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वैदेही-वनवास चतुर्थ सर्ग
वसिष्ठाश्रम अवधपुरी के निकट मनोरम-भूमि में। एक दिव्य-तम-आश्रम था शुचिता-सदन॥ बड़ी अलौकिक-शान्ति वहाँ थी राजती। दिखलाता था विपुल-विकच भव का वदन॥1॥ प्रकृति वहाँ थी रुचिर दिखाती सर्वदा। शीतल-मंद-समीर सतत हो सौरभित॥ बहता था बहु-ललित दिशाओं को बना। पावन-सात्तिवक-सुखद-भाव से हो भरित॥2॥ हरी भरी तरु-राजि कान्त-कुसुमालि से। विलसित रह फल-पुंज-भार से हो नमित॥ शोभित हो मन-नयन-विमोहन दलों से। दर्शक जन को मुदित बनाती थी अमित॥3॥ रंग बिरंगी अनुपम-कोमलतामयी। कुसुमावलि थी लसी पूत-सौरभ बसी॥ किसी लोक-सुन्दर की सुन्दरता दिखा। जी की कली खिलाती थी उसकी हँसी॥4॥ कर उसका रसपान मधुप थे घूमते। गूँज गूँज कानों को शुचि गाना सुना॥ आ आ कर तितलियाँ उन्हें थीं चूमती। अनुरंजन का चाव दिखा कर चौगुना॥5॥ कमल-कोष में कभी बध्द होते न थे। अंधे बनते थे न पुष्प-रज से भ्रमर॥ काँटे थे छेदते न उनके गात को। नहीं तितलियों के पर देते थे कतर॥6॥ लता लहलही लाल लाल दल से लसी। भरती थी दृग में अनुराग-ललामता॥ श्यामल-दल की बेलि बनाती मुग्ध थी। दिखा किसी घन-रुचि-तन की शुचिश्यामता॥7॥ बना प्रफुल्ल फल फूल दान में हो निरत। मंद मंद दोलित हो, वे थीं विलसती। प्रात:-कालिक सरस-पवन से हो सुखित। भू पर मंजुल मुक्तावलि थीं बरसती॥8॥ विहग-वृन्द कर गान कान्त-तम-कंठ से। विरच विरच कर विपुल-विमोहक टोलियाँ॥ रहे बनाते मुग्ध दिखा तन की छटा। बोल-बोल कर बड़ी अनूठी बोलियाँ॥9॥ काक कुटिलता वहाँ न था करता कभी। काँ काँ रव कर था न कान को फोड़ता॥ पहुँच वहाँ के शान्त-वात-आवरण में। हिंसक खग भी हिंसकता था छोड़ता॥10॥ नाच-नाच कर मोर दिखा नीलम-जटित। अपने मंजुल-तम पंखों की माधुरी॥ खेल रहे थे गरल-रहित-अहि-वृन्द से। बजा-बजा कर पूत-वृत्ति की बाँसुरी॥11॥ मरकत-मणि-निभ अपनी उत्तम-कान्ति से। हरित-तृणावलि थी हृदयों को मोहती॥ प्रात:-कालिक किरण-मालिका-सूत्र में। ओस-बिन्दु की मुक्तावलि थी पोहती॥12॥ विपुल-पुलकिता नवल-शस्य सी श्यामला। बहुत दूर तक दूर्वावलि थी शोभिता॥ नील-कलेवर-जलधि ललित-लहरी समा। मंद-पवन से मंद-मंद थी दोलिता॥13॥ कल-कल रव आकलिता-लसिता-पावनी। गगन-विलसिता सुर-सरिता सी सुन्दरी॥ निर्मल-सलिला लीलामयी लुभावनी। आश्रम सम्मुख थी सरसा-सरयू सरी॥14॥ परम-दिव्य-देवालय उसके कूल के। कान्ति-निकेतन पूत-केतनों को उड़ा॥ पावनता भरते थे मानस-भाव में। पातक-रत को पातक पंजे से छुड़ा॥15॥ वेद-ध्वनि से मुखरित वातावरण था। स्वर-लहरी स्वर्गिक-विभूति से थी भरी॥ अति-उदात्त कोमलतामय-आलाप था। मंजुल-लय थी हृत्तांत्री झंकृत करी॥