दाग़
देहलवी
ग़ज़ल
क्यों चुराते हो देखकर आँखें
कर चुकीं मेरे दिल में घर आँखें
ज़ौफ़ से कुछ नज़र नहीं आता
कर रही हैं डगर-डगर आँखें
चश्मे-नरगिस को देख लें फिर हम
तुम दिखा दो जो इक नज़र आँखें
कोई आसान है तेरा दीदार
पहले बनवाए तो बशर आँखें
न गई ताक-झाँक की आदत
लिए फिरती हैं दर-ब-दर आँखें
ख़ाक पर क्यों हो नक्शे-पा तेरा
हम बिछाएँ ज़मीन पर आँखें
नोहागर कौन है मुक़द्दर पर
रोने वालों में हैं मगर आँखें
दाग़ आँखें निकालते हैं वो
उनको दे दो निकाल कर आँखें
ग़ज़ल
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आप का ईमान तो गया
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें रही एहसान तो गया
अफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो जिल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया, जान तो गया
देखा है बुतकदे में जो ऐ शेख कुछ न पूछ
ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया
डरता हूँ देख कर दिल-ए-बेआरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया
क्या आई राहत आई जो कुंज-ए-मज़ार में
वो वलवला वो शौक़ वो अरमान तो गया
गो नामाबर से कुछ न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया
बज़्म-ए-उदू में सूरत-ए-परवाना मेरा दिल
गो रश्क़ से जला तेरे क़ुर्बान तो गया
होश-ओ-हवास-ओ-ताब-ओ-तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया
ग़ज़ल
ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाए हम
दिल ख़ून में नहाए तो गंगा नहाए हम
जन्नत में जाए हम कि जहन्नुम में जाए हम
मिल जाए तू कहीं न कहीं तुझ को पाए हम
मुमकिन है ये कि वादे पे अपने वो आ भी जाए
मुश्किल ये है कि आप में उस वक्त आए हम
नराज़ हो ख़ुदा तो करें बन्दगी से ख़ुश
माशूक़ रूठ जाए तो क्यों कर मनाए हम
सर दोस्तों के काट कर रक्खे हैं सामने
ग़ैरों से पूछते है कसम किस की खाए हम
सौंपा तुम्हें ख़ुदा को चले हम तो नामुराद
कुछ पढ़ के बख्शना जो कभी याद आए हम
ये जान तुम न लोगे अगर, आप जाएगी
इस बेवफ़ा की ख़ैर कहां तक मनाए हम
हम-साए जागते रहे नालों से रात भर
सोए हुए नसीब को क्यों कर जगाए हम
तू भूलने की चीज़ नहीं ख़ूब याद रख
ऐ 'दाग़' किस तरह तुझे दिल से भुलाए हम
ग़ज़ल
दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें
जानेवाली चीज़ का ग़म क्या करें
पूरे होंगे अपने अरमां किस तरह
शौक़ बेहद वक्त है कम क्या करें
बख्श दें प्यार की गुस्ताख़ियां
दिल ही क़ाबू में नहीं हम क्या करें
तुंद ख़ू है कब सुने वो दिल की बात
ओर भी बरहम को बरहम क्या करें
एक सागर पर है अपनी जिन्दगी
रफ्ता- रफ्ता इस से भी कम क्या करें
कर चुको सब अपनी-अपनी हिकमतें
दम निकलता है ऐ मेरे हमदम क्या करें
दिल ने सीखा शेवा-ए-बेगानगी
ऐसे नामुहिरम को मुहिरम क्या करें
मामला है आज हुस्न-ओ-इश्क़ का
देखिए वो क्या करें हम क्या करें
कह रहे हैं अहल-ए-सिफ़ारिश मुझसे 'दाग़'
तेरी किस्मत है बुरी हम क्या करें
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ग़ज़ल
ज़बाँ हिलाओ तो हो जाए,फ़ैसला दिल का
