क्या करना है।
खादिम
महताबराय
पत्रांक 30
तुम्हें भूल हो रही है। प्रेस में तुम्हारे कुल 1950 रुपये हैं न कि 2250। रघुपति सहाय के रुपये तुमने अभी नहीं दिए। उन्हीं के रुपये मैंने लिए थे। तुमने मुझे जो हिसाब का परत दिया था उसमें तुम्हारी तनख्वाह दर्ज न थी। इससे मैंने यह नतीजा निकाला था कि तुमने अपना और प्रेस के मुलाजिमों का हिसाब चुकता कर लिया है। क्या अभी वह झंझट बाकी ही है। खैर हिसाब तुम्हारे हाथ में है जो कुछ तुम लिखो वह तुम्हारा, जो न लिखो वह हमारा। यह भी मंजूर है।
धनपतराय
पत्रांक 31
क्या आपको याद नहीं है कि पार साल जब मैंने आपको प्रेस का हिसाब दिया था उस वक्त हमारी तनख्वाह के 375 के करीब प्रेस के ऊपर निकले थे। उसमें से मैंने 300 प्रेस में छोड़कर बाकी ले लिये थे। इस तरह मैंने अपने 2250 कर दिए थे। हिसाब मेरे हाथ में नहीं। जब जो चाहे पाई-पाई का हिसाब देख ले। मैं अभी लड़खड़ को भेजकर हिसाब की कापियाँ मँगाता हूँ और दिखाता हूँ।
महताबराय
पत्रांक 32
नहीं मुझे यह बात याद नहीं है। तनख्वाह का रुपया प्रेस के सरमाये (पूँजी) से नहीं बकाया वसूल होने पर मिलेगा। इस तरह तो दस साल में शायद सारा प्रेस तुम्हारी तनख्वाह ही की नजर (भेंट) हो जाता। 700 सालाना के हिसाब से 14 साल में तो वारा न्यारा हो जाता है।
धनपतराय
पत्रांक 33
मैं प्रेस चलता हूँ और कुल बातें समझा दूँगा और जब-जब आप लोगों को मेरी जरूरत होगी आऊँगा और बता दूँगा। मेरे एक बात का जवाब आपने नहीं दिया। अब तक जो कुछ भी बचेगा क्या उसमें मेरा हिस्सा या सूद नहीं निकलेगा। क्या मेरे रुपये प्रेस में दो साल तक नहीं थे? इस 1747 रुपये का सूद कब से मिलेगा?
महताबराय
पत्रांक 34
मिलेगा।
आज से।
धनपतराय
इस समस्त पत्राचार के साथ तीन पृष्ठों में लिखा हुआ हिसाब-किताब भी उपलब्ध है। लिखावट महताबराय की है। आगामी पृष्ठों में यह हिसाब-किताब प्रस्तुत है।
पृष्ठ-1
120 544 2 साल 1 माह का वेतन 1500
17 50
20 30
20 06
10 50
10 12 4-12-0 7-12-0
5 20 4-0-0 5-14-0
15 05 21-2-0 6-10-0
2 35 10-3-0 6-4-0
10 25 11-5-0 5-13-0
17 09 2-0-0 15-0-0
5 10 15-0-0 ---------------
15 20 3-0-0 47-5-0 3
8 20 5-0-0
6 --------------- 2-0-0
7 836 2-0-0
50 15 2-0-0
5 --------------- 4-0-0
5 851 1 6-4-0 29
14 12-2-0 20
5 2-0-0 ---------------
32 19-2-0 850
17 2-0-0 175
12 5-0-0 ----------------
20 2-0-0 405 4
12 8-12-0
5 6-0-0
10 5-0-0
25 17-0-0
20 1-0-0
25 2-0-0
--------------- ------------------
544 175-10-0 2
पृष्ठ-25
Mahtab Rai B. Dhanpat Rai
6000 6500/-
7000 7500/-
7750 7800/-
7900 8000/-
8250 8350/-
8400 8500/-
8750 8800/-
8900 9000/-
9200 9300/-
9400 9500/-
+ + + + + + +
पृष्ठ-26
2000
4500
2250
1950
------------
10700
9500
--------------
5/1100/222
10
----------------------
10
222
