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वैदेही-वनवास
तपस्विनी आश्रम प्रकृति का नीलाम्बर उतरे। श्वेत-साड़ी उसने पाई॥ हटा घन-घूँघट शरदाभा। विहँसती महि में थी आई॥1॥ मलिनता दूर हुए तन की। दिशा थी बनी विकच-वदना॥ अधर में मंजु-नीलिमामय। था गगन-नवल-वितान तना॥2॥ चाँदनी छिटिक छिटिक छबि से। छबीली बनती रहती थी॥ सुधाकर-कर से वसुधा पर। सुधा की धारा बहती थी॥3॥ कहीं थे बहे दुग्ध-सोते। कहीं पर मोती थे ढलके॥ कहीं था अनुपम-रस बरसा। भव-सुधा-प्याला के छलके॥4॥ मंजुतम गति से हीरक-चय। निछावर करती जाती थी॥ जगमगाते ताराओं में। थिरकती ज्योति दिखाती थी॥5॥
क्षिति-छटा फूली फिरती थी। विपुल-कुसुमावलि विकसी थी॥ आज वैकुण्ठ छोड़ कमला। विकच-कमलों में विलसी थी॥6॥ पादपों के श्यामल-दल ने। प्रभा पारद सी पाई थी॥ दिव्य हो हो नवला-लतिका। विभा सुरपुर से लाई थी॥7॥ मंद-गति से बहतीं नदियाँ। मंजु-रस मिले सरसती थीं॥ पा गये राका सी रजनी। वीचियाँ बहुत विलसती थीं॥8॥ किसी कमनीय-मुकुर जैसा। सरोवर विमल-सलिल वाला॥ मोहता था स्वअंक में ले। विधु-सहित मंजुल-उड़ु-माला॥9॥ शरद-गौरव नभ-जल-थल में। आज मिलते थे ऑंके से॥ कीर्ति फैलाते थे हिल हिल। कास के फूल पताके से॥10॥ चतुष्पद तपस्विनी-आश्रम समीप थी। एक बड़ी रमणीय-वाटिका॥ वह इस समय विपुल-विलसितथी। मिले सिता की दिव्य साटिका॥11॥ उसमें अनुपम फूल खिले थे। मंद-मंद जो मुसकाते थे॥ बड़े भले-भावों से भर-भर। भली रंगतें दिखलाते थे॥12॥ छोटे-छोटे पौधे उसके। थे चुप खड़े छबि पाते॥ हो कोमल-श्यामल-दल शोभित। रहे श्यामसुन्दर कहलाते॥13॥ रंग-बिरंगी विविध लताएँ। ललित से ललित बन विलसित थीं॥ किसी कलित कर से लालित हो। विकच-बालिका सी विकसित थीं॥14॥ इसी वाटिका में निर्मित था। एक मनोरम-शन्ति-निकेतन॥ जो था सहज-विभूति-विभूषित। सात्तिवकता-शुचिता-अवलम्बन॥15॥ था इसके सामने सुशोभित। एक विशाल-दिव्य-देवालय॥ जिसका ऊँचा-कलस इस समय। बना हुआ था कान्त-कान्तिमय॥16॥ शान्ति-निकेतन के आगे था। एक सित-शिला विरचित-चत्वर॥ उस पर बैठी जनक-नन्दिनी। देख रही थीं दृश्य-मनोहर॥17॥ प्रकृति हँस रही थी नभतल में। हिम-दीधित को हँसा-हँसा कर॥ ओस-बिन्दु-मुक्तावलि द्वारा। गोद सिता की बार-बार भर॥18॥ चारु-हाँसिनी चन्द्र-प्रिया की। अवलोकन कर बड़ी रुचिर-रुचि॥ देखे उसकी लोक-रंजिनी। कृति, नितान्त-कमनीय परम शुचि॥19॥ जनक-सुता उर द्रवीभूत था। उनके दृग से था जल जाता॥ कितने ही अतीत-वृत्तों का। ध्यान उन्हें था अधिक सताता॥20॥ कहने लगीं सिते! सीता भी। क्या तुम जैसी ही शुचि होगी॥ क्या तुम जैसी ही उसमें भी। भव-हित-रता दिव्य-रुचि होगी॥21॥ तमा-तमा है तमोमयी है। भाव सपत्नी का है रखती॥ कभी तुमारी पूत-प्रीति की। स्वाभाविकता नहीं परखती॥22॥ फिर भी 'राका-रजनी' कर तुम। उसको दिव्य बना देती हो॥ कान्ति-हीन को कान्ति-मती कर। कमनीयता दिखा देती हो॥23॥ जिसे नहीं हँसना आता है। चारु-हासिनी वह बनती है॥ तुमको आलिंगन कर असिता। स्वर्गिक-सितता में सनती है॥24॥ ताटंक नभतल में यदि लसती हो तो, भूतल में भी खिलती हो। दिव्य-दिशा को करती हो तो, विदिशा में भी मिलती हो॥25॥ बहु विकास विलसित हो वारिधि, यदि पयोधि बन जाता है। तो लघु से लघुतम सरवर भी, तुमसे शोभा पाता है॥26॥ गिरि-समूह-शिखरों को यदि तुम, मणि-मण्डित कर पाती हो। छोटे-छोटे टीलों पर भी, तो निज छटा दिखाती हो॥27॥ सुजला-सुफला-शस्य श्यामला, भू जो भूषित होती है। तुमसे सुधा लाभ कर तो मरु- महि भी मरुता खोती है॥28॥ रम्य-नगर लघु-ग्राम वरविभा, दोनों तुमसे पाते हैं। राज-भवन हों या कुटीर, सब कान्ति-मान बन जाते हैं॥29॥ तरु-दल हों प्रसून हों तृण हों, सबको द्युति तुम देती हो। औरों की क्या बात रजत-कण, रज-कण को कर लेती हो॥30॥ घूम-घूम करके घनमाला, रस बरसाती रहती है। मृदुता सहित दिखाती उसमें, द्रवण-शीलता महती है॥31॥ है जीवन-दायिनी कहाती, ताप जगत का हरती है। तरु से तृण तक का प्रतिपालन, जल प्रदान कर करती है॥32॥ किन्तु महा-गर्जन-तर्जन कर, कँपा कलेजा देती है। गिरा-गिरा कर बिजली जीवन कितनों का हर लेती है॥33॥ हिम-उपलों से हरी भरी, खेती का नाश कराती है। जल-प्लावन से नगर ग्राम, पुर को बहु विकल बनाती है॥34॥ अत: सदाशयता तुम जैसी, उसमें नहीं दिखाती है। केवल सत्प्रवृत्ति ही उसमें, मुझे नहीं मिल पाती है॥35॥ तुममें जैसी लोकोत्तरता, सहज-स्निग्धाता मिलती है। सदा तुमारी कृति-कलिका जिस- अनुपमता से खिलती है॥36॥ वैसी अनुरंजनता शुचिता, किसमें कहाँ दिखाती है। केवल प्रियतम दिव्य-कीर्ति ही- में वह पाई जाती है॥37॥ हाँ प्राय: वियोगिनी तुमसे, व्यथिता बनती रहती है। देख तुमारे जीवनधन को, मर्म-वेदना सहती है॥38॥ यह उसका अन्तर-विकार है, तुम तो सुख ही देती हो। आलिंगन कर उसके कितने- तापों को हर लेती हो॥39॥ यह निस्स्वार्थ सदाशयता यह, वर-प्रवृत्ति पर-उपकारी। दोष-रहित यह लोकाराधन, यह उदारता अति-न्यारी॥40॥ बना सकी है भाग्य-शालिनी, ऐ सुभगे तुमको जैसी। त्रिभुवन में अवलोक न पाई, मैं अब तक कोई वैसी॥41॥ इस धरती से कई लाख कोसों- पर कान्त तुमारा है। किन्तु बीच में कभी नहीं। बहती वियोग की धारा है॥42॥ लाखों कोसों पर रहकर भी, पति-समीप तुम रहती हो। यह फल उन पुण्यों का है, तुम जिसके बल से महती हो॥43॥ क्यों संयोग बाधिका बनती, लाखों कोसों की दूरी॥ क्या होती हैं नहीं सती की सकल कामनाएँ पूरी?॥44॥ ऐसी प्रगति मिली है तुमको, अपनी पूत-प्रकृति द्वारा। है हो गया विदूरित जिससे, प्रिय-वियोग-संकट सारा॥45॥ सुकृतिवती हो सत्य-सुकृति-फल, सारे-पातक खोता है। उसके पावन-तम-प्रभाव में, बहता रस का सोता है॥46॥ तुम तो लाखों कोस दूर की, अवनी पर आ जाती हो। फिर भी पति से पृथक न होकर, पुलकित बनी दिखाती हो॥47॥ मुझे सौ सवा सौ कोसों की, दूरी भी कलपाती है। मेरी आकुल ऑंखों को। पति-मूर्ति नहीं दिखलाती है॥48॥ जिसकी मुख-छवि को अवलोके, छबिमय जगत दिखाता है। जिसका सुन्दर विकच-वदन, वसुधा को मुग्ध बनाता है॥