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वैदेही-वनवास
दाम्पत्य-दिव्यता प्रकृति-सुन्दरी रही दिव्य-वसना बनी। कुसुमाकर द्वारा कुसुमित कान्तार था॥ मंद मंद थी रही विहँसती दिग्वधू। फूलों के मिष समुत्फुल्ल संसार था॥1॥ मलयानिल बह मंद मंद सौरभ-बितर। वसुधातल को बहु-विमुग्ध था कर रहा॥ स्फूर्तिमयी-मत्तता-विकचता-रुचिरता। प्राणि मात्र अन्तस्तल में था भर रहा॥2॥ शिशिर-शीत-शिथिलित-तन-शिरा-समूह में। समय शक्ति-संचार के लिए लग्न था॥ परिवर्तन की परम-मनोहर-प्रगति पा। तरु से तृण तक छबि-प्रवाह में मग्न था॥3॥ कितने पादप लाल-लाल कोंपल मिले। ऋतु-पति के अनुराग-राग में थे रँगे॥ बने मंजु-परिधानवान थे बहु-विटप। शाखाओं में हरित-नवल-दल के लगे॥4॥ कितने फल फूलों से थे ऐसे लसे। जिन्हें देखने को लोचन थे तरसते॥ कितने थे इतने प्रफुल्ल इतने सरस। ललक-दृगों में भी जो थे रस बरसते॥5॥ रुचिर-रसाल हरे दृग-रंजन-दलों में। लिये मंजु-मंजरी भूरि-सौरभ भरी॥ था सौरभित बनाता वातावरण को। नचा मानसों में विमुग्धता की परी॥6॥ लाल-लाल-दल-ललित-लालिमा से विलस। वर्णन कर मर्मर-ध्वनि से विरुदावली॥ मधु-ऋतु के स्वागत करने में मत्त था। मधु से भरित मधूक बरस सुमनावली॥7॥ रख मुँह-लाली लाल-लाल-कुसुमालि से। लोक ललकते-लोचन में थे लस रहे॥ देख अलौकिक-कला किसी छबिकान्त की। दाँत निकाले थे अनार-तरु हँस रहे॥8॥ करते थे विस्तार किसी की कीर्ति का। कितनों में अनुरक्ति उसी की भर सके॥ दिखा विकचता, उज्ज्वलता, वर-अरुणिमा। श्वेत-रक्त कमनीय-कुसुम कचनार के॥9॥ होता था यह ज्ञात भानुजा-अंक में। पीले-पीले-विकच बहु-बनज हैं लसे॥ हरित-दलों में पीताभा की छबि दिखा। थे कदम्ब-तरु विलसित कुसुम-कदम्ब से॥10॥ कौन नयनवाला प्रफुल्ल बनता नहीं। भला नहीं खिलती किसके जी की कली॥ देखे प्रिय हरियाली, विशद-विशालता। अवलोके सेमल-ललाम-सुमनावली॥11॥ नाच-नाच कर रीझ भर सहज-भाव में। किसी समागत को थे बहुत रिझा रहे॥ बार-बार मलयानिल से मिल-मिल गले। चल-दल-दल थे गीत मनोहर गा रहे॥12॥ स्तंभ-राजि से सज कुसुमावलि से विलस। मिले सहज-शीतल-छबिमय-छाया भली॥ हरित-नवल-दल से बन सघन जहाँ तहाँ। तंबू तान रही थी वट-विटपावली॥13॥ किसको नहीं बना देता है वह सरस। भला नहीं कैसे होते वे रस भरे॥ नारंगी पर रंग उसी का है चढ़ा। हैं बसंत के रंग में रँगे संतरे॥14॥ अंक विलसता कैसे कुसुम-समूह से। हरे-हरे दल उसे नहीं मिलते कहीं॥ नीरसता होती न दूर जो मधु मिले। तो होता जंबीर नीर-पूरित नहीं॥15॥ कंटकिता-बदरी तो कैसे विलसती। हो उदार सफला बन क्यों करती भला॥ जो प्रफुल्लता मधु भरता भू में नहीं। कोबिदार कैसे बनता फूला फला॥16॥ दिखा श्यामली-मूर्ति की मनोहर-छटा। बन सकता था वह बहु-फलदाता नहीं॥ पाँव न जो जमता महि में ऋतुराज का। तो जम्बू निज-रंग जमा पाता नहीं॥17॥ कोमलतम किसलय से कान्त नितान्त बन। दिखा नील-जलधार जैसी अभिरामता॥ कुसुमायुध की सी कमनीया-कान्ति पा। मोहित करती थी तमाल-तरु-श्यामता॥18॥ मलयानिल की मंथर-गति पर मुग्ध हो। करती रहती थीं बनठन अठखेलियाँ॥ फूल ब्याज से बार-बार उत्फुल्ल हो। विलस-विलस कर बहु-अलबेली-बेलियाँ॥19॥ हरे-दलों से हिल मिल खिलती थीं बहुत। कभी थिरकतीं लहरातीं बनतीं कलित॥ कभी कान्त-कुसुमावलि के गहने पहन। लतिकायें करती थीं लीलायें ललित॥