1. यह महताबराय द्वारा प्रेस से लिए गए धन का विवरण है, जिसका उल्लेख पत्रांक 20 में उपलब्ध है।
2. यह ‘भूत’ की छपाई की मद में मिले धन का विवरण है, जिसका उल्लेख पत्रांक 20 में उपलब्ध है। इनका योग 174-10-0 होता है, प्रतीत होता है कि महताब राय से जोड़ने में त्रुटि हुई है।
3. यह सम्भवतः ‘भूत’ की छपाई की मद में मिले धन का अतिरिक्त विवरण है।
4. यह ‘भूत’ की छपाई का हिसाब है, जिसका उल्लेख पत्रांक 20 में उपलब्ध है।
5. यह प्रेमचंद-महताब राय के मध्य हुई प्रेस की बोली का विवरण है, जिससे स्पष्ट है कि प्रेस की बोली महताब राय ने 6000 रुपये से आरम्भ की और जब महताब राय और आगे न बढ़ सके तो अन्ततः 9500 रुपये में प्रेस प्रेमचंद का हो गया।
6. यह प्रेस में साझेदारों की लागत और हानि का विवरण है। 2000 रु. फिराक गोरखपुरी, 4500 रु. प्रेमचंद, 2250 रु. बलदेव लाल और 1950 रु. महताब राय की लागत थी। प्रेमचंद ने प्रेस 9500 रु. में खरीदा तो कुल हानि 1100 रु. की हुई। इस हानि को पाँच भागों में क्यों विभाजित किया गया जबकि साझीदार चार थे, यह कुछ बुद्धिगम्य नहीं है। इसका एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि क्योंकि प्रेमचंद की लागत अन्य साझीदारों से दोगुनी थी, इसलिये कुल हानि को पाँच भागों में विभाजित किया गया होगा। 1100 को 5 से भाग देने पर 220 आता है, जिसे त्रुटिपूर्ण रूप से एक स्थान पर 222 और दूसरे पर 221 लिखा गया है। प्रेमचंद के अनुज महताबराय के पुत्र कृष्ण कुमार राय ने इन पंक्तियों के लेखक को एक भेंटवार्ता में बताया था कि फिराक गोरखपुरी को तो उनकी लागत लौटा दी गयी थी लेकिन प्रेस अकेले प्रेमचंद का हो जाने के उपरान्त भी बलदेव लाल और महताबराय को उनकी लागत की राशि कभी नहीं लौटाई गई।
पण्डित जी के नाम

[प्रेमचंद की आयु अभी लगभग 8 वर्ष की ही थी कि सन् 1888 में उनकी माता आनन्दी देवी का देहावसान हो गया। उनके पिता अजायब लाल का स्वास्थ्य भी कुछ अनुकूल नहीं रहता था और नौकरी के कारण स्थानान्तरण भी होता रहता था, अतः परिस्थितियों से विवश होकर लगभग डेढ़ वर्ष पश्चात् अजायब लाल ने दूसरा विवाह कर लिया। अजायब लाल की दूसरी पत्नी का नाम क्या था, यह तो कुछ ज्ञात नहीं होता, लेकिन प्रेमचंद उन्हें चाची कहकर पुकारते थे। उनका छोटा भाई विजय बहादर या विजय नारायण लाल भी उनके साथ ही आकर रहने लगा था। विजय नारायण प्रेमचंद से एक-दो वर्ष ही छोटा था इसलिये मामा-भांजे में गहरी छनती थी। पिता के देहावसान के लगभग दो वर्ष पश्चात् जब प्रेमचंद नौकरी में गए तो चाची लमही में रहती हुई खेती की देखभाल करती रही और विजय नारायण लाल प्रेमचंद के साथ-साथ रहते रहे।
जून 1908 में जब प्रेमचंद का प्रथम कहानी संकलन ‘सोजे वतन’ प्रकाशित हुआ तो उसकी प्रति भेजते हुए प्रेमचंद ने ‘सरस्वती’ सम्पादक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को जो पत्र लिखा था उसमें पुस्तक मिलने का पता ‘बाबू विजय नारायण लाल, नया चौक, कानपुर’ ही लिखा था और यही पता ‘सरस्वती’ के दिसम्बर 1908 के अंक में प्रकाशित हुआ था।