49॥ जिसकी लोक-ललाम-मूर्ति, भव-ललामता की जननी है। जिसके आनन की अनुपमता, परम-प्रमोद प्रसविनी है॥50॥ जिसकी अति-कमनीय-कान्ति से, कान्तिमानता लसती है। जिसकी महा-रुचिर-रचना में, लोक-रुचिरता बसती है॥51॥ जिसकी दिव्य-मनोरमता में, रम मन तम को खोता है। जिसकी मंजु माधुरी पर, माधुर्य निछावर होता है॥52॥ जिसकी आकृति सहज-सुकृति, का बीज हृदय में बोती है। जिसकी सरस-वचन की रचना, मानस का मल धोती है॥53॥ जिसकी मृदु-मुसकान भुवन- मोहकता की प्रिय-थाती है। परमानन्द जनकता जननी, जिसकी हँसी कहाती है॥54॥ भले-भले भावों से भर-भर, जो भूतल को भाते हैं। बड़े-बड़े लोचन जिसके, अनुराग-रँगे दिखलाते हैं॥55॥ जिनकी लोकोत्तर लीलाएँ, लोक-ललक की थाती हैं। ललित-लालसाओं को विलसे, जो उल्लसित बनाती हैं॥56॥ आजीवन जिनके चन्द्रानन की- चकोरिका बनी रही। जिसकी भव-मोहिनी सुधा प्रति- दिन पी-पी कर मैं निबही॥57॥ जिन रविकुल-रवि को अवलोके, रही कमलिनी सी फूली। जिनके परम-पूत भावों की, भावुकता पर थी भूली॥58॥ सिते! महीनों हुए नहीं उनका, दर्शन मैंने पाया। विधि-विधान ने कभी नहीं, था मुझको इतना कलपाया॥59॥ जैसी तुम हो सुकृतिमयी जैसी- तुममें सहृदयता है। जैसी हो भवहित विधायिनी, जैसी तुममें ममता है॥60॥ मैं हूँ अति-साधारण नारी, कैसे वैसी मैं हूँगी। तुम जैसी महती व्यापकता, उदारता क्यों पाऊँगी॥61॥ फिर भी आजीवन मैं जनता- का हित करती आयी हूँ। अनहित औरों का अवलोके, कब न बहुत घबराई हूँ॥62॥ जान बूझ कर कभी किसी का- अहित नहीं मैं करती हूँ। पाँव सर्वदा फूँक-फूँक कर, धरती पर मैं धरती हूँ॥63॥ फिर क्यों लाखों कोसों पर रह, तुम पति पास विलसती हो। बिना विलोके दुख का आनन, सर्वदैव तुम हँसती हो॥64॥ और किसलिए थोड़े अन्तर, पर रह मैं उकताती हूँ। बिना नवल-नीरद-तन देखे, दृग से नीर बहाती हूँ॥65॥ ऐसी कौन न्यूनता मुझमें है, जो विरह सताता है। सिते! बता दो मुझे क्यों नहीं, चन्द्र-वदन दिखलाता है॥66॥ किसी प्रिय सखी सदृश प्रिये तुम, लिपटी हो मेरे तन से। हो जीवन-संगिनी सुखित- करती आती हो शिशुपन से॥67॥ हो प्रभाव-शालिनी कहाती, प्रभा भरित दिखलाती हो। तमस्विनी का भी तम हरकर, उसको दिव्य बनाती हो॥68॥ मेरी तिमिरावृता न्यूनता, का निरसन त्योंही कर दो। अपनी पावन ज्योति कृपा- दिखला, मम जीवन में भर दो॥69॥ कोमलता की मूर्ति सिते हो, हितेरता कहलाओगी। आशा है आयी हो तो तुम, उर में सुधा बहाओगी॥70॥ अधिक क्या कहूँ अति-दुर्लभ है, तुम जैसी ही हो जाना। किन्तु चाहती हूँ जी से तव- सद्भावों को अपनाना॥71॥ जो सहायता कर सकती हो, करो, प्रार्थना है इतनी। जिससे उतनी सुखी बन सकूँ, पहले सुखित रही जितनी॥72॥ सेवा उसकी करूँ साथ रह, जी से जिसकी दासी हूँ। हूँ न स्वार्थरत, मैं पति के- संयोग-सुधा की प्यासी हूँ॥73॥ दोहा इतने में घंटा बजा उठा आरती-थाल। द्रुत-गति से महिजा गईं मन्दिर में तत्काल॥74॥
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