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वैदेही-वनवास
सप्तदश सर्ग पहन हरित-परिधान प्रभूत-प्रफुल्ल हो। ऊँचे उठ जो रहे व्योम को चूमते॥ ऐसे बहुश:- विटप-वृन्द अवलोकते। जन-स्थान में रघुकुल-रवि थे घूमते॥1॥ थी सम्मुख कोसों तक फैली छबिमयी। विविध-तृणावलि-कुसुमावलि-लसिता-धरा॥ रंग-बिरंगी-ललित-लतिकायें तथा। जड़ी-बूटियों से था सारा-वन भरा॥2॥ दूर क्षितिज के निकट असित-घन-खंड से। विन्धयाचल के विविध-शिखर थे दीखते॥ बैठ भुवन-व्यापिनी-दिग्वधू-गोद में। प्रकृति-छटा अंकित करना थे सीखते॥3॥ हो सकता है पत्थर का उर भी द्रवित। पर्वत का तन भी पानी बन है बहा॥ मेरु-प्रस्रवण मूर्तिमन्त-प्रस्रवण बन। यह कौतुक था वसुधा को दिखला रहा॥4॥ खेल रही थी रवि-किरणावलि को लिये। विपुल-विटप-छाया से बनी हरी-भरी॥ थी उत्ताल-तरंगावलि से उमगती। प्रवाहिता हो गदगद बन गोदावरी॥5॥ कभी केलि करते उड़ते फिरते कभी। तरु पर बैठे विहग-वृन्द थे बोलते॥ कभी फुदकते कभी कुतरते फल रहे। कभी मंदगति से भू पर थे डोलते॥6॥ कहीं सिंहिनी सहित सिंह था घूमता। गरजे वन में जाता था भर भूमि-भय। दिखलाते थे कोमल-तृण चरते कहीं। कहीं छलाँगें भरते मिलते मृग-निचय॥7॥ द्रुम-शाखा तोड़ते मसलते तृणों को। लिये हस्तिनी का समूह थे घूमते॥ मस्तक-मद से आमोदित कर ओक को। कहीं मत्त-गज बन प्रमत्त थे झूमते॥8॥ कभी किलकिलाते थे दाँत निकाल कर। कभी हिलाकर डालें फल थे खा रहे॥ कहीं कूद ऑंखें मटका भौंहें नचा। कपि-समूह थे निज-कपिता दिखला रहे॥9॥ खग-कलरव या पशु-विशेष के नाद से। कभी-कभी वह होती रही निनादिता॥ सन्नाटा वन-अवनी में सर्वत्र था। पूरी-निर्जनता थी उसमें व्यापिता॥10॥ इधर-उधर खोजते हुए शंबूक को। पंचवटी के पंच-वटों के सामने॥ जब पहुँचे उस समय अतीत-स्मृति हुए। लिया कलेजा थाम लोक-अभिराम ने॥11॥ पंचवटी प्राचीन-चित्र अंकित हुए। हृदय-पटल पर, आकुलता चित्रित हुई॥ मर्म-वेदना लगी मर्म को बेधने। चुभने लगी कलेजे में मानो सुई॥12॥ हरे-भरे तरु हरा-भरा करते न थे। उनमें भरी हुई दिखलाती थी व्यथा॥ खग-कलरव में कलरवता मिलती न थी। बोल-बोल वे कहते थे दुख की कथा॥13॥ लतिकायें थीं बड़ी-बलायें बन गईं। हिल-हिल कर वे दिल को देती थीं हिला॥ कलिकायें निज कला दिखा सकती न थीं। जी की कली नहीं सकती थीं वे खिला॥14॥ शूल के जनक से वे होते ज्ञात थे। फूल देखकर चित्त भूल पाता न था॥ देख तितिलियों को उठते थे तिलमिला। भौरों का गुंजार उन्हें भाता न था॥15॥ जिस प्रस्रवण-अचल-लीलाओं के लिए। लालायिता सदा रहती थी लालसा॥ वह उस भग्न-हृदय सा होता ज्ञात था। जिसे पड़ा हो सर्व-सुखों का काल सा॥16॥ कल निनादित-केलिरता-गोदावरी। बनती रहती थी जो मुग्धकरी-बड़ी॥ दिखलाती थी उस वियोग-विधुरा समा। बहा बहा ऑंसू जो भू पर हो पड़ी॥17॥ फिर वह यह सोचने लगे तरुओं-तले। प्रिया-उपस्थिति के कारण जो सुख मिला॥ मेरे अन्तस्तल सरवर में उन दिनों। जैसा वर-विनोद का वारिज था खिला॥18॥ रत्न-विमण्डित राजभवन के मध्य भी। उनकी अनुपस्थिति में वह सुख है कहाँ॥ न तो वहाँ वैसा आनन्द-विकास है। न तो अलौकिक-रस ही बहता है वहाँ॥19॥ ए पाँचों वट भी कम सुन्दर हैं नहीं। अति-उत्तम इनके भी दल, फल फूल हैं॥ छाया भी है सुखदा किन्तु प्रिया-बिना। वे मेरे अन्तस्तल के प्रतिकूल हैं॥20॥ बारह बरस व्यतीत हुए उनके यहीं। किन्तु कभी आकुलता होती थी नहीं॥ कभी म्लानता मुखड़े पर आती न थी। जब अवलोका विकसित-बदना वे रहीं॥21॥ और सहारा क्या था फल, दल के सिवा। था जंगल का वास वस्तु होती गिनी॥ कभी कमी का नाम नहीं मुँह ने लिया। बात असुविधा की कब कानों ने सुनी॥22॥ राई-भर भी है न बुराई दीखती। रग-रग में है भूरि-भलाई ही भरी॥ उदारता है उनकी जीवन संगिनी। पर दुख-कातरता है प्यारी-सहचरी॥23॥ बड़े-बड़े दुख के अवसर आये तदपि। कभी नहीं दिखलाई वे मुझको दुखी॥ मेरा मुख-अवलोके दिन था बीतता। मेरे सुख से ही वे रहती थीं सुखी॥24॥ रूखी सूखी बात कभी कहती न थीं। तरलतम-हृदय में थी ऐसी तरलता॥ असरल-पथ भी बन जाते थे सरल-तम। सरल-चित्त की अवलोकन कर सरलता॥25॥ जब सौमित्र-बदन कुम्हलाया देखतीं। मधुर-मधुर बातें कह समझातीं उन्हें॥ जो कुटीर में होता वे लेकर उसे। पास बैठकर प्यार से खिलातीं उन्हें॥26॥ कभी उर्मिला के वियोग की सुधि हुए। ऑंसू उनके दृग का रुकता ही न था॥ कभी बनाती रहती थी व्याकुल उन्हें। मम-माता की विविध-व्यथाओं की कथा॥27॥ ऐसी परम-सदय-हृदया भव-हित रता। सत्य-प्रेमिका गौरव-मूर्ति गरीयसी॥ बहु-वत्सर से है वियोग-विधुरा बनी। विधि की विधि ही है भव-मध्य-बलीयसी॥28॥ जिसके भ्रू ने कभी न पाई बंकता। जिसके दृग में मिली न रिस की लालिमा॥ जिसके मधुर-वचन न कभी अमधुर बने। जिसकी कृति-सितता में लगी न कालिमा॥29॥ उचित उसे कह बन सच्ची-सहधार्मिणी। जिसने वन का वास मुदित-मन से लिया॥ शिरोधार्य कह अति-तत्परता के सहित। जिसने मेरी आज्ञा का पालन किया॥30॥ मेरा मुख जिसके सुख का आधार था। मेरी ही छाया जो जाती है कही॥ जिसका मैं इस भूतल में सर्वस्व था। जो मुझ पर उत्सर्गी-कृत-जीवन रही॥31॥ यदि वह मेरे द्वारा बहु-व्यथिता बनी। विरह-उदधि-उत्ताल-तरंगों में बही॥ तो क्यों होगी नहीं मर्म-पीड़ा मुझे। तो क्यों होगा मेरा उर शतधा नहीं॥32॥ एक दो नहीं द्वादश-वत्सर हो गये। किसने इतनी भव-तप की ऑंचें सहीं॥ कब ऐसा व्यवहार कहीं होगा हुआ। कभी घटी होगी ऐसी घटना नहीं॥33॥ धीर-धुरंधर ने फिर धीरज धार सँभल। अपने अति-आकुल होते चित से कहा॥ स्वाभाविकता स्वाभाविकता है अत:। उसके प्रबल-वेग को कब किसने सहा॥34॥ किन्तु अधिक होना अधीर वांछित नहीं। जब कि लोक-हित हैं लोचन के सामने॥ प्रिया को बनाया है वर भव-दृष्टि में। लोकहित-परायण उनके गुण ग्राम ने॥35॥ आज राज्य में जैसी सच्ची-शान्ति है। जैसी सुखिता पुलक-पूरिता है प्रजा॥ जिस प्रकार ग्रामों, नगरों, जनपदों में। कलित-कीर्ति की है उड़ रही ललित ध्वजा॥36॥ वह अपूर्व है, है बुद-वृन्द-प्रशंसिता। है जनता-अनुरक्ति-भक्ति उसमें भरी॥ पुण्य-कीत्तान के पावन-पाथोधि में। डूब चुकी है जन-श्रुति की जर्जर तरी॥37॥ बात लोक-अपवाद की किसी ने कभी। जो कह दी थी भ्रम प्रमादवश में पडे॥ उसकी याद हुए भी अवसर पर किसी। अब हो जाते हैं उसके रोयें खड़े॥38॥ बिना रक्त का पात प्रजा-पीड़न किये। बिना कटे कितने ही लोगों का गला॥ साम-नीति अवलम्बन कर संयत बने। लोकाराधन-बल से टली प्रबल-बला॥39॥ इसका श्रेय अधिकतर है महि-सुता को। उन्हीं की सुकृति-बल से है बाधा टली॥ उन्हीं के अलौकिक त्यागों के अंक में। लोक-हितकरी-शान्ति-बालिका है पली॥40॥ यदि प्रसन्न-चित से मेरी बातें समझ। वे कुलपति के आश्रम में जातीं नहीं॥ वहाँ त्याग की मूर्ति दया की पूर्ति बन। जो निज दिव्य-गुणों को दिखलातीं नहीं॥41॥ जो घबरातीं विरह-व्यथायें सोचकर। मम-उत्तरदायित्व समझ पातीं नहीं॥ जो सुख-वांछा अन्तस्तल में व्यापती। जो कर्तव्य-परायणता भाती नहीं॥42॥ तो अनर्थ होता मिट जाते बहु-सदन। उनका सुख बन जाता बहुतों का असुख॥ उनका हित कर देता कितनों का अहित। उनका मुख हो जाता भवहित से विमुख॥43॥ यह होता मानवता से मुँह मोड़ना। यह होती पशुता जो है अति-निन्दिता॥ ऐसा कर वे च्युत हो जातीं स्वपद से। कभी नहीं होतीं इतनी अभिनन्दिता॥44॥ है प्रधानता आत्मसुखों की विश्व में। किन्तु महत्ता आत्म त्याग की है अधिक॥ जगती में है किसे स्वार्थ प्यारा नहीं। वर नर हैं परमार्थ-पंथ के ही पथिक॥45॥ स्वार्थ-सिध्दि या आत्म-सुखों की कामना। प्रकृति-सिध्द है स्वाभाविक है सर्वथा॥ किन्तु लोकहित, भवहित के अविरोध से। अकर्तव्य बन जायेगी वह अन्यथा॥46॥ इन बातों को सोच जनक-नन्दिनी की। तपोभूमि की त्यागमयी शुचि-साधना॥ लोकोत्तर है वह सफला भी हुई है। वर परार्थ की है अनुपम-अराधना॥47॥ रही बात उस द्विदश-वात्सरिक विरह की। जिसे उन्होंने है संयत-चित से सहा॥ उसकी अतिशय-पीड़ा है, पर कब नहीं। बहु-संकट-संकुल परार्थ का पथ रहा॥48॥ अन्य के लिए आत्म-सुखों का त्यागना। निज हित की पर-हित निमित्त अवहेलना॥ देश, जाति या लोक-भलाई के लिए। लगा लगा कर दाँव जान पर खेलना॥49॥ अति-दुस्तर है, है बहु-संकट-आकलित। पर सत्पथ में उनका करना सामना॥ और आत्मबल से उनपर पाना विजय। है मानवता की कमनीया-कामना॥50॥ जिसका पथ-कण्टक संकट बनता नहीं। भवहित-रत हो जो न आपदा से डरा॥ सत्पथ में जो पवि को गिनता है कुसुम। उसे लाभ कर धन्या बनती है धरा॥51॥ प्रिया-रहित हो अल्प व्यथित मैं नहीं हूँ। पर कर्तव्यों से च्युत हो पाया नहीं॥ इसी तरह हैं कृत्यरता जनकांगजा। काया जैसी क्यों होगी छाया नहीं॥52॥ हाँ इसका है खेद परिस्थिति क्यों बनी- ऐसी जो सामने आपदा आ गई॥ यह विधान विधि का है नियति-रहस्य है। कब न विवशता मनु-सुत को इससे हुई॥53॥ इस प्रकार जब स्वाभाविकता पर हुए। धीर-धुरंधर-राम आत्म-बल से जयी॥ उसी समय वनदेवी आकर सामने॥ खड़ी हो गयी जो थीं विपुल व्यथामयी॥54॥ उन्हें देखकर रघुकुल पुंगव ने कहा। कृपा हुई यदि देवि! आप आयीं यहाँ॥ वनदेवी ने स्वागत कर सविनय कहा। आप पधारें, रहा भाग्य ऐसा कहाँ॥55॥ किन्तु खिन्न मैं देख रही हूँ आपको। आह! क्या जनकजा की सुधि है हो गई॥ कहूँ तो कहूँ क्या उह! मेरे हृदय में। आत्रेयी हैं बीज व्यथा के बो गई॥56॥ जनकनन्दिनी जैसी सरला कोमला। परम-सहृदया उदारता-आपूरिता॥ दयामयी हित-भरिता पर-दुख-कातरा॥ करुणा-वरुणालया अवैध-विदूरिता॥57॥ मैंने अवनी में अब तक देखी नहीं। वे मनोज्ञता-मानवता की मूर्ति हैं॥ भरी हुई है उनसे भवहित-कारिता। पति-परायणा हैं पातिव्रत-पूर्ति हैं॥58॥ आप कहीं जाते, आने में देर कुछ- हो जाती तो चित्त को न थीं रोकती॥ इतनी आकुल वे होती थीं उस समय। ऑंखें पल-पल थीं पथ को अवलोकती॥59॥ किसी समय जब जाती उनके पास मैं। यही देखती वे सेवा में हैं लगी॥ आप सो रहे हैं वे करती हैं व्यंजन। या अनुरंजन की रंगत में हैं रँगी॥60॥ वास्तव में वे पतिप्राणा हैं मैं उन्हें। चन्द्रवदन की चकोरिका हूँ जानती॥ हैं उनके सर्वस्व आप ही मैं उन्हें। प्रेम के सलिल की सफरी हूँ मानती॥61॥ रोमांचित-तन हुआ कलेजा हिल गया। दृग के सम्मुख उड़ी व्यथाओं की ध्वजा॥ जब मेरे विचलित कानों ने यह सुना। हैं द्वादश-वत्सर-वियोगिनी जनकजा॥62॥ विधि ने उन्हें बनाया है अति-सुन्दरी। उनका अनुपम-लोकोत्तर-सौन्दर्य है॥ पर उसके कारण जो उत्पीड़न हुआ। वह हृत्कम्पित-कर है परम-कदर्य्य है॥63॥ जो साम्राज्ञी हैं जो हैं नृप-नन्दिनी। रत्न-खचित-कंचन के जिनके हैं सदन॥ उनका न्यून नहीं बहु बरसों के लिए। बार-बार बनता है वास-स्थान वन॥64॥ जो सर्वोत्तम-गुण-गौरव की मूर्ति हैं। वसुधा-वांछित जिनका पूत-प्रयोग है॥ एक दो नहीं बारह-बारह बरस का। उनका हृदय-विदारक वैध-वियोग है॥65॥ विधि-विधान में क्या विधि है क्या अविधि है। विबुध-वृन्द भी इसे बता पाते नहीं॥ सही गयी ऐसी घटनायें, पर उन्हें। थाम कलेजा सहनेवालों ने सहीं॥66॥ हरण अचानक जब पतिप्राणा का हुआ। उनके प्रतिपालित-खग-मृग मुझको मिले॥ पर वे मेरी ओर ताकते तक न थे। वे कुछ ऐसे जनक-सुता से थे हिले॥67॥ शुक ने तो दो दिन तक खाया ही नहीं। करुण-स्वरों से रही बिलखती शारिका॥ मातृहीन-मृग-शावक तृण चरता न था। यद्यपि मैं थी स्वयं बनी परिचारिका॥68॥ कभी दिखाते वे ऐसे कुछ भाव थे। जिनसे उर में उठती दुख की आग बल॥ उनकी खग-मृग तक की प्यारी प्रीति को। बतलाते थे मृग-शावक के दृग-सजल॥69॥ द्रवण-शीलता जैसी थी उनमें भरी। वैसा ही अन्तस्तल दयानिधान था॥ अण्डज, पिण्डज जीवों की तो बात क्या। म्लान-विटप देखे, मुख बनता म्लान था॥