अब आ चुका है लबों पर मुआमला दिल का
किसी से क्या हो तपिश में मुक़ाबला दिल का
जिगर को आँख दिखाता है आबला दिल का
कुसूर तेरी निगाह का है क्या खता उसकी
लगावटों ने बढ़ाया है हौसला दिल का
शबाब आते ही ऐ काश मौत भी आती
उभरता है इसी सिन में वलवला दिल का
निगाहे-मस्त को तुम होशियार कर देना
ये कोई खेल नहीं है मुक़ाबिला दिल का
हमारी आँख में भी अश्क़े-गर्म ऐसे हैं
कि जिनके आगे भरे पानी आबला दिल का
अगरचे जान पे बन-बन गई मुहब्बत में
किसी के मुँह पे न रक्खा मुआमला दिल का
करूँ तो दावरे-महशर के सामने फ़रियाद
तुझी को सौंप न दे वो मुआमला दिल का
कुछ और भी तुझे ऐ `दाग़' बात आती है
वही बुतों की शिकायत वही गिला दिल का
ग़ज़ल
डरते हैं चश्म-ओ-ज़ुल्फ़, निगाह-ओ-अदा से हम
हर दम पनाह माँगते हैं हर बला से हम
माशूक़ जाए हूर मिले, मय बजाए आब
महशर में दो सवाल करेंगे ख़ुदा से हम
गो हाल-ए-दिल छुपाते हैं पर इस को क्या करें
आते हैं ख़ुद ख़ुद नज़र इक मुबतला से हम
देखें तो पहले कौन मिटे उसकी राह में
बैठे हैं शर्त बाँध के हर नक्श-ए-पा से हम
ग़ज़ल
दर्द बन के दिल में आना , कोई तुम से सीख जाए
जान-ए-आशिक़ हो के जाना , कोई तुम से सीख जाए
हमसुख़न पर रूठ जाना , कोई तुम से सीख जाए
रूठ कर फिर मुस्कुराना, कोई तुम से सीख जाए
वस्ल की शबचश्म-ए-ख़्वाब-आलूदा के मलते उठे
सोते फ़ित्ने को जगाना,कोई तुम से सीख जाए
कोई सीखे ख़ाकसारी की रविश तो हम सिखाएँ
ख़ाक में दिल को मिलाना,कोई तुम से सीख जाए
आते-जाते यूँ तो देखे हैं हज़ारों ख़ुश-ख़राम
दिल में आकर दिल से जाना,कोई तुम से सीख जाए
इक निगाह-ए-लुत्फ़ पर लाखों दुआएँ मिल गयीं
उम्र को अपनी बढ़ाना,कोई तुम से सीख जाए
जान से मारा उसे, तन्हा जहाँ पाया जिसे
बेकसी में काम आना ,कोई तुम से सीख जाए
क्या सिखाएगा ज़माने को फ़लत तर्ज़-ए-ज़फ़ा
अब तुम्हारा है ज़माना,कोई तुम से सीख जाए
महव-ए-बेख़ुद हो, नहीं कुछ दुनियादारी की ख़बर
दाग़ ऐसा दिल लगाना,कोई तुम से सीख जाए
ग़ज़ल
दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने
क्यों है ऐसा उदास क्या जाने
कह दिया मैं ने हाल-ए-दिल अपना
इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने
जानते जानते ही जानेगा
मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने
तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा
जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने
ग़ज़ल
न जाओ हाल-ए-दिल-ए-ज़ार देखते जाओ
कि जी न चाहे तो नाचार देखते जाओ
बहार-ए-उमर् में बाग़-ए-जहाँ की सैर करो
खिला हुआ है ये गुलज़ार देखते जाओ
उठाओ आँख, न शरमाओ ,ये तो महिफ़ल है
ग़ज़ब से जानिब-ए-अग़यार देखते जाओ
हुआ है क्या अभी हंगामा अभी कुछ होगा
फ़ुगां में हश्र के आसार देखते जाओ
तुम्हारी आँख मेरे दिल से बेसबब-बेवजह
हुई है लड़ने को तय्यार देखते जाओ
न जाओ बंद किए आँख रहरवान-ए-अदम
इधर-उधर भी ख़बरदार देखते जाओ
कोई न कोई हर इक शेर में है बात ज़रूर
जनाबे-दाग़ के अशआर देखते जाओ
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