प्रेमचंद 4 दिसम्बर 1907 को कानपुर में सब डिप्टी इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स के पद पर अस्थायी रूप से नियुक्त किए गए लेकिन लगभग डेढ़ वर्ष पश्चात् पुनः अध्यापक के अपने मूल पद पर प्रत्यावर्तित कर दिए गए। प्रेमचंद 24 जून 1909 को सब डिप्टी इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स के पद पर पदोन्नत होकर जिला हमीरपुर के महोबा चले आए, जहाँ वे 1 जून 1910 से 20 जून 1910 तक प्रिविलेज लीव पर रहे। बीस दिन के दीर्घकालीन अवकाश का कारण क्या था, यह तो कुछ ज्ञात नहीं होता, लेकिन अभी प्रेमचंद का एक अप्रकाशित तथा असंदर्भित पत्र हस्तगत हुआ है जिससे इसके कारण पर कुछ प्रकाश अवश्य पड़ता है।
अमृतराय, मदन गोपाल, गोपाल कृष्ण माणकटाला आदि विद्वानों ने प्रेमचंद के मामा विजय नारायण लाल का आकस्मिक निधन हो जाने की चर्चा तो की है, लेकिन किसी ने भी उनके निधन की तिथि अथवा वर्ष का उल्लेख नहीं किया। प्रेमचंद के छोटे भाई महताबराय के पुत्र कृष्ण कुमार राय के संग्रह में उपलब्ध इस पत्र पर न तो तिथि अंकित है, न ही यह ज्ञात होता है कि यह पत्र किसे सम्बोधित किया गया था, लेकिन इसमें विजय नारायण लाल के देहावसान की चर्चा होने के साथ-साथ यह भी लिखा है कि प्रेमचंद पत्र लिखने के अगले दिन महोबा जा रहे हैं। इससे स्वाभाविक रूप से यह अनुमान होता है कि प्रेमचंद ने 20 दिनों का अवकाश विजय नारायण लाल के देहावसान के कारण ही लिया होगा और सम्भवतः यह पत्र उन्होंने महोबा जाने से पूर्व 20 जून 1910 को ही लिखा होगा। इस अनुमान के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि विजय नारायण लाल का देहावसान मई 1910 के अन्त अथवा जून 1910 के आरम्भ में ही हुआ होगा।
प्रेमचंद का यह नितान्त दुर्लभ पत्र सुरक्षित रखने के लिये और इसकी प्रतिलिपि उपलब्ध कराने के लिये मैं श्री कृष्ण कुमार राय के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। पत्र के अपठनीय हो चुके शब्दों को स्पष्ट करने का महनीय कार्य भी श्री कृष्ण कुमार राय ने ही सम्पादित किया है जिसके लिये साहित्य संसार उनका सदा ऋणी रहेगा।]
पत्रांक 35
My dear Panditji,
I sincerely thank you for the help you so kindly gave in connection with the lamented death of my dear brother Vijay Narain Lal. I find from the accounts that he owed you 10/- Rs.– the sale proceeds of the pods. You lent Rs. 4/- at the time of his funeral. All 14/- Rs. I request you to get his half month pay realized in your interest. The balance I shall send to you from Mahoba, where I am going away tomorrow.
Kindly favour me with a reply.
Yours Sincerely
Dhanpat Rai
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