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वैदेही-वनवास
मंगल यात्रा अवध पुरी आज सज्जिता है। बनी हुई दिव्य-सुन्दरी है॥ विहँस रही है विकास पाकर। अटा अटा में छटा भरी है॥1॥ दमक रहा है नगर, नागरिक। प्रवाह में मोद के बहे हैं॥ गली-गली है गयी सँवारी। चमक रहे चारु चौरहे हैं॥2॥ बना राज-पथ परम-रुचिर है। विमुग्ध है स्वच्छता बनाती॥ विभूति उसकी विचित्रता से। विचित्र है रंगतें दिखाती॥3॥ सजल-कलस कान्त-पल्लवों से। बने हुए द्वार थे फबीले॥ सु-छबि मिले छबि निकेतनों की। हुए सभी-सद्य छबीले॥4॥ खिले हुए फूल से लसे थल। ललामता को लुभा रहे थे॥ सुतोरणों के हरे-भरे-दल। हरा भरा चित बना रहे थे॥5॥ गड़े हुए स्तंभ कदलियों के। दलावली छबि दिखा रहे थे॥ सुदृश्य-सौन्दर्य-पट्टिका पर। सुकीर्ति अपनी लिखा रहे थे॥6॥ प्रदीप जो थे लसे कलस पर। मिली उन्हें भूरि दिव्यता थी॥ पसार कर रवि उन्हें परसता। उन्हें चूमती दिवा-विभा थी॥7॥ नगर गृहों मन्दिरों मठों पर। लगी हुई सज्जिता ध्वजाएँ॥ समीर से केलि कर रही थीं। उठा-उठा भूयसी भुजायें॥8॥ सजे हुए राज-मन्दिरों पर। लगी पताका विलस रही थी॥ जटित रत्नचय विकास के मिस। चुरा-चुरा चित्त हँस रही थी॥9॥ न तोरणों पर न मंच पर ही। अनेक-वादित्र बज रहे थे॥ जहाँ तहाँ उच्च-भूमि पर भी। नवल-नगारे गरज रहे थे॥10॥ न गेह में ही कुलांगनायें। अपूर्व कल-कंठता दिखातीं॥ कहीं-कहीं अन्य-गायिका भी। बड़ा-मधुर गान थी सुनाती॥11॥ अनेक-मैदान मंजु बन कर। अपूर्व थे मंजुता दिखाते॥ सजावटों से अतीव सज कर। किसे नहीं मुग्ध थे बनाते॥12॥ तने रहे जो वितान उनमें। विचित्र उनकी विभूतियाँ थीं॥ सदैव उनमें सुगायकों की। विराजती मंजु-मूर्तियाँ थीं॥13॥ बनी ठनी थीं समस्त-नावें। विनोद-मग्ना सरयू-सरी थी॥ प्रवाह में वीचि मध्य मोहक। उमंग की मत्तता भरी थी॥14॥ हरे-भरे तरु-समूह से हो। समस्त उद्यान थे विलसते॥ लसी लता से ललामता ले। विकच-कुसुम-व्याज थे विहँसते॥15॥ मनोज्ञ मोहक पवित्रतामय। बने विबुध के विधान से थे॥ समस्त-देवायतन अधिकतर। स्वरित बने सामगान से थे॥16॥ प्रमोद से मत्त आज सब थे। न पा सका कौन-कंठ पिकता॥ सकल नगर मध्य व्यापिता थी। मनोमयी मंजु मांगलिकता॥17॥ दिनेश अनुराग-राग में रँग। नभांक में जगमगा रहे थे॥ उमंग में भर बिहंग तरु पर। बड़े-मधुर गीत गा रहे थे॥18॥ इसी समय दिव्य-राज-मन्दिर। ध्वनित हुआ वेद-मन्त्र द्वारा॥ हुईं सकल-मांगलिक क्रियायें। बही रगों में पुनीत-धरा॥19॥ क्रियान्त में चल गयंद-गति से। विदेहजा द्वार पर पधारीं॥ बजी बधाई मधुर स्वरों से। सुकीर्ति ने आरती उतारी॥20॥ खड़ा हुआ सामने सुरथ था। सजा हुआ देवयान जैसा॥ उसे सती ने विलोक सोचा। प्रयाण में अब विलम्ब कैसा॥21॥ वसिष्ठ देवादि को विनय से। प्रणाम कर कान्त पास आई॥ इसी समय नन्दिनी जनक की। अतीव-विह्वल हुई दिखाई॥22॥ परन्तु तत्काल ही सँभल कर। निदेश माँगा विनम्र बन के॥ परन्तु करते पदाब्ज-वन्दन। विविध बने भाव वर-वदन के॥23॥ कमल-नयन राम ने कमल से- मृदुल करों से पकड़ प्रिया-कर॥ दिखा हृदय-प्रेम की प्रवणता। उन्हें बिठाला मनोज्ञ रथ पर॥24॥ उचित जगह पर विदेहजा को। विराजती जब बिलोक पाया॥ सवार सौमित्र भी हुए तब। सुमित्र ने यान को चलाया॥25॥ बजे मधुर-वाद्य तोरणों पर। सुगान होता हुआ सुनाया॥ हुए विविध मंगलाचरण भी। सजल-कलस सामने दिखाया॥26॥ निकल सकल राज-तोरणों से। पहुँच गया यान जब वहाँ पर॥ जहाँ खड़ी थी अपार-जनता। सजी सड़क पर प्रफुल्ल होकर॥27॥ बड़ी हुई तब प्रसून-वर्षा। पतिव्रता जय गयी बुलाई॥ सविधि गयी आरती उतारी। बड़ी धूम से बजी बधाई॥28॥ खड़ी द्वार पर कुलांगनाएँ। रहीं मांगलिक-गान सुनाती॥ विनम्र हो हो पसार अंचल। रहीं राजकुल कुशल मनाती॥29॥ शनै: शनै: मंजुराज-पथ पर। चला जा रहा था मनोज्ञ रथ॥ अजस्र जयनाद हो रहा था। बरस रहा फूल था यथातथ॥30॥ निमग्न आनन्द में नगर था। बनीं सुमनमय अनेक-सड़कें॥ थके न कर आरती उतारे। दिखे दिव्यता थकीं न ललकें॥31॥ नगर हुआ जब समाप्त सिय ने। तुरन्त सौमित्र को विलोका॥ सुमित्र ने भाव को समझकर। सम्भाल ली रास यान रोका॥32॥ उतर सुमित्र-कुमार रथ से। अपार-जनता समीप आये॥ कहा कृपा है महान जो यों। कृपाधिकारी गये बनाए॥33॥ अनुष्ठिता मांगलिक सुयात्रा। भला न क्यों सिध्दि को बरेगी॥ समस्त-जनता प्रफुल्ल हो जो। अपूर्व-शुभ-कामना करेगी॥34॥ कृपा दिखा आप लोग आये। कुशल मनाया, हितैषिता की॥ विविध मांगलिक-विधान द्वारा। समर्चना की दिवांगना की॥35॥ हुईं कृतज्ञा-अतीव आर्य्या। विशेष हैं धन्यवाद देती॥ विनय यही है बढ़ें न आगे। विराम क्यों है ललक न लेती॥36॥ बहुत दूर आ गये ठहरिये। न कीजिए आप लोग अब श्रम॥ सुखित न होंगी कदापि आर्य्या। न जाएँगे आप लोग जो थम॥37॥ कृपा करें आप लोग जायें। विनम्र हो ईश से मनावें॥ प्रसव करें पुत्र-रत्न आर्य्या। मयंक नभ-अंक में उगावें॥38॥ सुने सुमित्र-कुमार बातें। दिशा हुई जय-निनाद भरिता॥ बही उरों में सकल-जनों के। तरंगिता बन विनोद-सरिता॥39॥ पुन: सुनाई पड़ा राजकुल। सदा कमल सा खिला दिखावे॥ यथा-शीघ्र फिर अवध धाम में। वन्दनीयतम-पद पड़ पावे॥40॥ चला वेग से अपूर्व स्यंदन। चली गयी यत्र तत्र जनता॥ विचार-मग्न हुईं जनकजा। बड़ी विषम थी विषय-गहनता॥41॥ कभी सुमित्र-सुअन ऊबकर। वदन जनकजा का विलोकते॥ कभी दिखाते नितान्त-चिन्तित। कभी विलोचन-वारि रोकते॥42॥ चला जा रहा दिव्य यान था। अजस्र था टाप-रव सुनाता॥ सकल-घण्टियाँ निनाद रत थीं। कभी चक्र घर्घरित जनाता॥43॥ हरे भरे खेत सामने आ। भभर, रहे भागते जनाते॥ विविध रम्य आराम-भूरि-तरु। पंक्ति-बध्द थे खड़े दिखाते॥44॥ कहीं पास के जलाशयों से। विहंग उड़ प्राण थे बचाते॥ लगा-लगा व्योम-मध्य चक्कर। अतीव-कोलाहल थे मचाते॥45॥ कहीं चर रहे पशु विलोक रथ। चौंक-चौंक कर थे घबराते॥ उठा-उठा कर स्वकीय पूँछें। इधर-उधर दौड़ते दिखाते॥46॥ कभी पथ-गता ग्राम-नारियाँ गयंद-गतिता रहीं दिखाती॥ रथाधिरूढ़ा कुलांगना की। विमुग्ध वर-मूर्ति थी बनाती॥47॥ कनक-कान्ति, कोशल-कुमार का। दिव्य-रूप सौन्दर्य्य-निकेतन॥ विलोक किस पांथ का न बनता। प्रफुल्ल अंभोज सा विकच मन॥48॥ अधीर-सौमित्र को विलोके। कहा धीर-धर धरांगजा ने॥ बड़ी व्यथा हो रही मुझे है। अवश्य है जी नहीं ठिकाने॥49॥ परन्तु कर्तव्य है न भूला। कभी उसे भूल मैं न दूँगी॥ नहीं सकी मैं निबाह निज व्रत। कभी नहीं यह कलंक लूँगी॥50॥ विषम समस्या सदन विश्व है। विचित्र है सृष्टि कृत्य सारा॥ तथापि विष-कण्ठ-शीश पर है। प्रवाहिता स्वर्ग-वारि-धरा॥51॥ राहु केतु हैं जहाँ व्योम में। जिन्हें पाप ही पसन्द आया॥ वहीं दिखाती सुधांशुता है। वहीं सहस्रांशु जगमगाया॥52॥ द्रवण शील है स्नेह सिंधु है। हृदय सरस से सरस दिखाया॥ परन्तु है त्याग-शील भी वह। उसे न कब पूत-भाव भाया॥53॥ स्वलाभ तज लोक-लाभ-साधन। विपत्ति में भी प्रफुल्ल रहना॥ परार्थ करना न स्वार्थ-चिन्ता। स्वधर्म-रक्षार्थ क्लेश सहना॥54॥ मनुष्यता है करणीय कृत्य है। अपूर्व-नैतिकता का विलास है॥ प्रयास है भौतिकता विनाश का। नरत्व-उन्मेष-क्रिया-विकास है॥55॥ विचार पतिदेव का यही है। उन्हें यही नीति है रिझाती॥ अशान्त भव में यही रही है। सदा शान्ति का स्रोत बहाती॥56॥ उसे भला भूल क्यों सकूँगी। यही ध्येय आजन्म रहा है॥ परम-धन्य है वह पुनीत थल। जहाँ सुरसरी सलिल बहा है॥57॥ विलोक ऑंखें मयंक-मुख को। रही सुधा-पान नित्य करती॥ बनी चकोरी अतृप्त रहकर। रहीं प्रचुर-चाव साथ भरती॥58॥ किसी दिवस यदि न देख पातीं। अपार आकुल बनी दिखातीं॥ विलोकतीं पंथ उत्सुका हो। ललक-ललक काल थीं बिताती॥59॥ बहा-बहा वारि जो विरह में। बनें ए नयन वारिवाह से॥ बार-बार बहु व्यथित हुए, जो। हृदय विकम्पित रहे आह से॥60॥ विचित्रता तो भला कौन है। स्वभाव का यह स्वभाव ही है॥ कब न वारि बरसे पयोद बन। समुद्र की ओर सरि बही है॥61॥ वियोग का काल है अनिश्चित। व्यथा-कथा वेदनामयी है॥ बहु-गुणावली रूप-माधुरी। रोम-रोम में रमी हुई है॥62॥ अत: रहूँगी वियोगिनी मैं। नेत्र वारि के मीन बनेंगे॥ किन्तु दृष्टि रख लोक-लाभ पर। सुकीर्ति-मुक्तावली जनेंगे॥63॥ सरस सुधा सी भरी उक्ति के। नितान्त-लोलुप श्रवण रहेंगे॥ किन्तु चाव से उसे सुनेंगे। भले-भाव जो भली कहेंगे॥64॥ हृदय हमारा व्यथित बनेगा। स्वभावत: वेदना सहेगा॥ अतीव-आतुर दिखा पड़ेगा। नितान्त-उत्सुक कभी रहेगा॥65॥ कभी आह ऑंधियाँ उठेंगी। कभी विकलता-घटा घिरेगी॥ दिखा चमक चौंक-व्याज उसमें। कभी कुचिन्ता-चपला फिरेगी॥66॥ परन्तु होगा न वह प्रवंचित। कदापि गन्तव्य पुण्य-पथ से॥ कभी नहीं भ्रान्त हो गिरेगा। स्वधर्म-आधार दिव्य रथ से॥67॥ सदा करेगा हित सर्व-भूत का। न लोक आराधन को तजेगा॥ प्रणय-मूर्ति के लिए मुग्ध हो। आर्त-चित्त आरती सजेगा॥68॥ अवश्य सुख वासना मनुज को। सदा अधिक श्रान्त है बनाती॥ पड़े स्वार्थ-अंधता तिमिर में। न लोक हित-मूर्ति है दिखाती॥69॥ कहाँ हुआ है उबार किसका। सदा सभी की हुई हार है॥ अपार-संसार वारिनिधि में। आत्मसुख भँवर दुर्निवार है॥70॥ बड़े-बड़े पूज्य-जन जिन्होंने। गिना स्वार्थ को सदैव सिकता॥ न रोक पाए प्रकृति प्रकृति को। न त्याग पाये स्वाभाविकता॥71॥ चौपदे मैं अबला हूँ आत्मसुखों की। प्रबल लालसाएँ प्रतिदिन आ॥ मुझे सताती रहती हैं जो। तो इसमें है विचित्रता क्या॥72॥ किन्तु सुनो सुत जिस पति-पद की। पूजा कर मैंने यह जाना॥ आत्मसुखों से आत्मत्याग ही। सुफलद अधिक गया है माना॥73॥ उसी पूत-पद-पोत सहारे। विरह-उदधि को पार करूँगी॥ विधु-सुन्दर वर-वदन ध्यान कर। सारा अन्तर-तिमिर हरूँगी॥74॥ सर्वोत्तम साधन है उर में। भव-हित पूत-भाव का भरना॥ स्वाभाविक-सुख-लिप्साओं को। विश्व-प्रेम में परिणत करना॥75॥ दोहा इतना सुन सौमित्रा की दूर हुई दुख-दाह। देखा सिय ने सामने सरि-गोमती-प्रवाह॥76॥
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