20॥ कभी मधु-मधुरिमा से बनती छबिमयी। कभी निछावर करती थी मुक्तावली॥ सजी-साटिका पहनाती थी अवनि को। विविध-कुसुम-कुल-कलिता हरित-तृणावली॥21॥ दिये हरित-दल उन्हें लाल जोड़े मिलें। या अनुरक्ति-अरुणिमा ऊपर आ गई। लाल-लाल-फूलों से विपुल-पलाश के। कानन में थी ललित-लालिमा छा गई॥22॥ उन्हें बड़े-सुन्दर-लिबास थे मिल गए। छटा छिटिक थी रही बाँस-खूँटियों पर॥ आज बेल-बूटों से वे थीं विलसती। टूटी पड़ती थी विभूति बूटियों पर॥23॥ सब दिन जिस पलने पर प्यारा-तन पला। देती थी उसकी महती-कृति का पता॥ दिखा-दिखा कर हरीतिमा की मधुर-छबि। नव-दूर्वा-दे महि को मोहक-श्यामता॥24॥ कोकिल की काकली तितिलियों का नटन। खग-कुल-कूजन रंग-बिरंगी वन-लता॥ अजब-समा थी बाँध छबि पुंजता। गुंजन-सहित मिलिन्द-वृन्द की मत्तता॥25॥ वर-बासर बरबस था मन को मोहता। मलयानिल बहु-मुग्ध बना था परसता॥ थी चौगुनी चमकती निशि में चाँदनी। सरसतम-सुधा रहा सुधाकर बरसता॥26॥ मधु-विकास में मूर्तिमान-सौन्दर्य था। वांछित-छबि से बनी छबीली थी मही॥ पते-पते में प्रफुल्लता थी भरी। वन में नर्तन विमुग्धता थी कर रही॥27॥ समय सुनाता वह उन्मादक-राग था। जिसमें अभिमंत्रित-रसमय-स्वर थे भरे॥ भव-हृत्तांत्री के छिड़ते वे तार थे। जिनकी ध्वनि सुन होते सूखे-तरु हरे॥28॥ सौरभ में थी ऐसी व्यापक-भूरिता। तन वाले निज तन-सुधि जाते भूल थे॥ मोहकता-डाली हरियाली थी लिये। फूले नहीं समाते फूले फूल थे॥29॥ शान्ति-निकेतन के सुन्दर-उद्यान में। जनक-नन्दिनी सुतों-सहित थीं घूमती॥ उन्हें दिखाती थीं कुसुमावलि की छटा। बार-बार उनके मुख को थीं चूमती॥30॥ था प्रभात का समय दिवस-मणि-दिव्यता। अवनीतल को ज्योतिर्मय थी कर रही॥ आलिंगन कर विटप, लता, तृण, आदिका। कान्तिमय-किरण कानन में थी भर रही॥31॥ युगल-सुअन थे पाँच साल के हो चले। उन्हें बनाती थी प्रफुल्ल कुसुमावली॥ कभी तितिलियों के पीछे वे दौड़ते। कभी किलकते सुन कोकिल की काकली॥32॥ ठुमुक-ठुमुक चल किसी फूल के पास जा। विहँस विहँस थे तुतली-वाणी बोलते॥ टूटी-फूटी निज पदावली में उमग। बार-बार थे सरस-सुधारस घोलते॥33॥ दिखा-दिखा कर श्याम-घटा की प्रिय-छटा। दोनों-सुअनों से यह कहतीं महि-सुता॥ ऐसे ही श्यामावदात कमनीय-तन। प्यारे पुत्रों तुम लोगों के हैं पिता॥34॥ कहतीं कभी विलोक गुलाब प्रसून की। बहु-विमुग्ध-कारिणी विचित्र-प्रफुल्लता॥ हैं ऐसे ही विकच-बदन रघुवंश-मणि। ऐसी ही है उनमें महा-मनोज्ञता॥35॥ नाम बताकर कुन्द, यूथिका आदि का। दिखा रुचिरता कुसुम श्वेत-अवदात की॥ कहतीं ऐसी ही है कीर्ति समुज्ज्वला। तुम दोनों प्रिय-भ्राताओं के तात की॥36॥ लोक-रंजिनी ललामता से लालिता। दिखा जपा सुमनावलि की प्रिय-लालिमा॥ कहती थीं यह, तुम दोनों के जनक की। ऐसी ही अनुरक्ति है रहित कालिमा॥37॥ हरित-नवल-दल में दिखला अंगजों को। पीले-पीले कुसुमों की वर विकचता॥ कहती यह थीं ऐसा ही पति-देव के। श्यामल-तन पर पीताम्बर है विलसता॥38॥ इस प्रकार जब जनक-नन्दिनी सुतों को। आनन्दित कर पति-गुण-गण थीं गा रही॥ रीझ-रीझ कर उनके बाल-विनोद पर। निज-वचनों से जब थीं उन्हें रिझा रही॥39॥ उसी समय विज्ञानवती आकर वहाँ। शिशु-लीलायें अवलोकन करने लगी॥ रमणी-सुलभ-स्वभाव के वशीभूत हो। उनके अनुरंजन के रंगों में रँगी॥40॥ यह थी विदुषी-ब्रह्मचारिणी प्रायश:। मिलती रहती थी अवनी-नन्दिनी से॥ तर्क-वितर्क उठा बहु-बातें-हितकरी। सीखा करती थी सत्पथ-संगिनी से॥41॥ आया देख उसे सादर महिसुता ने। बैठाला फिर सत्यवती से यह कहा॥ आप कृपा कर लव-कुश को अवलोकिये। अब न मुझे अवसर बहलाने का रहा॥42॥ समागता के पास बैठकर जनकजा। बोलीं कैसे आज आप आईं यहाँ॥ मुसकाकर विज्ञानवती ने यह कहा। उठने पर कुछ तर्क और जाऊँ कहाँ॥43॥ देवि! आत्म-सुख ही प्रधान है विश्व में। किसे आत्म-गौरव अतिशय प्यारा नहीं॥ स्वार्थ सर्व-जन-जीवन का सर्वस्व है। है हित-ज्योति-रहित अन्तर तारा नहीं॥44॥ भिन्न-प्रकृति से कभी प्रकृति मिलती नहीं। अहंभाव है परिपूरित संसार में॥ काम, क्रोध, मद, लोभ, स्वर है भरा। प्राणि मात्र के हृत्तांत्री के तार में॥45॥ है विवाह-बंधन ऐसा बंधन नहीं। स्वाभाविकता जिसे तोड़ पाती नहीं॥ विविध-परिस्थितियाँ हैं ऐसी बलवती। जिससे मुँह चितवृत्ति मोड़ पाती नहीं॥46॥ कृत्रिमता है उस कुंझटिका-सदृश जो। नहीं ठहर पाती विभेद-रविकर परस॥ उससे कलुषित होती रहती है सुरुचि। असरस बनता रहता है मानस-सरस॥47॥ है सच्चा-व्यवहार शुचि-हृदय का विभव। प्रीति-प्रतीति-निकेत परस्परता-अयन॥ उर की ग्रंथि विमोचन में समधिक-निपुण। परम-भव्य-मानस सद्भावों का भवन॥48॥ कृत्रिमता है कपट कुटिलता सहचरी। मंजुल-मानसता की है अवमानना॥ सहज-सदाशयता पद-पूजन त्यागकर। यह है करती प्रवंचना की अर्चना॥49॥ किन्तु देखती हूँ मैं यह बहु-घरों में। सदाचरण से अन्यथाचरण है अधिक॥ कभी-कभी सुख-लिप्सादिक से बलित चित। सत्प्रवृत्ति-हरिणी का बनता है बधिक॥50॥ भव-मंगल-कामना तथा स्थिति-हेतु से। नर-नारी का नियति ने किया है सृजन॥ हैं अपूर्ण दोनों पर उनको पूर्णता। है प्रदान करता दोनों का सम्मिलन॥51॥ प्राणी में ही नहीं, तृणों तक में यही। अटल व्यवस्था दिखलाती है स्थापिता॥ जो बतलाती है विधि-नियम-अवाधाता। अनुल्लंघनीयता तथा कृतकार्यता॥52॥ यदि यथेच्छ आहार-विहार-उपेत हो। नर नारी जीवन, तो होगी अधिकता- पशु-प्रवृत्ति की, औ उच्छृंखलता बढे। होवेगी दुर्दशा-मर्दिता-मनुजता॥53॥ पशु-पक्षी के जोड़े भी हैं दीखते। वे भी हैं दाम्पत्य-बन्धनों में बँधो॥ वांछनीय है नर-नारी की युग्मता। सारे-मन्त्र इसी साधन से ही सधो॥54॥ इसीलिए है विधि-विवाह की पूततम। निगमागम द्वारा है वह प्रतिपादिता॥ है द्विविधा हरती कर सुविधा का सृजन। वह दे, वसुधा को दिव जैसी दिव्यता॥55॥ जिससे होते एक हैं मिले दो हृदय। सरस-सुधा-धारायें सदनों में बहीं॥ भूमि-मान बनते हैं जिससे भुवन-जन। वह विधान अभिनन्दित होगा क्यों नहीं॥56॥ कुल, कुटुम्ब, गृह जिससे है बहु-गौरवित। सामाजिकता है जिससे सम्मानिता॥ महनीया जिससे मानवता हो सकी। क्यों न बनेगी प्रथित प्रथा वह आद्रिता॥57॥ किन्तु प्रश्न यह है प्राय: जो विषमता। होती रहती है मानसिक-प्रवृत्ति में॥ भ्रम, प्रमाद अथवा सुख-लिप्सा आदि से। कैसे वह न घुसे दम्पति-अनुरक्ति में॥58॥ पति-देवता हुई हैं होंगी और हैं। किन्तु सदा उनकी संख्या थोड़ी रही॥ मिलीं अधिकतर सांसारिकता में सधी। कितनी करती हैं कृत्रिमता की कही॥59॥ मुझे ज्ञात है, है गुण-दोषमयी-प्रकृति। किन्तु क्यों न उर में वे धारायें बहें॥ सकल-विषमताओं को जिनसे दूरकर। होते भिन्न अभिन्न-हृदय दम्पति रहें॥60॥ किसी काल में क्या ऐसा होगा नहीं। क्या इतनी महती न बनेगी मनुजता॥ सदन-सदन जिससे बन जाये सुर-सदन। क्या बुध-वृन्द न देंगे ऐसी विधि बता॥61॥ अति-पावन-बन्धन में जो विधि से बँधो। क्यों उनमें न प्रतीति-प्रीति भरपूर हो॥ देवि आप मर्मज्ञ हैं बतायें मुझे। क्यों दुर्भाव-दुरित दम्पति का दूर हो॥62॥ कहा जनकजा ने मैं विबुधो आपको। क्या बतलाऊँ आप क्या नहीं जानतीं॥ यह उदारता, सहृदयता है आपकी। जो स्वविषय-मर्मज्ञ मुझे हैं मानती॥63॥ देख प्रकृति की कुत्सित-कृतियों को दुखित। मैं भी वैसी ही हूँ जैसी आप हैं॥ किसको रोमांचित करते हैं वे नहीं। भव में भरे हुए जितने संताप हैं॥64॥ इस प्रकार के भी कतिपय-मतिमान हैं। जो दुख में करते हैं सुख की कल्पना॥ अनहित में भी जो हित हैं अवलोकते। औरों के कहने को कहकर जल्पना॥65॥ जो हो, पर परिताप किसे हैं छोड़ते। है विडम्बना विधि की बड़ी-बलीयसी॥ चिन्तित विचलित बार-बार बहु आकुलित। किसे नहीं करती प्रवृत्ति-पापीयसी॥66॥ विबुध-वृन्द ने क्या बतलाया है नहीं। निगमागम में सब विभूतियाँ हैं भरी॥ किन्तु पड़ प्रकृति और परिस्थिति-लहर में। कुमति-सरी में है डूबती सुमति-सरी॥67॥ सारे-मनोविकार हृदय के भाव सब। इन्द्रिय के व्यापार आत्महित-भावना॥ सुख-लिप्सा गौरव-ममता मानस्पृहा। स्वार्थ-सिध्दि-रुचि इष्ट-प्राप्ति की कामना॥68॥ वर नारी में हैं समान, अनुभूति भी- इसीलिए प्राय: उनकी है एक सी॥ कब किसका कैसा होता परिणाम है। क्या वश में है औ किसमें है बेबसी॥69॥ क्यों उलझी-बातें भी जाती हैं सुलझ। कैसे कब जी में पड़ जाती गाँठ है॥ हरा-भरा कैसे रहता है हृदय-तरु। कैसे मन बन जाता उकठा-काठ है॥70॥ कैसे अन्तस्तल-नभ में उठ प्रेम घन। जीवन-दायक बनता है जीवन बरस॥ मेल-जोल तन क्यों होता निर्जीव है। मनोमलिनता रूपी चपला को परस॥71॥ कैसे अमधुर कहलाता है मधुरतम। कैसे असरस बन जाता है सरस-चित॥ क्यों अकलित लगता है सोने का सदन। कुसुम-सेज कैसे होती है कंटकित॥72॥ अवगुण-तारक-चय-परिदर्शन के लिए। क्यों मति बन जाती है नभतल-नीलिमा॥ जाती है प्रतिकूल-कालिमा से बदल। क्यों अनुराग-रँगी-ऑंखों की लालिमा॥73॥ क्यों अप्रीति पा जाती है उसमें जगह। जो उर-प्रीति-निकेतन था जाना गया॥ कैसे कटु बनता है वह मधुमय-वचन। कर्ण-रसायन जिसको था माना गया॥74॥ जो होते यह बोध जानते मर्म सब। दम्पति को अन्यथाचरण से प्रीति हो॥ तो यह है अति-मर्म-वेधिनी आपदा। क्या विचित्र! दुर्नीति यदि भरित-भीति हो॥75॥ जो नर नारी एक सूत्र में बध्द हैं। जिनका जीवन भर का प्रिय-सम्बन्ध है॥ जो समाज के सम्मुख सद्विधि से बँधो। जिनका मिलन नियति का पूत-प्रबंधा है॥76॥ उन दोनों के हृदय न जो होवें मिले। एक-दूसरे पर न अगर उत्सर्ग हो॥ सुख में दुख में जो हो प्रीति न एक सी। स्वर्ग सा सुखद जो न युगल-संसर्ग हो॥77॥ तो इससे बढ़कर दुष्कृति है कौन सी। पड़ेगा कलेजा सत्कृति को थामना॥ हुए सभ्यता-दुर्गति पशुता करों से। होगी मानवता की अति-अवमानना॥78॥ प्रकृति-भिन्नता करती है प्रतिकूलता। भ्रम, प्रमादि आदिक विहीन मन है नहीं॥ कहीं अज्ञता बहँक बनाती है विवश। मति-मलीनता है विपत्ति ढाती कहीं॥79॥ है प्रवृत्ति नर नारी की त्रिगुणात्मिका। सब में सत, रज, तम, सत्ता है सम नहीं॥ इनकी मात्र में होती है भिन्नता। देश काल और पात्रा-भेद है कम नहीं॥80॥ अन्तराय ए साधन हैं ऐसे सबल। जो प्राणी को हैं पचड़ों में डालते॥ पंच-भूत भी अल्प प्रपंची हैं नहीं। वे भी कब हैं तम में दीपक बालते॥81॥ ऐसे अवसर पर प्राणी को बन प्रबल। आत्म-शक्ति की शक्ति दिखाना चाहिए॥ सत्प्रवृत्ति से दुष्प्रवृत्तियों को दबा। तम में अन्तज्योति-जगाना चाहिए॥82॥ सत्य है, प्रकृति होती है अति-बलवती। किन्तु आत्मिक-सत्ता है उससे सबल॥ भौतिकता यदि करे भूतपन भूत बन। क्यों न उसे आध्यात्मिकता तो दे मसल॥83॥ जिसमें सारी-सुख-लिप्सायें हों भरी। जो परमित होवे आहार-विहार तक॥ उस प्रसून के ऐसा है तो प्रेम वह। जिसमें मिले न रूप न रंग न तो महँक॥84॥ जिसमें लाग नहीं लगती है लगन की। जिसमें डटकर प्रेम ने न ऑंचें सहीं॥ जिसमें सह सह साँसतें न स्थिरता रही। कहते हैं दाम्पत्य-धर्म उसको नहीं॥85॥ जहाँ प्रेम सा दिव्य-दिवाकर है उदित। कैसे दिखालायेगा तामस-तम वही॥ दम्पति को तो दम्पति कोई क्यों कहे। जिसमें है दाम्पत्य-दिव्यता ही नहीं॥86॥ निज-प्रवाह में बहा अपावन-वृत्तियाँ। जो न प्रेम धारायें उर में हों बही॥ तो दम्पति की हित-विधायिनी वासना। पायेगी सुर-सरिता-पावनता नहीं॥87॥ जिसे तरंगित करता रहता है सदा। मंजु सम्मिलन-शीतल-मृदुगामी अनिल॥ खिले मिले जिसमें सद्भावों के कमल। है दम्पति का प्रेम वह सरोवर-सलिल॥88॥ उसमें है सात्तिवक-प्रवृत्ति-सुमनावली। उसमें सुरतरु सा विलसित भव-क्षेम है॥ सकल-लोक अभिनन्दन-सुख-सौरभ-भरित। नन्दन-वन सा अनुपम दम्पति-प्रेम है॥89॥ है सुन्दर-साधना कामना-पूर्ति की। भरी हुई है उसमें शुचि-हितकारिता॥ है विधायिनी विधि-संगत वर-भूति की। कल्पता सी दम्पति की सहकारिता॥90॥ है सद्भाव समूह धरातल के लिए। सर्व-काल सेचन-रत पावस का जलद॥ फूला-फला मनोज्ञ कामप्रद कान्त-तन। है दम्पति का प्रेम कल्पतरु सा फलद॥91॥ है विभिन्नता की हरती उद्भावना। रहने देती नहीं अकान्त-अनेकता॥ है पयस्विनी-सदृश प्रकृत-प्रतिपालिका। कामधोनु-कामद है दम्पति-एकता॥92॥ पूत-कलेवर दिव्य-देवतों के सदृश। भूरि-भव्य-भावों का अनुपम-ओक है॥ वर-विवेक से सुरगुरु जिसमें हैं लसे। दम्पति-प्रेम परम-पुनीत सुरलोक है॥93॥ मृदुल-उपादानों से बनिता है रचित। हैं उसके सब अंग बड़े-कोमल बने॥ इसीलिए है कोमल उसका हृदय भी। उसके कोमल-वचन सुधा में हैं सने॥94॥ पुरुष अकोमल-उपादान से है बना। इसीलिए है उसे मिली दृढ़-चित्तता॥ बडे-पुष्ट होते हैं उसके अंग भी। उसमें बल की भी होती है अधिकता॥95॥ जैसी ही जननी की कोमल-हृदयता। है अभिलषिता है जन-जीवनदायिनी॥ वैसी ही पाता की बलवत्ता तथा। दृढ़ता है वांछित, है विभव-विधायिनी॥96॥ है दाम्पत्य-विधान इसी विधि में बँधा। दोनों का सहयोग परस्पर है ग्रथित॥ जो पौरुष का भाजन है कोई पुरुष। तो कुल-बाला मूर्ति-शान्ति की है कथित॥97॥ अपर-अंग करता है पीड़ित-अंग-हित। जो यह मति रह सकी नहीं चिर-संगिनी॥ कहाँ पुरुष में तो पौरुष पाया गया। कहाँ बन सकी बनिता तो अर्धांगिनी॥98॥ किसी समय अवलोक पुरुष की परुषता। कोमलता से काम न जो लेवे प्रिया॥ कहाँ बनी तो स्वाभाविकता-सहचरी। काम मृदुल-उर ने न मृदुलता से लिया॥99॥ रस विहीन जिसको कहकर रसना बने। ऐसी नीरस बातें क्यों जायें कही॥ कान्त के लिए यदि वे कड़वे बन गए। कान्त-वचन में तो कान्तता कहाँ रही॥100॥ जिस पर सरस बरस जाने ही के लिए। कोमल से भी कोमल कलित-कुसुम बने॥ उसको किसी विशिख से बन वे क्यों लगें। रहे वचन जो सदा सुधारस में सने॥101॥ अकमनीय कैसे कमनीय प्रवृत्ति हो। बड़ी चूक है उसे नहीं जो रोकती॥ कोई कोमल-हृदया प्रियतम को कभी। कड़ी ऑंख से कैसे है अवलोकती॥102॥ जो न कण्ठ हो सकी पुनीत-गुणावली। क्यों पाती न प्रवृत्ति कलहप्रियता पता॥ जो कटूक्ति के लिए हुई उत्कण्ठ तो। क्यों कलंकिता बनेगी न कल-कंठता॥103॥ पहचाने पति के पद को मुँह से कभी। निकल नहीं पाती अपुनीत-पदावली॥ सहज-मधुरता मानस के त्यागे बिना। अमधुर बनती नहीं मधुर-वचनावली॥104॥ है कठोरता, काठ शिला से भी कठिन। क्यों न प्रेम-धारायें ही उनमें बहें॥ कोमल हैं तो बनें अकोमल किसलिए। क्यों न कलेजे बने कलेजे ही रहें॥105॥ जिसमें है न सहानुभूति-मर्मज्ञता। सदा नहीं होता जो यथा-समय-सदय॥ जिसमें है न हृदय-धन की ममता भरी। हृदय कहायेगा तो कैसे वह हृदय॥106॥ क्या गरिमा है रूप, रंग, गुण आदि की। क्या इस भूति-भरित-भूमध्य निजस्व है॥ जो उत्सर्ग न उस पर जीवन हो सका। जो इस जगती में जीवन-सर्वस्व है॥107॥ अवनी में जो जीवन का अवलम्ब है। सबसे अधिक उसी पर जिसका प्यार है॥ वह पतिता है जो उससे है उलझती। जिस पति का तन, मन, धन पर अधिकार है॥108॥ चूक उसी की है जो वल्लभता दिखा। हृदय-वल्लभा का पद पा जाती नहीं॥ प्राणनाथ तो प्राणनाथ कैसे बनें। पतिप्राणा यदि पत्नी बन पाती नहीं॥109॥ पढ़ तदीयता-पाठ भेद को भूल कर। सत्य-भाव से पूत-प्रेम-प्याला पिये॥ बन जाती हैं जीवितेश्वरी पत्नियाँ। जीवनधन को जीवनधन अर्पित किये॥110॥ भाग्यवती वह है भर सात्तिवक-भूति से। भक्ति-बीज जो प्रीति-भूमि में बो सकी॥ वह सहृदयता है सहृदयता ही नहीं। जो न समर्पित हृदयेश्वर को हो सकी॥111॥ पूजन कर सद्भाव-समूह-प्रसून से। जगा आरती सत्कृति की बन सद्व्रता॥ दिव्य भावना बल से पाकर दिव्यता। देवी का पद पाती है पति-देवता॥112॥ वहन कर सरस-सौरभ संयत-भाव का। जो सरोजिनी सी हो भव-सर में खिली॥ वही सती है शुचि-प्रतीति से पूरिता। जिसे पति-परायणता पूरी हो मिली॥113॥ उसका अधिकारी है सबसे अधिक पति। सोच यह स्वकृति की करती जो पूर्ति हो॥ पतिव्रता का पद पा सकती है वही। जीवितेश हित की जो जीवित मूर्ति हो॥114॥ सहज-सरलता, शुचिता, मृदुता सदयता- आदि दिव्य गुण द्वारा जो हो ऊर्जिता॥ प्रीति सहित जो पति-पद को है पूजती। भव में होती है वह पत्नी पूजिता॥115॥ लंका में मेरा जिन दिनों निवास था। वहाँ विलोकी जो दाम्पत्य-विडम्बना॥ उसका ही परिणाम राज्य-विध्वंस था। भयंकरी है संयम की अवमानना॥116॥ होता है यह उचित कि जब दम्पति खिजें। सूत्रपात जब अनबन का होने लगे॥ उसी समय हो सावधन संयत बनें। कलह-बीज जब बिगड़ा मन बोने लगे॥117॥ यदि चंचलता पत्नी दिखलाये अधिक। पति तो कभी नहीं त्यागे गम्भीरता॥ उग्र हुए पति के पत्नी कोमल बने। हो अधीर कोई भी तजे न धीरता॥118॥ तपे हुए की शीतलता है औषधि। सहनशीलता कुल कलहों की है दवा॥ शान्त-चित्तता का अवलम्बन मिल गये। प्रकृति-भिन्नता भी हो जाती है हवा॥119॥ कोई प्राणी दोष-रहित होता नहीं। कितनी दुर्बलतायें उसमें हैं भरी॥ किन्तु सुधारे सब बातें हैं सुधरती। भलाइयों ने सब बुराइयाँ हैं हरी॥120॥ सभी उलझनें सुलझायें हैं सुलझती। गाँठ डालने पर पड़ जाती गाँठ है॥ रस के रखने से ही रस रह सका है। हरा भरा कब होता उकठा-काठ है॥121॥ मर्यादा, कुल-शील, लोक-लज्जा तथा। क्षमा, दया, सभ्यता, शिष्टता, सरलता॥ कटु को मधुर सरसतम असरस को बना। हैं कठोर उर में भर देती तरलता॥122॥ मधुर-भाव से कोमल-तम-व्यवहार से। पशु-पक्षी भी हो जाते अधीन हैं॥ अनहित हित बनते स्वकीय परकीय हैं। क्यों न मिलेंगे दम्पति जो जलमीन हैं॥123॥ क्यों न दूर हो जाएगी मन मलिनता। क्यों न निकल जाएगी कुल जी कीकसर॥ क्यों न गाँठ खुल जाएगी जी में पड़ी। पड़े अगर दम्पति का दम्पति पर असर॥124॥ जिन दोनों का सबसे प्रिय-सम्बन्ध है। जो दोनों हैं एक दूसरे से मिले॥ एक वृन्त के दो अति सुन्दर-सुमन-सम। एक रंग में रँग जो दोनों हैं खिले॥125॥ ऐसा प्रिय-सम्बन्ध अल्प-अन्तर हुए। भ्रम-प्रमाद में पड़े टूट पाता नहीं॥ स्नेहकरों से जो बन्धन है बँधा, वह- खींच-तान कुछ हुए छूट जाता नहीं॥126॥ किन्तु रोग इन्द्रिय-लोलुपता का बढ़े। पड़े आत्मसुख के प्रपंच में अधिकतर॥ होती है पशुता-प्रवृत्ति की प्रबलता। जाती है उर में भौतिकता-भूति भर॥127॥ लंका में भौतिकता का साम्राज्य था। था विवाह का बन्धन, किन्तु अप्रीतिकर॥ नित्य वहाँ होता स्वच्छन्द-विहार था। था विलासिता नग्न-नृत्य ही रुचिर तर॥128॥ कलह कपट-व्यवहार कु-कौशल करों से। बहु-सदनों के सुख जाते थे छिन वहाँ॥ होता रहता था साधारण बात से। पति-पत्नी का परित्याग प्रति-दिन वहाँ॥129॥ अहंभाव दुर्भाव तथा दुर्वासना। उसे तोड़ देती थी पतित-प्रवंचना॥ ऐंचा तानी हुई कि वह टूटा नहीं। कच्चा धागा था विवाह-बन्धन बना॥130॥ उस अभागिनी की अशान्ति को क्याकहें। जिसे शान्ति पति-परिवर्त्तन ने भी न दी॥ होती है वह विविध-यन्त्राणाओं भरी। इसीलिए तृष्णा है वैतरणी नदी॥131॥ नरक ओर जाती थीं पर वे सोचतीं। उन्हें लग गया स्वर्ग-लोक का है पता॥ दुराचार ही सदाचार था बन गया। स्वतन्त्रता थी मिली तजे परतन्त्रता॥132॥ था बनाव-श्रृंगार उन्हें भाता बहुत। तन को सज उनका मन था रौरव बना॥ उच्छृंखलता की थीं वे अति-प्रेमिका। उसी में चरम-सुख की थी प्रिय-कल्पना॥133॥ इष्ट-प्राप्ति थी स्वार्थ-सिध्दि उनके लिए। थी कदर्थना से पूरिता-परार्थता॥ पुण्य-कार्यों में थी बड़ी-विडम्बना। पाप-कमाना थी जीवन-चरितार्थता॥134॥ बहु-वेशों में परिणत करती थी उन्हें। पुरुषों को वश में करने की कामना॥ पापीयसी-प्रवृत्ति-पूर्ति के लिए वे। करती थीं विकराल-काल का सामना॥135॥ थोड़ी भी परवाह कलंकों की न कर। लगा कालिमा के मुँह में भी कालिमा॥ लालन कर लालसामयी-कुप्रवृत्ति का॥ वे रखती थीं अपने मुख की लालिमा॥136॥ इन्द्रिय-लोलुपता थी रग-रग में भरी। था विलास का भाव हृदय-तल में जमा॥ रोमांचितकर उनकी पाप-प्रवृत्ति थी। मनमानापन रोम-रोम में था रमा॥137॥ पुरुष भी इन्हीं रंगों में ही थे रँगे। पर कठोरता की थी उनमें अधिकता॥ जो प्रवंचना में प्रवीण थीं रमणियाँ। तो उनकी विधि-हीन-नीति थी बधिकता॥138॥ नहीं पाशविकता का ही आधिक्य था। हिंसा, प्रति-हिंसा भी थी प्रबला बनी॥ प्राय: पापाचार-बाधाकों के लिए। पापाचारी की उठती थी तर्जनी॥139॥ बने कलंकी कुल तो उनकी बला से। लोक-लाज की परवा भी उनको न थी॥ जैसा राजा था वैसी ही प्रजा थी। ईश्वर की भी भीति कभी उनको न थी॥140॥ इन्हीं पापमय कर्मों के अतिरेक से। ध्वंस हुई कंचन-विरचित-लंकापुरी॥ जिससे कम्पित होते सदा सुरेश थे। धूल में मिली प्रबल-शक्ति वह आसुरी॥141॥ प्राणी के अयथा-आहार-विहार से। उसकी प्रकृति कुपित होकर जैसे उसे- देती है बहु-दण्ड रुजादिक-रूप में। वैसे ही सब कहते हैं जनपद जिसे॥142॥ वह चलकर प्रतिकूल नियति के नियमके। भव-व्यापिनी प्रकृति के प्रबल-प्रकोप से॥ कभी नहीं बचता होता विध्वंस है। वैसे ही जैसे तम दिनकर ओप से॥143॥ लंका की दुर्गति दाम्पत्य-विडम्बना। मुझे आज भी करती रहती है व्यथित॥ हुए याद उसकी होता रोमांच है। पर वह है प्राकृतिक-गूढ़ता से ग्रथित॥144॥ है अभिनन्दित नहीं सात्तिवकी-प्रकृति से। है पति-पत्नी त्याग परम-निन्दित-क्रिया॥ मिले दो हृदय कैसे होवेंगे अलग। अप्रिय-कर्म करेंगे कैसे प्रिय-प्रिया॥145॥ वास्तवता यह है, जब पतित-प्रवृत्तियाँ। कुत्सित-लिप्सा दुव्यसनों से हो प्रबल॥ इन्द्रिय-लोलुपताओं के सहयोग से। देती हैं सब-सात्तिवक भावों को कुचल॥146॥ तभी समिष होता विरोध आरंभ है। जो दम्पति हृदयों में करता छेद है॥ जिससे जीवन हो जाता है विषमतम। होता रहता पति-पत्नी विच्छेद है॥147॥ जिसमें होती है उच्छृंखलता भरी। जो पामरता कटुता का आधार हो॥ जिसमें हो हिंसा प्रति-हिंसा अधमता। जिसमें प्यार बना रहता व्यापार हो॥148॥ क्या वह जीवन क्या उसका आनन्द है। क्या उसका सुख क्या उसका आमोद है॥ किन्तु प्रकृति भी तो है वैचित्रयों भरी। मल-कीटक मल ही में पाता मोद है॥149॥ यह भौतिकता की है बड़ी विडम्बना। इससे होता प्राणि-पुंज का है पतन॥ लंका से जनपद होते विध्वंस हैं। मरु बन जाता है नन्दन सा दिव्य-वन॥150॥ उदारता से भरी सदाशयता-रता। सद्भावों से भौतिकता की बाधिका॥ पुण्यमयी पावनता भरिता सद्व्रता। आध्यात्मिकता ही है भव-हित-साधिका॥151॥ यदि भौतिकता है अति-स्वार्थ-परायणा। आध्यात्मिकता आत्मत्याग की मूर्ति है॥ यदि भौतिकता है विलासिता से भरी। आध्यात्मिकता सदाचारिता पूर्ति है॥152॥ यदि उसमें है पर-दुख-कातरता नहीं। तो इसमें है करुणा सरस प्रवाहिता॥ यदि उसमें है तामस-वृत्ति अमा-समा। तो इसकी है सत्प्रवृत्ति-राकासिता॥153॥ यदि भौतिकता दानवीय-सम्पत्ति है। तो आध्यात्मिकता दैविक-सुविभूति है॥ यदि उसमें है नारकीय-कटु-कल्पना॥ तो इसमें स्वर्गीय-सरस-अनुभूति है॥154॥ यदि उमसें है लेश भी नहीं शील का। तो इसका जन-सहानुभूति निजस्व है॥ यदि उसमें है भरी हुई उद्दंडता। सहनशीलता तो इसका सर्वस्व है॥155॥ यदि वह है कृत्रिमता कल छल से भरी। तो यह है सात्तिवकता-शुचिता-पूरिता॥ यदि उसमें दुर्गुण का ही अतिरेक है। तो इसमें है दिव्य-गुणों की भूरिता॥156॥ यदि उसमें पशुता की प्रबल-प्रवृत्ति है। तो इसमें मानवता की अभिव्यक्ति है॥ भौतिकता में यदि है जड़तावादिता। आध्यात्मिकता मध्य चिन्मयी-शक्ति है॥157॥ भौतिकता है भव के भावों में भरी। और प्रपंची पंचभूत भी हैं न कम॥ कहाँ किसी का कब छूटा इनसे गला। किन्तु श्रेय-पथ अवलम्बन है श्रेष्ठतम॥158॥ नर-नारी निर्दोष हो सकेंगे नहीं। भौतिकता उनमें भरती ही रहेगी॥ आपके सदृश मैं भी इससे व्यथित हूँ। किन्तु यही मानवता-ममता कहेगी॥159॥ आध्यात्मिकता का प्रचार कर्तव्य है। जिससे यथा-समय भव का हित हो सके॥ आप इसी पथ की पथिका हैं, विनय है। पाँव आप का कभी न इस पथ में थके॥160॥ दोहा विदा महि-सुता से हुई उन्हें मान महनीय। सुन विज्ञानवती सरुचि कथन-परम-कमनीय॥161॥
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