70॥ दूब कुपुटते भी न उन्हें देखा कभी। लता-और तृण से भी उनको प्यार था॥ प्रेम-परायणता की वे हैं पुत्तली। स्नेह-सिक्त उनका अद्भुत-संसार था॥71॥ आह! वही क्यों प्रेम से प्रवंचित हुई। क्यों वियोग-वारिधि-आवत्तों में पड़ी॥ जो सतीत्व की लोक-वन्दिता-मूर्ति है। उसके सम्मुख क्यों आयी ऐसी घड़ी॥72॥ यह कैसी अकृपा? क्या इसका मर्म है। परम-व्यथित-हृदया मैं क्यों समझूँ इसे॥ कैसे इतना उतर गयी वह चित्त से। हृदय-वल्लभा आप समझते थे जिसे॥73॥ आत्रेयी कहती थीं बारह बरस में। नहीं गये थे आप एक दिन भी वहाँ॥ कहाँ वह अलौकिक पल-पल का सम्मिलन। और लोक-कम्पितकर यह अमिलन कहाँ॥74॥ कभी जनकजा जीती रह सकती नहीं। जो न सम्मिलन-आशा होती सामने॥ क्या न कृपा अब भी होवेगी आपकी। लोगों को क्यों पडें क़लेजे थामने॥75॥ संयत हो यह कहा लोक-अभिराम ने। देवि! आप हैं जनकसुता-प्रिय-सहचरी॥ हैं विदुषी हैं कोमल-हृदया आपके- अन्तस्तल में उनकी ममता है भरी॥76॥ उपालम्भ है उचित और मुझको स्वयं। इन बातों की थोड़ी पीड़ा है नहीं॥ किन्तु धर्म की गति है सूक्ष्म कही गई। जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वहीं॥77॥ लोकाराधन राजनीति-सर्वस्व है। हैं परार्थ, परमार्थ, पंथ भी अति-गहन॥ पर यदि ए कर्तव्य और सध्दर्म हैं। सहन-शक्ति तो क्यों न करे संकट सहन॥78॥ कुलपति-आश्रम-वास जनक-नन्दिनी का। हम दोनों के सद्विचार का मर्म है॥ वेद-विहित बुध-वृन्द-समर्थित पूत-तम। भवहित-मंगल-मूलक वांछित-कर्म है॥79॥ कुछ लोगों का यह विचार है आत्म-सुख। है प्रधान है वसुधा में वांछित वही॥ तजे विफलता-पथ बाधाओं से बचे। मनुज को सफलता दे देती है मही॥80॥ वे कहते हैं नरक, स्वर्ग, अपवर्ग की। जन्मान्तर या लोकान्तर की कल्पना॥ है परोक्ष की बात हुई प्रत्यक्ष कब। है परार्थ भी अत: व्यर्थ की जल्पना॥81॥ यह विचार है स्वार्थ-भरित भ्रम-आकलित। कर इसका अनुसरण ध्वंस होती धरा॥ है परार्थ, परमार्थ, बाद ही पुण्यतम। वह है भवहित के सद्भाव से भरा॥82॥ स्वार्थ वह तिमिर है जिसमें रहकर मनुज। है टटोलता रहता अपनी भूति को॥ है परार्थ परमार्थ दिव्य वह ओप जो। उद्भासित करता है विश्व-विभूति को॥83॥ आत्म-सुख-निरत आत्म-सुखों में मग्न हो। अवलोकन करता रहता निज-ओक है॥ कहलाकर कुल का, स्वजाति का, देश का। लोक-सुख-निरत बनता भव आलोक है॥84॥ इसी पंथ की पथिका हैं जनकांगजा॥ उनका आश्रम का निवास सफलित हुआ॥ मिले अलौकिक-लाल हो गया लोक-हित। कलुषित-जन-अपवाद काल-कवलित हुआ॥85॥ अश्वमेध का अनुष्ठान हो चुका है। नीति की कलिततम कलिकायें खिलेंगी॥ कृपा दिखा उत्सव में आयें आप भी। वहाँ जनक-नन्दिनी आपको मिलेंगी॥86॥ दोहा चले गये रघुकुल तिलक रहा पुलकित-कर बात। वनदेवी अविकच-बदन बना विकच-जलजात॥87॥
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