16॥ धीरे-धीरे तिमिर-पुंज था टल रहा। रवि-स्वागत को उषासुन्दरी थी खड़ी॥ इसी समय सरयू-सरि-सरस-प्रवाह में। एक दिव्यतम नौका दिखलाई पड़ी॥17॥ जब आकर अनुकूल-कूल पर वह लगी। तब रघुवंश-विभूषण उस पर से उतर॥ परम-मन्द-गति से चलकर पहुँचे वहाँ। आश्रम में थे जहाँ राजते ऋषि प्रवर॥18॥ रघुनन्दन को वन्दन करते देख कर। मुनिवर ने उठ उनका अभिनन्दन किया॥ आशिष दे कर प्रेम सहित पूछी कुशल। तदुपरान्त आदर से उचितासन दिया॥19॥ सौम्य-मूर्ति का सौम्य-भाव गम्भीर-मुख। आश्रम का अवलोक शान्त-वातावरण॥ विनय-मूर्ति ने बहुत विनय से यह कहा। निज-मर्यादित भावों का कर अनुसरण॥20॥ आपकी कृपा के बल से सब कुशल है। सकल-लोक के हित व्रत में मैं हूँ निरत॥ प्रजा सुखित है शान्तिमयी है मेदिनी। सहज-नीति रहती है सुकृतिरता सतत॥21॥ किन्तु राज्य का संचालन है जटिल-तम। जगतीतल है विविध-प्रपंचों से भरा॥ है विचित्रता से जनता परिचालिता। सदा रह सका कब सुख का पादप हरा॥22॥ इतना कह कर हंस-वंश-अवतंस ने। दुर्मुख की सब बातें गुरु से कथन कीं॥ पुन: सुनाईं भ्रातृ-वृन्द की उक्तियाँ। जो हित-पट पर मति-मृदु-कर से थीं अंकी॥23॥ तदुपरान्त यह कहा दमन वांछित नहीं। साम-नीति अवलम्बनीय है अब मुझे॥ त्याग करूँ तब बड़े से बड़ा क्यों न मैं। अंगीकृत है लोकाराधन जब मुझे॥24॥ हैं विदेहजा मूल लोक-अपवाद की। तो कर दूँ मैं उन्हें न क्यों स्थानान्तरित॥ यद्यपि यह है बड़ी मर्म-वेधी-कथा। तथा व्यथा है महती-निर्ममता-भरित॥25॥ किन्तु कसौटी है विपत्ति मनु-सूनु की। स्वयं कष्ट सह भव-हित-साधन श्रेय है॥ आपत्काल, महत्व-परीक्षा-काल है। संकट में धृति धर्म प्राणता ध्येय है॥26॥ ध्वंस नगर हों, लुटें लोग, उजड़े सदन। गले कटें, उर छिदें, महा-उत्पात हो॥ वृथा मर्म-यातना विपुल-जनता सहे। बाल वृध्द वनिता पर वज्र-निपात हो॥27॥ इन बातों से तो अब उत्तम है यही। यदि बनती है बात, स्वयं मैं सब सहूँ॥ हो प्रियतमा वियोग, प्रिया व्यथिता बने। तो भी जन-हित देख अविचलित-चित रहूँ॥28॥ प्रश्न यही है कहाँ उन्हें मैं भेज दूँ। जहाँ शान्त उनका दुखमय जीवन रहे॥ जहाँ मिले वह बल जिसके अवलंब से। मर्मान्तिक बहु-वेदन जाते हैं सहे॥29॥ आप कृपा कर क्या बतलाएँगे मुझे। वह शुचि-थल जो सब प्रकार उपयुक्त हो॥ जहाँ बसी हो शान्ति लसी हो दिव्यता। जो हो भूति-निकेतन भीति-विमुक्त हो॥30॥ कभी व्यथित हो कभी वारि दृग में भरे। कभी हृदय के उद्वेगों का कर दमन॥ बातें रघुकुल-रवि की गुरुवर ने सुनीं। कभी धीर गंभीर नितान्त-अधीर बन॥31॥ कभी मलिन-तम मुख-मण्डल था दीखता। उर में बहते थे अशान्ति सोते कभी॥ कभी संकुचित होता भाल विशाल था। युगल-नयन विस्फारित होते थे कभी॥32॥ कुछ क्षण रह कर मौन कहा गुरुदेव ने। नृपवर यह संसार स्वार्थ-सर्वस्व है॥ आत्म-परायणता ही भव में है भरी। प्राणी को प्रिय प्राण समान निजस्व है॥33॥ अपने हित साधन की ललकों में पड़े। अहित लोक लालों के लोगों ने किए॥ प्राणिमात्र के दुख को भव-परिताप को। तृण गिनता है मानव निज सुख के लिए॥34॥ सभी साँसतें सहें बलाओं में फँसें। करें लोग विकराल काल का सामना॥ तो भी होगी नहीं अल्प भी कुण्ठिता। मानव की ममतानुगामिनी कामना॥35॥ किसे अनिच्छा प्रिय इच्छाओं से हुई। वांछाओं के बन्धन में हैं बध्द सब॥ अर्थ लोभ से कहाँ अनर्थ हुआ नहीं। इष्ट सिध्दि के लिए अनिष्ट हुए न कब॥36॥ ममता की प्रिय-रुचियाँ बाधायें पडे। बन जाती जनता निमित्त हैं ईतियाँ॥ विबुध-वृन्द की भी गत देती हैं बना। गौरव-गर्वित-गौरवितों की वृत्तियाँ॥37॥ तम-परि-पूरित अमा-यामिनी-अंक में। नहीं विलसती मिलती है राका-सिता॥ होती है मति, रहित सात्तिवकी-नीति से। स्वत्व-ममत्व महत्ता-सत्ता मोहिता॥38॥ किन्तु हुए हैं महि में ऐसे नृमणि भी। मिली देवतों जैसी जिनमें दिव्यता॥ जो मानवता तथा महत्ता मूर्ति थे। भरी जिन्होंने भव-भावों में भव्यता॥39॥ वैसे ही हैं आप भूतियाँ आप की। हैं तम-भरिता-भूमि की अलौकिक-विभा॥ लोक-रंजिनी पूत-कीर्ति-कमनीयता। है सज्जन सरसिज निमित्त प्रात:-प्रभा॥40॥ बात मुझे लोकापवाद की ज्ञात है। वह केवल कलुषित चित का उद्गार है॥ या प्रलाप है ऐसे पामर-पुंज का। अपने उर पर जिन्हें नहीं अधिकार है॥41॥ होती है सुर-सरिता अपुनीता नहीं। पाप-परायण के कुत्सित आरोप से॥ होंगी कभी अगौरविता गौरी नहीं। किन्हीं अन्यथा कुपित जनों के कोप से॥42॥ रजकण तक को जो करती है दिव्य तम। वह दिनकर की विश्व-व्यापिनी-दिव्यता॥ हो पाएगी बुरी न अंधों के बके। कहे उलूकों के न बनेगी निन्दिता॥43॥ ज्योतिमयी की परम-समुज्ज्वल ज्योति को। नहीं कलंकित कर पाएगी कालिमा॥ मलिना होगी किसी मलिनता से नहीं। ऊषादेवी की लोकोत्तर-लालिमा॥44॥ जो सुकीर्ति जन-जन-मानस में है लसी। जिसके द्वारा धरा हुई है धावलिता॥ सिता-समा जो है दिगंत में व्यापिता। क्यों होगी वह खल कुत्सा से कलुषिता॥45॥ जो हलचल लोकापवाद आधार से। है उत्पन्न हुई, दुरन्त है हो, रही॥ उसका उन्मूलन प्रधान-कर्तव्य है। किन्तु आप को दमन-नीति प्रिय है नहीं॥46॥ यद्यपि इतनी राजशक्ति है बलवती। कर देगी उसका विनाश वह शीघ्र तम॥ पर यह लोकाराधन-व्रत-प्रतिकूल है। अत: इष्ट है शान्ति से शमन लोक भ्रम॥47॥ सामनीति का मैं विरोध कैसे करूँ। राजनीति को वह करती है गौरवित॥ लोकाराधन ही प्रधान नृप-धर्म है। किन्तु आपका व्रत बिलोक मैं हूँ चकित॥48॥ त्याग आपका है उदात्त धृति धन्य है। लोकोत्तर है आपकी सहनशीलता॥ है अपूर्व आदर्श लोकहित का जनक। है महान भवदीय नीति-मर्मज्ञता॥49॥ आप पुरुष हैं नृप व्रत पालन निरत हैं। पर होवेगी क्या पति प्राणा की दशा॥ आह! क्यों सहेगी वह कोमल हृदय पर। आपके विरह की लगती निर्मम-कशा॥50॥ जो हो पर पथ आपका अतुलनीय है। लोकाराधन की उदार-तम-नीति है॥ आत्मत्याग का बड़ा उच्च उपयोग है। प्रजा-पुंज की उसमें भरी प्रतीति है॥51॥ आर्य-जाति की यह चिरकालिक है प्रथा। गर्भवती प्रिय-पत्नी को प्राय: नृपति॥ कुलपति पावन-आश्रम में हैं भेजते। हो जिससे सब-मंगल, शिशु हो शुध्दमति॥52॥ है पुनीत-आश्रम वाल्मीकि-महर्षि का। पतित-पावनी सुरसरिता के कूल पर॥ वास योग्य मिथिलेश सुता के है वही। सब प्रकार वह है प्रशान्त है श्रेष्ठतर॥53॥ वे कुलपति हैं सदाचार-सर्वस्व हैं। वहाँ बालिका-विद्यालय भी है विशद॥ जिसमें सुरपुर जैसी हैं बहु-देवियाँ। जिनका शिक्षण शारदा सदृश है वरद॥54॥ वहाँ ज्ञान के सब साधन उपलब्ध हैं। सब विषयों के बहु विद्यालय हैं बने॥ दश-सहस्र वर-बटु विलसित वे हैं, वहाँ- शन्ति वितान प्रकृति देवी के हैं तने॥55॥ अन्यस्थल में जनक-सुता का भेजना। सम्भव है बन जाए भय की कल्पना॥ आपकी महत्ता को समझेंगे न सब। शंका है, बढ़ जाए जनता-जल्पना॥56॥ गर्भवती हैं जनक-नन्दिनी इसलिए। उनका कुलपति के आश्रम में भेजना॥ सकल-प्रपंचों पचड़ों से होगा रहित। कही जाएगी प्रथित-प्रथा परिपालना॥57॥ जैसी इच्छा आपकी विदित हुई है। वाल्मीकाश्रम वैसा पुण्य-स्थान है॥ अत: वहाँ ही विदेहजा को भेजिए। वह है शान्त, सुरक्षित, सुकृति-निधन है॥58॥ किन्तु आपसे यह विशेष अनुरोध है। सब बातें कान्ता को बतला दीजिए॥ स्वयं कहेगी वह पतिप्राणा आप से। लोकाराधन में विलंब मत कीजिए॥59॥ सती-शिरोमणि पति-परायणा पूत-धी। वह देवी है दिव्य-भूतियों से भरी॥ है उदारतामयी सुचरिता सद्व्रता। जनक-सुता है परम-पुनीता सुरसरी॥60॥ जो हित-साधन होता हो पति-देव का। पिसे न जनता, जो न तिरस्कृत हों कृती॥ तो संसृति में है वह संकट कौन सा। जिसे नहीं सह सकती है ललना सती॥61॥ प्रियतम के अनुराग-राग में रँग गए। रहती जिसके मंजुल-मुख की लालिमा॥ सिता-समुज्ज्वल उसकी महती कीर्ति में। वह देखेगी कैसे लगती कालिमा॥62॥ अवलोकेगी अनुत्फुल्ल वह क्यों उसे। जिस मुख को विकसित विलोकती थी सदा॥ देखेगी वह क्यों पति-जीवन का असुख। जो उत्सर्गी-कृत-जीवन थी सर्वदा॥63॥ दोहा सुन बातें गुरुदेव की, सुखित हुए श्रीराम। आज्ञा मानी, ली विदा, सविनय किया प्रणाम॥64॥
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